खेती-बाड़ी का काम लगातार जटिल होता जा रहा है। इसे देखते हुए आधुनिक टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की जानकारी देना और सूचना व्यवस्था को कुशल बनाना आवश्यक हो गया है। इसके लिए एक उपयुक्त कृषि प्रसार सेवा बनाई जानी चाहिए जो किसानों, प्रसार-कार्यकर्ताओं और शोधकार्य में लगे वैज्ञानिकों के बीच ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर सूचनाओं का आदान-प्रदान बढ़ाए ताकि आर्थिक और पारिस्थितिकी की दृष्टि से उपयुक्त कृषि की पद्धतियाँ विकसित की जा सकें।
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। देश की 65 प्रतिशत आबादी खेती-बाड़ी में लगी है। सकल घरेलू उत्पादन में कृषि क्षेत्र का योगदान 28 प्रतिशत है। पिछले चार दशकों में कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 1950-51 में अनाज उत्पादन पाँच करोड़ 10 लाख टन हो गया जो 1995-96 में बढ़कर 19 करोड़ 90 लाख टन हो गया। इससे न केवल देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हुआ है बल्कि दो करोड़ टन का सुरक्षित भंडार भी बनाया जा सका है। मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर तिलहनों के उत्पादन में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। अब खली, हल्के तेल और ऑयलमील का निर्यात मूल्य खाद्य तेलों के आयात पर किसी भी समय खर्च किए गए धन का दुगुना है। भारत फल, सब्जी दूध, अंडा और मछली के उत्पादन में दुनिया के अग्रणी देशों में गिना जाने लगा है।इन चार दशकों में अनाज उत्पादन की अभूतपूर्व वृद्धि में नीति-नियोजन और वैज्ञानिक अनुसंधान तथा तकनीकी विकास की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। स्वाधीनता के बाद पचास के दशक में किसानों को शोषणकारी व्यवस्था से मुक्ति दिलाई गई, खेतिहरों को खेत का मालिकाना हक दिया गया, सिंचाई और रासायनिक उर्वरकों के क्षेत्र में पूँजीनिवेश करके देश में आधुनिक खेती की आधारशिला रखी गई। साठ और सत्तर के दशक में बीज, खाद, सिंचाई और पादप-संरक्षण टेक्नोलॉजी के उत्पादन, विकास और प्रयोग में व्यापक वृद्धि हुई। इससे देश में हरित क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। सूखा-प्रभावित और वर्षा-आश्रित क्षेत्रों में कृषि विकास के लिए भी कार्यक्रम शुरू किए गए। इस तरह अनाज उत्पादन के मामले में पहली बार स्थायित्व और आत्मनिर्भरता पैदा हुई। साथ-साथ ग्रामीण रोजगार और गरीबी दूर करने के कार्यक्रम भी शुरू हुए। दुग्ध उत्पादन, कुक्कुटशाला, सूअर और मछली पालन तथा बागवानी विकास के प्रयास भी तेज किए गए तथा अन्य क्षेत्रों में भी सुधार कार्यक्रम लागू किए गए।
हरित क्रान्ति को ठोस बनाने की प्रक्रिया पिछले और इस दशक में भी जारी रही। साथ-साथ दलहन और तिलहन उत्पादन, कीटनाशक दवाओं के विकास, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और उनके अनुकूलतम प्रयोग के बारे में भी शोध और विकास कार्यों को तेज किया गया। लघु और सीमांत किसानों, कृषि मजदूरों, ग्रामीण दस्तकारों और अन्य कमजोर वर्गों के लोगों तथा ग्रामीण महिलाओं के कल्याण को ध्यान में रखकर ग्रामीण विकास के लिए अनेक समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम भी चलते रहे। इनके परिणाम उत्साहवर्द्धक रहे और धीरे-धीरे गरीबों की संख्या कम हुई। वर्तमान दशक में उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ पारिस्थितिकीय सन्तुलन का मुद्दा भी प्रमुख हो गया है।
अनाज उत्पादन में शानदार कामयाबी के बावजूद अभी कृषि विकास की सम्भावनाओं का पूरा फायदा नहीं उठाया जा सका है। उत्पादन की सम्भावना तथा वास्तविक उत्पादन स्तर और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के मामले में अभी काफी अंतर है। इस कारण ज्यादातर अनाजों के उत्पादन का राष्ट्रीय औसत कम है। गरीबी के बोझ तले दबी 20 प्रतिशत आबादी को अब भी पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता और लोग कुपोषण के शिकार हैं।
जब तक जनसंख्या वृद्धि नहीं रुकती, तब तक अनाज की मांग बढ़ती रहेगी। जनसंख्या वृद्धि की वर्तमान दर के आधार पर सन 2000 तक 22 करोड़ 50 लाख टन अनाज की आवश्यकता होगी। यह लक्ष्य आसान नहीं है क्योंकि उत्पादन तेजी से बढ़ाने की पहले जैसी परिस्थितियाँ अब नहीं हैं। खाद, बीज आदि के प्रयोग का प्रतिफल घट रहा है। कई क्षेत्रों में प्रमुख फसलों का उत्पादन अपने चरम पर पहुँच गया है। संसाधनों का आधार भी तेजी से सिकुड़ता जा रहा है।
