“कहते हैं कभी तहजीबे बसती थीं नदियों के किनारे,
आज नदियां तहजीब का पहला शिकार हैं।’’
बड़े बांधों को दुष्प्रभावों के खिलाफ चेतावनी मिलते भी हमें कई दशक हो गए। बावजूद इन चेतावनियों के हम चेत कहां रहे हैं? अमेरिका और आसपास अब तक 500 से अधिक बड़े बांध तोड़े जा चुके हैं। दुनिया नदियों को फिर से जिंदा करने पर लगी है और हम हैं कि बांध पर बांध बनाकर उन्हे मुर्दा बनाने की जिद्द कर रहे हैं। विस्कोसिन ने बाराबू नदी को पुनः जिंदा किया है। कैलिफोर्निया अपनी नदियों के पुनर्जीवन के लिए आठ बिलियन डॉलर की योजना बनाकर काम कर रहा है। परिस्थितिकीय दुष्प्रभावों को देखते ही रूस ने अपनी नदी जोड़ परियोजनाओं पर ताला लगाने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया। इन पंक्तियों को लिखते वक्त शायर के जेहन में शायद यह अक्स उभरा ही नहीं कि कभी नदियां भी पलटकर तहजीब का शिकार कर सकती हैं। हालांकि हम उत्तराखंड में हुए विनाश को महज नदियों द्वारा सभ्यता के शिकार करने की घटना कहकर भी आकलित नहीं कर सकते। तबाही का सच अभी भी पूरी तरह बाहर नहीं आया है। लेकिन हमला चैतरफा था; यह सच जरूर सामने आ गया है। मलवा, मौत, मातम, मन्नत और मदद में बीता पूरा सप्ताह। निश्चित ही तस्वीर बेहद डरावनी है। दुखद भी! लेकिन लाहौल, स्पीति, किन्नौर से लेकर कन्याकुमारी तक और जैसलमेर से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक पिछले एक दशक में जो कुछ घटा है, उसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि यह विध्वंस पहला है या आखिरी है। अतीत में भी मातम के ऐसे कई मौके भारत देख चुका है। अतः अब इसे महज उत्तराखंड अकेले का मसला कहकर शेष भारत नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। संकट अब पूरी सभ्यता पर है। केदार घाटी में हुई तबाही के मात्र पांचवे दिन किन्नौर में भी बादल फटा। फिर मौतें हुईं। चेतावनी साफ है कि अब यह संकट जल्दी-जल्दी आयेगा। नहीं चेते, तो दुष्परिणाम भी पूरी सभ्यता जल्दी-जल्दी ही भुगतेगी।
उत्तराखंड में हुई तबाही को उमा भारती जी ने धारी देवी मंदिर के विस्थापन से जोड़कर दैविक आपदा बताने की कोशिश की है। सहयोग के लिए जारी अपील में प्रधानमंत्री जी ने वर्षा को अप्रत्याशित बताया है। लेकिन सच यह है कि उत्तराखंड की आपदा न अप्रत्याशित है और न ही दैविक। निश्चित ही यह संकट दानवी है। कभी टिहरी बांध को जाकर देखिए! बांध व झीलों के आकार इतने विशालकाय हैं कि उन्हें देखकर डर लगता है। वे किसी दैत्य से कम नहीं लगते। ऐसे में इन्द्रदेव ने अपनी देवभूमि का देवत्व लौटाने के लिए वज्र चला दिया, तो इसमें क्या अप्रत्याशित !
