छत्तीस गढ़ों वाले छत्तीसगढ़ की इस संपन्नता का कारण जाहिर है घने, हरे भरे जंगल और धान पैदा कर पाने के लिए उत्तम जलवायु वाली धरती। असल में छत्तीसगढ़ भौगोलिक रूप से एक कटोरे के आकार का इलाका है। आसपास के पहाड़ों से घिरी और बीच में मैदान की तलहटी एक कटोरे का आकार बनाती है। छत्तीसगढ़ को, उत्तर में सतपुड़ा की ऊंची-नीची जमीनों के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियों का 80 से 100 मील लंबा मैदान और दक्षिण में बस्तर का पठार, इन तीनों भागों में बांटा जा सकता है। छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख शहर है राजनांदगांव, जो देश की शुरुआती कपड़ा मिलों में से एक 'बंगाल-नागपुर काटन मिल्स' (बीएनसी मिल्स) और उसी जमाने के संघर्षशील मजदूर यूनियन के कारण जाना जाता है। लेकिन वहां के चिमटा बजाकर भजन गाने वाले बैरागी राजाओं द्वारा बनवाया गया विशाल रानीसागर तालाब और शिवनाथ नदी से भाप के इंजन लगाकर लाए गए पानी और उसके वितरण के लिए बना इलाके का पहला 'वाटर वर्क्स' उतने प्रसिद्ध नहीं हैं।
इसी राजनांदगांव में वर्षों पहले बनी इलाके की पहली नगर पालिका ने ऐसे तीन फैसले लिए थे जिनका संबंध पानी या पानी के स्त्रोतों से था। 22 दिसंबर 1889 को हुई पहली, 2 फरवरी 1890 को हुई दूसरी और 2 जुलाई 1892 को हुई अपनी तीसरी बैठक के दौरान बनी एक समिति ने एक तो गंज के कुएं पर 153 रुपए आठ आने, अस्पताल के कुएं पर 405 रुपए और बाजार के कुएं पर 293 रुपए छह आने यानी कुल 851 रुपए 14 आने खर्च की रकम मंजूर की थी। दूसरे फैसले में गंज के तालाब में नहाने धोने की पाबंदी को हटा दिया गया था ताकि लोगों को इससे होने वाली परेशानियों से बचाया जाए। तीसरे फैसले में पुलिस महकमें को हर घर के सामने पानी से भरे दो घड़े रखवाने का आदेश दिया गया था ताकि आग लगने पर बुझाया जा सके। उन दिनों फायर ब्रिगेड जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी।
स्थानीय निकाय की इस जनहित की कार्यवाही के 64 साल बाद समाज ने भी पानी के प्रति ऐसा ही एक और सरोकार दिखाया था। 1954-55 में शहर के प्रतिष्ठित व्यवसायी बजरंग महाराज ने भरकापारा के तालाब की गंदगी से दुखी होकर आमरण अनशन की घोषणा की थी। सरकार या किसी स्थानीय निकाय की बजाय समाज को चेताने के लिए किया गया यह अनशन कुल तीन दिन चला था कि समाज ने तालाब की सफञई का काम उठा लिया।
पत्रकार और तब के युवा रमेश याज्ञिक बताते हैं कि पूरे शहर के गरीब-अमीर, जातियों के बंधन तोड़कर दो-दो घंटे तालाब पर स्वेच्छा से काम करते थे। कुछ ही दिनों में आज के बस स्टैंड के पास मौजूद भरकापारा तालाब अपने निर्माण के सौ सवा सौ साल बाद साफ कर दिया गया। पानी या प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सरोकार के ऐसे उदाहरणा दरअसल संपन्न समाजों के लक्षण हैं और संपन्नता सिर्फ पैसे धेले से नहीं नापी जाती।
इतिहास पर धूल को जरा सा झाड़कर देखें तो छत्तीसगढ़ में 'पर्वतदान' सरीखी परंपराएं आसानी से देखी जा सकती हैं। पर्वतदान यानी अच्छी फसल पकने पर धान के बड़े-बड़े पहाड़नुमा ढेर बनाकर उसके बीच सोना, चांदी पैसा आदि गुप्त रूप से रखकर दान करने की परंपराएं अभी कुछ साल पहले तक कई गांवों में आम बात थी। गतौरी, रतनपुरा, खैरा-डगनिया, मुंगेली, ब्रम्हदा, मल्हार आदि कई गांवों में 'पर्वतदान' होते थे।
रतनपुर में तो अभी 1950-51 के साल तक 'पर्वतदान' किए गए थे। आज के कृपण मन को यह जानकारी चौंका सकता है। पर्वतदान करने वाले गांव आज भी विपन्न तो नहीं कहे जा सकते।
