आलादीन का चिराग- बराह क्षेत्र हाईडेम

पिछले 60 वर्षों में सरकारी व्यवस्था को लोगों को समझाने/बहलाने में पूर्ण सफलता मिली, कि कोसी समस्या का निदान बराह क्षेत्र `हाईडेम´ है। बांध या तटबंधों से बाढ़ की समस्याओं का निदान कहां तक हो सका, इसकी रिर्पोट हमारे समक्ष है। सिपर्फ यदि बिहार के संदर्भ में देखें तो सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 1954 में बिहार में तटबंधों की लम्बाई 160 किलोमीटर थी और बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था। वत्तZमान में बिहार में लगभग 3,430 किलेामीटर तटबंध है और बाढ़ का क्षेत्र लगभग 68.80 लाख हेक्टेयर तक जा पहुँचा है। यानी तटबंधों की लम्बाई के साथ-साथ बाढ़ क्षेत्र में भी बढ़ोत्तरी हुई।

इसके अलावे तटबंधों की टूटने की घटनाएं भी कम चौंकाने वाली नहीं है, सिर्फ कोसी तटबंधों को देखें तो अब तक 8 बार (21 अगस्त 1963, डलवा (नेपालद्ध, 06 अक्टबूर 1968 जमालपुर, अगस्त 1971 भटनियां- सुपौल, 08 अगस्त 1980 बहुअरवा- सहरसा, 05 सितम्बर 1984 हेमपुर-सहरसा, 1987 घोंघेपुर-सहरसा, 1991 जोगिनियां-नेपाल और 18 अगस्त 2008 को कुसहा (नेपाल) टूट चुका है, जिसमें हजारों लोग मारे गये और अरबों की सम्पत्ति/ पफसलें नष्ट हुई। बांध की मरम्मत का खर्च सिपर्फ 18 अगस्त 2008 के कुसहा टूट का 197 करोड़ आंका गया है। इन सब खर्चों का भुगतान किसी भी प्रजातांत्रिाक देश में आम जनता ही करती है। कोसी तटबंध बनने के बाद तटबंधों के भीतर के 390 गांव के 15 लाख लोग स्थायी रूप से बाढ़ पीड़ित हो गये। हम तब भी बांध को आलादीन का चिराग मानते हैं कि चिराग जला और सारी समस्याएं गायब।

अब देखें कि क्या है बराह क्षेत्र हाईडेम और इससे जुड़ी व्यावहारिक कठिनाईयां-

बराह क्षेत्र बांध का मूल स्वरूप


बराह क्षेत्र में हाईडेम की कल्पना सबसे पहले जीमूत वाहन सेन ने (तात्कालीन लोकनिर्माण एव सिंचाई सचिव, बिहार सरकार) ने की थी। हाईडेम के प्रस्ताव पर 1937 में पटना बाढ़ सम्मेलन में जमकर बहस हुई। विशेषज्ञ दो खेमे में बंट गये- एक हाईडेम के पक्षधर थे, तो दूसरे तटबंध के। वैसे कुछ ऐसे भी लोग थे जो चाहते थे कि नदी को स्वतंत्रा छोड़ा जाय। निष्कर्ष कुछ नहीं निकला। सन् 1945 में तात्कालीन वायसराय लार्ड वैवेल ने कोसी बाढ़ क्षेत्र का दौरा किया। कोसी वासियों की वास्तविक समस्या से वे अवगत हुये। वे कुछ करना चाहते थे, लेकिन प्रस्तावित डेम के निर्माण के लिये नेपाल को विश्वास में लेना जरूरी था। अंग्रेजों के नेपाल से अच्छे संबंध नहीं थे। अत: वे कहीं न कहीं प्रस्तावित हाईडेम के निर्माण से कतराते थे।

अंतत: वर्ष 1946 में लार्ड वैवेल के पहल पर ही केन्द्रीय जल सिंचाई और नौवहन परिवहन आयोग के अध्यक्ष अयोध्या नाथ खोसला को कोसी परियोजना पर प्राथमिक रिर्पोट तैयार करने का जिम्मा दिया गया। कोसी परियोजना का प्रारूप तैयार करने के लिये भारतीय भूर्गभ सर्वेक्षण विभाग के अधिकारी जे. बी. ओडेन और के. के. दत्ता तथा अमेरिका के बांध विशेषज्ञ डा. जे. एल. सैवेज, वाल्टर यंग तथा भूवैज्ञानिक डा. एपफ. एच. निकेल को सहयोग के लिये अयोध्या नाथ खोसला के साथ दिया गया।

