आलू को दें जल कुंभी की खाद

फार्म एन फ़ूड, 16 नवंबर 2012। जलकुंभी एक ऐसी खरपतवार है जो कई सालों तक तालाब में रहने की कूबत रखती है। भारत के सभी राज्यों के निचले इलाको में जहां पानी जमा होता है,या गंदे तालाब है,वहाँ जलकुम्भी ज्यादा मिलती है। बारिश के वक्त यह तेजी से बढती है। पानी के निकास वाली जगहों जैसे नालों व तालाबों में जलकुम्भी उग जाने से पानी निकलने में परेशानी आती है।यह एक खरपतवार है लेकिन इसके पौधे से हमे फसल के लिए जरुरी पोषक तत्व नाइट्रोजन,फास्फोरस और पोटाश मिलता है।इसका इस्तेमाल हम कार्बनिक खाद के रूप में कर सकते हैं। जलकुम्भी में नाइट्रोजन 2.5 फीसदी,फास्फोरस 0.5 फीसदी,पोटेसियम 5.5 फीसदी और कैल्श्यम आक्साइड 3 फीसदी पाया जाता है। इसके अलावा इसमें तकरीबन ४२ फीसदी कार्बन होता है। केमिकल खादों के साथ जलकुम्भी का इस्तेमाल करने पर मिट्टी के भौतिक गुणों पर इसका बड़ा असर पड़ता है। नाइट्रोजन और पोटेशियम का अच्छा जरिया होने की वजह से आलू के लिए जलकुम्भी का महत्व और भी ज्यादा हो जाता है।

जलकुम्भी से भरा तालाबजलकुम्भी से भरा तालाबइसके अलावा अक्टूबर,नवम्बर के महीने में जलकुम्भी ज्यादा होने से यह आसानी से आलू के लिए एक अच्छी खाद के रूप में इस्तेमाल में लाई जा सकती हैं।जलकुम्भी के इस्तेमाल से मिट्टी भुरभुरी बन जाती है।मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में इजाफा होता है और मिट्टी की उपजाऊ ताकत बढ़ जाती है।इतना ही नहीं इसके इस्तेमाल से नाइट्रोजन वाली खाद खास कर यूरिया का लीचिंग द्वारा होने वाला नुकसान भी काफी कम हो जाता है।रिसर्च से यह पता चला है की आलू की फसल में बोवाई से 2-3 दिन पहले जलकुम्भी काट कर 15 टन प्रति हेक्टॆयर की दर से इस्तेमाल करने से नाइट्रोजन 80 किलो प्रति हेक्टॆयर फास्फोरस 25 किलो प्रति हेक्टॆयर व पोटाश की बचत की जा सकती है।आलू की बोआई 25 अक्टूबर से 15 नवंबर तक की जाती है जबकि कुछ किसान इसकी बोआई नवंबर के आखिर तक भी करते है। जल कुंभी का इस्तेमाल आलू की फसल में 2 तरह से किया जा सकता है।

खेत की जुताई के समय सबसे पहले जलकुंभी को ला कार खेत में फैला दिया जाता है। इसके बाद तवेदार हल या हैरो की मदद से खेत की जुताई कर देते हैं। जिससे जलकुंभी कट कर मिट्टी में मिल जाए, इसमें जलकुंभी की ज्यादा जरूरत होती है। जलकुंभी को लाकर उसकी कुट्टी काटी जाती है। टुकड़ों का आकार लगभग एक से सवा इंच रख जाता है जब कुट्टी कट कर तैयार हो जाती है तब उसे आलू की बोआई के समय या 1-2 दिन पहले 15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेते में बनाई गयी लाइनों में डाल दिया जाता है। जरूरत के मुताबिक यूरिया,सिंगल सुपर फास्फेट वगैरह भी लाइन में डाल दी जाती है। सभी को एक साथ कुन्दाली की मदद से मिट्टी में मिला दिया जाता है, फिर इन्हीं लाइनों पर आलू की बोआई कर के मिट्टी चढ़ा दी जाती है। यूरिया होने की वजह से जलकुंभी 8-10 दिन में सड़गल कर खाद बन जाती है।

रिसर्च से पता चला है कि अगर जलकुंभी के साथ नाइट्रोजन वाली खादों को इस्तेमाल नहीं किया जाता है तो जलकुंभी ठीक से सड़ नहीं पाती और उससे आलू को पोषक तत्व हासिल नहीं हो पाते हैं। जलकुंभी के साथ यूरिया का इस्तेमाल भी जरूरी होता है। फसल में जलकुंभी का इस्तेमाल करते समय नाइट्रोजन वाली खाद की आधी मात्रा और फास्फोरस वाली खाद की पूरी मात्रा बोआई के समय देनी चाहिए,नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा को बोआई के 25-30 दिन बाद मिट्टी चढा़ते समय लाइन में डालते हैं।

ज्यादा जानकारी के लिए लेखक से उनके मोबाइल नंबर 09456143187 पर संपर्क कर सकते हैं।
संकलन / टाइपिंग
नीलम श्रीवास्तवा

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Post By: pankajbagwan
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