कहते हैं कि आज का तीन चौथाई रायगढ़ शहर तालाबों पर बसा है। शहर की सब्जी मंडी, कॉलेज, बाजार, बस स्टैंड कई तरह के रहवासी और दुकानों के काम्पलेक्स और समाज भवन इन्ही पुराने तालाबों पर बने हैं या बनाए जा रहे हैं। स्टेडियम के लिए तालाब पर निर्माण करने का तो शहर में जमकर विरोध किया गया था। छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो में आबादी का घनत्व कम रहा है और उसकी पेट पूजा के लिए जंगल तैनात रहे हैं। नतीजे में अन्न की पैदावार को मैदानों की तरह का महत्व नहीं दिया गया। जंगल में पैदा होने वाली कई प्रकार की वनस्पतियां, फल, कंद, मूल भोजन का मुख्य आधार रहे हैं। अबूझमाड़ में आज भी नरम, कोमल बांस बांस्ता का पेय 'जावा' या माड़ियां पेज बहुत स्वाद से पिया जाता है और उसकी साग भी खाई जाती है। जंगल की सौगातों के अलावा पेंदा यानि झूम खेती करके उड़द, कोस्ता (कुटकी), बाजरा, माड़िया, झुणगा (बरबटी) और ककड़ी की फसलों से लोग मजे में जीते हैं। पानी के इंतजाम का तानाबाना भी खेती की इस पध्दति के अनुसार ही बनाया गया है।
करीब सौ-डेढ़ सौ सालों में सरकारी कायदे-कानूनों की आड़ लेकर लगातार जंगलों के छिनते जाने और नए जमाने के साथ एक जगह टिककर बस जाने के उत्साह में खेती पर भी जोर दिया जाने लगा और नतीजे में पानी के बड़े और स्थाई भँडार बनाने की जरूरत भी पैदा हुई। रायपुर-जगदलपुर मार्ग पर स्थित राज्य की पुरानी राजधानी बस्तर गांव में कहा जाता है कि 'सात आगर सात कोरी' यानि 147 तालाब होते थे। कोरी कम मतलब है बीस और इसके सात अतिरिक्त। गौंड सरदार जगतू के इलाके जगतमुडा को जब राजा दलपतदेव ने सन् 1772 के आसपास अपनी राजधानी बनाकर जगदलपुर नाम दिया तो वहां पहले से मौजूद झारतरई, गोंडन तरई और शिवना तरई को मिलाकर दलपतसागर तालाब भी बनाया। यह तालाब चार मील यानि करीब सवा तीन सौ एकड़ में फैला था और इसे समुंद यानि समुद्र कहा जाता था। इसके पहले नागवंशी राजाओं की राजधानी बारसूर में 1070 ई. से 1111 ई. के बीच चंद्रादित्य समुंद्र नामक तालाब बनाया गया था और इसके बीच में चंद्रदित्येश्वर मंदिर का निर्माण भी करवाया गया था। कहा जाता है कि राजा चंद्रादित्य बस्तर के नागवंशी राजा सोमेश्वर देव के ससुर थे और मंदिर तथा तालाब निर्माण करने के लिए उन्होने अपनेदामाद से पूरा गांव ही खरीद लिया था। छतीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो के कई कस्बों, शहरों और राजधानियों में तालाब बनाए जाते रहे हैं। कहते हैं कि आज का तीन चौथाई रायगढ़ शहर तालाबों पर बसा है। शहर की सब्जी मंडी, कॉलेज, बाजार, बस स्टैंड कई तरह के रहवासी और दुकानों के काम्पलेक्स और समाज भवन इन्ही पुराने तालाबों पर बने हैं या बनाए जा रहे हैं। स्टेडियम के लिए तालाब पर निर्माण करने का तो शहर में जमकर विरोध किया गया था। इसी तरह जशपुर, अंबिकापुर, प.थलगांव, कोंडागांव, दंतेवाड़ा, नारायणपुर आदि कस्बों-शहरों में तालाबों का तानाबाना बनाया गया था। ये तालाब मुख्यत: पेयजल, निस्तार और कहीं-कहीं सिंचाई के काम के होते थे।
