आकार लेता हूँ

मै जल

उस पात्र का आकार लेता हूं

जिसमें होता हूँ

चक्र और गोल

मिट्टी का घड़ा बन जाता हूँ

लम्बी और पतली

बोतल सी देह में ढल जाता हूँ

अथवा मेज पर पडा़ गिलास

जिस पात्र में प्रवेश

वही वर्ण,वही वेश

मै हूँ कि देखी तुमने पारदर्शिता

मैं हूं कि दृश्यमान हुई तरलता

मै नहीं सा कुछ कितने रूपाकार

इतना आत्मही

हर पात्र से तादात्म्य

पात्र तोड़कर मुक्त करोगे

तो प्रवाह बन जाऊंगा

गुड़गुडा़ते दौड़ते

सूर्य की हीरक झिलमिल को पकडूंगा

चिकना चट्टानों पर भागूंगा तेजी से

भेटने को अपनी माँ

जो कही जाती नदी

तब हम साथ पिघलेंगे

अपने स्वत्व के सागर में

संकलन/ प्रस्तुति
नीलम श्रीवास्तव,महोबा उत्तरप्रदेश

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