अमरकंटक से कपिलधारा तक नर्मदा सीधे-सपाट मैदान में से होकर बहती है। उसका रास्ता रोकने के लिए एक चट्टान तक नहीं, वह सीधी रेखा में बह सकती थी, लेकिन वह तो बहती है टेढ़ी-मेढ़ी, आड़ी-तिरछी। एक जगह तो वह इतनी चक्राकार बहती है कि लोगों ने उसका नाम ही रख दिया चक्रतीर्थ। नर्मदा अकारण ही इतनी आड़ी-टेढ़ी बहती है। मुझे तो इसका एक ही कारण समझ में आता है-उसकी वक्रगतिप्रियता! यह उसकी अपनी शैली है। सीधे सपाट बहना गंगा की शैली है।अमरकंटक कोई बड़ा पहाड़ नहीं। लेकिन वहाँ से एक नहीं, दो नदियाँ निकलती हैं- नर्मदा और सोन। दोनों के उद्गम के बीच की दूरी कोई एक किलोमीटर होगी, लेकिन-
पत्ता टूटा डाल से, ले गई पवन उड़ाय
अबके बिछुड़े कब मिलें, दूर पड़ेंगे जाय।
एक पत्ता टूटकर खंभात की खाड़ी में गिरा, दूसरा बंगाल की खाड़ी में। नर्मदा को पहाड़ की पश्चिमी ढलान मिली तो वह उस ओर गई और सोन को पूर्वी ढलान मिली तो वह पूरब को गई। करीब-करीब एक ही जगह से निकली दो नदियाँ विरुद्ध दिशाओं में बहकर बहुत दूर जा गिरीं।
यह तो हुआ भूगोल। किन्तु किसी अज्ञात कवि को इस भूगोल में भी कविता दिखाई दी। उसने कहा- नर्मदा और शोणभद्र (इसे नद माना गया है। हमारे देश में तीन नद माने गए हैं- ब्रह्मपुत्र, सिंधु और शोणभद्र) एक दूसरे को चाहते थे, दोनों का विवाह होने वाला था। एक बार नर्मदा ने अपनी दासी जुहिला के हाथ शोण के लिए सन्देश भेजा। काफी देर बाद भी जब जुहिला नहीं आई, तो नर्मदा स्वयं गई। उसने देखा कि शोण जुहिला से ही प्रेमक्रीड़ा कर रहा है! उसे शोण पर अत्यन्त क्रोध आया और कभी विवाह न करने की प्रतिज्ञा करके पश्चिम की ओर चल दी। निराश और हताश शोण पूर्व की ओर चल पड़ा। चिरकुमारी होने के कारण नर्मदा अत्यन्त पवित्र नदी मानी गई। इसीलिए भक्तगण उसकी परिक्रमा करते हैं।
मेघ को लेकर कवि कालिदास ने मेघदूत की कल्पना की, तो किसी अज्ञात कवि ने एक नदी के चिरकुमारी होने की कल्पना की। मेघदूत एक विरही प्रेमी युगल की कहानी है तो यह कथा ऐसे प्रेमियों की कहानी है, जो युगल बनने से पहले ही हमेशा के लिए अलग हो गए।
यह सच है कि कालिदास की कल्पना कवियों और साहित्य-रसिकों द्वारा जितनी समादृत हुई, उतनी इस लोककवि की नहीं। किन्तु, कालिदास के प्रशंसक केवल प्रशंसा-भर करके रह गए। एक भी प्रशंसक, जिस पथ से मेघ गया था, उस पथ पर चला नहीं। पैदल चलना तो दूर, हवाई जहाज से भी नहीं गया। (जरा सोचिए, यह कितनी बड़ी खबर बन सकती थी कि कालिदास के काव्य का एक प्रशंसक हवाई जहाज से ठीक उसी मार्ग से गया, जिस मार्ग से मेघ गया था और उसका सचित्र वृत्तान्त भी प्रकाशित किया। )
उधर उस अज्ञात कवि के नर्मदा को ‘चिरकुमारी’ कहने पर हजारों-लाखों लोग उसकी परिक्रमा पर चल पड़े! और याद रहे, मेघ जाता भर है, वापस नहीं आता। परकम्मावासी तो वापस भी आता है। वह दक्षिण-तट से अमकंटक से समुद्र तक जाता है और उत्तर-तट से समुद्र से अमरकंटक वापस आता है। उस अज्ञात कवि के कारण नर्मदा को वह गौरव मिला, जो संसार में किसी नदी को नहीं मिला। सारे संसार में केवल नर्मदा की ही परिक्रमा की जाती है।