ये तमाम परिदृश्य अप्रत्याशित इसलिए भी नहीं है, सालों से यह बताया ही जा रहा है कि मौसम बदल रहा है। चार महीने की बारिश अब चार दिन में बरस सकती है। जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर्राष्ट्रीय पैनल की रिपोर्ट बहुत पहले से बता रही है कि 100 साल में एक बार आने वाली प्रलंयकारी बारिश अब हर 10 साल में आने लगी है। बादल फटने की घटनाएं पिछले कुछ साल से लगातार कहीं न कहीं हो ही रही हैं। कभी जैसलमेर, लाहुल-स्पीति,लद्दाख,उत्तरकाशी.. कभी पिथौरागढ़।तटबंध बाढ़ बढ़ाते हैं। यह चेतावनी कोसी हर साल देती ही है।सुखाड़ को लेकर विदर्भ से लेकर बुदेलखंड तक से तकादे आते ही रहते हैं। गुजरात-उड़ीसा से लेकर भूकम्प से हिली धरती के उदाहरण कई हैं। वनों को उजाड़ने से हम उजड़ेंगे। पेड़ हमारे जीवन से ज्यादा कीमती हैं। यह चेतावनी ‘चिपको’ ने सन् 1974 में ही दे दी थी; या कहें कि उससे भी पहले राजस्थान के बिश्नोई समाज ने।
बड़े बांधों को दुष्प्रभावों के खिलाफ चेतावनी मिलते भी हमें कई दशक हो गए। बावजूद इन चेतावनियों के हम चेत कहां रहे हैं? अमेरिका और आसपास अब तक 500 से अधिक बड़े बांध तोड़े जा चुके हैं। दुनिया नदियों को फिर से जिंदा करने पर लगी है और हम हैं कि बांध पर बांध बनाकर उन्हे मुर्दा बनाने की जिद्द कर रहे हैं। विस्कोसिन ने बाराबू नदी को पुनः जिंदा किया है। कैलिफोर्निया अपनी नदियों के पुनर्जीवन के लिए आठ बिलियन डॉलर की योजना बनाकर काम कर रहा है। परिस्थितिकीय दुष्प्रभावों को देखते ही रूस ने अपनी नदी जोड़ परियोजनाओं पर ताला लगाने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया। स्पेन ने शुरू होने से पहले ही नदी जोड़ प्रस्ताव को रद्दी में डाल दिया। लेकिन नदी जोड़ व पेयजल ही नहीं, तमाम ढांचागत परियोजनाओं को लागू करने को लेकर भारत का विदेशी कर्जदाताओं से निर्देशित होना आज भी जारी है। गुजरात के विकासपुरूष मोदी हैं कि नर्मदा पर बांध की ऊंचाई बढ़ाने के लिए विपक्षियों को ललकार रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि इंदिरासागर बांध में 260 मीटर से ऊपर पानी न भरा जाए। बावजूद इसके पिछले साल उसमें 262 मीटर पानी भरा गया।
गौर करने की बात है कि चीन तिब्बत से पूर्वोत्तर भारत आने वाली नदियों में न सिर्फ अपना खतरनाक आणविक कचरा बहा रहा है, बल्कि दूसरे देशों को भी ऐसा करने की इजाज़त दे रहा है। दुनिया के विकसित देश भारत को कूड़ाघर समझकर कचरा फेंकने वाले उद्योगों को हमारे यहां लगा रहे है। हम आने वाले संकट का इंतजार कर रहे हैं। क्यों? धमकियां अब सिर्फ बांध, तटबंध, बादल और धरती ही नहीं दे रहे, समुद्र भी दे रहा हैं। पंजाब के फिरोजपुर से लेकर प. बंगाल मुर्शिदाबाद तक हवा, पानी और भोजन में पैठ चुके प्रदूषण के रूप में आ रहे संदेश और खतरनाक हैं।
