आकाश की चाह में

पक्षियों की उड़ान के साथ जीवन की उड़ान भरने वाले अली हुसैन देश की सीमाएं लगातार लांघते रहे हैं। दुनिया के दस देशों के पक्षी वैज्ञानिकों को प्रशिक्षित कर चुके अली भले ही भारत की शान बढ़ा रहे हैं, अपने देश में उन्हें एक उपेक्षित और अभाव भरी जिन्दगी ही मिली है। यह अलग बात है लंदन, अमेरिका और अपने देश की पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खी में रहे अली हुसैन आज दुनिया के उन तमाम देशों की जरूरत बन चुके हैं, जहां पक्षी-विज्ञान पर शोध हो रहे हैं।

अली ‘छू काली कलकत्ते वाली' कहकर तमाशा दिखाने वाले मदारी या जादूगर नहीं हैं, जो उड़ते पक्षियों को पकड़कर भीड़ जुटाने का धंधा करते हों। वे वास्तव में पक्षी पकड़ते नहीं हैं, बल्कि पक्षी उनके पास ऐसे चले आते हैं, जैसे कि दीये की लौ पर कीट-पतंग।

मुसलमानों की अति-पिछड़ी जाति मीरशिकार का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। जब राजाओं-महाराजाओं के दरबार में रंग-बिरंगे पक्षियों को सोने के पिंजड़े में रखा जाता था, राजा के मनचाहे पक्षियों को मीरशिकारी पकड़ कर लाते थे। इन मीरशिकारियों को समाज बहेलिया कहकर पुकारता है। ऐसे ही गरीब बहेलिया परिवार में बिहार के बेगूसराय जिला अंतर्गत मंझौल कस्बे में अली हुसैन का जन्म हुआ था। अली तब अपने अब्बा मीर जान शिकारी की अंगुली पकड़कर काबर झील में पक्षी पकड़ने जाते थे। किशोर बहेलिया अली, झील से सुंदर शक्ल के पक्षियों को पकड़कर चिड़ियाघरों में बेचने का काम करते थे। 1962 में विश्वविख्यात पक्षी वैज्ञानिक सलिम अली पक्षियों पर शोध करने काबर झील आये तो उन्होंने अली हुसैन को अपने साथ जोड़ लिया। सलिम अली ने अली हुसैन को उपयोगी मानकर इन्हें बी.एन.एच.एस (बंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी) के साथ 'सीजनल बर्ड हूपर' के रूप में नियुक्त किया।

ठेठ देहाती दिखने वाले अली हुसैन यद्यपि अनपढ़ हैं, लेकिन पक्षी मनोविज्ञान पर इनकी अद्भुत पकड़ है। बिना प्रताड़ित किये पक्षियों को पकड़ने की सौ से अधिक देहाती परंपरागत तकनीक इनके पास हैं, जिन्हें भारतीय और विदेशी वैज्ञानिक अद्वितीय मानते हैं। पक्षी पकड़ने का इनका ‘गोग ऐण्ड फायर मेथड' और 'डक्कन' तरीका विश्व प्रसिद्धि हासिल कर चुका है। सलिम अली ने देहाती प्राकृतिक संसाधनों से तैयार परंपरागत हुसैन तकनीक को व्यापकता देने का काम किया और इन पर गहन शोध किया। सलिम अली के निधन के बाद पक्षी विज्ञान में बड़ी रिक्तता आई है। पक्षी वैज्ञानिकों के कदम ठहर गये। सलिम अली की यह कामना कि ‘अली हुसैन, तुम्हारा अजूबापन दुनिया में नाम करेगा', सच साबित हुई।

अली हुसैन के करिश्मे भारतीय सिनेमाघरों और दूर-दर्शन के सभी चैनलों पर भी दिखाये गये हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय (भारत सरकार) की मुंबई फिल्म डिवीजन ने अली की जिन्दगी पर चौदह भाषाओ में ‘समाचार चित्र' (डॉक्यूमेन्टरी फिल्म) तैयार किया है। अमेरिका के चैनल 4 ने अली की अमेरिका यात्रा पर 35 मिनट और 10 मिनट की दो डॉक्यूमेन्टरी फिल्में प्रदर्शित की हैं। अली को जानने वाले अब इनके कार्यों से पूरी तरह परिचित हैं।