छत्तीस गढ़ों वाले छत्तीसगढ़ की इस संपन्नता का कारण जाहिर है घने, हरे भरे जंगल और धान पैदा कर पाने के लिए उत्तम जलवायु वाली धरती। असल में छत्तीसगढ़ भौगोलिक रूप से एक कटोरे के आकार का इलाका है। आसपास के पहाड़ों से घिरी और बीच में मैदान की तलहटी एक कटोरे का आकार बनाती है। छत्तीसगढ़ को, उत्तर में सतपुड़ा की ऊंची-नीची जमीनों के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियों का 80 से 100 मील लंबा मैदान और दक्षिण में बस्तर का पठार, इन तीनों भागों में बांटा जा सकता है। मैकल, रायगढ़ और सिहावा पहाडियों से घिरे तथा महानदी और उसकी सहायक शिवनाथ, मांड़, खारून, जोंक, हसदो आदि नदियों से सिंचित इस इलाके में औसतन साठ इंच वर्षा होती है। लगभग 51888 वर्गमील में फैला और दो करोड़ से अधिक आबादी वाला छत्तीसगढ़, रायगढ़, कोरबा, कवर्धा, जांजगीर, जशपुर, कोरिया, बिलासपुर, सरगुजा, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, धमतरी, महासमुंद, कांकेर, दंतेवाड़ा और बस्तर जिले में समाया है। पानी की व्यवस्था भी भूगोल की इसी बनावट के आधार पर हुई है।
पहाड़ों और उनके घने जंगलों के कारण बारहमासी नदियां-सोते भरे पड़े हैं। वहीं मैदानी क्षेत्रों में असंख्य तालाबों, डबरों का ताना-बाना रचा गया है। पहाड़ी इलाकों में हर कहीं पानी की इफरात है और लोग भी कम रहते हैं इसलिए आमतौर पर कोई पक्का ढांचा बनाकर उसे साल भर रखने का पुख्ता इंतजाम नहीं किया गया है। लेकिन मैदानी क्षेत्रों को बरसात का पानी पूरे साल वापरना होता है और कभी-कभी मौसम की नाराजगी से ना गिरने वाले पानी की भरपाई भी करनी होती है। इसलिए यहां छोटे-बड़े कई तरह के तालाबों, डबरियों, बंधिया-बंधानों आदि की कारगर व्यवस्था की गई है।
एक कहावत है कि सरई के पेड़ 'सौ साल खड़े, सौ साल अड़े सौ साल पड़े तभो ले नइ सरे (सड़े)'। 'तूम' या 'ढोढ़ी' में पानी की आवक एक तो जंगल के पेड़ों में रुके पानी के धीरे-धीरे झिरने से होती है और दूसरे पूरे खेत के आगोर से भी इन्हे पानी मिलता है। बाजारों में मिनरल वाटर के नाम पर बिकने वाले पानी से कई गुना साफ और निर्मल पानी देने वाली ढोढ़ियां या तूम छतीसगढ़ के लगभग हर पहाड़ी गांव को पानी पिलाती हैं। जँगल, पहाड़ों के इलाके में नई-पुरानी हर बसाहट छोटी-छोटी नदियों, नालों के आसपास हुई है। इनके बारे में साल के कुछ महीने पानी होने की प्रचलित आम समझ के उलट घने जंगलों के कारण इनमें बारहों महीने पानी बना रहता है। रोज के निस्तार और थोड़ी बहुत सिंचाई के लिए तो इनसे सीधे ही पानी ले लिया जाता है, लेकिन पीने के पानी में थोड़ी सावधानी बरती जाती है। नदी, नालों के किनारे की रेत को थोड़ा-सा खोदकर बनाए गए गङ्ढे से मिलने वाला छना हुआ साफ पानी पीने के काम आता है। पानी इनमें धीरे-धीरे झिरकर इकट्ठा होता है इसलिए इनहें झिरिया या झरिया कहा जाता है। कभी-कभी इनहें 2-3 हाथ खोदकर गहरा कर देते हैं और तब इनहें नाम दिया जाता है- 'झिरिया कुआं।' कुछ बस्तियां पहाड़ों से निकले सोते के पानी को पीने के काम में लाती हैं। इन स्रोतो को 'तुर्रा' कहा जाता है। पहाड़ों की तलहटी में बसे कई गांवों को जंगलों के कारण रुका हुआ पानी धीरे-धीरेमिलता है। बीच खेत में 3 से 4 हाथ तक खोदकर पानी लेने के तरीके को 'ओगरा' कहते हैं।
दरअसल पानी से जुड़ी पध्दतियां सिर्फ संज्ञा ही नहीं क्रियाएं और प्रक्रियाएं भी होती हैं। मसलन झिरिया सिर्फ पहाड़ों में ही नहीं बल्कि कहीं भी इस तरह से मिलने वाले पानी की प्रक्रिया को कहते हैं। ये झिरियाएं छोटी-मोटी नदी का स्रोत होती हैं। रायपुर के पास से बहने वाली खारुन नदी पर 20-22 कि.मी. पीछे जाएं तो ऐसी 8- 10 झिरियाएं नदी में पानी डालती देखी जा सकती हैं। एक अनुमान के अनुसार महानदी के इलाके में करीब सौ जगहों पर ऐसी सततवाही झिरियाएं मिल सकती हैं। इसी तरह 'ओगरा' आगोर यानी 'जलग्रहण क्षेत्र से मिले पानी के कारण निर्मित स्रोत को कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो में पेयजल का एक बारहमासी स्रोत होता है जिसे रायगढ़, सरगुजा के इलाके में ढोढ़ी, डाढ़ी या तूसा कहते हैं और बस्तर, सिहावा के इलाके में तूम। उरांव भाषा में पेड़ों के खोखले तने को ढोढ़ कहते हैं और शयद मारिया भाषा में तूम का भी यही अर्थ होता है। यह पहाड़ों की तराई में खेतों के बीच आपरूप फूटा पानी का सोता होता है। 3-4 हाथ गहरे इन स्रोतों को पानी में सदियों टिकी रह पाने वाली जामुन या सरई की लकड़ी के खोखले तने से पाट दिया जाता है।
