अमीर देशों के उत्सर्जन पर अंकुश जरूरी

भारत में अमीर लोगों ने पारिस्थितिकी का अपने हिस्से से ज्यादा इस्तेमाल किया है। हमें ग़रीबों को वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत और आर्थिक विकल्प मुहैया कराने के लिए वैसी तकनीकों में निवेश करना चाहिए, जिससे कार्बन डाइऑक्साइड के कम उत्सर्जन की सुविधा उन्हें दी जा सके।जलवायु में हो रहे बदलाव की वास्तविक चेतावनी हमारे सामने आ चुकी है। अब समय आ गया है कि हम सोचें कि इसके सामना करने के लिए हमें क्या करना चाहिए। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा पेश की गई रपट से जॉर्ज बुश से जलवायु के सिद्धांतों को नहीं मानने वाले व्यक्ति का चेहरा शर्म से झुक जाना चाहिए। इस रपट में कहा गया है कि वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में कई गुणा वृद्धि हुई है, जिसके लिए इंसानी गतिविधियाँ जिम्मेदार हैं। इन्हीं गतिविधियों के कारण पारिस्थितिकी का पूरा सिस्टम गर्म हो रहा है, जिसका प्रमाण वायु और समुद्र के तापमान में हो रही वृद्धि है। बढ़ते तापमान के कारण बर्फ के ग्लेशियर तो तेजी से पिघल ही रहे हैं, साथ ही समुद्र का जल स्तर भी बढ़ रहा है। जिस चीज की आशंका जताई जा रही थी, वह हमारे जीवन में ही सच होती दिख रही है।

आज हम खतरनाक रूप से असुरक्षित हैं। हाल में, अपने एक अध्ययन में भारतीय वैज्ञानिकों ने इस बात पर सहमति जताई है कि हिमालय में बर्फ पिघलने की दर असामान्य है। इसका सीधा सा अर्थ है कि पानी के लिए ग्लेशियर पर निर्भर रहने वाली उत्तर भारत की नदियों में पहले तो इतना ज्यादा पानी आ जाएगा कि बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाएगी और उसके बाद तेज पानी का प्रवाह बहुत घट जाएगा। साथ ही, हमें आने वाले दिनों में लू और बाढ़ की विकट परिस्थितियों से भी गुजरना होगा और इससे फसल की उत्पादकता पर भी असर पड़ेगा। इन विकट स्थितियों के लिए हमें लंबा इंतजार नहीं करना होगा, ये बदलाव अगले 20-25 वर्षों में यानी 2030 तक ही देखने को मिल जाएंगे।

औद्योगिकृत उत्तरी देशों ने उत्सर्जन कम करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया है, जो कि हमारी प्रगति के लिए रुकावट है। वैश्विक स्तर पर यह मांग जोर शोर से की जा रही है कि भारत और चीन को भी उत्सर्जन में कमी करनी चाहिए। चीन के प्रदूषण फैलाने वाले कारख़ानों और भारत के ऐसे ही कारख़ानों की तस्वीरों से अंतर्राष्ट्रीय मीडिया भरा पड़ा है। इसका मकसद यह है कि इन दोनों देशों पर उत्सर्जन कम करने के लिए दबाव बनाया जा सके। जॉर्ज बुश हमेशा से यह तर्क देते आए हैं कि क्योटो प्रोटोकॉल बुनियादी रूप से गलत है क्योंकि चीन और भारत जैसे प्रदूषक देश इसमें शामिल नहीं हैं। अब यह बात सिर्फ बुश ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि दावोस से लौटे हमारे संभ्रांत प्रतिनिधियों ने भी यही बात दोहराई है। उनका कहना है हम सबसे बड़े प्रदूषक नहीं हैं तो क्या हुआ? हमारे यहां उत्सर्जन का स्तर विकसित देशों से पहले भी कम था और आज कम है, लेकिन उससे क्या? हमें हर हाल में उत्सर्जन कम करने वाले समूह में शामिल होना होगा।

आगे बढ़ने से पहले अतीत में झांक लेते हैं। 1991 में जब दुनिया पारिस्थितिकी के बदलाव से रूबरू हो रही थी, उस समय अनिल अग्रवाल और मैंने ‘ग्लोबल वार्मिंग इन एन अनइक्वल वर्ल्ड: ए केस ऑफ इंवायरमेंटल कोलोनाइजेशन’ नाम से एक रपट प्रकाशित की थी। इस रपट में हमने यह बात रखी थी कि जिस तरह से गरीब को अपने आर्थिक कर्ज अदा करने होंगे, उसी प्रकार उत्तरी देश पर्यावरण के मामले में आने वाली पीढ़ी के स्वाभाविक रूप से कर्ज़दार हैं क्योंकि उन्होंने अपनी सीमाओं से अधिक उत्सर्जन किया है। भविष्य में उन्हें यह कर्ज अदा करना होगा। हमने यह बात भी रखी थी कि उत्सर्जन ट्रेडिंग की जानी चाहिए यानी विकासशील देशों ने अपने हिस्से से कम उत्सर्जन किया है इसलिए विकसित देशों को इन देशों को पैसा देना चाहिए ताकि विकासशील देश इसे ऊर्जा स्रोत की वैसी तकनीकों व साधनों को विकसित करने में लगा सकें, जिनसे कार्बन का उत्सर्जन कम होता है। हमने राय दी थी कि प्रत्येक व्यक्ति की हिस्सेदारी के अनुसार उसे कार्बन उत्सर्जित करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। इस ट्रेडिंग सिस्टम में कार्बन डाइऑक्साइड की कीमत कम न की जाए।