वह कौन था, कहाँ का था, कब हुआ था आदि बातें हम नहीं जानतेे। फिर भी इतना तो कह ही सकते हैं कि वह यहाँ के भूगोल से अच्छी तरह से परिचित था और एक भौगोलिक तथ्य को काव्यात्मक सत्य में बदल देने की उसमें अद्भुत प्रतिभा थी। 4 अप्रैल, 2003 की शाम को अमरकंटक पहुँचते ही मैंने मन ही मन उसे प्रणाम किया।
रहने की व्यवस्था कल्याण-आश्रम में हो गई। प्रथम परिक्रमा के दौरान 1978 में मैं इसी आश्रम में रहा था। तब यहाँ केवल झोंपड़ियाँ थीं, आज अनेक विशाल भवन हैं। बहुत सारे पेड़ हैं और बहुत अच्छा उद्यान है। पौधों पर जितने फूल हैं, पेड़ों पर उतने ही पक्षी। आश्रम द्वारा, अपने नाम के अनुरूप, कई कल्याण-कार्य किए जाते हैं- विशेष रूप से शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में।
हम आश्रम के मन्दिर की सायं-आरती में सम्मिलित हुए। थोड़ी देर बाद मेरे एक साथी ने धीरे से कहा, ‘‘आगे गोविन्दाचार्य खड़े हैं।’’
आरती सम्पन्न होने पर हम बाहर आए। वे भी आए। गोविन्दाचार्य ही थे। उन्होंने हम लोगों को नमस्कार किया, तो हम लोगों ने भी किया। छरहरा शरीर, काला रंग, तेजस्वी आँखें। बातें होने लगीं। उनकी बातों से उनकी मेधा झलकती थी। बहुत अच्छी हिन्दी बोल रहे थे। स्वाभाविक ही बातें राजनीति को लेकर थीं। राजनीति में मेरी जरा भी दिलचस्पी नहीं। न मैं अखबार पढ़ता हूँ, न ही उस भानमति के पिटारे में (जिसे आजकल लोग टीवी कहने लगे हैं) समाचार देखता हूँ। भूलकर भी नहीं। इसलिए चुप रहा।
तभी मेरे किसी साथी ने उन्हें मेरे बारे में बताया तो लगे मेरी पुस्तक की प्रशंसा करने!
मुझे आश्चर्य हुआ। इतने व्यस्त आदमी को भला किताब पढ़ने का समय कहाँ से मिला होगा! पता नहीं, इन्होंने मेरी किताब देखी भी है या नहीं! प्रशंसा तो बिना पढ़े भी की जा सकती है। नेता इसमें निपुण होते हैं। कहीं यह वही लटका तो नहीं! मैंने कहा, ‘‘अभी आपने मेरी किताब के बारे में जो कहा, क्या हाथ में गीता लेकर उसे दोबारा कह सकते हैं? ’’
‘‘मैं ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा ’ साथ लेकर चला हूँ। कहें, तो अभी मँगा कर दिखा दूँ।’’
अब मैं क्या कहता! इन्हें तो किताब का नाम तक याद है। हाँ, उन्हें दूसरी किताब ‘अमृतस्य नर्मदा’ के बारे में कोई जानकारी न थी।
किन्तु इससे भी बड़ा विस्मय अभी बाकी था। मेरे किसी साथी ने कहा कि वेगडज़ी नर्मदा की पूरी परिक्रमा कर चुके हैं, लेकिन 75 वें वर्ष में प्रवेश करने पर दोबारा चल रहे हैं। सुनते ही उन्होंने मेरे पाँव छुए!
यह पलक झपकते हो गया। यह इतना अप्रत्याशित था कि उन्हें रोकने का मुझे समय ही न मिला। मैं मारे संकोच के गड़-सा गया। इतना बड़ा आदमी और ऐसी विनम्रता!
विनम्रता किसी में भी अच्छी लगती है, किन्तु जब वह किसी बड़े आदमी में सहज-स्वाभाविक रूप से प्रकट होती है, तब उसकी द्युति कुछ और होती है। तब ऐसा प्रतीत होता है मानो वह हल्दी लगाकर स्नान करके निकली हो!