रायगढ़ के आसपास लोगों ने सिंचाई से ज्यादा अहमियत जमीनों को खेती योग्य बनाने को दी। इसके लिए अपेक्षाकृत नई पद्धति विकसित की गई जिसमें ऊंचाई से आने वाले नालों को बंधान या मूड़ा बांधकर रोका जाता है। इस तरह से मिट्टी का कटाव-बहाव रूकता है और कुछ दिनों में पूरा बंधान भर जाता है। इस नए खेत के बाजू से एक नहर, जिसे पैड़ी या पाइन कहते हैं, के जरिए पानी निकाला जाता है। धीरे-धीरे सीढ़ीनुमा खेत और उन्हे पानी देने के लिए बाजू से निकलने वाली एक छोटी नहर तैयार हो जाती है। इस तरह से बनी जमीनों को 'गड्डी खल' यानि गाद से बनी जमीनें कहा जाता है। गाद भर जाने को उराव भाषा में 'पट्टी केरा' कहते हैं। इस तरह बनी पाइन आगे के खेतों को भी पानी पहुंचाती है। रायगढ़ के ग्रामीण इलाकों में इस तरह से बनाए गए कई खेत दिखाई देते हैं। अभी कुछ साल पहले 'छतीसगढ़ मुक्ति मोर्चा' के कुछ लोग 'नर्मदा बचाओ आँदोलन' के निमाड़-मालवा के संपन्न क्षेत्रो में गये थे और वहां तालाबों की कमी को पानी की गरीबी मानकर भौचक्के थे। वे यह सोच भी नहीं सकते थे कि कोई गांव बिना तालाब के भी रह सकता है। छतीसगढ़ और खासकर वहां के मैदानी क्षेत्रो के लगभग हरेक गांव कभी-कभी एक, दो और अक्सर कई तालाबों से भरे-पूरे रहते हैं। कई गांवों में कहा जाता है कि 'छै आगर, छैर कोरी' यानि की 126 तालाब होते हैं।
भूगोल के हिसाब से देखें तो इसकी वजह यहां की गिट्टी की बनावट दिखाई देती है। मोटे-तौर पर छतीसगढ़ की मिट्टी को चार प्रकारों में बांटा जा सकता है। पहला होता है-भाठा। यह कड़ी और थोड़ी ऊंचाई पर होती है इसलिए इसमें बसाहट तो हो सकती है लेकिन उत्पादन नहीं होता। कई-कई किलोमीटर में फैली ऐसी भाठा के कारण तालाब भी बन जाते हैं। लेकिन इनमें पानी नहीं ठहरता। अलबत्ता ऐसी अनुत्पादक मिट्टी में भी आम और सागौन के विशाल बगीचे मिल जाते हैं। भाठा के बाद की दूसरी मिट्टी को मटासी कहा जाता है। इस मिट्टी में तालाब और कुएं बनाए जाते हैं क्योँकि इसमें जलस्तर करीब 25 फुट पर रहता है। मटासी के बाद तीसरी तरह की मिट्टी दुरसा या ढोर्सा कही जाती है। इसमें भी कुएं और तालाब बनाए जाते हैं, जिनमें बारहों महीने पानी रहता है। चौथी मिट्टी को कन्हार या कछार कहा जाता है। यह सबसे नीचे और नदी, नालों की सतह के बराबर होती है। सबसे बेहतरीन मानी जाने वाली इस मिट्टी में रेत भी रहती है। इसमें छोटे-कुएं या झिरिया तो बनाई जाती है लेकिन तालाब नहीं बनते। इसमें पानी का स्तर आमतौर पर 15 फुट के आसपास रहता है। कहा जाता है कि मानव बसाहट और संस्कृतियां जल-स्रोतों, नदियों, समुद्रों के किनारे बनी फली, फूली है लेकिन छ्त्तीसगढ़ में मानव बसाहट के साथ-साथ जल-स्रोत या तालाबों का निर्माण भी किया जाता रहा है। जमीनों की पहचान करके गांव बसाए जाते रहे हैं और उसी के साथ-साथ तालाबों की खुदाई भी होती रही है। आज के समाज में तो तालाब या कुंआ खोदना सभी को आता है लेकिन शुरूआत में संभवत: आंध्रप्रदेश और उड़ीसा से आने वाले मिट्टी खोदने के विशेषज्ञ यह किया करते होंगे। छ्त्तीसगढ़ में सबरिया जाति इसीलिए सब्बलिया या सबरिया कहलाने लगी है क्योँकि वे सब्बल से मिट्टी खोदने का काम कहते थे। उड़ीसा की प्रसिध्द जसमत ओढ़िन का किस्सा छ्त्तीसगढ़ ही नहीं पूर्वी भारत के उड़ीसा से लेकर मालवा-निमाड़ होता हुआ पश्चिम के गुजरात, राजस्थान तक फैला है। दुर्ग में एक लोकगीत है-
“ पहिले के रहिगे धार नगर , अबके दुरूग कहाय
धार नगर के च्म्पक भाँठा, डेरा बने नौ लाख”
आज के दुर्ग शहर में इंदिरा मार्केट से स्टेशन के रास्ते पर बना हरिनाबांधा चम्पक भाठा में नौलाख डेरे बनाकर रहने वाले इन्ही उड़िया लोगों ने राजा महानदेव के कहने पर खोदा था
“ नौ लाख ओढ़्निन , नौ लाख ओढ़िया,