खोसला की अध्यक्षता वाली कमेटी की अनुशंसा का मुख्य अंश इस प्रकार है-
(वराह क्षेत्र से पहले चतरा गार्ज के निकट एक उच्च बांध का निर्माण किया जाय। इस बांध की उंचाई लगभग 750 फीट होगी। जिसमें 106 करोड़ एकड़ फीट पानी रहेगा। यह झील कोसी की गाद को रोकने में सक्षम होगा।

(कुछ दूर आगे बढ़ने पर मैदानी भाग में एक बराज का निर्माण किया जायेगा। बराज के दोनों ओर से नहरें निकाली जायेगी। इन नहरों से नेपाल और बिहार के 30,00,000 वर्ग मील खेतों की सिंचाई होगी।)
(इस परियोजना से 9.3 से लेकर 14 लाख किलोवाट सस्ती बिजली का उत्पादन किया जा सकेगा।
(घद्ध परियोजना का अनुमानित लागत 100 करोड़ रुपये तथा 10वर्ष का समय लगेगा। बराह क्षेत्र बांध के पीछे जो झील होगी उसमें मछली पालन हो सकेगा।)
1946 के इस रिर्पोट पर अमल नहीं हो सका। अंग्रेज द्वितीय विश्वयुद्ध में उलझे हुए थे और भारत 15 अगस्त 1947 को एक नये राष्ट्र के रूप में जन्म लेने जा रहा था। वैसे तो अमेरिकी विशेषज्ञों ने इस परियोजना की कई खामियों को उजागर किया था, जिसे उस समय सार्वजनिक करना उचित नहीं समझा गया था। 6 अप्रैल 1947 को निर्मली में कोसी पीड़ितों का एक सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में डा. राजेन्द्र प्रसाद, सी. एच. भाभा, श्री कृष्ण सिंह जैसे प्रभावशाली व्यक्ति उपस्थित थे, जिनको यह जिम्मा दिया गया था कि बराह क्षेत्र योजना को सार्वजनिक करें तथा लोगों को इस योजना के लाभ के बारे में बतायें, और हुआ भी यही।

बहस और विवादों के बीच चार वर्ष निकल गये। 5 जून 1951 को एस. सी. मजूमदार की अध्यक्षता में चार सदस्यों की एक सलाहकार समिति गठित की गयी, जिसमें मजूमदार के अलावा एम.पीमथरानी,एन.पी. गुर्जर और जी सुन्दर शामिल थे। इस समिति को बराहक्षेत्र मूल परियोजना के गुण और दोष पर प्रतिवेदन देने को कहा गया। समिति ने गहन अन्वेषण के बाद कहा कि यह योजना अत्यधिक खर्चीली है (तब तक इसका खर्च 100 से 177 करोड़ हो चुका था।) इससे उत्पादित बिजली और अन्य लाभों का ब्योरा भी स्पष्ट नहीं है। साथ ही इस योजना को पूरी होने में कम से कम 20 वर्ष लगेंगे।

और ये तमाम कौशिशें सिर्फ कोसी की बाढ़ और गाद से बचने के लिये की जा रही है, तो इससे कम खर्चीली और कम अविध में पूरी होने वाली परियोजनाओं पर हम विचार कर सकते हैं। इस समिति ने जो नया प्रारूप तैयार किया उसे वेल्का जलाशय परियोजना के नाम से जाना जाता है। वेल्का जलाशय परियोजना का कुल खर्च 55.5 करोड़ आंका गया। इसके प्रारूप का मुख्य अंश इस प्रकार था-

1. चतरा से 14.4 किलोमीटर नीचे वेल्का पहाड़ी में 25.91 मीटर उफँचा तथा 19.2 मीटर लम्बा मिट्टी का बांध बनाया जाय, जिसका स्लिपवे कंक्रीट का बना होगा।
2. 68 हजार किलोवाट विद्युत का उत्पादन होगा, जिसका उपयोग बिहार और नेपाल कर पायेगा।
3. सिंचाई के लिये पूर्वी नहर जिससे 6.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र और पश्चिमी नहर जिससे 4.70 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई होगी। पूर्वी नहर का लाभ सिपर्फ बिहार को मिलने वाला था, जबकि पश्चिमी नहर से नेपाल भी लाभान्वित होगा। नहरों में अलग-अलग तीन इकाईयों द्वारा 30 हजार किलोवाट बिजली का उत्पादन भी किया जा सकता है।

