अमीरी की गरीबी

देश छोटा-सा है, आबादी भी हम जैसे देशों की तुलना में बहुत ही कम है। लेकिन दूध, डेयरी और मांस का उत्पादन बहुत ही ज्यादा है। इसलिए पशुओं की संख्या भी खूब है। यहां एक व्यक्ति पर आठ पशुओं का औसत आता है। और इस कारण पशुओं का गोबर भी खूब है। हमारे देश में वरदान माना गया गोबर यहां के पर्यावरण के लिए अभिशाप बन चुका है। यहां इसे ‘राष्ट्रीय’ समस्या माना जा रहा है।अपरिग्रह, जरूरत से ज्यादा चीजों का संग्रह न करने की ठीक सीख सभी पर लागू होती है। सभी पर यानी सभी समय, सभी जगह, सभी देशों में और सभी चीजों पर। ऐसा नहीं कि साधारण चीजों पर ही यह लागू होती हो। अमृत भी जरूरत से ज्यादा किसी काम का नहीं। गोबर को हमारे यहां अमृत जैसा ही तो माना गया है। पर यही गोबर यूरोप के एक देश नीदरलैंड में जरूरत से ज्यादा हो गया तो उसने वहां कैसी तबाही मचाई- इसे बता रहे हैं श्री राजीव वोरा। चीजों के संग्रह, बेतहाशा आमदनी-खर्च पर टिका आज का अर्थशास्त्र हर कभी हर कहीं गिर रहा है। दो बरस पहले अमेरिका में गिरा तो इस समय यह यूरोप में ग्रीस को हिला गया है। कई देशों पर यह संकट छा रहा है। कुछ बरस पहले नीदरलैंड ने अपने अर्थशास्त्र में छिपे अनर्थ को समझने के लिए भारत, इंडोनेसिया, ब्राजील और तंजानिया से चार मित्रो को बुलाकर लगभग पूरा देश घुमाया था, अपने समाज के विभिन्न पदों, क्षेत्रों, धंधों में काम कर रहे सैकड़ों लोगों से मिलाया था। उन चार मित्रो में से एक मित्र श्री राजीव वोरा के ये विशिष्ट अनुभव, उससे निकली सीख संकट के इस ताजे दौर में उन देशों के काम भी दुबारा आ सकती है और उससे भी ज्यादा हम जैसे देशों को भी कुछ सीखा सकती है।

नीदरलैंड में पैदा हुए संकट ने पश्चिम में विकास के मूल में छिपे विरोधाभास को पूरी तरह से खोल कर सामने रख दिया है। यहां विकास के कारण हो रहा पतन बहुत ही साफ है। उसकी गति भी तेज है।

यह देश आधुनिक किसानों का देश माना जाता है। पूरी दुनिया में इसका कृषि उत्पादन बहुत ऊंची जगह रखता है। लेकिन इसी ऊंची उत्पादकता ने यहां के समाज को बहुत नीचा गिराया है। खेती का आधार है भूमि। वही यहां जहरीली हो गई है।

देश छोटा-सा है, आबादी भी हम जैसे देशों की तुलना में बहुत ही कम है। लेकिन दूध, डेयरी और मांस का उत्पादन बहुत ही ज्यादा है। इसलिए पशुओं की संख्या भी खूब है। यहां एक व्यक्ति पर आठ पशुओं का औसत आता है। और इस कारण पशुओं का गोबर भी खूब है। हमारे देश में वरदान माना गया गोबर यहां के पर्यावरण के लिए अभिशाप बन चुका है। यहां इसे ‘राष्ट्रीय’ समस्या माना जा रहा है। यहां की आबादी के हिसाब से गोबर का औसत बिठाइए, थोड़ा गुणा-भाग कीजिए तो पता चलेगा कि नीदरलैंड के हर व्यक्ति के हिस्से में प्रतिदिन लगभग सात किलोग्राम गोबर आ रहा है। यहां इसके न कंडे, उपले बनते हैं, न इसकी खाद ही। तब इसकी बनती है बस समस्या। और उसका कोई ठीक हल अभी तक नहीं सूझ पाया है, यहां के लोगों को।