इस शताब्दी के अंत और उसके बाद के वर्षों में देश में कृषि विकास का रास्ता न केवल अनाज उत्पादन बढ़ाने और कुपोषण दूर करने की विवशता से तय होगा बल्कि इसके समक्ष पर्यावरण संरक्षण, उत्पादन की निरंतरता बनाए रखने, लाभ और निर्यात बढ़ाने का भी लक्ष्य होगा। नए विश्व व्यापार समझौते और घरेलू अर्थव्यवस्था के उदारीकरण तथा इसके विश्व बाजार के साथ जुड़ने से कृषि उत्पादन के क्षेत्र में कार्यकुशलता बढ़ाने तथा इसे अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने की आवश्यकता है। आने वाले वर्षों में कृषि को पारिस्थितिकी, जलवायु, आर्थिक समानता, सामाजिक न्याय, ऊर्जा और रोजगार के क्षेत्र में बदलती चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ेगा। अनुमान है कि सन 2025 तक देश की पचास प्रतिशत जनसंख्या शहरों में रह रही होगी और उसकी आवश्यकता की पूर्ति के लिए खाद्यान्न उत्पादन के वर्तमान स्वरूप में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने होंगे।
खाद्यान्न आपूर्ति के अलावा अब समग्र आर्थिक विकास, रोजगार सृजन गरीबी निवारण खाद्य सुरक्षा और निरन्तर विकास में कृषि के महत्व के प्रति जागरुकता बढ़ रही है। भारत में कृषि विकास के बिना समग्र आर्थिक विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। स्वाधीनता के पहले तीन दशकों में खाद्य सुरक्षा की प्रमुख चुनौती अनाज का उत्पादन बढ़ाना था लेकिन आज समस्या लोगों की अनाज खरीदने की आर्थिक शक्ति बढ़ाने की है। क्रयशक्ति का अभाव कुपोषण का मुख्य कारण बन गया है। अगली शताब्दी में अनाज उत्पादन की पारिस्थितिकीय लागत प्रमुख महत्व का विषय बनने जा रही है क्योंकि उत्पादन की प्रक्रिया में जमीन, जंगल, नदियों और वातावरण को बहुत क्षति पहुँच रही है।
जनसंख्या वृद्धि दर, आय तथा औद्योगिक एवं अन्य कार्यों के लिए अनाज की मांग को देखते हुए अनुमान है कि नौवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक भारत को दो करोड़ 15 लाख टन अनाज की आवश्यकता होगी। इसके अलावा एक करोड़ टन का आपात भंडार बनाए रखने तथा सन 2002 तक 50 लाख टन अनाज के निर्यात के लक्ष्य को देखते हुए अनाज की कुल आवश्यकता दो करोड़ 30 लाख की होगी।
राष्ट्रीय एजेंडा
नौवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान आर्थिक समृद्धि के लिए कृषि उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों में निम्नलिखित प्रवृत्तियों को ध्यान में रखना होगा-
1. धान और गेहूँ जैसी प्रमुख फसलों की उपज का कम होना जबकि कुल उपज में इनका हिस्सा 73 प्रतिशत से अधिक है।
2. कई फसलों में नई प्रजातियों और संकर बीज प्रौद्योगिकी के अभाव में आनुवांशिकी विकास की गति धीमी होना।
3. वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में उपयुक्त तकनीकी अपनाने की आवश्यकता, क्योंकि ये क्षेत्र बड़े विविधतापूर्ण और जोखिम भरे हैं और देश में दो-तिहाई कृषि क्षेत्र ऐसा है।
4. दलहनों का आनुवांशिक उत्पादन स्तर बढ़ाने में कोई बड़ी तकनीकी सफलता न मिलना जिसके कारण पिछले 30 वर्षों से दलहन का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 550 किलोग्राम के औसत से एक करोड़ 30 लाख टन के स्तर पर बना हुआ है।
5. तिलहन उत्पादन में वृद्धि का तकनीक प्रेरित होने की जगह मुख्य रूप से फसल प्रबंध तरीकों और प्रोत्साहन आधारित क्षेत्र विस्तार पर आधारित होना।
6. रासायनिक उर्वरकों का असर कम होना, वह भी ऐसे समय जब इनके प्रयोग का सन्तुलन बिगड़ रहा है।
7. कीटों के कारण फसल क्षति की समस्या का जटिल होना और इसके कारण 25-30 प्रतिशत फसल का क्षतिग्रस्त होना। कीटनाशकों का अधिक प्रयोग महँगा होने के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए समस्याप्रद होना।
8. पशुधन के क्षेत्र में उत्पादन संख्या बल पर आधारित होना न कि प्रति इकाई उत्पादन पर। इसके लिए पशुओं के चारे, उनके प्रजनन और प्रबंध के बारे में अनुसंधान तेज करने की आवश्यकता।
9. उत्पादन और लागत का अनुपात गिरने से खेती में लाभ लगातार कम होना।
10. पर्यावरण सुरक्षा तथा कृषि क्षेत्र में निरन्तर उत्पादकता की चिन्ताओं का बढ़ना तथा फसल पद्धतियों पर अनुसंधान की आवश्यकता।
11. निजी बीज और चारा उद्योग को विकसित करने के लिए नीतिगत उपायों की आवश्यकता।
12. भौतिक और आर्थिक संसाधनों के स्वामित्व में भारी असमानता के कारण आय बढ़ाने वाली तकनीकों तक असमान पहुँच।
13. कृृषि प्रसार प्रणालियों में आधारभूत और संगठनात्मक बाधाओं का होना जिससे प्रौद्योगिकी में सुधार, उसका अनुकूलन और पैकेजिंग तथा हस्तांतरण अच्छी तरह न हो पाना।
14. कृषि अनुसंधान और विकास में वास्तविक निवेश दर कम होना।