जब घनी अंधेरी रात, कड़ाके की ठंड से लोग सिहर रहे होते हैं, उन्हें जंगली जानवरों का भय सता रहा होता है, आकाश में तारे टिमटिमा रहे होते हैं, उस समय अली पक्षियों से बातें कर रहे होते हैं। वे जलती लूकी (घास) हिलाते हुए, पानी में पैर थपथपाते हैं, पक्षियों की आवाज में आवाज भी देते हैं। उनके पीछे-पीछे महबूब या कासिम थाली बजा रहे होते हैं। चमकती लूकी की रोशनी और थपथपाहट से पक्षी भ्रमित हो जाते हैं। वे विपरीत दिशा में लौटते हैं। पक्षी समझते हैं बादल गरज रहे हैं, बिजली चमक रही है। दिग्भ्रमित पक्षियों की आंखें चौंधिया जाती हैं और पक्षी अली की गिरफ्त में आ जाते हैं। इस तरीके से अली एक घंटे में 200 पक्षी तक पकड़ लेते हैं। काबर झील पक्षी विहार में दोपहर की कड़ी धूप में 'पिऊ-पिऊ...कहां...' की शोर मची है। पपीहे की मीठी तान से अली कुछ सचेत होते हैं। वाराणसी से आये प्रेस छायाकार रामशंकर सिंह जब तक कैमरा संभालते हैं, पपीहा अली की गिरफ्त में आ जाता है। कुछ वर्ष पूर्व शरद के दिनों में इंग्लैण्ड से भारत आये मेहमान पक्षी वैज्ञानिक पीटर ब्लूम को अली की मदद न मिलती तो उन्हें निराश लौटना पड़ता। भरतपुर स्थित केवलादेव पक्षी अभयारण्य में पूरे पांच दिन तक पीटर ब्लूम अपने सारे तरीके इस्तेमाल कर परेशान हो गये, फिर भी बाज उनकी गिरफ्त में नहीं आये। गोरा आदमी और हरा जंगल, फिर चालाक बाज को ललचाना आसान नहीं था। अली ने अपने आधे घण्टे के प्रयास में तीन बाज पकड़ लिये। ब्लूम ने शाबाशी दी और कहा, ‘हमें आपसे यह तरीका सीखना है।’

अली के करतब से भले ही ब्लूम जैसे वैज्ञानिक अचंभित हो रहे हैं, पर हकीकत यह है कि अली के पास कोई जादू-टोना नहीं है, जैसा कि लोग मानते हैं। साइबेरियाई सारस जैसे चालाक पक्षी हों या कि लोहा सारंग जैसा जान-लेवा पक्षी, सबसे अली की दोस्ती है। अली 400 से अधिक किस्म के पक्षियों को पहचान सकते हैं और अनपढ़ होने के बावजूद सभी किस्म के पक्षियों के वैज्ञानिक नाम अंग्रेजी-हिन्दी में पुकार सकते हैं। अली ने अपने पचपन बरस के लम्बे जीवन में दो लाख से अधिक पक्षियों को पकड़कर पैर में छल्ला (रिंग) लगाने का काम किया है। लुप्तप्राय पक्षी बस्टर्ड (सोन चिरैया) को अस्वाद रहमानी के साथ अली ने करेड़ा पक्षी विहार में पकड़ा था। श्री रहमानी बी.एन.एच.एस के निदेशक हैं। अली बताते हैं कि रहमानी ने इन्हें अपेक्षा से ज्यादा स्नेह और सम्मान दिया है।



 

पक्षियों के इस रहनुमा को चाहने वालों की कमी नहीं है। उन्हें ज्यादा कुछ चाहिये भी नहीं। जो मिला जितना मिला उसी से संतोष कर लिया। जैसा जिया खूब जिया है। अपने पास जो कुछ है सबको दे देंगें, जो लेना चाहे। जितना प्यार किया पक्षियों से उससे बढ़कर प्यार मिला।

