आखातीज से कीजे सूखे की अगवानी की तैयारी

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2 मई-अक्षय तृतीया पर विशेष


यदि मौसम विभाग ने सूखे की चेतावनी दी है, तो उसका आना तय मानकर उसकी अगवानी की तैयारी करें। तैयारी सात मोर्चों पर करनी है: पानी, अनाज, चारा, ईंधन, खेती, बाजार और सेहत। यदि हमारे पास प्रथम चार का अगले साल का पर्याप्त भंडारण है तो न किसी की ओर ताकने की जरूरत पड़ेगी और न ही आत्महत्या के हादसे होंगे। खेती, बाजार और सेहत ऐसे मोर्चे हैं, जिन पर महज् कुछ एहतियात की काफी होंगे।

इन्द्र देवता ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी है। अगले आषाढ़-सावन-भादों में वे कहीं देर से आएंगे; कहीं नहीं आएंगे; कहीं उनके आने की आवृति, चमक और धमक वैसी नहीं रहेगी, जिसके लिए वे जाने जाते हैं। हो सकता है कि वह किसी जगह इतनी देर ठहर जाएं कि 2005 की मुंबई और 2006 का सूरत बाढ़ प्रकरण याद दिला दें। इस विज्ञप्ति के एक हिस्से पर मौसम विभाग ने अपनी मोहर लगा दी है; कहा है कि वर्ष-2014 का मानसून औसत से पांच फीसदी कमजोर रहेगा। शेष हिस्से पर मोहर लगाने का काम अमेरिका की स्टेनफार्ड यूनिवर्सिटी ने कर दिया है।

पिछले 60 साल के आंकड़ों के आधार पर प्रस्तुत शोध के मुताबिक दक्षिण एशिया में अत्यधिक बाढ़ और सूखे की तीव्रता लगातार बढ़ रही है। ताप और नमी में बदलाव के कारण ऐसा हो रहा है। यह बदलाव ठोस और स्थाई है। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव भारत के मध्य क्षेत्र में होने की आशंका व्यक्त की गई है। बुनियादी प्रश्न यह है कि हम क्या करें? इन्द्र देवता की विज्ञप्ति सुनें, तद्नुसार कुछ गुनें, उनकी अगवानी की तैयारी करें या फिर इंतजार करें?

मिथक का टूटना जरूरी


जवाब जानने के लिए इस मिथक को तोड़ना जरूरी है कि वर्षा औसत से ज्यादा हो तो बाढ़ और औसत से कम हो तो सूखा लाती है। सत्य यह है कि भारत के जैसलमेर में भारत के राष्ट्रीय वर्षा औसत से अत्यंत कम वर्षा होती है और चेरापूंजी में कई गुना ज्यादा; बावजूद इसके क्रमशः जैसलमेर में न हर साल सूखा घोषित होता है और न चेरापूंजी में बाढ़। इसका तात्पर्य यह है कि यदि हम जिस साल, जिस इलाके में वर्षा का जैसा औसत हो, उसके हिसाब से जीना सीख लें तो न हमें बाढ़ सताएगी और सूखा।

कारण ही निवारण


एक अन्य सत्य यह है कि बाढ़ हमेशा नुकसानदेह नहीं होती। सामान्य बाढ़ नुकसान से ज्यादा नफा देती है। प्रदूषण का सफाया कर देती है। खेत को उपजाऊ मिट्टी से भर देती है। अगली फसल का उत्पादन दोगुना हो जाता है। बाढ़ नफे से ज्यादा नुकसान तभी करती है, जब अप्रत्याशित हो; आसमान में बादल फट जाए; वेग अत्यंत तीव्र है; नदी पुराना रास्ता छोड़कर नए रास्ते पर निकल जाए; बाढ़ के पानी में ठोस मलबे की मात्रा काफी ज्यादा हो अथवा जरूरत से ज्यादा दिन ठहर जाए। बाढ़ के बढ़ते वेग, अधिक ठहराव, अधिक मलबे और अधिक मारक होने के कारण भी कई हैं: नदी में गाद की अधिकता, तटबंध, नदी प्रवाह मार्ग तथा उसके जलग्रहण क्षेत्र के परंपरागत जलमार्गों में अवरोध।