भारत अपने क्षेत्र के ऐसे देशों में है जहाँ अनाज उत्पादन जनसंख्या वृद्धि की दर के बराबर बना हुआ है। फिर भी ढील नहीं बरती जा सकती क्योंकि कुछ जिंसों के उत्पादन में 2.5 से 6 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि की आवश्यकता है। विभिन्न फसल उत्पादक क्षेत्रों में उपज का गिरना इस बात का संकेत है कि कृषि क्षेत्र बढ़ाकर उसी अनुपात में अनाज की पैदावार नहीं बढ़ाई जा सकती। सिंचाई के लिए पानी की कमी तथा मृदा-शक्ति का क्षरण भी हो रहा है। इससे कृषि उत्पादन का लक्ष्य प्राप्त करना बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य हो गया है।
इन लक्ष्यों को ऐसी परिस्थिति में प्राप्त करना है जबकि भू-संसाधन कम हो रहे हैं; उत्पादकता गिर रही है, खाद, बीज, पानी और कीटनाशकों की लागत बढ़ रही है; जैवविविधता नष्ट हो रही है; प्राकृतिक संसाधन कम हो रहे हैं; जलवायु बदल रही है; बौद्धिक सम्पदा अधिकार की शर्तें लागू हो रही हैं; अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में लागत और गुणवत्ता के मामले में प्रतिस्पर्धा तेज हो गयी है, आर्थिक असमानता बढ़ रही है, बुनियादी सुविधाओं में वास्तविक निवेश की वृद्धि दर घट रही है और जनसंख्या बढ़ रही है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद आई.सी.ए.आर. ने बड़े पैमाने पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रयोग से कृषि उत्पादन बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। परिषद के अनुसंधानों से प्राप्त उन्नत प्रजातियों और उत्पादन की नई-नई प्रौद्योगिकी से हरित क्रांति की उपलब्धियों का फायदा उठाने में बड़ी मदद मिली है। कृषि उत्पादन का स्तर ऊँचा करने में परिषद की राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणाली (एन.ए.आर.एस.) की प्रमुख भूमिका है। एन.ए.आर.एस. में आज 45 अनुसंधान संस्थान, चार ब्यूरो, 9 परियोजना निदेशालय, 30 राष्ट्रीय केन्द्र, 85 समन्वित परियोजनाएँ तथा 29 राज्य-स्तरीय कृषि विश्वविद्यालय शामिल हैं। इसमें 30,000 वैज्ञानिक कार्यरत हैं।
सभी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर नौवीं पंचवर्षीय परियोजना में निम्नलिखित लक्ष्य शामिल किए गए हैं:
-जैव विविधता का संरक्षण, नियोजित संवर्द्धन और उपयोग।
- संकर बीजों और ज्यादा उपज वाली प्रजातियों का इस्तेमाल करके उत्पादकता बढ़ाना।
विविधीकरण, गुणवत्ता सुधार, मड़ाई और भंडारण जैसी फसल बाद की तकनीकों, मूल्यवर्द्धन और निर्यातोन्मुख जिंसों के क्षेत्र में शोध तेज करना।
सिंचित क्षेत्रों में उपज का उच्च स्तर निरन्तर बनाये रखना और ऊर्जा, खासकर ऊर्जा के पुनर्प्रयोज्य स्रोतों का सम्यक विकास और उपयोग करना।
अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा आधारित खेती के लिए निरन्तर काम आने वाले भूमि प्रयोग के माॅडलों की पहचान और विकास।
- समन्वित कीट प्रबंध (आई.पी.एम.) तथा समन्वित पोषाहार प्रबंध प्रणाली (आई.एन.एम.एस.) का विकास, जो निरन्तर कृषि में सहायक हो।
- मौलिक और विशिष्ट महत्व के अनुसंधान को उत्तम बनाना।
- देश के विभिन्न क्षेत्रों, सामाजिक वर्गों और महिला-पुरुषों में समानता स्थापित करने में सहायक अनुसंधान और तकनीकी विकास को प्रोत्साहित करना।
- सामाजिक विज्ञान, नीति नियोजन, कृषि व्यापार, अनुसंधान नियन्त्रण प्रणाली, प्रशासनिक और कार्मिक सुधार, प्रकाशन तथा सूचना वितरण प्रणाली को सशक्त बनाना।
- कृषि अनुसंधान सूचना प्रणाली (ए.आर.आई.एस.) को मजबूत बनाना।
- कृषि मानव संसाधन विकास (ए.एच.आर.डी.) को प्रोत्साहित करना।
- संस्थान-ग्राम सम्पर्क कार्यक्रम (आईवीएलपी) के माध्यम से किसानों और वैज्ञानिकों का सम्पर्क बढ़ाना और इसे प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का आदर्श माॅडल बनाना।
- सी.जी.आई.ए.आर. और अन्य राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों, अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठानों, गैर-सरकारी संगठनों, कृषि संगठनों और निजी क्षेत्र की कम्पनियों के बीच सम्पर्क को संस्थागत आधार प्रदान करना और इनमें सहभागिता उत्पन्न करना।
- योजना, प्राथमिकता निर्धारण और समन्वय के साथ संसाधनों का अधिकतम उपयोग करना।
अपार सम्भावनाएँ
सूक्ष्म जैव विज्ञान, जैव रसायन, शरीर विज्ञान, विश्लेषण पद्धति, अंतरिक्ष विज्ञान और सूचना विज्ञान में तकनीकी क्रांति की अपार सम्भावनाएँ है। अन्तरराष्ट्रीय बाजारों का मार्ग भी खुला है। इस सबका लाभ उठाने की आवश्यकता है। भविष्य में कृषि अनुसंधानों के माध्यम से उत्पादन प्रणाली की निरन्तरता सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसका लक्ष्य कृषि प्रौद्योगिकी में सुधार करना भी होना चाहिए ताकि-
1. उत्पादन पद्धति हमारी विविधतापूर्ण जैव-भौतिकी और सामाजिक-आर्थिक दशाओं के अनुकूल हो।
2. अनुसंधान के माध्यम से कृषि में विविधता लाने के लिए गैर-परम्परागत पादप स्रोतों की खोज हो सके और खाद्यान्न, चारा और ईंधन का उत्पादन बढ़ सके।