नौ लाख परत हे कुदाल “
कहा जाता है कि तालाब खोदने का काम पुरूष करते थे और मिट्टी फेंकने का काम औरतें। इन औरतों के टोकनी झाड़ने से शिवनाथ नदी के पास 'टोकनी झिरनी' नाम की पहाड़िया बन गई थी।
छत्तीसगढ़ के कई तालाबों को बंजारों ने भी बनाया था। ये बंजारे पालतू जानवर, नमक, रन, कपड़ा और मसाले का व्यापार करने के लिए गुजरात, राजस्थान से उड़ीसा तक आते थे और छत्तीसगढ़ उनके रास्ते में पड़ता था। बार-बार आने-जाने के कारण उन्होँने कई जगहों पर अपने अड्डे ही बना लिए थे और अपने जानवरों और खुद की जरूरत के पानी का स्थायी प्रबंध यानी तालाब, कुएं खोद लिए थे। छत्तीसगढ़ में ही एक ही जाति है-रमरमिहा। कहा जाता है कि मिट्टी के काम में ये लोग भी विशेष हुआ करते थे। हालांकि आज वे इसे नहीं मानते। उनका कहना है कि वे उसी तरह तालाब या कुआं खोदते हैं जैसे समाज के बाकी लोग। रमरमिहा दरअसल सतनामी जाति का ही एक अंग है। कहते हैं कि सन् 1776 में चारपारा गांव के एक मालगुजार परशुराम जी की नींद में किसी ने हाथ और माथे पर राम नाम गोद दिया और तबसे शुरू हुआ रमरमिहा संप्रदाय। परशुराम जी पहले गुरु हुए और महानदी के किनारे के पीरदा गांव में सन् 1911 में रमरमिहा संप्रदाय का पहला सम्मेलन या समुंद हुआ। चारपार गांव में पांच-छह एकड़ का मूड़ाबांधा तालाब, रामडबरी आदि इन्हीँ लोगों ने बनाए थे।
छत्तीसगढ़ के कई तालाबों को बंजारों ने भी बनाया था। ये बंजारे पालतू जानवर, नमक, रन, कपड़ा और मसाले का व्यापार करने के लिए गुजरात, राजस्थान से उड़ीसा तक आते थे और छत्तीसगढ़ उनके रास्ते में पड़ता था। बार-बार आने-जाने के कारण उन्होँने कई जगहों पर अपने अड्डे ही बना लिए थे और अपने जानवरों और खुद की जरूरत के पानी का स्थायी प्रबंध यानी तालाब, कुएं खोद लिए थे। आज के बालौद, बलौदा, बलौदा बाजार, बलदाकछार आदि जगहों पर एक जमाने में बैलों- का बाजार भरता था। तुलसी-बाराडेरा भी जानवरों का बाजार हुआ करता था। यहां आज भी एक बंजारा आम के पेड़ों की नीलामी के लिए आता है। मोतीपुर गांव में हीरा-मोती का व्यापार होता था। इसी तरह बंजारिन माता और बंजारी घाट भी कई जगह मिलते हैं। इन बंजारों ने मराठा और मुसलमान आक्रामकों को रसद पहुंचाने का काम भी किया था और इसीलिए मराठों ने उन्हे 'नायक' की पदवी दी थी। इन जगहों पर और बंजारों के नाम से दर्जनों तालाब, उनके किनारे छायादार पेड़ या अमराई और मंदिर मिलते हैं। इनके अलावा छत्तीसगढ़ की ही एक देवार जाति भी तालाबों को खोदने की विशेषज्ञ मानी जाती है। अघरिया जाति के लोग खेतीके लिए प्रसिध्द है और बहुत मेहनती होते हैं। किसी अघारिया की 20-25 एकड़ जमीन भी हो तो एक एकड़ में तालाब जरूर बनवाते हैं। ये तालाब जिन्हे डबरी कहा जाता है नहाने-धोने और जानवरों को पानी पिलाने के अलावा खेत में नमी बनाए रखने का काम करते हैं।
छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों में खासकर बिलासपुर जिले के डभरा, मालखरौदा, किरारी जैसे गांव में ऐसी कई डबरियां देखी जा सकती हैं। शुरुआत में तालाबों के ये विशेषज्ञ यहीं बसते गए और धीरे-धीरे पूरे समाज ने इनके कौशल से सीखा। इस तरह आज भी भाषा में कहें तो 'ट्रांसफर ऑफ टेक्नालाँजी' यानी 'तकनीक का हस्तांतरण होता गया। जो काम एक जमाने में विशेषज्ञाता के दर्जे का था वह आजकल 'फुड फॉर वर्क' या 'काम के बदले अनाज' सरीखी सरकारी योजनाओं के चलते मामूली मजदूरी का काम हो गया है।