मिट्टी और इसकी नमी को अपनी बाजुओं में बांधकर रखने वाली घास व अन्य छोटी वनस्पति का अभाव, वनों का सफाया, वर्षाजल संचयन ढांचों की कमी, उनमें गाद की अधिकता तथा उनके पानी को रोककर रखने वाले पालों-बंधों का टूटा-फूटा अथवा कमजोर होना - ये ऐसे कारण हैं, जो बाढ़ और सूखा... दोनों का दुष्प्रभाव बढ़ा देते हैं। यदि खनन अनुशासित न हो; मवेशी न हों; मवेशियों के लिए चारा न हो; सूखे की भविष्यवाणी के बावजूद उससे बचाव की तैयारी न की गई हो, तो दुष्प्रभाव का बढ़ना स्वाभाविक है; बढ़ेगा ही। ऐसी स्थिति में सूखा राहत के नाम पर खैरात बांटने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। उसमें भी बंदरबांट हो तो फिर आत्महत्याएं होती ही हैं। ऐसे अनुभवों से देश कई बार गुजर चुका है। गौर करने की बात है कि अकाल पूरे बुंदेलखण्ड में आया, लेकिन आत्महत्याएं वहीं हुईं, जहां खनन ने सारी सीमाएं लांघी, जंगल का जमकर सफाया हुआ और मवेशी बिना चारा मरेे; बांदा, महोबा और हमीरपुर।

इंतजार बेकार, तैयारी जरूरी


निष्कर्ष स्पष्ट है कि यदि मौसम विभाग ने सूखे की चेतावनी दी है, तो उसका आना तय मानकर उसकी अगवानी की तैयारी करें। तैयारी सात मोर्चों पर करनी है: पानी, अनाज, चारा, ईंधन, खेती, बाजार और सेहत। यदि हमारे पास प्रथम चार का अगले साल का पर्याप्त भंडारण है तो न किसी की ओर ताकने की जरूरत पड़ेगी और न ही आत्महत्या के हादसे होंगे। खेती, बाजार और सेहत ऐसे मोर्चे हैं, जिन पर महज् कुछ एहतियात की काफी होंगे।

तैयार रखें पानी के कटोरे और पौशाला


तो आइए, सबसे पहले हम बारिश की हर बूंद को पकड़कर धरती के पेट में डालने की कोशिश तेज कर दें। परंपरागत तौर पर लोग यही करते थे। इसके लिए दो तारीखें तय थीं -कार्तिक में देवउठनी ग्यारस और बैसाख में आखा तीज। ये अबूझ मुहुर्त माने गए हैं। इन दो तारीखों को कोई भी शुभ कार्य बिना पंडित से पूछे भी किया जा सकता हैं। इन तारीखों में खेत भी खाली होते हैं और खेतिहर भी। ये हमारे पारंपरिक जल दिवस हैं। अतः गांव पानी के इंतजाम के लिए हर वर्ष दो काम अवश्य करता था: देवउठनी ग्यारस को नए जलढांचों का निर्माण और अक्षया तृतीया को पुराने ताल की मिट्टी निकालकर पाल पर डाल देना।

गौरतलब है कि सूखे की अगवानी के तैयारी क्रम का यह सबसे पहला और जरूरी काम है। पानी के पुराने ढांचों की साफ-सफाई, गाद निकासी और टूटी-फूटी पालों को दुरुस्त करके ही हम जलसंचयन ढांचों की पूरी जलग्रहण क्षमता को बनाए रख सकते हैं। ढांचों में हम अधिकतम पानी रोक सके तो सूखे का डर कम सताएगा और बाढ़ भी उतने वेग से नहीं आएगी। अक्षया तृतीया से इंसान ही नहीं, मवेशियों के लिए भी प्याऊ-पौशाला लगाने के शुभारंभ का भी रिवाज रहा है। आइये, आज ही शुरुआत करें।

जरूरत भर भंडारण जरूरी


अभी-अभी गेहूं की फसल कटकर घर आई है। ऐसे खेतिहर परिवार जिनकी आजीविका पूरी तरह खेती पर ही निर्भर है, वे इनका इतना भंडारण अवश्य कर लें कि अगली रबी और खरीब..दोनों फसलें कमजोर हों, तो भी खाने के लिए बाजार से खरीदने की मजबूरी सामने न आए। यदि गलती से आप धान का घरेलू भंडार खाली कर चुके हों तो अतिरिक्त मोटे अनाज के बदले चावल ले लें; क्योंकि सूखा पड़ा तो चावल, के दाम बढ़ेंगे। आलू समेत सभी सब्जियों की कीमतें भी बढ़ेंगी, अतः जो सब्जियां सुखाकर उपयोग के लिए संरक्षित की जा सकती हों, संरक्षित कर लें। कुल मिलाकर वे अधिक पानी की मांग करने वाली फसलों के उत्पाद अपनी जरूरत के लिए अवश्य बचा रखें। किंतु इसका मतलब कतई नहीं है कि व्यापारी कमाने के लिए जमाखोरी करें।