कभी-कभी ये स्रोत चौड़े हो जाते हैं और तब इन्हे जामुन या सरई की लकड़ी की ही चौकोन पाटी बनाकर पाटा जाता है। जामुन, सरई, सागौन और सिघँदर जिसे उरांव भाषा में खोखड़ो कहते हैं पानी में टिकी रह सकने वाली लकड़ी होती है। एक कहावत है कि सरई के पेड़ 'सौ साल खड़े, सौ साल अड़े सौ साल पड़े तभो ले नइ सरे (सड़े)'। 'तूम' या 'ढोढ़ी' में पानी की आवक एक तो जंगल के पेड़ों में रुके पानी के धीरे-धीरे झिरने से होती है और दूसरे पूरे खेत के आगोर से भी इन्हे पानी मिलता है। बाजारों में मिनरल वाटर के नाम पर बिकने वाले पानी से कई गुना साफ और निर्मल पानी देने वाली ढोढ़ियां या तूम छतीसगढ़ के लगभग हर पहाड़ी गांव को पानी पिलाती हैं। रायगढ़ जिले के कस्बे पथलगांव के सूखे कठिन समय में पानी देने का काम करने वाली प्रेमनगर और ढोढ़ीटिकरा मोहल्ले की दो ढोढ़ियां अब भी लोगों की याद में बसी हैं। जशपुर नगर में हर कभी नगरपालिका का टेंकर तालाब के किनारे बनी पक्की डाढ़ी से पानी लेकर शहर में बांटता देखा जा सकता है। लोगों का कहना है कि महीने में बीस-बाइस दिन तो बिजली फेल हो जाने, पंप बिगड़ जाने या पाइप लाइन फट जाने से लावा नदी से लाई जाने वाली नगरपालिका की जलवितरण व्यवस्था ठप पड़ी रहती है। ऐसे में सदियों पहले बनी और सन 35-36 में पक्की की गई यह पक्की डाढ़ी पूरे कस्बे की पेयजल की जरूरतें पूरी करती है। पहाड़ी इलाकों के निचाई के कई खेतों को पझरा खेत इसलिए कहा जाता है क्योँकि इनमें आसपास से पानी पझरता या रिसता रहता है। इन खेतों में 6-7 हाथ के गङ्ढे बनाकर ऊपर लकड़ी रखकर पानी निकाला जाता है। इस तरह उथले कुंओं, ढोढ़ियों और नदी-नालों से पानी निकालने के लिए टेढ़ा उपयोग किया जाता है। टेढ़ा यानी एक लंबी मजबूत लकड़ी के पीछे पत्थर का वजन और आगे के सिरे पर रस्सी से एक बर्तन बांधकर बीच के खूंटे पर टिकाया जाता है। बच्चो के खेल की तरह की इस पध्दति में पानी उलीचने के अलावा कमर-पीठ की कसरत भी होती है और लोगों का कहना है कि टेढ़ा से पानी निकालने के कारण वे पीठ दर्द, कमर दर्द आदि की झंझटों से मुक्त रहते हैं।
टेढ़ा से निकले पानी को बांस या फिर सरई की लकड़ी के पाइप यानी 'डोंगा' के जरिए बाड़ी में पहुंचाया जाता है। असल में टेढ़ा का पानी आमतौर पर घर के पिछवाड़े साग-भाजी के लिए रखी गई बाड़ी में ही पहुंचाया जाता है। पझरा खेतों में कहीं-कहीं छोटे-मोटे तालाब भी बन जाते हैं और इन्हे तरई, डबरी, खुदरी, खुदरा या खोदरा भी कहा जाता है। बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में भी पानी तो झिरिया, नदी, नालों से ही लेते हैं लेकिन इनके किनारे बनाए जाने वाले 'चुहरा' या 'तूम' को बांस की चटाई से पाट दिया जाता है। कहीं-कहीं नए लोगों ने पीपा के टीन को भी पाटने के काम में लगाया है। बरसों से सरकारी अनुमति लेकर ही प्रवेश कर पाने वाले इस इलाके में पानी के लिए पहाड़ों से बारहमासी सोते होते हैं, छोटी-छोटी नदियां नाले हैं और जगह-जगह तूम हैं। पहाड़ों से गिरने वाले पानी से बांस का पाइप लगाकर यहां भी नल का मजा ले लिया जाता है। आमतौर पर तरई करीब एक एकड़ की छोटी तलैया होती है और तलैया करीब आधा एकड़ की। ये तरई, तलैया पानी के आसपास के पहाड़ों से रिसने या झिरपने के कारणा बन जाती है और इनका पानी पीने लायक भी होता है। इन तरई, तलैयों में कई तरह की वनस्पति, फूल पैदा किए जाते हैं जिनसे पानी साफ बना रहता है। इनमें बोडेंदा फूल ऐसी वनस्पति है जिससे पानी तो साफ रहता ही है लेकिन गर्भवती महिलाओं को खिलाने से भी फायदा होता है। शयद इस फूल में लोहत्तव की मात्रा रहती है। इसी तरह जलकनी, कस्सा घाँस आदि भी पानी की सफाई के उपयोग में लाई जाती है। तूम या ढोढ़ी के अलावा पेयजल, निस्तार और सिंचाई का एक और सर्वव्यापी साधन कुंआ या चुंआ होता है। जंगलों, पहाड़ों से रिसने वाले पानी और व्यापक रूप से तालाबों की मौजूदगी में छत्तीसगढ़ में कुंओं को खोदना आसान होता है। भूजल स्तर काफी उथला होता है और इनमें लगातार पानी की आवक भी होती रहती है। कुंआ खोदने का काम तो हालांकि गांव समाज के सामान्य ज्ञान के आधार पर कोई भी कर लेता है लेकिन इनकी ठीक जगह जहां से निर्बाध पानी मिलता रहे, बताने वाले विशेषज्ञ कुछ ही होते हैं।