मशीन के साथ गहरे हुए मानवीय रिश्तों का फिर मूल्यांकन करना होगा। यह पुनर्मूल्यांकन स्थायित्व व बराबरी तथा स्थानीय व वैश्विक संबंधों को ध्यान में रखते हुए करना होगा। मशीनी युग स्थायित्व के लिए एक अभिशाप बन कर सामने आया है। भारतीयों से लेकर अरबियों, मुसलमानों, अफ्रीकियों, लातिन अमेरिकियों व चीनियों इन सभी को मशीनों का आविष्कार करने आता है। लेकिन इसके बदले इन सभी समाजों ने अपने हाथ व पैरैरों को मशीनों से अधिक महत्व दिया था।यहां समृद्धि खूब है। लोगों के पास खरीदारी की खूब क्षमता है। पूरा बाजार खरीद कर घर ले आओ, इतना पैसा है। लेकिन इस खरीदारी के बाद जो चीजें घर आती हैं, उनकी पैकिंग, डिब्बा, थर्मोकोल, पन्नी, तरह-तरह की सुतली, कागज भी इतना ज्यादा होता है कि हर रोज हर घर ढेर-सारा कचरा भी पैदा करता है। इसे भला कैसे ठिकाने लगाएं? घर के कचरे को ठिकाने लगा पाने में अब यह देश अक्षम हो गया है। गोबर के बाद घरेलू कचरा इस देश की दूसरी बड़ी राष्ट्रीय समस्या बन चुका है। यहां का हर नागरिक साल भर में कोई तीन हजार किलोग्राम रद्दी, घरेलू कचरा पैदा करता है।

आबादी बेहद कम है और बेहद ज्यादा हैं मोटर गाड़ियां। हर घर में कम से कम छह-सात वाहन का औसत बैठता है। अब इन वाहनों से निकलने वाला धुंआ धरती और आसमान को कितना जहरीला बनाता होगा- यह हिसाब आप ही लगाइए। पशुपालन, खेत और घरों की समस्याओं से आगे चलें।

औद्योगिक विकास भी यहां अपने चरम पर है। परिणामस्वरूप यहां की हवा और यहां का पानी बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है। यह सूची यहीं समाप्त नहीं होती। विकास की चमक के साथ उसकी काली परछाई हर कदम उसका पीछा कर रही है। विकास और विनाश यहां सिक्के के दो पहलू बन गए हैं। प्रगति और पतन के बीच पिस रही पश्चिमी सभ्यता आज एक गंभीर संकट में फंसी हुई लगती है, और नीदरलैंड उसका एक दुखद उदाहरण बन गया है।

यहां आर्थिक व्यवहार, आचरण ही जीवन का केंद्र बिंदु बन गया है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यहां इस बात की मान्यता लगभग गायब हो चली है कि मनुष्य के भीतर की ऊर्जा ही उसकी प्रसन्नता का स्रोत है। भौतिक उपलब्धि हासिल करने और उपभोग की प्रवृत्ति तेजी के साथ बढ़ रही है। यहां लोगों को लगता है कि बस भौतिक उपलब्धियों के बाजार, चीजों के संग्रह से ही खुद को खुश रखा जा सकता है। पश्चिमी विचार में व्यक्ति ही सृष्टा है। प्रकृति को तो यहां व्यक्ति का प्रतिद्वंद्वी, दुश्मन माना जाता है।

