अकोलनेर में फिर फूल खिले


तीन साल तक सूखे की मार झेलने के बाद अकोलनेर गांव के लोगों ने 2005 में फिर से आकर्षक फूलों की खेती शुरू कर दी है. एक किसान रघु थांगे ने इस वित्तीय वर्ष में क्रयसेंथेमम्स से 5 लाख रुपए कमाए हैं. अपनी 5 हेक्टेयर जमीन वाली प्लॉट पर उसने 15 मीटर गहरा कुआं खुदवा लिया है, जिसमें 6-8 मीटर पानी भरा रहता है. अब उसने पाँच गायें खरीद ली है और फूलों की खेती के लिए जैविक खाद के उपयोग की योजना बना रहा है.

अकोलनेर के पूर्व सरपंच अनिल मेहेत्रे के मुताबिक इस गांव ने सूखे की त्रासदी से काफी सीखा है. 2001 से 2003 की अवधि में फैली स्मृति अभी भी मिटी नहीं है. उस दौरान गांव में पहला पशु शिविर 400 से अधिक पशुओं के भोजन संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए आयोजित किया गया था. चारा दुर्लभ हो चुका था, इसकी कीमत 600-700 रुपए प्रति टन तक पहुंच गई थी. नलकूपों की बार-बार गहरा करने के बावजूद फसलें बरबाद हो चुकी थीं. गांव में 'नलकूप-ग्राम के नाम से कुख्यात हो गया था, क्योंकि फूल और सब्जी उगाने के लिए किसानों ने संघर्ष नहीं छोडा था. हर महीने पानी की कमी से राहत प्रदान करने के लिए गांव में दस टैंकर आते थे. मेहेत्रे बताते हैं कि पूरा गांव गहरे संकट में था, लोग उनसे सरपंच के पद से इस्तीफा देने के लिए कहा करने था.

जब राज्य मृदा और जल संरक्षण निदेशालय ने ईजीएस के अंतर्गत काम के लिए गांव से संपर्क किया तो वे इसके लिए सहज ही तैयार बैठे थे. कृषि विभाग ने छोटे जल ढांचों पर काम करने का सुझाव दिया. उस दौरान गांव में लगभग 2500 लोगों ने इन ढांचों पर काम किया.

निदेशालय के अधिकारियों ने बताया कि सूखे के दौरान लोगों ने मेढ़ों का निर्माण कर 2000 हेक्टेयर में से 400 का मृदा और जल संरक्षण उपचार कराया. इसके अतिरिक्त 200 हेक्टेयर भूमि कर पांच सूक्ष्म वाटरशेड का निर्माण कराया गया.

अंतर साफ नजर आ रहा था. जहां कुओं में अतिरिक्त जल के साथ फूलों की खेती फिर से शुरू हो गई, लोगों के व्यवहार में भी बड़ा परिवर्तन दिखने लगा है. पहले जब अच्छी वर्षा होती थी तब भी गर्मी के मौसम में टैंकरों की जरूरत पड जाती थी, अब पिछले दो वर्षों से किसी ने इस गांव में टैंकर नहीं देखा है. अब जब भी बारिश होती है उसके पानी को वे रोक लेते हैं. 1998 में कुओं में पानी का स्तर 90 मीटर पर था अब 2007 में 10.5 मीटर पर स्थिर हो गया है. नगर ब्लॉक के कृषि अधिकारी ने इसकी पुष्टि की है.

मगर चुनौती अभी भी बनी हुई है, क्योंकि ग्रामीणों ने भूजल का दोहन नहीं छोडा है. मेहेत्रे बताते हैं कि ग्रामीणों को भूजल के दोहन या अधिक सिंचाई वाली फसले उगाने से रोकना संभव नहीं है. लेकिन अच्छी वर्षा की स्थिति में एक अंतर है, अब लोग ड्रिप सिंचाई पद्धति को अपना रहे हैं जिससे बेहतर जल संरक्षण संभव हो पा रहा है.

थांगे ने बताते हैं कि उन्होंने भी अपनी सब्जी और फूलों की खेती के लिए ड्रिप का ही सहारा लिया है. यह कितना कारगर होगा इसका जवाब वे अगली बार बरसात के विफल होने की स्थिति में ही दे सकते हैं.

यह सवाल जिला प्रशासन को भी मथ रहा है. हर दो-तीन साल में बारिश विफल हो जाती है, कभी-कभी हर तीन साल में. जब यह होता है तो जिला समृद्धि से अकिंचनता की स्थिति में पहुंच जाता है. हर बार इससे उबर पाना आसान नहीं होता: किसान ऋण और गहरी व्यथा में डूब जाते हैं. लेकिन इस साल लोग आत्मविश्वास से भरे हैं, क्योंकि उन्होंने सूखे के दौरान जल संरक्षण में निवेश किया है. साभार- डाउन टू अर्थInput format
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