राजनीति और इनसानी रिश्ते दो अलग-अलग चीजें हैं। मैं गोविन्दाचार्य की नीतियों से असहमत हो सकता हूँ, लेकिन एक मनुष्य के नाते मैं उन्हें चाह भी तो सकता हूँ।
‘‘आप लोग भृगु-कमण्डल देखना न भूलें।’’ इतना कहकर वे युवकों की-सी चपलता के साथ मन्दिर की सीढिय़ाँ उतर गए।
हमारे दल के बारे में बताना तो भूल ही गया। कान्ता, गार्गी और डॉ. अखिल मिश्र तो पिछली यात्रा में भी थे। कुन्दनसिंह परिहार और शरद चौहान नए सदस्य हैं। परिहारजी कॉमर्स कॉलेज के प्राचार्य रहे और कहानी लेखक भी हैं। शरद मेरे भानजे का दोस्त है और बड़ा ही गुणी और खुशमिजाज है। पार्थिव शाह दिल्ली से आए हैं और प्रसिद्ध फोटोग्राफर हैं। छोटा बेटा नीरज भी है। लेकिन ये दोनों अमरकंटक तक ही हैं। फगनू दादा तो हैं, लेकिन गरीबा नहीं है। उसकी जगह आ गया है मेरा पुराना विश्वस्त साथी छोटू जो मेरे साथ कई बार चल चुका है।
दूसरे दिन दोपहर तक नर्मदा-कुंड, सोनमुड़ा, माई की बगिया और कुंड के बाहर स्थित कल्चुरीकालीन प्राचीन मन्दिर देखे। तीसरे पहर कपिलधारा गए। अक्टूबर में दो धाराएँ थीं। पानी कम हो जाने के कारण अब केवल एक धारा रह गई थी। उसके दोनों ओर मधुमक्खी के कई छत्ते लगे थे। इसलिए यहाँ स्नान न करके दूधधारा में स्नान किया और फिर भृगु-कमंडल निकल गए। नर्मदा-कुंड से उत्तर की ओर कोई 7 कि. मी. दूर धूनीपानी तक सडक़ गई है। यह हरा-भरा एकान्त स्थान है। यहाँ से पगडंडी से चलकर भृगु-कमंडल पहुँच गए। यहाँ एक चट्टान की खड़ी दीवार में एक छोटा-सा छेद है-जमीन से कोई एक मीटर ऊपर। आश्चर्य की बात यह है कि उसमें हाथ डालने पर वहाँ पानी मिलता है। यही है भृगु-कमंडल। यह पहाड़ के एक छोर पर है।
रात को पुन: नर्मदा-कुंड गए- आरती देखने। हम लोग यह भी देखना चाहते थे कि कुंड से बाहर निकलकर नर्मदा किस मार्ग से प्रवाहित होती है। कुंड और उसका परिसर तो स्वच्छ है, लेकिन कुंड के अहाते से बाहर निकलते ही स्थानीय लोगों ने नर्मदा की जो गत बना रखी है, उसे देखकर ग्लानि ही होती है। पूजा-सामग्री बेचने वाली लडक़ी ने हमें रात के अँधेरे में वहाँ जाने से रोक दिया- बड़ी गंदगी है वहाँ। लोग मानो घात लगाए बैठे हैं कि नर्मदा बाहर निकले और हम उसमें अपनी गंद बहाएँ।
भगवान जितने मन्दिरों में निवास करते हैं, उतने ही स्वच्छता और शुचिता में रहते हैं। हमारे सन्त यदि इस बात का पुरजोर प्रचार करें तो प्रभु-सेवा के साथ-साथ यह उनकी बहुत बड़ी देश-सेवा होगी। धर्म और गंदगी साथ-साथ नहीं रह सकते।
तीसरे दिन सुबह पार्थिव और नीरज वापस चले गए। पार्थिव को अगले महीने जर्मनी जाना है। वहाँ उसके चुने हुए फोटो की प्रदर्शनी है।
बाकी के हम आठ नर्मदा के दक्षिण-तट की पदयात्रा के लिए चल पड़े। कितनी छोटी है नर्मदा! क्या अग्निशिखा की तरह ‘जलशिखा’ शब्द हो सकता है? जलशिखा-सी यह नदी समुद्र तक पहुँचते-पहुँचते मशाल का रूप ले लेती है। जिस नदी को यहाँ एक बच्चा भी फलाँग सकता है, उसी नदी का पाट वहाँ 20 कि. मी. चौड़ा हो जाता है।