3. समस्याओं के ऐसे समाधान निकाले जा सकें जो तकनीकी दृष्टि से अच्छे, आर्थिक रूप से व्यावहारिक, सामाजिक रूप से स्वीकार्य, पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल और प्रणाली के प्रति संवेदनशील हों।
4. खेती में जैव उर्वरकों और जैव-कीटनाशकों के प्रयोग को बढ़ावा मिले।
5. मिट्टी में पूरी तरह घुल-मिल जाने वाले बायोडिग्रेडेबल रसायनों का प्रयोग बढ़े।
6. आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर उत्पादन आधार मजबूत हो और ऐसी उपजाऊ प्रजातियाँ सामने आए जो जैव और अजैव विसंगतियों को झेलने में समर्थ हों।
7. ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों और भूमिहीनों को रोजगार के अवसर प्राप्त होें।
8. खेती-बाड़ी का काम करने वाली महिलाओं की कुशलता और उत्पादकता बढ़े।
9. प्रौद्योगिकी का व्यावहारिक मूल्यांकन हो सके तथा सामाजिक-विज्ञान अनुसंधान से कृषि विकास के बारे में हमारी जानकारी बढ़े।
10. जिंसों और जल्दी नष्ट होने वाली कृषि उपजों के दीर्घावधि भंडारण और ढुलाई आदि की उपयुक्त सुविधाओं और तकनीकों का विकास हो।
11. ऊर्जा की बचत करने वाली प्रणालियाँ विकसित हों।
रणनीति
1. भारत में अनाज की खेती वाला एक बड़ा भाग कम उपजाऊ है। मोटे अनाजों के मामले में कम उत्पादकता वाले क्षेत्र का हिस्सा 57 प्रतिशत और तिलहन के मामले में 92 प्रतिशत तक है। उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों के मुकाबले निम्न उत्पादकता वाले क्षेत्रों का उत्पादन करीब 40 प्रतिशत कम है। उदाहरण के लिए कम उत्पादकता वाले क्षेत्रों में धान और गेहूँ की प्रति हेक्टेयर उपज क्रमशः 2538 और 2032 किलोग्राम है जबकि उच्च उत्पादकता वाले उर्वर क्षेत्रों में यह 2867 और 3828 किलो प्रति हेक्टेयर है। धान के मामले में ऐसे 60 प्रतिशत क्षेत्र बिहार, असम, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश तथा गेहूँ के मामले में 68 प्रतिशत इलाका उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान में पड़ता है। कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश में बाजरे की खेती का 82 प्रतिशत क्षेत्र कम उपजाऊ है। सबसे मजे की बात तो यह है कि गेहूँ के मामले में कम उपज वाला 78 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित है। इसी तरह चावल के मामले में कम उत्पादकता वाला 32 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित है।
2. देश में 2 करोड़ 45 लाख हेक्टेयर बंजर और एक करोड़ 66 लाख हेक्टेयर परती भूमि है। मृदा प्रबंध, बंजर भूमि के लिए सही फसलों की पहचान, नमी संरक्षण उपाय, यथा सम्भव फसल जीवित रखने के लिए सिंचाई के थोड़े-मोड़े प्रबंध तथा परती जमीनों में उपलब्ध पानी के अनुरूप फसलों और प्रजातियों का चयन कर बंजर और परती भूमि के एक बड़े क्षेत्र में खेती की जा सकती है।
3. पूर्वी भारत के वर्षा पर निर्भर निचले इलाकों में करीब 80 लाख से एक करोड़ हेक्टेयर जमीन का अब तक बहुत कम उपयोग किया जा सका है।
पश्चिम बंगाल को छोड़ पूर्व के सभी राज्यों में केवल एक फसल की खेती होती है। अनुसंधान और विकास के माध्यम से उस क्षेत्र के बड़े हिस्से में एक से अधिक फसल की खेती की जा सकती है। बिहार, असम और उड़ीसा में दस लाख हेक्टेयर क्षेत्र तो ऐसा है जहाँ ठंड के मौसम के धान (बोडो-धान) की खेती आसानी से की जा सकती है।
4. दूर-दूर कतारों में बोई जाने वाली फसल के साथ कतारों के बीच जल्दी पकने वाली फसलों की खेती की विस्तृत सम्भावना है। जुड़वाँ कतार में रोपाई, बुआई और टपक सिंचाई सुविधा हो जाने से मुख्य फसल के साथ-साथ उसी खेत में जल्दी पकने वाली दलहन या तिलहन की एक और फसल की भरपूर सम्भावना है। दलहन और तिलहन का स्वतंत्र क्षेत्र बढ़ाने की गुंजाइश ज्यादा है। इसे देखते हुए उपरोक्त तरीके से कुछ वर्षों में दलहन-तिलहन का क्षेत्र एक करोड़ 20 हेक्टेयर तक बढ़ाया जा सकता है।
5. वर्षा के पानी के संरक्षण और उपयोग की असीमित सम्भावना है। नदियों के कछारों का विकास करके वर्षा-आधारित क्षेत्रों में सिंचाई-व्यवस्था करने में काफी मदद मिलेगी और कुँओं में पानी का स्तर भी बढ़ेगा।
धान और गेहूँ की बौनी प्रजातियों और मक्का,, बाजरा तथा सफेद बाजरा की संकर प्रजातियों से अनाज उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है। उपज के अंतर का विश्लेषण करने से पता चलता है कि अभी इन फसलों की उपज बढ़ाने की पूरी सम्भावना का लाभ नहीं लिया जा सका है। उदाहरण के लिए चावल में वर्तमान प्रजातियों की खेती की उपज 40 प्रतिशत बढ़ाई जा सकती है। इसी तरह गेहूँ की पैदावार का राष्ट्रीय औसत 2.5 टन प्रति हेक्टेयर है जबकि यह आसानी से 4 टन प्रति हेक्टेयर हो सकती है।