ये विशेषज्ञ अपनी-अपनी तरकीबों से पानी की उपलब्धता मात्रा , चट्टानें गहराई आदि का ठीक-ठाक हिसाब लगाकर बता देते हैं। आधुनिक जल विशेषज्ञो के पास इस ज्ञान का अब तक कोई तर्क या विज्ञान नहीं बन पाया है लेकिन कमाल है कि ग्रामीण विशेषज्ञो की बताई जगहों पर कुआं खोदने पर इक्का दुक्का अनुभवों को छोड़ दें तो सौ टंच सही पानी मिल ही जाता है।
रायपुर के पास के आरंग शहर में करीब 40 कुएं हैं और पूरे ब्लाक में कुओं की संख्या 3057 बताई गई है। दुर्ग में यूं तो पानी आम तौर पर खारा है लेकिन पूरे शहर को पेयजल देने वाले दो कुएं आज भी प्रसिद्ध हैं जिनमें छीतरमल धर्मशाला का कुआं एक है। बस्तर के गांव फुक्का गिरोला में बना कुआं लकड़ी के रिंग या चौखट से पाटा गया है। इसमें इतना पानी है कि ऊपर से बहता रहता है। बिलासपुर जिले के डभरा गांव के पास एक जोसी है जिनके बारे में कहते हैं कि उन्हे जमीन में पानी की आवाज सुनाई देती है। वे सिर्फ धरती माता पर कान लगाकर बता देते हैं कि कितने हाथ पर कैसा कितना पानी और बीच में कितने हाथ पर रेत और पत्थर मिलेंगे। ये जोसी सबरिया जाति केहैं जिनके बारे में कहा जाता है कि ये चूंकि आंध्रप्रदेश से बरसों पहले सब्बल लेकन मिट्टी का काम करने के लिए यहां आए थे इसलिए उन्हे सब्बलिया या सबरिया कहा जाता है। एक नाता रामायणा की प्रसिद्ध शबरी से भी बैठाया जाता है। जिसने साक्षात भगवान को ही जूठे बेर इसलिए खिलाए थे ताकि उन्हे खट्टे या जहरीले फल न मिलें। सबरिया इसी शबरी भील के वंशज बताए जाते हैं। इसी तरह बस्तर के कोंडागांव में पूर्व कृषि अधिकारी श्री उइके हैं जो कमर में जामुन की डगान बांध कर कुआं खोदने के प्रस्तावित क्षेत्र में घुम जाते हैं। यह करते हुए उनकी जामुन की मामूली डगान उन्हे बता देती हैं कि कहां पर कुआं खोदना सबसे उपयुक्त होगा ।
श्री उइके का कहना है कि आज तक सिर्फ दो जगहों पर वे कुछ कारणो से फेल हुए हैं हालांकि उन्हे दूर दराज के इलाकों से बुलाकर कुआं खोदने की जगहों की पहचान करवाई जाती है। ऐसे ही एक गुनिया हैं जो बैठे बैठे जमीन की गरमी ठंडाई का अंदाजा लगाकर पानी होने न होने की बात बता देते हैं। वे मानते हैं कि जहां जमीन ठंडी होगी वहां जरूर पानी होगा। चांपा के पास एक बाबा थे जिन्हे रसातल की आवाज सुनाई देती थी। वे इसे सुनकर पानी की पक्की जानकारी दे देते थे। एक और तरीका नदी नाले सरीखे जलस्रोत से एक पत्थर लाकर उसे धागे में बांधकर जमीन पर फिराने का है। जहां यह पत्थर घुमना शुरू कर दे वहां पानी माना जाता है और यह जितनी बार .घुमे उतने हाथ पानी होगा। इस तरीके से चट्टानों और उनकी मोटाई का पता भी चल जाता है। हालांकि यह बहुत कम लोगों के बस की बात है। लेकिन इस तरह बने कई कुंज आज भी मौजूद हैं। छत्तीसगढ़ और देश के दूसरे इलाकों में थोड़ी विनम्रता से देखें तो कई ऐसे विशेषज्ञ मिल जाएंगे जो निन्यानबे प्रतिशत तक सही साबित होते हैं। इतनी ग्यारंटी तो हमारे बाकायदा पढ़े लिखे विशेषज्ञ भी नहीं दे पाते।
सही जगह मिल जाने पर कुआं खोदने का काम होता है। पूस, मास या अधिक से अधिक चैत तक कुआं खोदने का काम शुरू हो जाता है। ताकि बैशाख-जेठ तक काम पूरा हो जाए। भर गर्मी के इन महीनों में पानी निकलने का मतलब होता है बारहों महीने पानी की आपूर्ति।
खुदाई के साथ साथ कुओं की चिनाई का काम भी चलता है। बांस तरी होने के कारणा पहचाने जाने वाले बस्तर में बांस की चटाई से कुएं पाटे जाते हैं। कई जगहों पर सरई या जामुन की लकड़ी के चाक बनाकर उन्हे कुओं में उतारा जाता है। ये चाक लकड़ी के चौकोन या वर्गाकार फ्रेम होते हैं जो कुएं में एक एक करके खुदाई के साथ ही उतारे जाते हैं। आज के उपयुक्त तकनीक के हल्ले में नई ईजाद कहकर बनाए जाने वाले मिट्टी के सस्ते रिंग और इसके लिए खड़ी की जाने वाली धनी संस्थाओं के बहुत पहले से इन आदिवासी कहे जाने वाले इलाकों में ये रिंग कुएं पाटने की जिम्मेदारी निभाते आ रहे हैं। भाठा जमीनों में जहां कुएं और तालाब नहीं खोदे जाते, को छोड़कर छतीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रो में भी कुएं खूब हैं। रायपुर के पास के आरंग शहर में करीब 40 कुएं हैं और पूरे ब्लाक में कुओं की संख्या 3057 बताई गई है। दुर्ग में यूं तो पानी आम तौर पर खारा है लेकिन पूरे शहर को पेयजल देने वाले दो कुएं आज भी प्रसिद्ध हैं जिनमें छीतरमल धर्मशाला का कुआं एक है। बस्तर के गांव फुक्का गिरोला में बना कुआं लकड़ी के रिंग या चौखट से पाटा गया है। इसमें इतना पानी है कि ऊपर से बहता रहता है। इसके अलावा सिर्फ पत्थर से पाटकर बनाए गए चार कुएं भी इसी गांव में हैं जिनमें खूब पानी रहता है।
