अमृत कूप या नवलदेह का कुआं


भारत भूमि विविध चमत्कारों का भण्डार है। यहा गर्म एवं शीतल जल के स्रोत साथ-साथ हैं तो एक ही कुएं में खारा और मीठा जल एक साथ प्राप्त होता है। किसी क्षेत्र का पानी स्नान के योग्य तक नहीं तो कहीं अमृत के समान स्वादिष्ट कहीं का वातावरण राजयक्ष्मा को ठीक करता है तो कहीं का जल कुष्ठ जैसे भयानक चर्म रोगों को। ऐसा ही एक कुआं परीक्षितगढ़ में है जिसे नवलदेह का कुआं कहा जाता है। इसके नियम पूर्वक स्नान से आज भी कुष्ठ रोग ठीक होता है इसीलिए इसका प्राचीन नाम अमृत कूप था। फिर इसका नाम नवलदेह का कुआं कैसे प्रसिद्ध हुआ?

बात आज से लगभग 5100 वर्ष पूर्व की है। कुन्ती नन्दन अर्जुन एवं पाताल के नाग राजा वासुकि आपस में गहरे दोस्त थे। अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की पत्नि उत्तरा एवं वासुकि की पत्नि नर्मदा दोनों ही गर्भवती थीं। दीर्घावधि के पश्चात् एक दिन अर्जुन एवं वासुकि की भेंट हुई तो दोनों ने बहुत दिनों से न मिलने के गिले-शिकवे किये तथा एक दूसरे पर न मिलने का दोषारोपण करते हुए उलाहने भी दिये। दोनों ने विचार किया कि ऐसा कौन सा उपाय हो सकता है कि जल्दी-जल्दी मिलना होता रहे। चूंकि अर्जुन धरती पर और वासुकि पाताल में रहता था, इसीलिए शीघ्र मिलना नहीं हो पाता था।

अर्जुन ने प्रस्ताव रखा कि यदि आपस में रिश्तेदारी-सम्बन्ध हो जायें तो किसी न किसी बहाने से मिलना होता रहेगा। लेकिन यह कैसे सम्भव हो? वार्तालाप में दोनों जान गये कि अर्जुन की पुत्रवधु उत्तरा एवं वासुकि की पत्नि नर्मदा गर्भवती हैं। सोच-विचार कर प्रस्ताव रखा गया कि यदि दोनों के विपरीत लिंगी संतानें पैदा हुईं तो उनका आपस में विवाह करके हम रिश्तेदार बन जायेंगे। दोनों वचनबद्ध हो गए। समय व्यतीत होता रहा और उचित समय पर उत्तरा के गर्भ से परीक्षित रूपी लड़के का और वासुकि की पत्नि नर्मदा के गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ। कन्या अत्यधिक सुन्दर, स्वर्णिम शरीर एवं अत्यधिक मनमोहक स्वरूप वाली थी इसलिए उसका नाम नवलदेह (स्वर्णिम शरीर वाली सुन्दर कन्या) रखा गया। नागवंशी अपने को कुरू वंश से श्रेष्ठ तथा कुरू वंश को निम्न वंशज या निम्न जातीय समझते थे इसीलिए वासुकि को चिन्ता हो गई।

वास्तव में वासुकि के मन में यह था कि उसको लड़का और अभिमन्यु को लड़की प्राप्त होगी ऐसी स्थिति में विवाह करने में कोई अपमान नहीं है। लेकिन हुआ विपरीत। वासुकि कुरूवंश में अपनी कन्या नहीं देना चाहता था इसीलिए उसे चिन्ता होना स्वाभाविक था। इसीलिए वासुकि ने उसे लालन-पालन के लिए किसी अति गुप्त स्थान (हमारे अनुमानानुसार तक्षशिला में नागराज तक्षक के पास) भेज दिया और प्रचारित यह करा दिया कि कन्या जन्मते ही मर गई। यह समाचार जब अर्जुन को मिला तो वह भी इसको समय के साथ भूल गया। दूसरी ओर कन्या नवलदेह वृद्धि को प्राप्त होकर युवा एवं अत्यधिक सुन्दर भी हो गई। तभी वासुकि को भयानक गलित कुष्ठ रोग हो गया। राजज्योतिषियों ने शोध कर बताया कि यह कुष्ठ रोग अर्जुन के साथ विश्वासघात, झूठा एवं कपटपूर्ण व्यवहार तथा वचन भंग के दोष के कारण हुआ है, इसीलिए यदि कन्या नवलदेह कुरू राज्य स्थित अमृतकूप से स्वयं जल लाकर वासुकि को स्नान कराये तो उसका कुष्ठ रोग दूर हो सकता है अन्यथा नहीं। इसी बीच नवलदेह को अपनी सखियों द्वारा अर्जुन एवं वासुकि के वचन का ज्ञान हुआ। वह अपनी सखियों के संग गुप्त रूप से नवलदेह अमृत स्रोत से जल लेने आई।

परीक्षित को अपने गुप्तचरों द्वारा समस्त घटना का पता चल गया तो परीक्षित ने नवलदेह को मार्ग में रोक कर उसे अपनी मंगेतर बताकर उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। नवलदेह भी अपने पिता के वचनानुसार एवं स्वयं भी मोहित होकर परीक्षित से विवाह का मन बना चुकी थी। इसीलिए उसने कहा कि पहले वह स्नान करा कर पिता का कुष्ठ रोग ठीक कर दे बाद में पुनः आकर विवाह करेगी। दोनों वचनबद्ध हो गये। नवलदेह जल लेकर चली गई। नवलदेह ने इस जल को जब पिता वासुकि के ऊपर डाला तो उसने पिता के पैर का अंगूठा अपने पैर से दबा लिया जिस कारण वहां तक कुएं का जल नहीं पहुंच सका और वहां पर कुष्ठ शेष रह गया। नवल देह ने अपना दोष स्वीकारते एवं दुखी होते हुए पुनः जल लाने का प्रस्ताव रखा लेकिन वासुकि ने मना किया। वासुकि के लाख मना करने पर भी नवल देह पुनः जल लेने आई और परीक्षित से विवाह किया। आगे श्रुति-स्मृति सब मौन है।