संकट के इस संजीदा दौर में हमें याद रखना होगा कि इस धरती पर हर स्थान मानवों के मनचाही कारगुजारियों के लिए नहीं बने हैं। इसीलिए हमारे पुरखों ने हरिद्वार को स्वर्ग का प्रवेश द्वार कहा था। हरिद्वार से ऋषिकेश के बीच की भूमि ऋषियों के तप के लिए सुरक्षित थी और उससे ऊपर की भूमि देवताओं के देवत्व लिए। कैलाश पर्वत शिव का स्थान था और हिमाचल का किन्नौर इन्द्र दरबार में नृत्य करने वाले किन्नरों का। उत्तराखंड, बुदेलखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ समेत देश में कई पहाड़ी, पठारी, रेगिस्तानी और समुद्री इलाके ऐसे हैं, इस प्रकृति के जिंदा रहने के लिए जिनका ’प्राकृतिक टापू’ बने रहना जरूरी है; खासतौर पर हिमालयी क्षेत्र। ऐसे क्षेत्रों में मानव दखल एक सीमा से ज्यादा नहीं हो सकता। यहां के विकास का मॉडल भी अन्य मैदानी व शहरी इलाकों की तर्ज पर नहीं हो सकते। बावजूद इस चेतावनी और समझ के हमने यह गलती बार-बार दोहराई है।
अब उत्तराखंड सरकार ने तीन दिन का राजकीय शोक घोषित किया। कांग्रेस सभी सांसद और विधायकों ने एक महीने की तनख्वाह छोड़ने की बात की। केन्द्र सरकार ने राहत राशि का ऐलान किया। ऐसे कई ऐलान आगे और भी हो सकते है। लेकिन असल जरूरत अब ऐसे ऊपरी ऐलानों से ज्यादा, ठोस ज़मीनी हकीक़त के करीब और कठोर निर्णयों की है। ऐसे सभी संवदेनशील क्षेत्रों को विशेष पर्यावरणीय दर्जा मिले और विशेष आर्थिक तरजीह। 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘चिपको’ की चेतावनी पर संजीदगी दिखाते हुए अगले 15 साल के लिए उत्तर प्रदेश में हरे पेड़ का सरकारी कटान बंद कर दिया था। क्या माननीय मनमोहन सिंह उत्तराखंड विनाश पर संजीदगी दिखाते हुए अगले 30 साल के लिए प्रत्येक नदी के भीतर व 500 मीटर बाहर तक किसी भी निर्माण पर रोक के आदेश सुना सकते हैं? विध्वंसकारी निर्माण, नीयत व लालच को रोके बगैर यह संभव नहीं है। गतिविधियां असभ्य हो, तो फिर कैसे बचे कोई सभ्यता?
उत्तराखंड में बनी पहली विद्युत परियोजना (विष्णुप्रयाग) के निर्माण से पहले ही 1982 में चंडीप्रसाद भट्ट ने प्रधानमंत्री को चेताया था। बावजूद इसके परियोजना बनी और नतीजे में चाईं गांव धसका। टिहरी को लेकर हुए विरोध को हम सब जानते ही है। स्वामी निगमानंद गंगा में रेत के खदान व पत्थर पर चुगाने रुकवाने की जिद्द में प्राण गंवा ही चुके हैं। उत्तराखंड की लगभग 15 से 20 नदी घाटियों में आज भी बांध परियोजनाओं को लेकर संघर्ष है। भारत के कई बांध खुद विध्वंस कर हमें चेतावनी दे चुके हैं। जुलाई, 2006 में सूरत का उकाई बांध ने 120 को मौत की नींद सुलाया। असम के 37 गांवों को पानी देने के लिए बनाए पगलादिया बांध ने 33 गांवों को उजाड़ दिया। होशंगाबाद का तवा बांध - बिना चेतावनी फाटक खुला; रात सोये स्नानार्थियों को सुबह नसीब ही नहीं हुई। नर्मदा बांध के विरोध व उजड़ों के पुनर्वास को लेकर ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ अपने गठन के वर्ष 1989 से आज तक संघर्ष ही कर रहा है। पुनर्वास नीति होने के बावजूद इंदिरा सागर, महेश्वर, ओंकारेश्वर, अपरवेदा और माना बांध के कारण उजड़े लोगों का 18 से 22 जून तक भोपाल में अनशन पर बैठना बता रहा है कि उन्हें हम आज भी ठीक से नहीं बसा सके हैं। भाखड़ा, हीराकुंड, बार्दी.... गिनते जाइए कि बांधों से विनाश और विस्थापन की दास्तां कई हैं।