इसी राजनांदगांव में वर्षों पहले बनी इलाके की पहली नगर पालिका ने ऐसे तीन फैसले लिए थे जिनका संबंध पानी या पानी के स्त्रोतों से था। 22 दिसंबर 1889 को हुई पहली, 2 फरवरी 1890 को हुई दूसरी और 2 जुलाई 1892 को हुई अपनी तीसरी बैठक के दौरान बनी एक समिति ने एक तो गंज के कुएं पर 153 रुपए आठ आने, अस्पताल के कुएं पर 405 रुपए और बाजार के कुएं पर 293 रुपए छह आने यानी कुल 851 रुपए 14 आने खर्च की रकम मंजूर की थी। दूसरे फैसले में गंज के तालाब में नहाने धोने की पाबंदी को हटा दिया गया था ताकि लोगों को इससे होने वाली परेशानियों से बचाया जाए। तीसरे फैसले में पुलिस महकमें को हर घर के सामने पानी से भरे दो घड़े रखवाने का आदेश दिया गया था ताकि आग लगने पर बुझाया जा सके। उन दिनों फायर ब्रिगेड जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी।
स्थानीय निकाय की इस जनहित की कार्यवाही के 64 साल बाद समाज ने भी पानी के प्रति ऐसा ही एक और सरोकार दिखाया था। 1954-55 में शहर के प्रतिष्ठित व्यवसायी बजरंग महाराज ने भरकापारा के तालाब की गंदगी से दुखी होकर आमरण अनशन की घोषणा की थी। सरकार या किसी स्थानीय निकाय की बजाय समाज को चेताने के लिए किया गया यह अनशन कुल तीन दिन चला था कि समाज ने तालाब की सफञई का काम उठा लिया।
पत्रकार और तब के युवा रमेश याज्ञिक बताते हैं कि पूरे शहर के गरीब-अमीर, जातियों के बंधन तोड़कर दो-दो घंटे तालाब पर स्वेच्छा से काम करते थे। कुछ ही दिनों में आज के बस स्टैंड के पास मौजूद भरकापारा तालाब अपने निर्माण के सौ सवा सौ साल बाद साफ कर दिया गया। पानी या प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सरोकार के ऐसे उदाहरणा दरअसल संपन्न समाजों के लक्षण हैं और संपन्नता सिर्फ पैसे धेले से नहीं नापी जाती।
इतिहास पर धूल को जरा सा झाड़कर देखें तो छत्तीसगढ़ में 'पर्वतदान' सरीखी परंपराएं आसानी से देखी जा सकती हैं। पर्वतदान यानी अच्छी फसल पकने पर धान के बड़े-बड़े पहाड़नुमा ढेर बनाकर उसके बीच सोना, चांदी पैसा आदि गुप्त रूप से रखकर दान करने की परंपराएं अभी कुछ साल पहले तक कई गांवों में आम बात थी। गतौरी, रतनपुरा, खैरा-डगनिया, मुंगेली, ब्रम्हदा, मल्हार आदि कई गांवों में 'पर्वतदान' होते थे।
रतनपुर में तो अभी 1950-51 के साल तक 'पर्वतदान' किए गए थे। आज के कृपण मन को यह जानकारी चौंका सकता है। पर्वतदान करने वाले गांव आज भी विपन्न तो नहीं कहे जा सकते।
छत्तीस गढ़ों वाले छत्तीसगढ़ की इस संपन्नता का कारण जाहिर है घने, हरे भरे जंगल और धान पैदा कर पाने के लिए उत्तम जलवायु वाली धरती। असल में छत्तीसगढ़ भौगोलिक रूप से एक कटोरे के आकार का इलाका है। आसपास के पहाड़ों से घिरी और बीच में मैदान की तलहटी एक कटोरे का आकार बनाती है। छत्तीसगढ़ को, उत्तर में सतपुड़ा की ऊंची-नीची जमीनों के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियों का 80 से 100 मील लंबा मैदान और दक्षिण में बस्तर का पठार, इन तीनों भागों में बांटा जा सकता है। मैकल, रायगढ़ और सिहावा पहाडियों से घिरे तथा महानदी और उसकी सहायक शिवनाथ, मांड़, खारून, जोंक, हसदो आदि नदियों से सिंचित इस इलाके में औसतन साठ इंच वर्षा होती है। लगभग 51888 वर्गमील में फैला और दो करोड़ से अधिक आबादी वाला छत्तीसगढ़, रायगढ़, कोरबा, कवर्धा, जांजगीर, जशपुर, कोरिया, बिलासपुर, सरगुजा, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, धमतरी, महासमुंद, कांकेर, दंतेवाड़ा और बस्तर जिले में समाया है। पानी की व्यवस्था भी भूगोल की इसी बनावट के आधार पर हुई है।