पारिस्थितिकी बदलाव की वार्ताओं में हमारे इसी तर्क का प्रयोग किया गया है। लेकिन विश्व की पर्यावरण संपत्ति पर हरेक देश को अधिकार देने वाले तंत्र बनाने के बजाए सीडीएम (क्लीन डेवेलपमेंट मेकैनिजम) बनाने का समझौता हुआ जो इस सिद्धांत पर आधारित था कि अधिक उत्सर्जन करने वाले विकसित देश विकासशील देशों को वैसी तकनीक विकसित करने के लिए पैसे देंगे, जिनसे उत्सर्जन कम किया जा सके। लेकिन इसके नियम ऐसे बनाए गए, जिनसे विकसित देशों के लिए यह सौदा सस्ता रहे। सीडीएम विकासशील देशों की कुछ कंपनियों के लिए फ़ायदेमंद है लेकिन इससे कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं होने वाला है। भारत सरकार इन्हीं सब में उलझी हुई है। सरकार की सोच है कि पर्यावरण बदलाव के मुद्दे को ज्यादा हवा नहीं देनी चाहिए, उसे लगता है कि अगर इसे हवा दी गई तो उसे भी अपनी प्रतिबद्धताएं निभानी पड़ेगी। सरकार अच्छी तरह जानती है कि ग्रीनहाउस गैस का सीधा संबंध आर्थिक वृद्धि से है। यही वजह है कि अमीर देश उत्सर्जन कम करने और अपने आर्थिक ढांचे बदलने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं। पारिस्थितिकी में बदलाव की चुनौती से निपटने के लिए छोटे-मोटे करने का अब समय नहीं है और न ही अमीर देशों के वैसे कदमों से कुछ होने वाला है जो वे दयावश उठाने को तैयार हैं। अब सख्त कदम उठाने की जरूरत है। पहला, अमीर देशों से उत्सर्जन भारी कटौती करने की मांग हमें जोर-शोर से करनी होगी। हमें सबसे बेहतर वैज्ञानिक तरीकों का सहारा लेकर अमीर देशों द्वारा किए जा रहे उत्सर्जन से हम पर, हमारी अर्थव्यवस्था और हमारे लोगों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों के बारे में बताना होगा, खासकर गरीब देशों के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में।

दूसरा, भी तरह से दबाव बनाकर हमें अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया को उत्सर्जन कम करने के लिए बाध्य करना होगा। और साथ ही अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के साथ किए गए एशिया पैसिफिक पार्टनरशिप संधि से तुरंत बाहर आ जाना चाहिए । यह संधि पर्यावरण बदलाव पर बहुपक्षीय समझौते की संभावनाओं को बर्बाद करने के लिए तैयार की गई है। यह संधि दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देश को बचाने के लिए की गई है।

तीसरा, पारिस्थितिकी बदलाव से निपटने के लिए हमें स्वंय आगे बढ़ना होगा। इसके लिए क्लीन डेवेलपमेंट मेकैनिज्म में बदलाव कर उसे और कारगर बनाने की जरूरत होगी। हमें अपनी अर्थव्यवस्था के न क्षेत्रों की पहचान करनी होगी जहां प्रदूषण न फैलाने वाली तकनीक का लाभ उठाया जा सके और उर्जा पर आने वाली लागतों को कम किया जा सके। ऊर्जा की बचत करने वाली तथा प्रदूषण कम करने वाली तकनीकों की खोज करनी होगी तथा इस पर आने वाली लागत का भी आकलन करना होगा। इन तकनीकों में निवेश करने के लिए हम पैसे की भी मांग कर सकते हैं। इस तरह हम दुनिया को पर्यावरण के लिहाज से और असुरक्षित होने से बचा सकेंगे।

चौथा, राष्ट्रीय स्तर पर उत्सर्जन को लेकर एक आंतरिक तंत्र बनाना चाहिए। भारत में अमीर लोगों ने पारिस्थितिकी का अपने हिस्से से ज्यादा इस्तेमाल किया है। हमें ग़रीबों को वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत और आर्थिक विकल्प मुहैया कराने के लिए वैसी तकनीकों में निवेश करना चाहिए, जिससे कार्बन डाइऑक्साइड के कम उत्सर्जन की सुविधा उन्हें दी जा सके।

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