मैग्सेसे सम्मानित पर्यावरणविद
उत्तराखंड में जो कुछ हुआ, बहुत बुरा हुआ। उससे मैं गुस्सा भी हूं और बहुत दुखी भी। दुखी इसलिए हूं कि दुष्परिणाम दोषियों के साथ-साथ उत्तराखंड की उस गंवई आबादी को भी भुगतना पड़ा है, जो पूरी तरह निर्दोष है। गुस्सा इसलिए कि जब सरकारों को गैरसरकारी सदस्यों की सुननी नहीं होती, तो वह सरकारी समितियों में सदस्य ही क्यों बनाती हैं? भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण तथा गंगा अंतरमंत्रालयी समूह के सदस्य के तौर पर भी मैने दैत्याकार विद्युत परियोजनाओं को लेकर कितनी बार कड़ी आपत्तियां जताई हैं। अकेला मैं नहीं, देश के अनेक प्रकृति प्रेमी कार्यकर्ता, वैज्ञानिक.. विशेषज्ञ पिछले दो दशक से इस बाबत देश के ‘विकासपुरुषों’ को आगाह कर रहे हैं। लेकिन हमें विकास विरोधी कहकर हमारी बातों को अनसुना किया जाता रहा है।
उत्तराखंड क्रांति दल के नेता ने मुझे यह कहकर उत्तराखंड से बाहर मार भगाने की कोशिश की, कि मैं बाहर का हूं। लेकिन वे भूल गए कि हिमालय और गंगा पूरे भारत के पानी, पर्यावरण, परिवेश व आर्थिकी को प्रभावित करते हैं। ये सब के हैं। इन पर अकेले निर्णय करने का नैतिक हक उत्तराखंड की सरकार को न पहले था, न अब है। यह बात इस विनाश ने सिद्ध कर दी है। उत्तराखंड में हुआ विनाश, पूरे भारत का नुकसान है। विनाश साझा है, तो समाधान भी सभी को साझा करना होगा।
अध्यक्षा, गांधी शांति प्रतिष्ठान
‘70 के दशक में हमने एक पुस्तिका निकाली थी -’ पर्वतीय क्षेत्रों की सही दिशा’। हम शुरू से ही कह रहे हैं कि हिमालय अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है। हिमालयी क्षेत्रों के विकास का मॉडल हिमालय की संरचना व संवेदना को ध्यान में रखकर तय किया जाना चाहिए। यह नहीं कि जिस भी तरह ज्यादा से ज्यादा पैसा मिले, वही करना शुरू कर दिया जाए। तमाम स्थानीय व बाहरी विरोध के बावजूद कुछ निवेशकों की लालच की पूर्ति के लिए सरकार ने जिद्द कर उत्तराखंड में बड़ी-बड़ी बिजली परियोजनाओं को मंजूरी दे दी। परियोजनाओं ने पहाड़ों में डाइनामाइट लगाया। उन्हें चटकाया। मलवा नदियों में बहाया। मलवा पाकर बाढ़ का प्रकोप सौ गुना अधिक बढ़ जाता है। बिजली बनाकर पैसा कमाने से पहले ही, हमने कितना पैसा तो एक ही झटके में गंवा दिया है। उत्तराखंड सरकार द्वारा किया गया यह सौदा खोटा है। लोगों को उनके विकास की योजना खुद बनाने दी जाए। तभी सौदा सच्चा होगा। बड़ी की बजाय छोटी-छोटी विद्युत परियोजनाएं बनें। उत्तराखंड में ऐसे नमूने पहले से मौजूद हैं। व्यापक जनसंवाद के बाद हिमालयी लोकनीति का दस्तावेज बनाकर हम पहले ही हिमालयी प्रदेशों की सरकारों को भेज चुके हैं। मैं अभी भी कहती हूं कि सभी हिमालयी प्रदेशों की अलग विकास नीति बनाने पर तत्काल विचार शुरू हो। तभी कुशल!