अमेरिकी पक्षी वैज्ञानिक मिनी नागेन्द्रन ‘इंटरनेश्नल क्रेन फाउण्डेशन’ अमेरिका के तहत कुछ वर्ष पूर्व साइबेरियाई सारसों की विलुप्त होती प्रजाति पर शोध करने भरतपुर आई थीं और अली की मदद से गहन शोध किया था। अब मिनी अली के इतने करीब आ चुकी है कि आप इन्हें अली की नम्बर वन प्रशंसिका कह सकते हैं। मिनी चाहती हैं कि अली की तकनीक को पक्षी विज्ञान में जिन्दा रखा जाये। अमेरिकी पक्षी वैज्ञानिक कैटी रिचर, जार्ज आर चिबाल्ड, रूस के पक्षी वैज्ञानिक सोसी सोरकिन और पूरी मरकीन भी इनसे मित्रवत जुड़े हैं। जाने-माने पक्षी वैज्ञानिक जे.सी डेनियल अली को भारत की शान मानते हैं। भारत-अमेरिकी वैज्ञानिक संधि के तहत ‘फिश एण्ड वाइल्ड लाइफ सर्विस' अमेरिकी सरकार द्वारा प्रायोजित अली की यह वैज्ञानिक यात्रा दो वर्ष से प्रतीक्षित थी। 27 जनवरी, 1998 की रात जीवन की पाली हवाई उड़ान अली ने अपने पुत्र महबूब के साथ हांग-कांग के लिये भरी थी। हांग-कांग से टोक्यो, होनोलुलू, बोस्टन, ब्रोन्सबिले, शिकागो, मेडिसॉन, वाशिंगटन होते हुए अंतिम पड़ाव लंदन के बाद महीने भर के प्रयास से अली स्वदेश लौटे।

'सोन चिरैया, सारस, आ...जा...आ...जा...प्यार कू...कू... करती कोयलिया आ...जा...’, वह सपने में आवाज पहचानते हैं, आंख मूंदे मुस्कुराते हैं और आँख खुलने तक सब याद रखते हैं। ऐसे सुन्दर सपनों भरी नींद सबके हिस्से में नहीं होती। अली अपने-आप पर अकड़ते हैं, 'कुछ लोग बरगला रहे थे अमेरिका में, तुम्हारे ब्रेन का ऑपरेशन किया जायेगा, देखा जायेगा कि क्या कारण है कि तुम्हारे जैसा अनपढ़ भी पक्षियों के बारे में इतना ज्ञान कैसे रखता है।' ये बातें अली के गले नहीं उतरती।

सलिम अली ने सड़क किनारे के एक पत्थर को तराशकर मणिरत्नम का रूप दिया था, क्या यह सुरक्षित रह पायेगा या फिर इसका तेज भावी पीढ़ी को रोशनी दे सकेगा? कहा नहीं जा सकता। अली तीन दशक से अधिक समय से बी.एन.एच.एस के साथ घूम-घूमकर भारत के पक्षी विहारों में अपनी सेवा दे रहे हैं, पर इन्हें अब तक पक्की नौकरी नसीब नहीं हो सकी है। सात समुन्दर पार धरती को जोड़ने में लगे अली का परिवार तार-तार हो चुका है।

बी.एन.एच.एस की साढ़े. चार हजार की माहवार आमदनी, वह भी शरद के महीने में। बांकी समय तो अली अपने गांव में बांसुरी बजाते ताड़ का पंखा हिलाते मिल जाते हैं। पर्व-त्योहारों पर वह बांसुरी बनाकर बेचते हैं और गर्मी के मौसम में पंखा बनाकर बाजार पहुंचाते हैं। आखिरकार पेट का सवाल है। पत्नी, चार बेटे और दो पुत्रवधुओं से भरे-पूरे परिवार की गाड़ी महाज़नों से लिये गये महंगे ब्याज वाले कर्ज से खिंच रही है।