पहाड़ों और उनके घने जंगलों के कारण बारहमासी नदियां-सोते भरे पड़े हैं। वहीं मैदानी क्षेत्रों में असंख्य तालाबों, डबरों का ताना-बाना रचा गया है। पहाड़ी इलाकों में हर कहीं पानी की इफरात है और लोग भी कम रहते हैं इसलिए आमतौर पर कोई पक्का ढांचा बनाकर उसे साल भर रखने का पुख्ता इंतजाम नहीं किया गया है। लेकिन मैदानी क्षेत्रों को बरसात का पानी पूरे साल वापरना होता है और कभी-कभी मौसम की नाराजगी से ना गिरने वाले पानी की भरपाई भी करनी होती है। इसलिए यहां छोटे-बड़े कई तरह के तालाबों, डबरियों, बंधिया-बंधानों आदि की कारगर व्यवस्था की गई है।
एक कहावत है कि सरई के पेड़ 'सौ साल खड़े, सौ साल अड़े सौ साल पड़े तभो ले नइ सरे (सड़े)'। 'तूम' या 'ढोढ़ी' में पानी की आवक एक तो जंगल के पेड़ों में रुके पानी के धीरे-धीरे झिरने से होती है और दूसरे पूरे खेत के आगोर से भी इन्हे पानी मिलता है। बाजारों में मिनरल वाटर के नाम पर बिकने वाले पानी से कई गुना साफ और निर्मल पानी देने वाली ढोढ़ियां या तूम छतीसगढ़ के लगभग हर पहाड़ी गांव को पानी पिलाती हैं। जँगल, पहाड़ों के इलाके में नई-पुरानी हर बसाहट छोटी-छोटी नदियों, नालों के आसपास हुई है। इनके बारे में साल के कुछ महीने पानी होने की प्रचलित आम समझ के उलट घने जंगलों के कारण इनमें बारहों महीने पानी बना रहता है। रोज के निस्तार और थोड़ी बहुत सिंचाई के लिए तो इनसे सीधे ही पानी ले लिया जाता है, लेकिन पीने के पानी में थोड़ी सावधानी बरती जाती है। नदी, नालों के किनारे की रेत को थोड़ा-सा खोदकर बनाए गए गङ्ढे से मिलने वाला छना हुआ साफ पानी पीने के काम आता है। पानी इनमें धीरे-धीरे झिरकर इकट्ठा होता है इसलिए इनहें झिरिया या झरिया कहा जाता है। कभी-कभी इनहें 2-3 हाथ खोदकर गहरा कर देते हैं और तब इनहें नाम दिया जाता है- 'झिरिया कुआं।' कुछ बस्तियां पहाड़ों से निकले सोते के पानी को पीने के काम में लाती हैं। इन स्रोतो को 'तुर्रा' कहा जाता है। पहाड़ों की तलहटी में बसे कई गांवों को जंगलों के कारण रुका हुआ पानी धीरे-धीरेमिलता है। बीच खेत में 3 से 4 हाथ तक खोदकर पानी लेने के तरीके को 'ओगरा' कहते हैं।
दरअसल पानी से जुड़ी पध्दतियां सिर्फ संज्ञा ही नहीं क्रियाएं और प्रक्रियाएं भी होती हैं। मसलन झिरिया सिर्फ पहाड़ों में ही नहीं बल्कि कहीं भी इस तरह से मिलने वाले पानी की प्रक्रिया को कहते हैं। ये झिरियाएं छोटी-मोटी नदी का स्रोत होती हैं। रायपुर के पास से बहने वाली खारुन नदी पर 20-22 कि.मी. पीछे जाएं तो ऐसी 8- 10 झिरियाएं नदी में पानी डालती देखी जा सकती हैं। एक अनुमान के अनुसार महानदी के इलाके में करीब सौ जगहों पर ऐसी सततवाही झिरियाएं मिल सकती हैं। इसी तरह 'ओगरा' आगोर यानी 'जलग्रहण क्षेत्र से मिले पानी के कारण निर्मित स्रोत को कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो में पेयजल का एक बारहमासी स्रोत होता है जिसे रायगढ़, सरगुजा के इलाके में ढोढ़ी, डाढ़ी या तूसा कहते हैं और बस्तर, सिहावा के इलाके में तूम। उरांव भाषा में पेड़ों के खोखले तने को ढोढ़ कहते हैं और शयद मारिया भाषा में तूम का भी यही अर्थ होता है। यह पहाड़ों की तराई में खेतों के बीच आपरूप फूटा पानी का सोता होता है। 3-4 हाथ गहरे इन स्रोतों को पानी में सदियों टिकी रह पाने वाली जामुन या सरई की लकड़ी के खोखले तने से पाट दिया जाता है।
कभी-कभी ये स्रोत चौड़े हो जाते हैं और तब इन्हे जामुन या सरई की लकड़ी की ही चौकोन पाटी बनाकर पाटा जाता है। जामुन, सरई, सागौन और सिघँदर जिसे उरांव भाषा में खोखड़ो कहते हैं पानी में टिकी रह सकने वाली लकड़ी होती है। एक कहावत है कि सरई के पेड़ 'सौ साल खड़े, सौ साल अड़े सौ साल पड़े तभो ले नइ सरे (सड़े)'। 