अमरकंटक से कपिलधारा तक नर्मदा सीधे-सपाट मैदान में से होकर बहती है। उसका रास्ता रोकने के लिए एक चट्टान तक नहीं, वह सीधी रेखा में बह सकती थी, लेकिन वह तो बहती है टेढ़ी-मेढ़ी, आड़ी-तिरछी। एक जगह तो वह इतनी चक्राकार बहती है कि लोगों ने उसका नाम ही रख दिया चक्रतीर्थ। नर्मदा अकारण ही इतनी आड़ी-टेढ़ी बहती है। मुझे तो इसका एक ही कारण समझ में आता है-उसकी वक्रगतिप्रियता! यह उसकी अपनी शैली है। सीधे सपाट बहना गंगा की शैली है।
कपिलधारा तक का मार्ग आसान है। लेकिन अधिकांश परकम्मावासी कपिलधारा नहीं जाते। सड़क पकड़कर डिंडौरी चले जाते हैं। दोपहर के पहले ही हम लोग कपिलधारा पहुँच गए। यहाँ से एक पगडंडी शालवन में से होती हुई, नर्मदा के प्राय: संग-संग, पकरीसोंढ़ा तक जाती है। हम लोग इसी वनमार्ग से चले। यहाँ का शान्त सौन्दर्य देखते ही बनता है। मानो नीरवता के किसी मोहक संसार में आ गए हों।
धीरे-धीरे पेड़ों का घेरा घना होने लगा। सभी पेड़ शाल के थे और बौर से लद गए थे। इस कारण सजे-सँवरे लग रहे थे। नीचे गिरे सूखे पत्तों ने जमीन को इस तरह ढँक दिया था कि वह दिखाई ही नहीं देती थी। उन पर चलते तो चर-चर की आवाज होती। उनका रंग ललामी लिए पीला था और पेड़ों में लगे पत्तों के हरे रंग से जरा भी कम आकर्षक नहीं था। उपेक्षितों का अपना सौन्दर्य होता है। वे निस्तेज भले ही हो गए हों, निरर्थक नहीं। आखिर वे भी तो इस वन-प्रदेश के अंश हैं।
बीच-बीच में नर्मदा दिख जाती। उसके तट पर बाबाओं की दो-एक कुटी भी मिली। आश्चर्य की बात यह थी कि हम पहाड़ उतरकर मैदान में आ गए और हमें पता तक न चला कि पहाड़ उतर गए हैं। लगा मानो समतल भूमि पर चल रहे हैं। दमगढ़ की घाटी से जब चढ़े थे, तब खड़ी चढ़ाई थी और लगा था कि पहाड़ चढ़ रहे हैं। उतरते समय लगा ही नहीं कि पहाड़ उतर रहे हैं।
पहाड़ खत्म तो खूबसूरत शालवन भी खत्म। अमरकंटक हरा-भरा पहाड़ है, एड़ी से चोटी तक शाल का परिधान पहने (या शाल ओढ़े) भद्र पहाड़। अमरकंटक का नाम मेकल भी है। मुझे उसका एक और नाम रखने की अनुमति दी जाए, तो मैं उसका नाम रखूँगा-शालभद्र।
शालभद्र नाम लेते ही शोणभद्र की याद हो आई। पहाड़ का यह पश्चिमी सिरा है, उधर पूर्वी छोर पर शोणभद्र है-उपेक्षित और अपमानित।
मेरा विचार है कि जिसने भी नर्मदा परिक्रमा की परम्परा चलाई, उसे शोण के प्रति थोड़ी उदारता दिखानी थी। उसे यह नियम बनाना था कि अमरकंटक का पहाड़ उतरते ही परकम्मावासी पहाड़ के किनारे-किनारे चलकर शोणभद्र तक जाएगा, उसे एक झलक देखकर वापस आएगा, फिर आगे बढ़ेगा। अगर वह परकम्मावासी को मांडू भेज सकता है, जो नर्मदा से काफी दूर है, तो शोणभद्र तक क्यों नहीं? आखिर कभी नर्मदा और शोण के बीच मधुर सम्बन्ध रहे, दोनों का विवाह होने वाला था। अमरकंटक में पड़ोसी तो वे आज भी हैं। उसे इतनी इज्जत तो मिलनी चाहिए थी। इस बहाने अमरकंटक के पहाड़ की आधी परकम्मा भी हो जाती।
मेरा विश्वास है कि इस छोटी-सी पदयात्रा का अनुमोदन तो नर्मदा भी कर देती। नर्मदा आखिर माँ है और मुझे पूरी विनम्रता के साथ कहने दीजिए कि अब तो वह शोण की भी माँ है।
लेकिन जो हो गया, अब उसे बदला नहीं जा सकता।
मेरे साथी आगे निकल गए थे। मैं तेजी से उनकी ओर बढ़ लिया।
1836 राइटटाऊन, जबलपुर-2 (म.प्र.)