आज नदियां तहजीब का पहला शिकार हैं।’’
बड़े बांधों को दुष्प्रभावों के खिलाफ चेतावनी मिलते भी हमें कई दशक हो गए। बावजूद इन चेतावनियों के हम चेत कहां रहे हैं? अमेरिका और आसपास अब तक 500 से अधिक बड़े बांध तोड़े जा चुके हैं। दुनिया नदियों को फिर से जिंदा करने पर लगी है और हम हैं कि बांध पर बांध बनाकर उन्हे मुर्दा बनाने की जिद्द कर रहे हैं। विस्कोसिन ने बाराबू नदी को पुनः जिंदा किया है। कैलिफोर्निया अपनी नदियों के पुनर्जीवन के लिए आठ बिलियन डॉलर की योजना बनाकर काम कर रहा है। परिस्थितिकीय दुष्प्रभावों को देखते ही रूस ने अपनी नदी जोड़ परियोजनाओं पर ताला लगाने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया। इन पंक्तियों को लिखते वक्त शायर के जेहन में शायद यह अक्स उभरा ही नहीं कि कभी नदियां भी पलटकर तहजीब का शिकार कर सकती हैं। हालांकि हम उत्तराखंड में हुए विनाश को महज नदियों द्वारा सभ्यता के शिकार करने की घटना कहकर भी आकलित नहीं कर सकते। तबाही का सच अभी भी पूरी तरह बाहर नहीं आया है। लेकिन हमला चैतरफा था; यह सच जरूर सामने आ गया है। मलवा, मौत, मातम, मन्नत और मदद में बीता पूरा सप्ताह। निश्चित ही तस्वीर बेहद डरावनी है। दुखद भी! लेकिन लाहौल, स्पीति, किन्नौर से लेकर कन्याकुमारी तक और जैसलमेर से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक पिछले एक दशक में जो कुछ घटा है, उसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि यह विध्वंस पहला है या आखिरी है। अतीत में भी मातम के ऐसे कई मौके भारत देख चुका है। अतः अब इसे महज उत्तराखंड अकेले का मसला कहकर शेष भारत नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। संकट अब पूरी सभ्यता पर है। केदार घाटी में हुई तबाही के मात्र पांचवे दिन किन्नौर में भी बादल फटा। फिर मौतें हुईं। चेतावनी साफ है कि अब यह संकट जल्दी-जल्दी आयेगा। नहीं चेते, तो दुष्परिणाम भी पूरी सभ्यता जल्दी-जल्दी ही भुगतेगी।
उत्तराखंड में हुई तबाही को उमा भारती जी ने धारी देवी मंदिर के विस्थापन से जोड़कर दैविक आपदा बताने की कोशिश की है। सहयोग के लिए जारी अपील में प्रधानमंत्री जी ने वर्षा को अप्रत्याशित बताया है। लेकिन सच यह है कि उत्तराखंड की आपदा न अप्रत्याशित है और न ही दैविक। निश्चित ही यह संकट दानवी है। कभी टिहरी बांध को जाकर देखिए! बांध व झीलों के आकार इतने विशालकाय हैं कि उन्हें देखकर डर लगता है। वे किसी दैत्य से कम नहीं लगते। ऐसे में इन्द्रदेव ने अपनी देवभूमि का देवत्व लौटाने के लिए वज्र चला दिया, तो इसमें क्या अप्रत्याशित !