'तूम' या 'ढोढ़ी' में पानी की आवक एक तो जंगल के पेड़ों में रुके पानी के धीरे-धीरे झिरने से होती है और दूसरे पूरे खेत के आगोर से भी इन्हे पानी मिलता है। बाजारों में मिनरल वाटर के नाम पर बिकने वाले पानी से कई गुना साफ और निर्मल पानी देने वाली ढोढ़ियां या तूम छतीसगढ़ के लगभग हर पहाड़ी गांव को पानी पिलाती हैं। रायगढ़ जिले के कस्बे पथलगांव के सूखे कठिन समय में पानी देने का काम करने वाली प्रेमनगर और ढोढ़ीटिकरा मोहल्ले की दो ढोढ़ियां अब भी लोगों की याद में बसी हैं। जशपुर नगर में हर कभी नगरपालिका का टेंकर तालाब के किनारे बनी पक्की डाढ़ी से पानी लेकर शहर में बांटता देखा जा सकता है। लोगों का कहना है कि महीने में बीस-बाइस दिन तो बिजली फेल हो जाने, पंप बिगड़ जाने या पाइप लाइन फट जाने से लावा नदी से लाई जाने वाली नगरपालिका की जलवितरण व्यवस्था ठप पड़ी रहती है। ऐसे में सदियों पहले बनी और सन 35-36 में पक्की की गई यह पक्की डाढ़ी पूरे कस्बे की पेयजल की जरूरतें पूरी करती है। पहाड़ी इलाकों के निचाई के कई खेतों को पझरा खेत इसलिए कहा जाता है क्योँकि इनमें आसपास से पानी पझरता या रिसता रहता है। इन खेतों में 6-7 हाथ के गङ्ढे बनाकर ऊपर लकड़ी रखकर पानी निकाला जाता है। इस तरह उथले कुंओं, ढोढ़ियों और नदी-नालों से पानी निकालने के लिए टेढ़ा उपयोग किया जाता है। टेढ़ा यानी एक लंबी मजबूत लकड़ी के पीछे पत्थर का वजन और आगे के सिरे पर रस्सी से एक बर्तन बांधकर बीच के खूंटे पर टिकाया जाता है। बच्चो के खेल की तरह की इस पध्दति में पानी उलीचने के अलावा कमर-पीठ की कसरत भी होती है और लोगों का कहना है कि टेढ़ा से पानी निकालने के कारण वे पीठ दर्द, कमर दर्द आदि की झंझटों से मुक्त रहते हैं।
टेढ़ा से निकले पानी को बांस या फिर सरई की लकड़ी के पाइप यानी 'डोंगा' के जरिए बाड़ी में पहुंचाया जाता है। असल में टेढ़ा का पानी आमतौर पर घर के पिछवाड़े साग-भाजी के लिए रखी गई बाड़ी में ही पहुंचाया जाता है। पझरा खेतों में कहीं-कहीं छोटे-मोटे तालाब भी बन जाते हैं और इन्हे तरई, डबरी, खुदरी, खुदरा या खोदरा भी कहा जाता है। बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में भी पानी तो झिरिया, नदी, नालों से ही लेते हैं लेकिन इनके किनारे बनाए जाने वाले 'चुहरा' या 'तूम' को बांस की चटाई से पाट दिया जाता है। कहीं-कहीं नए लोगों ने पीपा के टीन को भी पाटने के काम में लगाया है। बरसों से सरकारी अनुमति लेकर ही प्रवेश कर पाने वाले इस इलाके में पानी के लिए पहाड़ों से बारहमासी सोते होते हैं, छोटी-छोटी नदियां नाले हैं और जगह-जगह तूम हैं। पहाड़ों से गिरने वाले पानी से बांस का पाइप लगाकर यहां भी नल का मजा ले लिया जाता है। आमतौर पर तरई करीब एक एकड़ की छोटी तलैया होती है और तलैया करीब आधा एकड़ की। ये तरई, तलैया पानी के आसपास के पहाड़ों से रिसने या झिरपने के कारणा बन जाती है और इनका पानी पीने लायक भी होता है। इन तरई, तलैयों में कई तरह की वनस्पति, फूल पैदा किए जाते हैं जिनसे पानी साफ बना रहता है। इनमें बोडेंदा फूल ऐसी वनस्पति है जिससे पानी तो साफ रहता ही है लेकिन गर्भवती महिलाओं को खिलाने से भी फायदा होता है। शयद इस फूल में लोहत्तव की मात्रा रहती है। इसी तरह जलकनी, कस्सा घाँस आदि भी पानी की सफाई के उपयोग में लाई जाती है। तूम या ढोढ़ी के अलावा पेयजल, निस्तार और सिंचाई का एक और सर्वव्यापी साधन कुंआ या चुंआ होता है। जंगलों, पहाड़ों से रिसने वाले पानी और व्यापक रूप से तालाबों की मौजूदगी में छत्तीसगढ़ में कुंओं को खोदना आसान होता है। भूजल स्तर काफी उथला होता है और इनमें लगातार पानी की आवक भी होती रहती है। कुंआ खोदने का काम तो हालांकि गांव समाज के सामान्य ज्ञान के आधार पर कोई भी कर लेता है लेकिन इनकी ठीक जगह जहां से निर्बाध पानी मिलता रहे, बताने वाले विशेषज्ञ कुछ ही होते हैं।
ये विशेषज्ञ अपनी-अपनी तरकीबों से पानी की उपलब्धता मात्रा , चट्टानें गहराई आदि का ठीक-ठाक हिसाब लगाकर बता देते हैं। आधुनिक जल विशेषज्ञो के पास इस ज्ञान का अब तक कोई तर्क या विज्ञान नहीं बन पाया है लेकिन कमाल है कि ग्रामीण विशेषज्ञो की बताई जगहों पर कुआं खोदने पर इक्का दुक्का अनुभवों को छोड़ दें तो सौ टंच सही पानी मिल ही जाता है।