पत्ता टूटा डाल से, ले गई पवन उड़ाय
अबके बिछुड़े कब मिलें, दूर पड़ेंगे जाय।
एक पत्ता टूटकर खंभात की खाड़ी में गिरा, दूसरा बंगाल की खाड़ी में। नर्मदा को पहाड़ की पश्चिमी ढलान मिली तो वह उस ओर गई और सोन को पूर्वी ढलान मिली तो वह पूरब को गई। करीब-करीब एक ही जगह से निकली दो नदियाँ विरुद्ध दिशाओं में बहकर बहुत दूर जा गिरीं।
यह तो हुआ भूगोल। किन्तु किसी अज्ञात कवि को इस भूगोल में भी कविता दिखाई दी। उसने कहा- नर्मदा और शोणभद्र (इसे नद माना गया है। हमारे देश में तीन नद माने गए हैं- ब्रह्मपुत्र, सिंधु और शोणभद्र) एक दूसरे को चाहते थे, दोनों का विवाह होने वाला था। एक बार नर्मदा ने अपनी दासी जुहिला के हाथ शोण के लिए सन्देश भेजा। काफी देर बाद भी जब जुहिला नहीं आई, तो नर्मदा स्वयं गई। उसने देखा कि शोण जुहिला से ही प्रेमक्रीड़ा कर रहा है! उसे शोण पर अत्यन्त क्रोध आया और कभी विवाह न करने की प्रतिज्ञा करके पश्चिम की ओर चल दी। निराश और हताश शोण पूर्व की ओर चल पड़ा। चिरकुमारी होने के कारण नर्मदा अत्यन्त पवित्र नदी मानी गई। इसीलिए भक्तगण उसकी परिक्रमा करते हैं।
मेघ को लेकर कवि कालिदास ने मेघदूत की कल्पना की, तो किसी अज्ञात कवि ने एक नदी के चिरकुमारी होने की कल्पना की। मेघदूत एक विरही प्रेमी युगल की कहानी है तो यह कथा ऐसे प्रेमियों की कहानी है, जो युगल बनने से पहले ही हमेशा के लिए अलग हो गए।
यह सच है कि कालिदास की कल्पना कवियों और साहित्य-रसिकों द्वारा जितनी समादृत हुई, उतनी इस लोककवि की नहीं। किन्तु, कालिदास के प्रशंसक केवल प्रशंसा-भर करके रह गए। एक भी प्रशंसक, जिस पथ से मेघ गया था, उस पथ पर चला नहीं। पैदल चलना तो दूर, हवाई जहाज से भी नहीं गया। (जरा सोचिए, यह कितनी बड़ी खबर बन सकती थी कि कालिदास के काव्य का एक प्रशंसक हवाई जहाज से ठीक उसी मार्ग से गया, जिस मार्ग से मेघ गया था और उसका सचित्र वृत्तान्त भी प्रकाशित किया। )
उधर उस अज्ञात कवि के नर्मदा को ‘चिरकुमारी’ कहने पर हजारों-लाखों लोग उसकी परिक्रमा पर चल पड़े! और याद रहे, मेघ जाता भर है, वापस नहीं आता। परकम्मावासी तो वापस भी आता है। वह दक्षिण-तट से अमकंटक से समुद्र तक जाता है और उत्तर-तट से समुद्र से अमरकंटक वापस आता है। उस अज्ञात कवि के कारण नर्मदा को वह गौरव मिला, जो संसार में किसी नदी को नहीं मिला। सारे संसार में केवल नर्मदा की ही परिक्रमा की जाती है।
वह कौन था, कहाँ का था, कब हुआ था आदि बातें हम नहीं जानतेे। फिर भी इतना तो कह ही सकते हैं कि वह यहाँ के भूगोल से अच्छी तरह से परिचित था और एक भौगोलिक तथ्य को काव्यात्मक सत्य में बदल देने की उसमें अद्भुत प्रतिभा थी। 4 अप्रैल, 2003 की शाम को अमरकंटक पहुँचते ही मैंने मन ही मन उसे प्रणाम किया।