भविष्य में ऐसी प्रजाति के बीज और पौध तैयार किए जाने चाहिए जो कीटों और बीमारियों का अधिक से अधिक प्रतिरोध कर सकें और मिट्टी के खारेपन, सूखा और तेज गर्मी जैसे अजैव असन्तुलनों को सहन करने की क्षमता रखते हों। इस तरह भविष्य में अनुसंधान द्वारा संकर बीजों की आनुवांशिक उपज बढ़ाने के प्रयास किए जाने चाहिए।
फल और सब्जियाँ
भारत में 39 लाख 40 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में फलों की बागवानी की जाती है और फलों का वर्तमान उत्पादन 39.5 लाख टन है। इनमें उष्ण-कटिबंधीय, उप-उष्ण कटिबंधीय और शुष्क क्षेत्र के फल शामिल हैं। अनुसंधान और विकास के चलते भारत दुनिया में सबसे बड़ा फल उत्पादक देश बन गया है। बेर, अनार, कस्टर्ड एपल और आंवला जैसे शुष्क क्षेत्र के फलों का उत्पादन बढ़ाने में काफी कामयाबी मिली है। फलों के निर्यात में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। केला, आम, मौसमी, संतरा सेब, अनानास, अंगूर, सपोटा, पपीता, लीची, बेर, आंवला आदि देश के प्रमुख फल हैं।
चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सब्जी उत्पादक देश है। देश में एक करोड़ 44 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सब्जियों की खेती होती है और इसका उत्पादन तीन करोड़ 54 लाख 80 हजार टन है। संकर प्रजाति की सब्जियों की खेती भारत में अपेक्षाकृत देर से शुरू हुई। ‘पंजाब छुहाड़ा’ किस्म के टमाटर से पंजाब में इसकी खेती में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। एस आई-120 ऐसी पहली प्रजाति है जिसकी जड़ों में गाँठ की बीमारी नहीं लगती। बैंगन की ‘पूसा क्रांति’, ‘अर्कशील’, अर्क नवनीत’ और ‘आजाद क्रांति’ (एफ, आईब्रीड) प्रजातियों का विशेष उल्लेख किया जाना चाहिए। टमाटर, मिर्च, बैंगन, लौकी, गोभी, पत्ता गोभी, तरबूज, खरबूजा, गाजर, प्याज आदि की अनेक नई प्रजातियाँ विकसित की गई हैं और किसान उनकी खेती भी कर रहे हैं। संकर प्रजाति के टमाटर का क्षेत्रफल बढ़कर करीब एक लाख हेक्टेयर तक पहुँच गया है। बैंगन, मिर्च, खरबूजा, तरबूज, लौकी और गोभी में हस्त-परागण और परागहरण की तकनीकों से अच्छे-अच्छे संकर बीज तैयार किए गए हैं। सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में संकर बीज तैयार किए जा रहे हैं।
इस प्रगति के साथ अनेक अनुकूल कारक भी जुड़े हैं जैसे (1) ज्यादा उपज देने वाली रोग प्रतिरोधी आनुवंशिकी प्रजातियों का विकास, (2) उत्पादन और संरक्षण की सही तकनीकों का विकास, (3) कीमत और सरकारी खरीद की अनुकूल नीतियाँ (4) सिंचाई क्षेत्रों का विस्तार, (5) उच्च गुण वाले बीज, उर्वरक, कीटनाशकों और बीजशोधक दवाओं आदि की उपलब्धता, (6) नए क्षेत्रों में गेहूँ की खेती, (7) लोगों की भोजन की आदतों में परिवर्तन से गेहूँ और गेहूँ से बनी चीजों की मांग में वृद्धि।
अधिकतम उत्पादकता
वर्षा या वर्षा आधारित फसलें: देश में सिंचाई की पूरी सम्भावनाओं का लाभ उठाया जाए तो भी कृषि योग्य 50 प्रतिशत क्षेत्रों में वर्षा पर ही निर्भर करना पड़ेगा। चूँकि शुष्क क्षेत्र में उपज मौसम से प्रभावित होती है और इससे देश में अनाज उत्पादन के स्थायित्व पर असर पड़ता है इसीलिए वर्षा-आधारित क्षेत्रों की खेती के बारे में समय और परिस्थितियों के अनुसार अनुसंधान को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
देश में 72 प्रतिशत (नौ करोड़ 70 लाख हेक्टेयर क्षेत्र) कृषि क्षेत्र वर्षा पर आधारित है। 44 प्रतिशत अनाज (55 प्रतिशत धान और 91 प्रतिशत दालें) 90 प्रतिशत मूँगफली और 68 प्रतिशत कपास ऐसे क्षेत्रों में पैदा की जा रही है। वर्षा-आधारित क्षेत्रों में सामान्यतः उपज कम है और वर्ष में केवल एक फसल ही ली जाती है। वर्षा-आधारित ऊँचाई वाले क्षेत्रों की उत्पादन क्षमता का ह्रास हुआ है। इसका कारण ज्यादा खेती नहीं बल्कि जमीन का गलत तरीके से इस्तेमाल है। जमीन की क्षमता के अनुसार फसल के चयन और बेहतर भूमि प्रबंध से ही ऐसे क्षेत्रों की उत्पादकता बढ़ाई और बनाए रखी जा सकती है। चार दशकों का अनुभव बताता है कि सामान्य तौर पर संकर प्रजातियों में मौसम को सहने की क्षमता अधिक होती है। स्थान-स्थान की विशेषता के अनुसार फसल का चुनाव करने की योजना के अंतर्गत कम वर्षा वाले क्षेत्रों में बाजरा, कपास, सूरजमुखी, अरंडी आदि की जल्दी पकने वाली संकर और कंपोजिट प्रजातियों की खेती को बढ़ावा देने की रणनीति अपनाई जा रही है। कुछ शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में अनाज या तिलहन की खेती की बजाय बागवानी की फसलें उगाना अधिक लाभकर हो सकता है।