ये सारी बातें सभ्यता का ऐसा लक्षण प्रस्तुत करती हैं, जिसका मूल सिद्धांत हिंसा पर आधारित है। लेकिन पश्चिम का समाज अभी इसी को मान्यता दे रहा है। पर भारत, चीन, एशिया, अफ्रीका व लातिन अमेरिका के अन्य कई देश अभी भी अपनी ऐतिहासिक विरासत की मूल्यवान प्रकृति को, स्वभाव को सारी आंधी के बाद भी बचाए रखे हुए हैं। उपनिवेशी शासन व शिक्षा के कारण इन देशों की सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव जरूर आया है और उसके परिणामस्वरूप इन सब देशों के लोगों की सांस्कृतिक परंपराएं भी कुछ हद तक बदली हैं। कदम कुछ डगमगाए हैं। फिर भी इन देशों में बहुत कुछ बचा है अभी।

डच समाज को, नीदरलैंड को अब अपने इस गंभीर संकट का कुछ अनुभव, कुछ आभास पर्यावरण संकट के जरिए हो चला है। लेकिन अपनी खुद की इच्छाओं के कारण से अपनी जीवन शैली व जीवन दर्शन की नैतिक समस्या का सामना तो इसे करना ही होगा। उसके बाद इस समाज को इस तरह के कुछ नीतिगत कदम उठाने होंगे। तभी झूठी प्रगति पर थोड़ी लगाम कसी जा सकेगी।

उन्हें इसके लिए सबसे पहले मशीन के साथ गहरे हुए मानवीय रिश्तों का फिर से मूल्यांकन करना होगा। यह पुनर्मूल्यांकन स्थायित्व व बराबरी तथा स्थानीय व वैश्विक संबंधों को ध्यान में रखते हुए करना होगा। मशीनी युग स्थायित्व के लिए एक अभिशाप बन कर सामने आया है। भारतीयों से लेकर अरबियों, मुसलमानों, अफ्रीकियों, लातिन अमेरिकियों व चीनियों- इन सभी को मशीनों का आविष्कार करना आता है। लेकिन इसके बदले इन सभी समाजों ने अपने हाथ व पैरों को मशीनों से अधिक महत्व दिया था।

प्रत्येक समाज अपनी जरूरतों के मुताबिक मशीनें बनाता है, उन्हें बढ़ता है। लेकिन मशीनों का विकास करते समय समाज को इस बात का बराबर ध्यान रखना चाहिए कि ये मशीनें समाज की रचनात्मक व प्रयोगधर्मी प्रतिभा में बस मददगार साबित हों। मशीनों की यह स्थिति कभी नहीं बनने देनी चाहिए कि उत्पादन की प्रक्रिया में वे खुद व्यक्ति की रचनात्मक प्रतिभा का ही स्थान ले बैठें। लेकिन आज के आधुनिक समाज ने हाथों की जगह मशीनों को स्थापित कर दिया है, व्यक्ति की रचनात्मकता को दरकिनार कर दिया है और उत्पादन व्यवस्था को एक अनैतिक व्यवस्था में बदल जाने की खुली छूट दे दी है। नैतिक निर्णयों और रचनात्मकता से शून्य व्यक्ति जैसे गुलाम बन गया है और आर्थिक तंत्र लुटेरा। लेकिन टॉल्सटॉय, गांधी, रस्किन और यूरोप के आदर्शों से प्रेरित हाथ अभी भी अपनी जमीन से बराबर जुड़े हुए हैं और प्रकृति के साथ तालमेल बिठा कर काम कर रहे हैं। जो अपने हाथों से काम करते हैं, वे हिंसक व शोषक नहीं हो सकते। जो लोग पसीना बहाकर अपनी रोटी कमाते हैं, उन लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत नहीं होती।

असीमित मशीनीकरण ने नीदरलैंड के लोगों को खोखला और बेकार-सा बना दिया है। इसी के साथ इस देश ने अन्य देशों से पूंजी व श्रम को लूट कर अपने यहां उठा लाने की अकूत क्षमता विकसित कर ली है।

कचरे की समस्या को सबसे पहले लोभ के परिणाम के रूप में देखा जाना चाहिए। नीदरलैंड का हर व्यक्ति कचरा पैदा करने का एक कारखाना बन गया है। सचमुच यहां हर व्यक्ति साल भर में इतना कचरा तो अपने छोटे-से घर में पैदा करता ही है, जितना कि तीसरी दुनिया के देशों में चलने वाला कोई छोटा-मोटा कारखाना।