रहने की व्यवस्था कल्याण-आश्रम में हो गई। प्रथम परिक्रमा के दौरान 1978 में मैं इसी आश्रम में रहा था। तब यहाँ केवल झोंपड़ियाँ थीं, आज अनेक विशाल भवन हैं। बहुत सारे पेड़ हैं और बहुत अच्छा उद्यान है। पौधों पर जितने फूल हैं, पेड़ों पर उतने ही पक्षी। आश्रम द्वारा, अपने नाम के अनुरूप, कई कल्याण-कार्य किए जाते हैं- विशेष रूप से शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में।
हम आश्रम के मन्दिर की सायं-आरती में सम्मिलित हुए। थोड़ी देर बाद मेरे एक साथी ने धीरे से कहा, ‘‘आगे गोविन्दाचार्य खड़े हैं।’’
आरती सम्पन्न होने पर हम बाहर आए। वे भी आए। गोविन्दाचार्य ही थे। उन्होंने हम लोगों को नमस्कार किया, तो हम लोगों ने भी किया। छरहरा शरीर, काला रंग, तेजस्वी आँखें। बातें होने लगीं। उनकी बातों से उनकी मेधा झलकती थी। बहुत अच्छी हिन्दी बोल रहे थे। स्वाभाविक ही बातें राजनीति को लेकर थीं। राजनीति में मेरी जरा भी दिलचस्पी नहीं। न मैं अखबार पढ़ता हूँ, न ही उस भानमति के पिटारे में (जिसे आजकल लोग टीवी कहने लगे हैं) समाचार देखता हूँ। भूलकर भी नहीं। इसलिए चुप रहा।
तभी मेरे किसी साथी ने उन्हें मेरे बारे में बताया तो लगे मेरी पुस्तक की प्रशंसा करने!
मुझे आश्चर्य हुआ। इतने व्यस्त आदमी को भला किताब पढ़ने का समय कहाँ से मिला होगा! पता नहीं, इन्होंने मेरी किताब देखी भी है या नहीं! प्रशंसा तो बिना पढ़े भी की जा सकती है। नेता इसमें निपुण होते हैं। कहीं यह वही लटका तो नहीं! मैंने कहा, ‘‘अभी आपने मेरी किताब के बारे में जो कहा, क्या हाथ में गीता लेकर उसे दोबारा कह सकते हैं? ’’
‘‘मैं ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा ’ साथ लेकर चला हूँ। कहें, तो अभी मँगा कर दिखा दूँ।’’
अब मैं क्या कहता! इन्हें तो किताब का नाम तक याद है। हाँ, उन्हें दूसरी किताब ‘अमृतस्य नर्मदा’ के बारे में कोई जानकारी न थी।
किन्तु इससे भी बड़ा विस्मय अभी बाकी था। मेरे किसी साथी ने कहा कि वेगडज़ी नर्मदा की पूरी परिक्रमा कर चुके हैं, लेकिन 75 वें वर्ष में प्रवेश करने पर दोबारा चल रहे हैं। सुनते ही उन्होंने मेरे पाँव छुए!
यह पलक झपकते हो गया। यह इतना अप्रत्याशित था कि उन्हें रोकने का मुझे समय ही न मिला। मैं मारे संकोच के गड़-सा गया। इतना बड़ा आदमी और ऐसी विनम्रता!
विनम्रता किसी में भी अच्छी लगती है, किन्तु जब वह किसी बड़े आदमी में सहज-स्वाभाविक रूप से प्रकट होती है, तब उसकी द्युति कुछ और होती है। तब ऐसा प्रतीत होता है मानो वह हल्दी लगाकर स्नान करके निकली हो!