एक तरह से पूरा परिवार अनपढ़ है। दो छोटे बच्चों सिकंदर और अमजद को अली ने स्कूली शिक्षा दिलाने की कोशिश की, लेकिन गरीबी आड़े आ गई और उन्हें पंखा-बांसुरी के पुस्तैनी धंधे में लगाना पड़ा। कासिम सीजनल ट्रेपर के रूप में बी.एन.एच.एस से जुड़े हैं। महबूब इस संस्थान के निदेशक अरशद रहमानी के साथ पुत्रवत पले-बढ़े हैं, साथ ही ड्राइवर की अस्थायी नौकरी भी कर रहे हैं। महबूब ने पढ़े-लिखों के बीच अंग्रेजी-हिंदी बोलने में दक्षता पा ली है। अमेरिका यात्रा में अली के साथ महबूब भी गये थे।

अली स्वाभिमानी हैं। इनका स्वाभिमान किसी-किसी को अच्छा नहीं लगता। यही वजह है कि कुछ अधिकारियों ने इनके विदेश से आये पत्रों को महीनों दबाये रखा। अधिकारियों के व्यवहार से अली गुस्सा जाते हैं। उनका यह गुस्सा लोगों को अच्छा नहीं लगता पर ये इतने सीधे हैं कि उनका कुछ बदले में नुकसान करना नहीं चाहते। अली से अखबार वाले मिलने आते हैं और कमी-कभी निराश होकर लौट जाते हैं, क्योंकि वे दूरी तय कर जिस शख्स से मिलने आये हैं, वह तो बिलकुल साधारण-ठेठ देहाती आदमी है। ऐसे लोगों के लिये अली के पास गणित की कुछ टेढ़ी-उलझी पहेलियां हैं, जिनका जवाब ढूँढना बड़ी माथापच्ची के बाद भी संभव नहीं होता। पर एक उलझी पहेली यह भी है कि अली को अपने घर (बिहार) में कोई सम्मानित स्थान हासिल नहीं है। अपने गांव के लिये अली 'मीर शिकरवा' से ज्यादा कुछ भी नहीं है। यह अलग बात है कि कुछ लोग इन्हें गांव में भी भरपूर सम्मान देते हैं।

आई.ए.एस वंदना दादेल अली के घर-परिवार की माली हालत से रूबरू होकर स्तब्ध रह गईं थीं पर जिलाधिकारी ने जिले की इस प्रसिद्ध शख्सियत को घर-मकान दिलाने व सम्मानित कराने की अली के प्रशंसकों की अपील खारिज कर दी थी। कच्ची ईंट, मिट्टी और खपड़ेल का ढहता हुआ घर बरसात में पानी से लबालब हो जाता था। अली की पत्नी खीझती हैं, ‘अखबार, टीवी वाले यह सब नहीं देखते हैं क्या?’ फिर भी अली की पत्नी को अपनी हालत पर संतोष है।

पक्षियों के इस रहनुमा को चाहने वालों की कमी नहीं है। उन्हें ज्यादा कुछ चाहिये भी नहीं। जो मिला जितना मिला उसी से संतोष कर लिया। जैसा जिया खूब जिया है। अपने पास जो कुछ है सबको दे देंगें, जो लेना चाहे। जितना प्यार किया पक्षियों से उससे बढ़कर प्यार मिला। लाठी चलाने में उस्ताद अली अपनी लाठीबाजी की कला से भले ही जंगली जानवरों और लफंगों से निपटने में कामयाब होते रहे हों, किन्तु इनकी लाठी की मार इनके घर-परिवार के दुर्दिन नहीं टाल सकी। पर अली का विलाप अपने लिये कुछ भी नहीं है। उनकी चिन्ता तो यही है कि जंगल, घोंसले उजाड़े जा रहे हैं, पक्षी कहां कूकेंगें . . . गाएंगे। कानून के परखचे कब तक उड़ते रहेंगें? काबर झील पक्षी विहार कब सुंदर रूप धरेगा? रूठते मेहमान पक्षी कैसे मनाये जाएंगे और वापस लाये जाएंगे?
 

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