दालों के मामले में तुअर, मसूर आदि दलहनों की जल्द पकने वाली कीट-प्रतिरोधी प्रजातियों के विकास पर ध्यान दिया जा रहा है जो कि भारत में दाल के उत्पादन में सबसे ज्यादा योगदान करते हैं। उन्नत किस्मों के प्रयोग से पिछले चार वर्षां में कुल दलहन उत्पादन 10 लाख टन बढ़ गया है और प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन भी 555 किलो से बढ़कर 601 किलो तक पहुँच गया है। जल्दी पकने वाली प्रजातियों के आने से उत्तर भारत में तुअर दक्षिण में मसूर तथा उड़द और मूंग की सघन खेती को भी सभी क्षेत्रों में प्रोत्साहन मिला है। कीट और रोग के प्रतिरोध के चलते दलहन उत्पादन में स्थिरता भी आई है। पूर्वी भारत में चावल की खेती वर्षा-आधारित ऊँचे और निचले इलाकों से लेकर वर्ष भर पानी से डूबे क्षेत्रों जैसी अलग-अलग नमी की दशाओं में की जाती है। धान की खेती का अधिकांश इलाका इसी प्रकार की अस्थिर दशाओं वाला है। पिछले 10 वर्षों में वर्षा-आधारित धान की उन्नत किस्मों पर अनुसंधान बढ़ने से विविध परिस्थिति वाले क्षेत्रों के लिए अनेक अच्छी किस्में सामने आई हैं। इन प्रजातियों की उपज प्रचलित स्थानीय प्रजातियों की तुलना में 40 प्रतिशत से 60 प्रतिशत अधिक है। इससे पूर्वी क्षेत्रों में धान का उत्पादन बढ़ा है।
पशु धन: भारत उन देशों में है जहाँ पालतू जानवर सबसे अधिक हैं। इन जानवरों से दूध, मांस, ऊन, अंडे, चमड़ा और दालें प्राप्त होती हैं। और ये सूखे का सहारा भी हैं। देश में खेती-बाड़ी के साथ पशुधन अभिन्न रूप से जुड़ा है और ग्रामीण तथा खासकर वर्षा पर आश्रित क्षेत्रों में यह लोगों के आर्थिक जीवन का आधार है। यद्यपि हमारा राष्ट्रीय पशुधन उत्पादन दुनिया में सबसे अधिक है लेकिन उत्पादकता में हम सबसे नीचे हैं। इसका मुख्य कारण है अच्छी नस्ल के पशुओं की कमी और पौष्टिक आहार और चारे का अभाव। शोध और विकास तेज कर पशुधन की सम्भावनाओं का पूरा लाभ उठाया जा सकता है।
मछली पालन
भारत में मछली पालन क्षेत्र के विकास की विशाल सम्भावना है। देश के पास 8041 किलोमीटर लम्बा समुद्री तट, 20 लाख 20 हजार वर्ग कि.मी. नदी क्षेत्र और अनेक खारे तथा स्वच्छ जल के स्रोत उपलब्ध हैं। इस क्षेत्र में अब तक के अनुसंधान और विकास से (1) मछली पालन ग्रामीण क्षेत्र में एक भरोसेमंद उद्योग बन गया है। (2) छोटे तालाबों में मछली का उत्पादन 60 के दशक में 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष से बढ़कर 2000 किलोग्राम और बड़े जलाशयों में उत्पादन 5 किलो प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 80 किलो प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष हो गया है। (3) 1995-96 में मछली का उत्पादन 49 लाख टन था जो एक रिकार्ड है। इसमें 22 लाख टन उत्पादन नदी और तालाब जैसे जमीनी स्रोतों पर आधारित था। (4) झींगा उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। (5) सीप और घोंघे के उत्पादन में नई तकनीकों का समावेश (6) 1995-96 में मछली और मछली उत्पादों का 3349 करोड़ रुपये का रिकार्ड निर्यात हुआ। (7) प्रसंस्करण और क्वालिटी कंट्रोल तकनीकों में सुधार हुआ। (8) झींगे के स्वाद वाले नूडल्स और अन्य खाद्य तथा मछली की आंतों से ऑपरेशन के लिए टांके का निर्माण और (9) मछली पालन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को शिक्षण-प्रशिक्षण।
इस शताब्दी के अन्त तक भारत में मछली का उत्पादन 60 लाख टन करने और मछली तथा मछली से बने पदार्थों के निर्यात से एक खरब 20 अरब रुपये कमाने का लक्ष्य रखा गया है। सामुद्रिक उत्पादन स्थिर होने के कारण मछली फार्मिंग पर ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है। झींगा पालन का व्यवसाय देश में जड़ें जमा चुका है। जमीन और पानी के बेहतर इस्तेमाल द्वारा स्थान विशेष के अनुकूल समन्वित मछली पालन की तकनीकों का विकास करने की आवश्यकता है। कृषि क्षेत्र में विविधीकरण के प्रयासों में मछली पालन को सर्वोत्तम विकल्प के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए।
देश में मछली पालन के विकास के लिए नदियों की घाटियों और नदियों के जल-ग्रहण क्षेत्रों, जल संसाधनों और सामुदायिक जैव स्रोतों पर मानवीय गतिविधियों के प्रभाव की लगातार वैज्ञानिक निगरानी आवश्यक है। इसमें समुद्र विज्ञान की सुविधाओं से लैस नावों और जहाजों तथा कुशल वैज्ञानिकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
समन्वित पोषण प्रबंध