स्वस्थ व टिकाऊ विकास और समाज में समानता के लिए समाज का मन कोई रात-भर में तो बदला नहीं जा सकता। खास तौर से तब जब मशीन, बाजार व प्रगति के प्रति हमारी अंध भक्ति बढ़ चुकी हो। ऐसे में समता और टिकाऊपन की बात बेमानी है। इस व्यवस्था की बुनियाद उपनिवेशीकरण के जरिए पड़ी है। इसलिए डच जीवन में मशीन की बुनियादी भूमिका का मूल्यांकन बहुत जरूरी है। ऐसे किसी अभ्यास से न्याय व नैतिकता की भावना जगाने में तथा ऐसा क्षेत्र विकसित करने में मदद मिलेगी, जहां मनुष्य के हाथ व मस्तिष्क के लिए कुछ नई जगह फिर से बन सकेगी।

इस समाज के स्वभाव में दीर्घकालिक बदलाव के लिए युवकों की शिक्षा बहुत जरूरी है। इस शिक्षा के जरिए युवकों के विचार व उनकी समस्या से भी परिचित हो सकते हैं। युवकों के नैतिक आग्रह के प्रति सकारात्मक रुख अपना कर डच समाज में कुछ ही दशक के भीतर एक ठीक बदलाव लाया जा सकता है। इसी तरह लोगों के भीतर उच्च नागरिक भावना बदलाव के खजाने की एक उम्दा संपत्ति बन सकती है।

प्रत्येक समाज अपनी जरूरतों के मुताबिक मशीनें बनाता है, बढ़ता है। लेकिन मशीनों का विकास करते समय समाज को इस बात का बराबर ध्यान रखना चाहिए कि ये मशीनें समाज की रचनात्मक व प्रयोगधर्मी प्रतिभा में बस मददगार साबित हों। मशीनों की यह स्थिति कभी नहीं बनने देनी चाहिए कि उत्पादन की प्रक्रिया में वे खुद व्यक्ति की रचनात्मक प्रतिभा का ही स्थान ले बैठैं।लेकिन बड़ी समस्या यह है कि यहां के लोग पर्यावरण की समस्या को प्राथमिकता तो देते हैं, लेकिन इसके लिए वे किसी तरह की कुर्बानी देने को तैयार नहीं हैं। वे अपनी खर्चीली आदतें बदलने को जरा भी तैयार नहीं हैं। वे रीसाइकल के लिए अपनी बोतलों व रद्दी कागजों को भले ही इकट्ठा कर लें, लेकिन वे सार्वजनिक परिवहन के लिए अपनी निजी कारों को तिलांजलि नहीं देना चाहेंगे। शहरों में बसें अच्छी हैं, खूब हैं। पर लोग अपनी मोटर गाड़ियां छोड़कर उनमें सफर नहीं करना चाहते। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि कारों को खड़ी करने की समस्या पहले से ही भयानक है, वह और भयानक होगी। सड़कें कारों से पट गई हैं। जगह-जगह यातायात ठप हो रहा है। इसकी पीड़ा और बढ़ेगी तो आखिर कुछ सोचना ही पड़ेगा। तब विवेक से नहीं तो मजबूरी में बदलाव की तरफ जाना ही पड़ेगा।