राजनीति और इनसानी रिश्ते दो अलग-अलग चीजें हैं। मैं गोविन्दाचार्य की नीतियों से असहमत हो सकता हूँ, लेकिन एक मनुष्य के नाते मैं उन्हें चाह भी तो सकता हूँ।
‘‘आप लोग भृगु-कमण्डल देखना न भूलें।’’ इतना कहकर वे युवकों की-सी चपलता के साथ मन्दिर की सीढिय़ाँ उतर गए।
हमारे दल के बारे में बताना तो भूल ही गया। कान्ता, गार्गी और डॉ. अखिल मिश्र तो पिछली यात्रा में भी थे। कुन्दनसिंह परिहार और शरद चौहान नए सदस्य हैं। परिहारजी कॉमर्स कॉलेज के प्राचार्य रहे और कहानी लेखक भी हैं। शरद मेरे भानजे का दोस्त है और बड़ा ही गुणी और खुशमिजाज है। पार्थिव शाह दिल्ली से आए हैं और प्रसिद्ध फोटोग्राफर हैं। छोटा बेटा नीरज भी है। लेकिन ये दोनों अमरकंटक तक ही हैं। फगनू दादा तो हैं, लेकिन गरीबा नहीं है। उसकी जगह आ गया है मेरा पुराना विश्वस्त साथी छोटू जो मेरे साथ कई बार चल चुका है।
दूसरे दिन दोपहर तक नर्मदा-कुंड, सोनमुड़ा, माई की बगिया और कुंड के बाहर स्थित कल्चुरीकालीन प्राचीन मन्दिर देखे। तीसरे पहर कपिलधारा गए। अक्टूबर में दो धाराएँ थीं। पानी कम हो जाने के कारण अब केवल एक धारा रह गई थी। उसके दोनों ओर मधुमक्खी के कई छत्ते लगे थे। इसलिए यहाँ स्नान न करके दूधधारा में स्नान किया और फिर भृगु-कमंडल निकल गए। नर्मदा-कुंड से उत्तर की ओर कोई 7 कि. मी. दूर धूनीपानी तक सडक़ गई है। यह हरा-भरा एकान्त स्थान है। यहाँ से पगडंडी से चलकर भृगु-कमंडल पहुँच गए। यहाँ एक चट्टान की खड़ी दीवार में एक छोटा-सा छेद है-जमीन से कोई एक मीटर ऊपर। आश्चर्य की बात यह है कि उसमें हाथ डालने पर वहाँ पानी मिलता है। यही है भृगु-कमंडल। यह पहाड़ के एक छोर पर है।
रात को पुन: नर्मदा-कुंड गए- आरती देखने। हम लोग यह भी देखना चाहते थे कि कुंड से बाहर निकलकर नर्मदा किस मार्ग से प्रवाहित होती है। कुंड और उसका परिसर तो स्वच्छ है, लेकिन कुंड के अहाते से बाहर निकलते ही स्थानीय लोगों ने नर्मदा की जो गत बना रखी है, उसे देखकर ग्लानि ही होती है। पूजा-सामग्री बेचने वाली लडक़ी ने हमें रात के अँधेरे में वहाँ जाने से रोक दिया- बड़ी गंदगी है वहाँ। लोग मानो घात लगाए बैठे हैं कि नर्मदा बाहर निकले और हम उसमें अपनी गंद बहाएँ।
भगवान जितने मन्दिरों में निवास करते हैं, उतने ही स्वच्छता और शुचिता में रहते हैं। हमारे सन्त यदि इस बात का पुरजोर प्रचार करें तो प्रभु-सेवा के साथ-साथ यह उनकी बहुत बड़ी देश-सेवा होगी। धर्म और गंदगी साथ-साथ नहीं रह सकते।
तीसरे दिन सुबह पार्थिव और नीरज वापस चले गए। पार्थिव को अगले महीने जर्मनी जाना है। वहाँ उसके चुने हुए फोटो की प्रदर्शनी है।
बाकी के हम आठ नर्मदा के दक्षिण-तट की पदयात्रा के लिए चल पड़े। कितनी छोटी है नर्मदा! क्या अग्निशिखा की तरह ‘जलशिखा’ शब्द हो सकता है? जलशिखा-सी यह नदी समुद्र तक पहुँचते-पहुँचते मशाल का रूप ले लेती है। जिस नदी को यहाँ एक बच्चा भी फलाँग सकता है, उसी नदी का पाट वहाँ 20 कि. मी. चौड़ा हो जाता है।