गेहूँ के बाद धान, कपास, धान के बाद धान की खेती जैसे व्यस्त फसल चक्र और मिट्टी में कार्बनिक तत्वों के स्तर को बनाए रखने के लिए जरूरी कम्पोस्ट तत्वों के खेत में न बचने से जमीन की प्राकृतिक उर्वरता घट गई है। इससे गेहूँ-धान और धान जैसे प्रमुख फसल चक्रों का उत्पादन ऊँचाई पर जाकर स्थिर हो गया है। जमीन की जैवीय उर्वरा-शक्ति लम्बे समय तक बनाए रखने के लिए कम्पोस्ट और हरी खाद जैसे देशी उर्वरकों का प्रयोग करते रहना चाहिए। चीन खाद की 50 प्रतिशत आवश्यकता कार्बनिक स्रोतों से पूरी कर पिछले 100 वर्षाें से चावल-गेहूँ की खेती करते हुए उपज के स्तर को बनाए रखने में सफल है जबकि रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करते हुए उसी तरह के फसल चक्र का हमारा तीस वर्षों का अनुभव अलग है। जमीन के पोषक तत्वों का संतुलन समन्वित पादप-पोषण प्रबंध प्रणालियों के माध्यम से ही बनाए रखा जा सकता है। मृदा परीक्षण के अनुसार रासायनिक और देसी खादों के इस्तेमाल से लम्बे समय तक जमीन उर्वर बनी रहती है और पर्याप्त आर्थिक लाभ भी होता है। यह राष्ट्रीय हित में है कि उत्पादन के लक्ष्यों की बजाय कृषि प्रणाली की उत्पादकता पर अधिक ध्यान दिया जाए। गहन कृषि वाले क्षेत्रों में जमीन की उर्वरा-शक्ति को निरन्तर बनाए रखने के लिए दो फसलों के बीच उनको डंठल और पत्तियों के खेत में सड़ाने और अनाज की दो फसलों के बीच एक फलीदार फसल उगाने में हरी खाद की प्रौद्योगिकी या टीकाकरण प्रौद्योगिकी अपनाई जानी चाहिए।
मिट्टी के उर्वरता बनाए रखने में रासायनिक उर्वरकों के विवेकपूर्ण प्रयोग का बड़ा महत्व है। खासकर वर्षा-आश्रित क्षेत्रों में अवशेष प्रबंध और मौसम के दीर्घकालिक अनुमान पर आधारित पानी की उपलब्धता को ध्यान में रखकर रासायनिक खादों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
देश की पारिस्थितिकी को बचाए रखने के लिए समन्वित उर्वरता संरक्षण प्रबंध और प्राकृतिक तथा जैव कृषि के साथ-साथ हमें यह देखना है कि हमारी प्रमुख फसलों की उपज विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है। चावल, गेहूँ और मक्के की औसत उपज में हम अमेरिका, जापान, कोरिया और आस्ट्रेलिया जैसे देशों के आगे कहीं नहीं ठहरते जो इन फसलों की उपज सबसे अधिक बढ़ाने में सफल हुए हैं। उत्पादन न बढ़ने का सबसे बड़ा कारण है कि गंधक-पोटाश आदि से बने आकार्बनिक उर्वरकों का प्रयोग अब भी कम होता है। ऐसी स्थिति में विकासशील देशों में उपज बढ़ाकर फिर उसकी निरन्तरता की बात करने में समझदारी होगी।
समन्वित कीट प्रबंध
कीटनाशक दवाओं के अधिकाधिक प्रयोग से कीड़ों पर दवाइयों का असर न होने और कीड़ों के फिर से पैदा होने जैसी समस्याएँ पैदा हो गई हैं। इससे कीट प्रबंध का कार्य कठिन हो गया है। कीटनाशकों के प्रयोग से पर्यावरण प्रदूषण और अनाजों में विषाक्त पदार्थों की मात्रा बढ़ने की समस्या खड़ी हो गई है। धीरे-धीरे अब स्पष्ट हो गया है कि केवल औषधियों के प्रयोग से ही संतोषजनक कीट प्रबंध सम्भव नहीं है। उदाहरण के लिए हेलिओथिस को ही लीजिए। यह एक पोलीफेगस कीट है जो अनेक फसलों पर आक्रमण करता है। इसकी रोकथाम चुनौती बन गई है क्योंकि इस समय प्रचलित अनेक कीटनाशक दवाओं के प्रति इसमें अलग-अलग स्तर की प्रतिरोध क्षमता है। ऐसी स्थिति में कीट प्रतिरोधी प्रजातियों की खेती, कीट विशेष को नियन्त्रित करने वाले जैव-एजेंटों का प्रयोग, वानस्पतिक कीटानाशकों और बैक्टीरिया समूहों पर आधारित समन्वित कीट प्रबंध न केवल कारगर साबित हुआ है बल्कि यह पर्यावरण अनुकूल भी है। विभिन्न फसलों में अब ऐसी अनेक प्रजातियाँ उपलब्ध हैं जिन पर कीटों का प्रकोप कम होता है। इसी प्रकार अब कीट प्रबंध के ऐसे नए तरीके निकले हैं जिनसे विषाक्त कीटनाशकों की आवश्यकता कम होने की सम्भावना है।
कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से पारिस्थितिकीय सन्तुलन प्रभावित हुआ है। इसके कारण कीटों के फिर उभरने, उनमें प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने, पर्यावरण प्रदूषण और अनाजों में जहरीले कीटनाशकों के अवशेष का स्तर बढ़ने जैसी समस्याएँ पैदा हो गई हैं। कपास, धान, गन्ना, तम्बाकू और विभिन्न प्रकार की दलहनी फसलों और सब्जियों के मामले में कीट नियन्त्रण की उपलब्ध तकनीकों के सही संयोग पर आधारित समन्वित कीट प्रबंध (आईपीएम) बड़ा कारगर साबित हुआ है। कुछ मामलों में कीट प्रतिरोधी प्रजातियों की खेती और जैव एजेंटों और वानस्पतिक कीटनाशकों के प्रयोग के अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं। उपरोक्त के अलावा यहाँ इस बात का भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि भारत उन देशों में नहीं है जहाँ कीटनाशकों के प्रयोग का स्तर बहुत ऊँचा है। इसके अलावा यह तथ्य भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों में कीटों का प्रकोप एक गम्भीर समस्या है और उष्ण कटिबंधीय जलवायु में कीटनाशकों का ‘बायोडेग्रिडेशन’ यानी बैक्टीरिया आदि के चलते गल कर मिट्टी में समाहित हो जाने की प्रक्रिया भी तेज होती है।