ये तमाम परिदृश्य अप्रत्याशित इसलिए भी नहीं है, सालों से यह बताया ही जा रहा है कि मौसम बदल रहा है। चार महीने की बारिश अब चार दिन में बरस सकती है। जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर्राष्ट्रीय पैनल की रिपोर्ट बहुत पहले से बता रही है कि 100 साल में एक बार आने वाली प्रलंयकारी बारिश अब हर 10 साल में आने लगी है। बादल फटने की घटनाएं पिछले कुछ साल से लगातार कहीं न कहीं हो ही रही हैं। कभी जैसलमेर, लाहुल-स्पीति,लद्दाख,उत्तरकाशी.. कभी पिथौरागढ़।तटबंध बाढ़ बढ़ाते हैं। यह चेतावनी कोसी हर साल देती ही है।सुखाड़ को लेकर विदर्भ से लेकर बुदेलखंड तक से तकादे आते ही रहते हैं। गुजरात-उड़ीसा से लेकर भूकम्प से हिली धरती के उदाहरण कई हैं। वनों को उजाड़ने से हम उजड़ेंगे। पेड़ हमारे जीवन से ज्यादा कीमती हैं। यह चेतावनी ‘चिपको’ ने सन् 1974 में ही दे दी थी; या कहें कि उससे भी पहले राजस्थान के बिश्नोई समाज ने।
बड़े बांधों को दुष्प्रभावों के खिलाफ चेतावनी मिलते भी हमें कई दशक हो गए। बावजूद इन चेतावनियों के हम चेत कहां रहे हैं? अमेरिका और आसपास अब तक 500 से अधिक बड़े बांध तोड़े जा चुके हैं। दुनिया नदियों को फिर से जिंदा करने पर लगी है और हम हैं कि बांध पर बांध बनाकर उन्हे मुर्दा बनाने की जिद्द कर रहे हैं। विस्कोसिन ने बाराबू नदी को पुनः जिंदा किया है। कैलिफोर्निया अपनी नदियों के पुनर्जीवन के लिए आठ बिलियन डॉलर की योजना बनाकर काम कर रहा है। परिस्थितिकीय दुष्प्रभावों को देखते ही रूस ने अपनी नदी जोड़ परियोजनाओं पर ताला लगाने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया। स्पेन ने शुरू होने से पहले ही नदी जोड़ प्रस्ताव को रद्दी में डाल दिया। लेकिन नदी जोड़ व पेयजल ही नहीं, तमाम ढांचागत परियोजनाओं को लागू करने को लेकर भारत का विदेशी कर्जदाताओं से निर्देशित होना आज भी जारी है। गुजरात के विकासपुरूष मोदी हैं कि नर्मदा पर बांध की ऊंचाई बढ़ाने के लिए विपक्षियों को ललकार रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि इंदिरासागर बांध में 260 मीटर से ऊपर पानी न भरा जाए। बावजूद इसके पिछले साल उसमें 262 मीटर पानी भरा गया।
गौर करने की बात है कि चीन तिब्बत से पूर्वोत्तर भारत आने वाली नदियों में न सिर्फ अपना खतरनाक आणविक कचरा बहा रहा है, बल्कि दूसरे देशों को भी ऐसा करने की इजाज़त दे रहा है। दुनिया के विकसित देश भारत को कूड़ाघर समझकर कचरा फेंकने वाले उद्योगों को हमारे यहां लगा रहे है। हम आने वाले संकट का इंतजार कर रहे हैं। क्यों? धमकियां अब सिर्फ बांध, तटबंध, बादल और धरती ही नहीं दे रहे, समुद्र भी दे रहा हैं। पंजाब के फिरोजपुर से लेकर प. बंगाल मुर्शिदाबाद तक हवा, पानी और भोजन में पैठ चुके प्रदूषण के रूप में आ रहे संदेश और खतरनाक हैं।