जमाखोरी और कीमतों पर नियंत्रण


बाजार में जमाखोरी और कीमतों की बढ़ोतरी को नियंत्रित करना तथा सरकारी स्तर पर भंडारण क्षमता व गुणवत्ता का विकास आने वाली नई सरकार के समक्ष सबसे जरूरी व पहली चुनौती होगी। यह आसान नहीं होगा। यदि वह यह कर सकी तो बधाई का पात्र बनेगी; नहीं उसके पक्ष की लहर का खिलाफ में बदलते समय नहीं लगेगा।

भंडारण व प्रसंस्करण क्षमता का विस्तार


गौरतलब है कि भंडारण गृहों में 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और शीतगृहों में विशेष कर्ज व छूट योजनाओं के बावजूद कोई विशेष प्रगति देखने को नहीं मिल रही है। गोदामों में अनाजों की बर्बादी के नजारे आज भी आम हैं। भारत में सब्जी तथा फल उत्पादन की 40 प्रतिशत मात्रा महज् स्थानीय स्तर पर उचित भंडारण तथा प्रसंस्करण सुविधाओं के अभाव में नष्ट हो जाती है। इसका पुख्ता स्थानीय रोजगार व आर्थिक स्वावलंबन का विकास तो होगा ही, सूखे के नजरिए से भी इस मोर्चे पर पहल सार्थक होगी।

चारे और ईंधन का अतिरिक्त इंतजाम


सूखे का अन्य पहलू यह है कि सूखा पड़ने पर भूख और प्यास के कारण सबसे पहले मौत मवेशियों की होती है। पीने के पानी और चारे के इंतजाम से मवेशियों का जीवन का तो बचेगा ही, उनके दूध से हमारी पौष्टिकता की भी रक्षा होगी। इसी तरह इंधन का पूर्व इंतजाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं। कई ऐसे झाड़-झंखाड़, पत्ती व घास, जिन्हें हम बेकार समझकर अक्सर जलाया करते हैं; उन्हें सुखाकर चारे और ईंधन के रूप में संजोने का काम अभी से शुरु कर दें।

समझदार करें फसल चक्र में बदलाव


इसी क्रम में एक जरूरी एहतियात खेती के संदर्भ में है। चेतावनी है कि वर्षा कम होगी। हो सकता है इतनी कम हो कि फसल ही सूख जाए या फूल.. फल में बदलने से पहले ही मर जाए। क्या यह समझदारी नहीं कि ऐसे में मैं गन्ना-धान जैसी अधिक पानी वाली फसल की बजाए कम पानी वाली फसलों को प्राथमिकता दूं? मोटे अनाज, दलहन और तिलहन की फसलें बोऊं? यदि पानी वाली फसलें बोनी ही पड़े तो ऐसे बीजों का चयन करूं, जिनकी फसल कम दिनों में तैयार होती हो? खेती के साथ बागवानी का प्रयोग करुं? वैज्ञानिक कहते हैं कि फसल चक्र में अनुकूल की बदलाव की तैयारी जरूरी है। यह समझदारी होगी। इसके अलावा हमें चाहिए कि हम सब्जी, मसाले, फूल व औषधि आदि की खेती को तेज धूप से बचाने के लिए लिए पाॅलीहाउस, ग्रीन हाउस आदि की सुविधा का लाभ लें। खेत में नमी बचाकर रखने के लिए जैविक खाद तथा मल्चिंग जैसे तौर-तरीकों का जमकर इस्तेमाल करें। कृषि, बागवानी, भूजल, भंडारण, प्रसंस्करण तथा गृह आदि विभागों को भी चाहिए कि संबंधित तैयारियों में जिम्मेदारी के साथ सहयोगी बने।

काम आएगी सेहत में सतर्कता


सूखा पड़ने पर मौसम और मिट्टी की नमी में आई कमी सिर्फ खेती को ही चुनौती नहीं देती, हमारी सेहत को भी चुनौती देती है। अतः एहतियाती कदम उठाने के लिए स्वास्थ्य विभाग के अलावा सतर्क तो हमें भी होना ही पड़ेगा। भूलें नहीं कि दूरदृष्टि लोग आपदा आने पर न चीखते हैं और न चिल्लाते हैं; बस! एक दीप जलाते हैं। समय पूर्व की तैयारी एक ऐसा ही दीप है। आइये, प्रज्जवलित करें।

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