उर्वरकों ओर कीटनाशकों के विवेकपूर्ण प्रयोग की आवश्कता को अई.पी.एम. के माध्यम से पूरा किया जाता है। इसमें कीटों की निगरानी, कीट नियन्त्रण के जैवीय तरीकों का प्रोत्साहन और खासकर धान, कपास और तिलहन जैसी फसलों में कीट प्रबंध के तरीकों का प्रचार और प्रदर्शन तथा कृषि प्रसार कार्यकर्ताओं एवं किसानों का प्रशिक्षण शामिल है। इसमें कृषि संस्थानों और विश्वविद्यालयों के संसाधनों की सहायता ली जाती है। इसका मुख्य उद्देश्य पादप संरक्षण के ऐसे तरीके विकसित करना है जो सस्ते, पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित और फसल चक्र को सुसंगत बनाकर उत्पादन को तेजी से बढ़ाने में सहायक हों।
किसी फसल की कीमत ऊँची रखकर उसकी उपज को लम्बे समय तक प्रोत्साहित करने की नीति की अपनी सीमा है। कृषि में लम्बे समय के लिए निवेश और तकनीकी परिवर्तनों को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि व्यापार और वृहद आर्थिक नीति में सुधार किया जाए। उत्पादन की जटिलता को देखते हुए आधुनिक प्रौद्योगिकी की सूचना, उनके प्रचार और प्रशिक्षण की आवश्यकता है। इसके लिए एक व्यापक कृषि प्रसार सेवा शुरू करने की आवश्यकता है जो किसानों, प्रसार कार्यकर्ताओं और कृषि वैज्ञानिकों के बीच ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर सूचनाओं के प्रवाह में सहायक और उत्प्रेरक का कार्य करें। इससे क्षेत्र विशेष की आवश्यकताओं पर विशेषताओं के अनुसार आर्थिक और पारिस्थितिकीय दृष्टि से उपयुक्त कृषि प्रणाली के विकास, मूल्यांकन, प्रोत्साहन और सुधार को बल मिलेगा।
उपसंहार
सफलता सुहानी होती है लेकिन इसके लिए लगन, कठिन परिश्रम, सहयोग और समन्वय की आवश्यकता होती है। सफलता के लिए सभी संसाधनों से बढ़कर है व्यक्ति और उसकी इच्छाशक्ति। स्थलीय और जलीय खेती तथा फार्मिंग में उत्पादन बढ़ाने के प्रयास में लगे लोगों के समक्ष जटिल पारिस्थितिकीय, सामाजिक-आर्थिक और तकनीकी समस्याएँ हैं। इनका कोई एक आसान समाधान नहीं है। वैज्ञानिक चुनौतियों का समाधान परम्परागत व्यावहारिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के तालमेल से हो सकता है। कृषि में नई जैव-प्रौद्योगिकी, सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, माइक्रो इलेक्ट्रॉनिक्स और प्रबंध तकनीकी के उपयोग की विशेष आवश्यकता है।
कृषि उपजों का घरेलू बाजार विश्व बाजार से जुड़ने लगा है। ऐसे में कृषि उपजों की क्वालिटी और उनकी कीमत ऐसी होनी चाहिए कि भारतीय माल बाजार में टिक सके। ऐसे में खाद्य प्रसंस्करण, उत्पाद विकास, मूल्य संवर्द्धन, पैकेजिंग, ढुलाई, भंडारण और विपणन का महत्व बहुत बढ़ गया है।
विश्व बाजार में जुड़ने, बौद्धिक सम्पदा अधिकार, सूक्ष्म जैव विज्ञान, सिस्टम एनालिसिस (कम्प्यूटर विश्लेषण), अंतरिक्ष विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति से जुड़ी चुनौतियों तथा अवसरों का विस्तृत आकलन करने की आवश्यकता है। इसके लिए संस्थाओं में सहयोग का लाभ उठाने और आकलन नेटवर्क के विकास के लिए शोध करने की आवश्यकता है। स्थान विशेष से जुड़ी समस्याओं के समाधान और प्राकृतिक संसाधनों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए अनुसंधान और प्रसार व्यवस्था के समन्वय और संवर्द्धन की आवश्यक है। भविष्य में सारा प्रयास प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और पारिस्थितिकीय सन्तुलन के साथ सभी साधनों की उत्पादकता (टीएफपी) बढ़ाने पर केन्द्रित किया जाना चाहिए। टीएफपी बढ़ाने के लिए अनुसंधान और आधारभूत सुविधाओं पर निवेश बढ़ाने तथा भौतिक लागतों का अधिकतम उपयोग करने का सुझाव दिया जाता है। कृषि क्षेत्र में निवेश की वर्तमान गति को देखते हुए टीएफपी में वृद्धि का केवल एक विकल्प है कि वर्षा-आश्रित और सिंचित दोनों क्षेत्रों के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी का विकास किया जाए। इसके लिए कृषि अनुसंधान पर कम से कम 50 प्रतिशत निवेश बढ़ाने की आवश्यकता है।
इस समय भारत कृषि विकास पर सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.3 प्रतिशत ही कृषि अनुसंधान पर खर्च करता है जो विकसित देशों (2 प्रतिशत) की तुलना में काफी कम है। इसलिए हमारी खाद्य सुरक्षा की कुँजी है- अनुसंधान पर निवेश बढ़ाना। इन लक्ष्यों की प्राप्ति और नौवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उपयुक्त रणनीतियाँ अपनाने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध कराने के प्रयास किए जा रहे हैं।
(लेखक डी.ए.आर.ई. के सचिव और ई.सी.ए.आर. के महानिदेशक हैं।)
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