संकट के इस संजीदा दौर में हमें याद रखना होगा कि इस धरती पर हर स्थान मानवों के मनचाही कारगुजारियों के लिए नहीं बने हैं। इसीलिए हमारे पुरखों ने हरिद्वार को स्वर्ग का प्रवेश द्वार कहा था। हरिद्वार से ऋषिकेश के बीच की भूमि ऋषियों के तप के लिए सुरक्षित थी और उससे ऊपर की भूमि देवताओं के देवत्व लिए। कैलाश पर्वत शिव का स्थान था और हिमाचल का किन्नौर इन्द्र दरबार में नृत्य करने वाले किन्नरों का। उत्तराखंड, बुदेलखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ समेत देश में कई पहाड़ी, पठारी, रेगिस्तानी और समुद्री इलाके ऐसे हैं, इस प्रकृति के जिंदा रहने के लिए जिनका ’प्राकृतिक टापू’ बने रहना जरूरी है; खासतौर पर हिमालयी क्षेत्र। ऐसे क्षेत्रों में मानव दखल एक सीमा से ज्यादा नहीं हो सकता। यहां के विकास का मॉडल भी अन्य मैदानी व शहरी इलाकों की तर्ज पर नहीं हो सकते। बावजूद इस चेतावनी और समझ के हमने यह गलती बार-बार दोहराई है।
अब उत्तराखंड सरकार ने तीन दिन का राजकीय शोक घोषित किया। कांग्रेस सभी सांसद और विधायकों ने एक महीने की तनख्वाह छोड़ने की बात की। केन्द्र सरकार ने राहत राशि का ऐलान किया। ऐसे कई ऐलान आगे और भी हो सकते है। लेकिन असल जरूरत अब ऐसे ऊपरी ऐलानों से ज्यादा, ठोस ज़मीनी हकीक़त के करीब और कठोर निर्णयों की है। ऐसे सभी संवदेनशील क्षेत्रों को विशेष पर्यावरणीय दर्जा मिले और विशेष आर्थिक तरजीह। 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘चिपको’ की चेतावनी पर संजीदगी दिखाते हुए अगले 15 साल के लिए उत्तर प्रदेश में हरे पेड़ का सरकारी कटान बंद कर दिया था। क्या माननीय मनमोहन सिंह उत्तराखंड विनाश पर संजीदगी दिखाते हुए अगले 30 साल के लिए प्रत्येक नदी के भीतर व 500 मीटर बाहर तक किसी भी निर्माण पर रोक के आदेश सुना सकते हैं? विध्वंसकारी निर्माण, नीयत व लालच को रोके बगैर यह संभव नहीं है। गतिविधियां असभ्य हो, तो फिर कैसे बचे कोई सभ्यता?
विध्वंस बढ़ाते बांध
उत्तराखंड में बनी पहली विद्युत परियोजना (विष्णुप्रयाग) के निर्माण से पहले ही 1982 में चंडीप्रसाद भट्ट ने प्रधानमंत्री को चेताया था। बावजूद इसके परियोजना बनी और नतीजे में चाईं गांव धसका। टिहरी को लेकर हुए विरोध को हम सब जानते ही है। स्वामी निगमानंद गंगा में रेत के खदान व पत्थर पर चुगाने रुकवाने की जिद्द में प्राण गंवा ही चुके हैं। उत्तराखंड की लगभग 15 से 20 नदी घाटियों में आज भी बांध परियोजनाओं को लेकर संघर्ष है। भारत के कई बांध खुद विध्वंस कर हमें चेतावनी दे चुके हैं। जुलाई, 2006 में सूरत का उकाई बांध ने 120 को मौत की नींद सुलाया। असम के 37 गांवों को पानी देने के लिए बनाए पगलादिया बांध ने 33 गांवों को उजाड़ दिया। होशंगाबाद का तवा बांध - बिना चेतावनी फाटक खुला; रात सोये स्नानार्थियों को सुबह नसीब ही नहीं हुई। नर्मदा बांध के विरोध व उजड़ों के पुनर्वास को लेकर ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ अपने गठन के वर्ष 1989 से आज तक संघर्ष ही कर रहा है। पुनर्वास नीति होने के बावजूद इंदिरा सागर, महेश्वर, ओंकारेश्वर, अपरवेदा और माना बांध के कारण उजड़े लोगों का 18 से 22 जून तक भोपाल में अनशन पर बैठना बता रहा है कि उन्हें हम आज भी ठीक से नहीं बसा सके हैं। भाखड़ा, हीराकुंड, बार्दी.... गिनते जाइए कि बांधों से विनाश और विस्थापन की दास्तां कई हैं।
