अनमोल जल


सुबह हो चुकी थी। सिरहाने रखा पानी से भरा जग उठाकर पानीराम जाने लगा। मां ने टोक दिया ‘रुक बेटे, मैं इसे फेंककर दूसरा पानी ला देती हूं तेरे पीने के लिए।’ पानी वापस लौटते हुए बोला- ‘नहीं अम्मा, इसे फेकूंगा नहीं। इसे ही पीऊंगा, इसमें क्या खराबी है? अब मेरी आंखें खुल गई हैं अब कोई फिजूलखर्ची नहीं सचमुच पानी का कोई मोल नहीं।’ पानीराम की एक गंदी आदत थी की वह पानी के बेतहाशा फिजूलखर्ची करता था। मां गाहे-बगाहे टोक देती और जल के किफायतीपूर्ण इस्तेमाल के बारे में उपदेश देने लगती लेकिन वह कभी शर्म के मारे पानी-पानी नहीं होता। इसके विपरीत उसका तर्क होता - मेरा नाम पानीराम है, पानीदेव मेरे इस्ट हैं, मुझे पानी की कमी कभी नहीं होगी। पानी का पानीराम भरपूर उपयोग नहीं करेगा तो कौन करेगा?

मां की चेतावनी का उस पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। वह दोहरा देता- ‘अम्मा, पानी की कोई कमी है क्या तुम बेकार डराती हो, कितना पानी बरसता है हर साल। ईश्वर ने जितने प्राणियों को धरती पर भेजा है उनके लिए पानी का प्रबंध भी अवश्य किया होगा।’

एक सुबह जब पौ फट रही थी तब मां ने पानीराम के चीखने की आवाज सुनी। हाथ का काम छोड़ वह लगभग दौड़ते हुए उसके पास पहुंच गई जहां बिस्तर पर पड़ा पानीराम टुकुर-टुकुर यहां-वहां ताक रहा था। उसके माथे पर पसीना छलक रहा था और चेहरे पर भय के भाव विद्यमान थे। मां ने स्नेहपूर्वक उसके सिर को सहलाते हुए पूछा - ‘क्या बात है बेटे, यह पानी-पानी क्यों चिल्ला रहे थे?’ पानीराम ने गर्दन हिलाते स्वीकारा - ‘हां मां, सपना था।’

‘क्या देखा बेटे?’ मां ने उत्सुकता प्रकट की। पानीराम उठकर बैठ गया और मां से भी पलंग पर बैठने को कहा।

मैने देखा - ‘मैं बियाबान मरुस्थल में अकेला चला जा रहा हूं। यकायक जोर की आंधी आई, रेत मेरी आंखों में घुसने लगी और मैं जान बचाने दौड़ता भागता एक गुफा के अंदर जाकर फंस गया। उस गुफा से निकलने का कोई मार्ग नहीं था। मेरी जेब में खाने के लिए कुछ बिस्किट अवश्य थे पर पीने के लिए एक बूंद भी पानी नहीं था।’

प्यास के मारे प्राण हलक में आने लगे। बेचैनीपूर्वक टोह लेते हुए मैैंने थोड़ी दूर पर एक कंकाल पड़ा हुआ देखा। उसके समीप एक कागज पड़ा था जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था - ‘कोई मेरी प्यास बुझा दे तो मैं उसे अपनी आधी संपति दे दूंगा पर अफसोस मुझे लगता है प्यासा ही मरना पड़ेगा। जो पानी जीवनदाता है उसका अभाव मृत्यु भी दे सकता है- सचमुच पानी अनमोल बेशकीतमी है।’

इतना कहकर पानीराम चुप हो गया। मां ने सिर पर हाथ फेरते सांत्वना दी, मानों कह रही हो ‘चलो कोई बात नहीं, सपना ही था।’

सुबह हो चुकी थी। सिरहाने रखा पानी से भरा जग उठाकर पानीराम जाने लगा। मां ने टोक दिया ‘रुक बेटे, मैं इसे फेंककर दूसरा पानी ला देती हूं तेरे पीने के लिए।’ पानी वापस लौटते हुए बोला- ‘नहीं अम्मा, इसे फेकूंगा नहीं। इसे ही पीऊंगा, इसमें क्या खराबी है? अब मेरी आंखें खुल गई हैं अब कोई फिजूलखर्ची नहीं सचमुच पानी का कोई मोल नहीं।’

पानीराम में आई अक्ल देखकर आश्वस्त मां चैन का श्वास लेकर मुस्करा उठी।

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