इस परियोजना में कोसी नदी के पश्चिमी तट पर 56 किलोमीटर लम्बे तटबंध का प्रस्ताव भी था, जिससे नदी को पश्चिम की ओर जाने से रोका जा सके। इस प्रस्ताव में यह भी स्पष्ट रूप से कहा गया था कि वेल्का बांध 17 वर्षों तक ही अनावश्यक बालू और गाद को रोके रख सकेगा और निर्माण के 50 वर्ष बाद ही संचय क्षमता का ßास हो जायेगा। बस फिर क्या था। 17 और 50 वर्षों के लिये 55 करोड़ रुपया और उसके रख रखाव का खर्च और 55 करोड़ यानी 110 करोड़ का खर्च बाढ़ और गाद से निजात के लिये लोगों को उचित नहीं लगा। पफलत: यह योजना भी अधर में लटक गयी। 1953 में जवाहर लाल नेहरू ने कोसी क्षेत्र का दौरा किया। कोसी परियोजना पर फिर चार सदस्य एक नई कमिटी बना दी गई, जिसमें वी.के.अय्यर, कँवर सेन, एम.पी. मथरानी और एन.के. बोस शामिल थे। इस समिति ने 1953 में ही नया प्रारूप प्रस्तुत किया जिसे `कोसी की 1953 वाली योजना´ के नाम से जाना जाता है। वर्त्तमान कोसी परियोजना लगभग इसी प्रारूप पर निर्मित है। इस परियोजना के अन्तर्गत नेपाल में हनुमान नगर से 4.8 किलोमीटर उत्तर 3770 पुफट लम्बा 56 जल द्वार (प्रत्येक 60×21फीट) वाला बराज बनाया गया है। इन्हीं फाटकों से कोसी की धाराओं को यंत्रिात कर तटबंधों के बीच पानी छोड़ा जाता है। बराज के पूर्वी भाग से कोसी के पूर्वी तट के किनारे 125 किलोमीटर तथा भारदह से घोंघेपुर बराज के पश्चिमी भाग में 126 किलोमीटर लम्बा तटबंध बनाया गया है। नेपाल में पूर्वी तटबंध का विस्तार 34 किलोमीटर चतरा तक है तथा पश्चिमी तटबंध 12 किलोमीटर का है।

तटबंधों के साथ ही सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण हुआ। पूर्वी कोसी नहर भीमनगर बराश के उत्तर में कोसी नदी के बायें किनारे से निकलती है, और 43 कि.मी. आगे चलने के बाद पनार नदी में जा मिलती है। इस नहर की चार मुख्य शाखाएँ तथा पिफर उसकी उपशाखाएँ बनायी गई। पूर्वी नहर में 1964 में पानी छोड़ा गया, जबकि पश्चिमी कोसी नहर को पूरा होते-होते 1980 आ गया।
पश्चिमी नहर भारदह में कोसी के पश्चिमी तटबंध से आरम्भ होकर नेपाल में 35.13 कि.मी. और फिर भारत में 21.13 कि.मी. (कुल लम्बाई 56.90 कि.मी.) चलकर धैंस नदी में समाप्त हो जाती है। इस नहर की कई उपशाखाओं पर अब भी कार्य चल रहा है। यदि यह पूरा होता है तो बिहार में 2,34,800 हेक्टयर कृषि क्षेत्र तथा नेपाल में 19,900 हेक्टयर क्षेत्र में सिंचाई हो सकेगी।

भीमनगर बैराज से आगे निकलने के बाद दोनो तटबंधें के बीच की दूरी 16 किलोमीटर है, जबकि सुपौल से आगे यह घटकर 09 किलोमीटर रह जाती है। तटबंधों को इस तरह से संकुचित करना अभियंत्राण विज्ञान के विपरीत है। बाँध का संकुचन तात्कालिन नेताओं और समाज के वर्चस्ववादी लोगों के दबाव में किया गया।
तटबंधों को संकुचित करने से एक तो तटबंध् के भीतर के गाँवों में कोसी का जलस्तर बढ़ने से बाढ़ की समस्या गंभीर हो जाती है। आज दोनों तटबंधों के बीच 6 से 8 फीट गाद भर चुका है, परिणाम है बांधों का बार-बार टूटना। लेकिन सरकार और कोसी निवासियों के मन अभी भी एक भूत जिन्दा है वह है बराह क्षेत्र हाईडेम। 2004 में काठमांडू, विराटनगर और धरान में हाईडेम निर्माण के लिये भारत सरकार का कार्यालय खुल गया है। शायद हाईडेम का कार्य प्रगति पर है।