“साझा समाधान निकालना होगा’’ राजेन्द्र सिंह
मैग्सेसे सम्मानित पर्यावरणविद
उत्तराखंड में जो कुछ हुआ, बहुत बुरा हुआ। उससे मैं गुस्सा भी हूं और बहुत दुखी भी। दुखी इसलिए हूं कि दुष्परिणाम दोषियों के साथ-साथ उत्तराखंड की उस गंवई आबादी को भी भुगतना पड़ा है, जो पूरी तरह निर्दोष है। गुस्सा इसलिए कि जब सरकारों को गैरसरकारी सदस्यों की सुननी नहीं होती, तो वह सरकारी समितियों में सदस्य ही क्यों बनाती हैं? भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण तथा गंगा अंतरमंत्रालयी समूह के सदस्य के तौर पर भी मैने दैत्याकार विद्युत परियोजनाओं को लेकर कितनी बार कड़ी आपत्तियां जताई हैं। अकेला मैं नहीं, देश के अनेक प्रकृति प्रेमी कार्यकर्ता, वैज्ञानिक.. विशेषज्ञ पिछले दो दशक से इस बाबत देश के ‘विकासपुरुषों’ को आगाह कर रहे हैं। लेकिन हमें विकास विरोधी कहकर हमारी बातों को अनसुना किया जाता रहा है।
उत्तराखंड क्रांति दल के नेता ने मुझे यह कहकर उत्तराखंड से बाहर मार भगाने की कोशिश की, कि मैं बाहर का हूं। लेकिन वे भूल गए कि हिमालय और गंगा पूरे भारत के पानी, पर्यावरण, परिवेश व आर्थिकी को प्रभावित करते हैं। ये सब के हैं। इन पर अकेले निर्णय करने का नैतिक हक उत्तराखंड की सरकार को न पहले था, न अब है। यह बात इस विनाश ने सिद्ध कर दी है। उत्तराखंड में हुआ विनाश, पूरे भारत का नुकसान है। विनाश साझा है, तो समाधान भी सभी को साझा करना होगा।
“हिमालयी प्रदेशों की अलग विकास नीति बने’’ : राधा भट्ट
अध्यक्षा, गांधी शांति प्रतिष्ठान
‘70 के दशक में हमने एक पुस्तिका निकाली थी -’ पर्वतीय क्षेत्रों की सही दिशा’। हम शुरू से ही कह रहे हैं कि हिमालय अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है। हिमालयी क्षेत्रों के विकास का मॉडल हिमालय की संरचना व संवेदना को ध्यान में रखकर तय किया जाना चाहिए। यह नहीं कि जिस भी तरह ज्यादा से ज्यादा पैसा मिले, वही करना शुरू कर दिया जाए। तमाम स्थानीय व बाहरी विरोध के बावजूद कुछ निवेशकों की लालच की पूर्ति के लिए सरकार ने जिद्द कर उत्तराखंड में बड़ी-बड़ी बिजली परियोजनाओं को मंजूरी दे दी। परियोजनाओं ने पहाड़ों में डाइनामाइट लगाया। उन्हें चटकाया। मलवा नदियों में बहाया। मलवा पाकर बाढ़ का प्रकोप सौ गुना अधिक बढ़ जाता है। बिजली बनाकर पैसा कमाने से पहले ही, हमने कितना पैसा तो एक ही झटके में गंवा दिया है। उत्तराखंड सरकार द्वारा किया गया यह सौदा खोटा है। लोगों को उनके विकास की योजना खुद बनाने दी जाए। तभी सौदा सच्चा होगा। बड़ी की बजाय छोटी-छोटी विद्युत परियोजनाएं बनें। उत्तराखंड में ऐसे नमूने पहले से मौजूद हैं। व्यापक जनसंवाद के बाद हिमालयी लोकनीति का दस्तावेज बनाकर हम पहले ही हिमालयी प्रदेशों की सरकारों को भेज चुके हैं। मैं अभी भी कहती हूं कि सभी हिमालयी प्रदेशों की अलग विकास नीति बनाने पर तत्काल विचार शुरू हो। तभी कुशल!
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