अमरकंटक से कपिलधारा तक नर्मदा सीधे-सपाट मैदान में से होकर बहती है। उसका रास्ता रोकने के लिए एक चट्टान तक नहीं, वह सीधी रेखा में बह सकती थी, लेकिन वह तो बहती है टेढ़ी-मेढ़ी, आड़ी-तिरछी। एक जगह तो वह इतनी चक्राकार बहती है कि लोगों ने उसका नाम ही रख दिया चक्रतीर्थ। नर्मदा अकारण ही इतनी आड़ी-टेढ़ी बहती है। मुझे तो इसका एक ही कारण समझ में आता है-उसकी वक्रगतिप्रियता! यह उसकी अपनी शैली है। सीधे सपाट बहना गंगा की शैली है।
कपिलधारा तक का मार्ग आसान है। लेकिन अधिकांश परकम्मावासी कपिलधारा नहीं जाते। सड़क पकड़कर डिंडौरी चले जाते हैं। दोपहर के पहले ही हम लोग कपिलधारा पहुँच गए। यहाँ से एक पगडंडी शालवन में से होती हुई, नर्मदा के प्राय: संग-संग, पकरीसोंढ़ा तक जाती है। हम लोग इसी वनमार्ग से चले। यहाँ का शान्त सौन्दर्य देखते ही बनता है। मानो नीरवता के किसी मोहक संसार में आ गए हों।
धीरे-धीरे पेड़ों का घेरा घना होने लगा। सभी पेड़ शाल के थे और बौर से लद गए थे। इस कारण सजे-सँवरे लग रहे थे। नीचे गिरे सूखे पत्तों ने जमीन को इस तरह ढँक दिया था कि वह दिखाई ही नहीं देती थी। उन पर चलते तो चर-चर की आवाज होती। उनका रंग ललामी लिए पीला था और पेड़ों में लगे पत्तों के हरे रंग से जरा भी कम आकर्षक नहीं था। उपेक्षितों का अपना सौन्दर्य होता है। वे निस्तेज भले ही हो गए हों, निरर्थक नहीं। आखिर वे भी तो इस वन-प्रदेश के अंश हैं।
बीच-बीच में नर्मदा दिख जाती। उसके तट पर बाबाओं की दो-एक कुटी भी मिली। आश्चर्य की बात यह थी कि हम पहाड़ उतरकर मैदान में आ गए और हमें पता तक न चला कि पहाड़ उतर गए हैं। लगा मानो समतल भूमि पर चल रहे हैं। दमगढ़ की घाटी से जब चढ़े थे, तब खड़ी चढ़ाई थी और लगा था कि पहाड़ चढ़ रहे हैं। उतरते समय लगा ही नहीं कि पहाड़ उतर रहे हैं।
पहाड़ खत्म तो खूबसूरत शालवन भी खत्म। अमरकंटक हरा-भरा पहाड़ है, एड़ी से चोटी तक शाल का परिधान पहने (या शाल ओढ़े) भद्र पहाड़। अमरकंटक का नाम मेकल भी है। मुझे उसका एक और नाम रखने की अनुमति दी जाए, तो मैं उसका नाम रखूँगा-शालभद्र।
शालभद्र नाम लेते ही शोणभद्र की याद हो आई। पहाड़ का यह पश्चिमी सिरा है, उधर पूर्वी छोर पर शोणभद्र है-उपेक्षित और अपमानित।
मेरा विचार है कि जिसने भी नर्मदा परिक्रमा की परम्परा चलाई, उसे शोण के प्रति थोड़ी उदारता दिखानी थी। उसे यह नियम बनाना था कि अमरकंटक का पहाड़ उतरते ही परकम्मावासी पहाड़ के किनारे-किनारे चलकर शोणभद्र तक जाएगा, उसे एक झलक देखकर वापस आएगा, फिर आगे बढ़ेगा। अगर वह परकम्मावासी को मांडू भेज सकता है, जो नर्मदा से काफी दूर है, तो शोणभद्र तक क्यों नहीं? आखिर कभी नर्मदा और शोण के बीच मधुर सम्बन्ध रहे, दोनों का विवाह होने वाला था। अमरकंटक में पड़ोसी तो वे आज भी हैं। उसे इतनी इज्जत तो मिलनी चाहिए थी। इस बहाने अमरकंटक के पहाड़ की आधी परकम्मा भी हो जाती।
मेरा विश्वास है कि इस छोटी-सी पदयात्रा का अनुमोदन तो नर्मदा भी कर देती। नर्मदा आखिर माँ है और मुझे पूरी विनम्रता के साथ कहने दीजिए कि अब तो वह शोण की भी माँ है।
लेकिन जो हो गया, अब उसे बदला नहीं जा सकता।
मेरे साथी आगे निकल गए थे। मैं तेजी से उनकी ओर बढ़ लिया।
1836 राइटटाऊन, जबलपुर-2 (म.प्र.)
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