बराह क्षेत्र उच्च बांध बनने की व्यवहारिक कठिनाईयां


बराह क्षेत्र सघन भूकम्प का क्षेत्र
उच्च बांध बनने के बाद अरुण नदी पर 42 मील तामर पर 20 मील और सून कोसी पर 61 मील विशाल झील का निर्माण होगा। इस झील में नेपाल के कम से कम 61 गांव जल समािध ले लेंगे। बराह क्षेत्र सघन भूकम्प का क्षेत्र है। वैसे विशेषज्ञों ने दावा किया है कि यदि यह बांध बनता है तो भूकम्प के तीव्र झटकों को सहने में सक्षम होगा। ऐसा हो भी तो, बांध तो बच जायेगा। लेकिन हिमालय जो कि नवजात पहाड़ है तथा मिट्टðी का ढेर है यदि वो भूकम्प के कारण खिसकता है या बीच में कहीं से टूटता है तो विशाल झील का पानी बिहार सहित बंगाल के उत्तरी भूभाग को डुबोने में सक्षम होगा, और जान-माल की अभूतपूर्व तबाही होगी।

कोसी के जल वहन क्षेत्र में हिमनद फटने का भय
मध्य हिमालय कोसी के जल वहन क्षेत्र में कई खतरनाक हिमनद और झीलें हैं। अकेले अरुण कोसी के बेसिन में 737 हिमनद और 229 विशाल बपर्फानी झीलें हैं, जिसमें 24 की पहचान बेहद खतरनाक झीलों के रूप में की गई है। सुनकोसी के बेसिन में 45 हिमनद है, जिसमें 10 बेहद खतरनाक है। 4 अगस्त 1985 को नेपाल हिमालय के हिम-शो-हिमनद के अचानक फटने से नामचे हाइड्रोपावर सहित दूध् और सुन कोसी के संगम क्षेत्र लगभग 90 किलोमीटर की दूरी में अचानक प्रलयकारी बाढ़ आ जाने से भयानक तबाही हुई। इस क्षेत्र में हिमनदों का अचानक फटना आम घटना है। हिमनद फटने से नदियों का जलस्तर अचानक बढ़ जाता है और अप्रत्याशित बाढ़ आ जाती है। यदि इनमें से कोई हिमनद अचानक पफटता है तो पानी के लेवल में अप्रत्याशित वृद्धि(होगी जो उच्च बांध के लिये खतरनाक साबित हो सकता है।

बांध के सुरक्षा का सवाल
यदि बांध बन जाता है तो सबसे बड़ी चुनौती है उसकी सुरक्षा। बांध निर्माण का क्षेत्र नेपाल में होगा। बांध की सुरक्षा के लिये भारतीय सेना की तैनाती नेपाल सहज रूप से कभी स्वीकार नहीं करेगा। आज बांध को प्राकृतिक आपदा से ज्यादा बढ़ते आतंकवाद और असामाजिक तत्वों से खतरा है। नेपाल आज स्वयं उग्रवाद से जूझ रहा है। नेपाल जैसे छोटे देश के भरोसे इतनी बड़ी बांध की सुरक्षा का जिम्मा देना समीचीन नहीं होगा। सिर्फ नेपाल ही क्यों, नेपाल तो बपफर स्टेट है। भारत के दूसरे पड़ोसी देश चीन तो बांध को युद्ध में अस्त्र की तरह उपयोग करने में अभ्यस्त है। 1938 में चीन ने जापानियों के हमले को नाकाम करने के लिये होनान प्रांत के चेंग चाउफ के पास न्हाग-हो नदी का तटबंध कटवा दिया, जिसमें जापानी सेना समेत खुद चीन के 8 लाख 90 हजार लोग मारे गये।

मुझे लगता है कि बराह क्षेत्र हाईडेम का मुद्दा कोसी समस्या से ध्यान हटाने के लिये बार-बार पुनर्जीवित किया जा रहा है। बाढ़ नियंत्राण के लिये बांध या तटबंधों का निर्माण अन्तिम उपाय है। कोसी के साथ वर्षों से यहां के समाज रहते आ रहे थे, लोगों और नदियों के बीच बांध/ तटबंधों ने दूरी को बढ़ाया। नदी और मानव के बीच साहचर्य के संबंधों को कमजोर किया है। बाढ़ प्रबंधन का पारम्परिक ज्ञान समाज भूलता जा रहा है। बाढ़ आधारित कृषि प्रणाली नष्ट हो चुकी है। नहरें हैं, नहरों में पानी नहीं। यह दायित्व सिर्फ सरकार का नहीं समाज का भी है। समाज को अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। नदी और मानव के बीच के साहचर्य और संबंधों को समझना होगा।

(लेखक लोकज्ञान के अध्येता हैं। कोसी नदी पर लिखित पुस्तकें `नदियाँ गाती हैं´- कोसी नदी का लोकसांस्कृतिक अध्ययन और `कोसी- अभिशाप नहीं वरदान´ चर्चित रही)

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