डच समाज ठीक उसी तरह छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटा हुआ है, जिस तरह अन्य यूरोपीय समाज। ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां के समाज को संपत्ति और अनेक सरकारी कल्याणकारी प्रक्रियाओं द्वारा तरह-तरह की आजादी मिली हुई है। इस तरह के समाज संरचनागत रूप में संसाधनों पर बड़ा बोझ बन जाते हैं। यहां के परिवार उस तरीके से नहीं रह सकते, जिस तरह से कई सारे हमारे जैसे समाज रहते आए हैं। यहां औसतन प्रति तीन व्यक्ति यानी पुरुष-महिला और उनके बस एक बच्चे पर स्वतंत्र रूप से एक घर, कार, फ्रीज, कपड़ा और बर्तन धोने की आधुनिक मशीन, टी.वी., रेडियो और वी.सी.आर., बच्चों के ढेर सारे खिलौने, रसोई का सामान, खाना पकाने के बर्तन आदि की जरूरत आदत की तरह शामिल हो चुकी है। इसमें वे किसी तरह की कटौति करने के लिए तैयार नहीं हैं।

हमें यह बात हर हाल में स्वीकार करनी चाहिए कि हम इस तरह की सामाजिक आदतों को तकनीकी आधुनिकीकरण या ओढ़ी हुई सादगी से दूर नहीं कर सकते। अधिकांश पर्यावरणवादी कार्यकर्ता और चिंतक इसी तरह के अर्थवादी जाल में फंसे हुए हैं। यहां रोग और उसके इलाज में कोई अंतर नहीं बचा है। दोनों ही एक से बढ़कर एक खर्चीले हैं। इससे यह संकट और भी गंभीर हो चला है। इसलिए वास्तविक चुनौती एक नया ढांचा खड़ा करने की है ताकि समाज में नई व्यवस्था कायम की जा सके। तब आंतरिक प्रेरणा से अपूर्व ऊर्जा पैदा हो सकती है। और समाज इस परिवर्तन के लिए तैयार भी हो सकेगा। यदि जीवन की आंतरिक समृद्धि इस तरह से बहाल हो जाती है तो लालच अपने आप नियंत्रिात हो जाएगा और सामाजिक रिश्तों के बीच आनंद का एक उत्सव शुरू हो सकेगा।

यदि डच समाज में इस विचार को स्वीकार कर लिया जाएगा कि जीवन और मानवीय संसाधन ही स्थायित्व की समस्या की जड़ है तो यह समाज और सरकार अनुसंधान, शिक्षा और नीति में अपना मन रमा सकेंगे। यदि डच समाज के लोग नए और ज्ञान युक्त लक्ष्यों को निर्धारित कर लेते हैं तो आज की वैज्ञानिक, तकनीकी, आर्थिक और कूटनीतिक उपादानों की जरूरत अपने आप सीमित हो चलेगी। आज तो डच समाज अपने अपार उत्पादन से सम्मोहित है। उसने यह मान लिया है कि अपार उत्पादों पर कब्जा ही समृद्धि है। लेकिन सहज रूप में भी देखने पर यह बात बिलकुल साफ हो जाती है कि उनके पास उस तत्व का पूर्णतः अभाव है जो जीवन को सचमुच समृद्ध बनाता है। इसलिए जीवन शैली का प्रश्न इस संदर्भ में एक नया अर्थ ले लेता है, और स्थायित्व का प्रश्न एक नया संदर्भ।

हमारे सामने एक अहम प्रश्न बार-बार आता है। समृद्धि की परिभाषा क्या है? स्वस्थ अर्थव्यवस्था क्या है? नैतिक अर्थव्यवस्था क्या है? इसका सीधा-सा जवाब यही है कि जो नैतिक है, वही टिकाऊ है। पश्चिमी समाज को हर हाल में एक ऐसे उदाहरण की तलाश करनी होगी- जो टिकाऊ हो।

यूरोप का समाज आज जिस नए संकट में फंसा पड़ा है, शायद नीदरलैंड का डच समाज उसका कोई हल निकाल पाए। उसे शायद अपनी अमीरी में अपनी गरीबी दिख जाए और तब वह उसे दूर कर सचमुच संपन्न बन जाए।

लंबे समय तक गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े रहे श्री राजीव वोरा इस पत्रिाका गांधी-मार्ग के संपादक थे। अब वे स्वराज पीठ नामक संस्था के अध्यक्ष हैं।

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