यहां पर घटना क्रम सन्देह उत्पन्न करता है, क्योंकि पाताल से आकर दो बार जल ले जाना सम्भव नहीं था। अतः ऐसा आभास होता है कि वासुकि धरती पर ही कहीं आ गया था। चूंकि उस समय नागवंश अति प्रबल हो गया था। तक्षशिला उसकी राजधानी तो तक्षक नागवंश का प्रतापी राजा था। तक्षक का साम्राज्य तक्षशिला से कन्या कुमारी तक विस्तृत हो गया था। इसीलिए वासुकि भी यहीं-कहीं आ गया होगा और राजज्योतिषियों के कथनानुसार नवलदेह को जल लेने भेजा। संभवतः इस घटना को लेकर कुरूवंश एवं नाग वंश में बैर बढ़ गया और इसी बैर का आश्रय लेकर श्रृंग ऋषि ने परीक्षित को तक्षक द्वारा मारा जाने का श्राप दिया। तक्षक ने परीक्षित को डसा (मारा) और परीक्षित पुत्र जन्मेजय ने बदला लेने के लिए नागवंश का संहार किया जिसे काव्यात्मक भाषा में सर्पयज्ञ का नाम दिया गया। पूर्व में यहां कोई प्राकृतिक अमृतमय जल स्रोत था उसके सिकुड़ने पर यहां कूप का निर्माण बाद में कराया गया और नवलदेह के नाम पर इसका नाम नवलदेह का कुआं प्रसिद्ध हुआ। कहा जाता है कि इस जल में अमृत का प्रभाव था इसीलिए इसे अमृत स्रोत एवं बाद में अमृत कूप कहा जाता था।

आज भी वर्ष-दो वर्ष मे एक-आध दिन अथवा कुछ घण्टों के लिए इसका जल दूध जैसा सफेद हो जाता है। उस समय इसमें विशेष गुण होते हैं। पता चलते ही यहां के निवासी इसका जल बोतलों आदि में भरकर सुरक्षित रख लेते हैं। यह जल खराब नहीं होता है। आज भी यहां कुष्ठ रोगियों का आना-जाना लगा रहता है। कुष्ठ रोगी को अपना रोग ठीक करने के लिए यहां स्थाई रूप से कुछ समय के लिए रहना तथा भिक्षा मांग कर खाने का विशेष नियम है। कुएं की सम्पत्ति के रूप में इसके पास कुछ भूमि भी थी जिस पर अतिक्रमण हो चुका है। गांधारी तीर्थ विकास समिति के सचिव के प्रयत्नों से पर्यटन विभाग द्वारा वर्ष 2007-08 में इसका जीर्णोद्धार कराया गया था। वर्ष 2008 में ही वाल्मीकि समाज द्वारा यहां एक मन्दिर का निर्माण भी कराया गया था। सन् 1960 के लगभग अध्यापक रामेश्वर दयाल शर्मा ने गांधी स्मारक देव नागरी इण्टर कॉलेज के छात्रों से चंदा एकत्र कर कुएं के पास कुष्ठ रोगियों के रहने के लिए दो कमरों का निर्माण भी कराया था। वर्तमान में ये कमरे जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं और कुएं का जल भी भू-जल के गिरते स्तर के कारण धीरे-धीरे सूखता जा रहा है। इस औषधीय गुणों से परिपूर्ण कूप के संरक्षण के लिए सरकार की कोई योजना नहीं है।

कहा जाता है कि यदि नवलदेह वासुकि का अंगूठा न दबाती और उसका कुष्ठ पूर्ण रूप से ठीक हो जाता तो कुष्ठ रोग संसार से उसी समय समाप्त हो गया होता। इसीलिए आज भी कुष्ठ रोग का प्रारम्भ पैर के अंगूठे से होता है।

ऐसा ही एक कुआं हस्तिनापुर में रघुनाथ महल के समीप भी था जो कि अब समाप्त हो चुका है। परीक्षितगढ़ में लगभग 50 वर्ष पूर्व अर्थात सन् 1960 तक नवलदेह का स्वांग (एक प्रकार का नाटक मंचन) खेला जाता था। उसकी पाण्डुलिपि आज तक परीक्षितगढ़ वालों ने किसी को नहीं दी। उसकी काव्यात्मक शैली विशेष प्रकार की थी। इस स्वांग की एक विशेषता यह भी थी कि जब भी कलाकार नवलदेह का रूपधारण कर जल लेने के लिए चला तब ही कुछ न कुछ अनहोनी घटित हुई। कई बार बाजार में आग लगी तो कई बार कलाकार बेहोश हो गया। खजूरी के समीप स्थित सोना ग्राम का रामचन्द्र शर्मा नामक युवक तो स्वांग स्थल एवं कुएं के बीच में ही अचानक मृत्यु को प्राप्त हो गया। इसीलिए जल भरने की रस्म स्टेज पर ही पूरी की जाने लगी। बाद में तो यह स्वांग ही बन्द कर दिया गया। आज की पीढ़ी तो स्वांग के विषय में जानती ही नहीं है। तो यह है नवलदेह कूप का इतिहास। यह कुआं परीक्षितगढ़-मवाना-किठौर मार्ग पर परीक्षितगढ़ स्थित मवाना स्टैण्ड के समीप है।
 
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Post By: ramantyagi
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