रायपुर के पास के आरंग शहर में करीब 40 कुएं हैं और पूरे ब्लाक में कुओं की संख्या 3057 बताई गई है। दुर्ग में यूं तो पानी आम तौर पर खारा है लेकिन पूरे शहर को पेयजल देने वाले दो कुएं आज भी प्रसिद्ध हैं जिनमें छीतरमल धर्मशाला का कुआं एक है। बस्तर के गांव फुक्का गिरोला में बना कुआं लकड़ी के रिंग या चौखट से पाटा गया है। इसमें इतना पानी है कि ऊपर से बहता रहता है। बिलासपुर जिले के डभरा गांव के पास एक जोसी है जिनके बारे में कहते हैं कि उन्हे जमीन में पानी की आवाज सुनाई देती है। वे सिर्फ धरती माता पर कान लगाकर बता देते हैं कि कितने हाथ पर कैसा कितना पानी और बीच में कितने हाथ पर रेत और पत्थर मिलेंगे। ये जोसी सबरिया जाति केहैं जिनके बारे में कहा जाता है कि ये चूंकि आंध्रप्रदेश से बरसों पहले सब्बल लेकन मिट्टी का काम करने के लिए यहां आए थे इसलिए उन्हे सब्बलिया या सबरिया कहा जाता है। एक नाता रामायणा की प्रसिद्ध शबरी से भी बैठाया जाता है। जिसने साक्षात भगवान को ही जूठे बेर इसलिए खिलाए थे ताकि उन्हे खट्टे या जहरीले फल न मिलें। सबरिया इसी शबरी भील के वंशज बताए जाते हैं। इसी तरह बस्तर के कोंडागांव में पूर्व कृषि अधिकारी श्री उइके हैं जो कमर में जामुन की डगान बांध कर कुआं खोदने के प्रस्तावित क्षेत्र में घुम जाते हैं। यह करते हुए उनकी जामुन की मामूली डगान उन्हे बता देती हैं कि कहां पर कुआं खोदना सबसे उपयुक्त होगा ।
श्री उइके का कहना है कि आज तक सिर्फ दो जगहों पर वे कुछ कारणो से फेल हुए हैं हालांकि उन्हे दूर दराज के इलाकों से बुलाकर कुआं खोदने की जगहों की पहचान करवाई जाती है। ऐसे ही एक गुनिया हैं जो बैठे बैठे जमीन की गरमी ठंडाई का अंदाजा लगाकर पानी होने न होने की बात बता देते हैं। वे मानते हैं कि जहां जमीन ठंडी होगी वहां जरूर पानी होगा। चांपा के पास एक बाबा थे जिन्हे रसातल की आवाज सुनाई देती थी। वे इसे सुनकर पानी की पक्की जानकारी दे देते थे। एक और तरीका नदी नाले सरीखे जलस्रोत से एक पत्थर लाकर उसे धागे में बांधकर जमीन पर फिराने का है। जहां यह पत्थर घुमना शुरू कर दे वहां पानी माना जाता है और यह जितनी बार .घुमे उतने हाथ पानी होगा। इस तरीके से चट्टानों और उनकी मोटाई का पता भी चल जाता है। हालांकि यह बहुत कम लोगों के बस की बात है। लेकिन इस तरह बने कई कुंज आज भी मौजूद हैं। छत्तीसगढ़ और देश के दूसरे इलाकों में थोड़ी विनम्रता से देखें तो कई ऐसे विशेषज्ञ मिल जाएंगे जो निन्यानबे प्रतिशत तक सही साबित होते हैं। इतनी ग्यारंटी तो हमारे बाकायदा पढ़े लिखे विशेषज्ञ भी नहीं दे पाते।
सही जगह मिल जाने पर कुआं खोदने का काम होता है। पूस, मास या अधिक से अधिक चैत तक कुआं खोदने का काम शुरू हो जाता है। ताकि बैशाख-जेठ तक काम पूरा हो जाए। भर गर्मी के इन महीनों में पानी निकलने का मतलब होता है बारहों महीने पानी की आपूर्ति।
खुदाई के साथ साथ कुओं की चिनाई का काम भी चलता है। बांस तरी होने के कारणा पहचाने जाने वाले बस्तर में बांस की चटाई से कुएं पाटे जाते हैं। कई जगहों पर सरई या जामुन की लकड़ी के चाक बनाकर उन्हे कुओं में उतारा जाता है। ये चाक लकड़ी के चौकोन या वर्गाकार फ्रेम होते हैं जो कुएं में एक एक करके खुदाई के साथ ही उतारे जाते हैं। आज के उपयुक्त तकनीक के हल्ले में नई ईजाद कहकर बनाए जाने वाले मिट्टी के सस्ते रिंग और इसके लिए खड़ी की जाने वाली धनी संस्थाओं के बहुत पहले से इन आदिवासी कहे जाने वाले इलाकों में ये रिंग कुएं पाटने की जिम्मेदारी निभाते आ रहे हैं। भाठा जमीनों में जहां कुएं और तालाब नहीं खोदे जाते, को छोड़कर छतीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रो में भी कुएं खूब हैं। रायपुर के पास के आरंग शहर में करीब 40 कुएं हैं और पूरे ब्लाक में कुओं की संख्या 3057 बताई गई है। दुर्ग में यूं तो पानी आम तौर पर खारा है लेकिन पूरे शहर को पेयजल देने वाले दो कुएं आज भी प्रसिद्ध हैं जिनमें छीतरमल धर्मशाला का कुआं एक है। बस्तर के गांव फुक्का गिरोला में बना कुआं लकड़ी के रिंग या चौखट से पाटा गया है। इसमें इतना पानी है कि ऊपर से बहता रहता है। इसके अलावा सिर्फ पत्थर से पाटकर बनाए गए चार कुएं भी इसी गांव में हैं जिनमें खूब पानी रहता है।
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