तालाबों को बांधने में सबसे पहले 'ओगरा', 'आगोर' या जिसे आजकल 'जलग्रहण क्षेत्र कहा जाता है देखा जाता है। आगोर अगोरना से बना है जिसका मतलब होता है समेटना। पानी की इस आमद को जानने के लिए किसी महंगे इंजीनियर या यंत्र की बजाए बरसों का अभ्यास और अनुभव ही काम आता है। आगोर से सिमटकर पानी तालाब की मुंही यानी मुंह के रास्ते पैठू में जाता है। पैठू एक तरह का छोटा तालाब या कुंड होता है जिसमें रुकने से पानी का कूड़ा-करकट, रेत और मिट्टी तलहटी में बैठ जाती है। अब यह साफ और निथरा पानी मुख्य तालाब में जाता है। लबालब भर जाने के बाद पानी तालाब के 'छलका' से पुलिया या पुल के रास्ते निकलकर अगले तालाब के पैठू या खेत में या फिर किसी नदी, नाले से मिलकर आगे बढ़ जाता है। 'छलका' तालाब के छलकने पर पानी की निकासी के लिए बनाया गया अंग होता है।
तालाबों का आकार चम्मच की तरह पैठू की तरफ उथला और छलका की तरफ गहरा होता है। बरसात में लबालब भर जाने के बाद उपयोग करने और भाप बनकर उड़ जाने के कारण पानी धीरे-धीरे कम होता जाता है। यह प्रक्रिया खुली और चौड़ी सतह से ज्यादा तेजी से होती है क्योँकि सूर्य की किरणेँ ज्यादा हिस्से पर अपना प्रभाव जमा पाती हैं। लेकिन कम होते जाने के कारण पानी छलका की तरफ के गहरे हिस्से में ही बचता है और वहां सूर्य की किरणेँ को ज्यादा सतह नहीं मिलती। नतीजे में भाप बनने की प्रक्रिया भी धीमी हो जाती है। चम्मच के आकार की बनावट तालाब के पानी को वाष्पीकरण से बचाने के लिए की जाती है।
आमतौर पर तालाबों के किनारे अमराई और मंदिर रहते हैं जिनसे इस पूरे क्षेत्र में छाया और पवित्रता बनी रहती है। कहावत भी है कि 'कहां देखओ अइसन तरिया जहां आमा के छांव'। छत्तीसगढ़ में कई प्रसिध्द और ऐतिहासिक मंदिर तालाबों के किनारे ही पाए जाते हैं। पाली, जांजगीर, शिवरीनारायण मंदिर हसौद, रायपुर, रतनपुर, सिरपुर आदि के ऐतिहासिक तालाबों और मंदिरों का निर्माण साथ-साथ ही हुआ था।
आज की तरह उन दिनों तालाब खोदकर तुरत-फुरत पानी उलीचने की उतावली नहीं रहती थी। आखिर तालाब खोदना इष्टापुर्त धर्म यानी परमार्थ के लिए किया जाने वाला पुण्य का काम माना जाता था। बगीचे लगवाना, तालाब खुदवाना, राजाओं-जमीदारों का कर्तव्य माना जाता था। बड़े-बड़े तालाबों में उठने वाली विशाल लहरों को तोड़ने में इन मंदिरों की खास भूमिका होती है। बड़े जल भंडारों में हवा के कारण उठने वाली पल्लरें धीरे-धीरे तालाबों की पाल को तोड़ती है। इससे बचने के लिए बीच तालाब में मंदिर निर्माण किया जाता है। इसके अलावा बड़े तालाबों को खोदने से निकली मिट्टी को फेंकने के लिए दूर तक जाना पड़ता है। इससे बचने के लिए भी एक समय के बाद तालाब के बीच में ही मिट्टी फेंकी जाने लगती है। इस तरह से बीच तालाब में बने टीले पर मंदिरों का निर्माण किया जाता है। कभी-कभी इस जगह पर छोटा-मोटा बगीचा भी लगा दिया जाता है। जगदलपुर के जगतदेव तालाब या रायपुर के बूढ़ातालाब के बीच में बने शिव मंदिर इसी वजह से बनाए गए हैं। आखिर शिवजी पर्यावरण के रक्षक देवता ही तो होते हैं।
मोटे-तौर पर देखें तो आबादी की पेयजल व निस्तार की जरूरतों के लिए तालाबों की शृंखला बनाई जाती है और सिंचाई तथा जानवरों के लिए कई बार अकेले तालाब। सारंगढ़, रतनपुर, रायपुर, जांजगीर, आरंग सरीखे कस्बों, शहरों में तालाबों की इस शृंखला में पीने और भोजन पकाने के पानी के लिए एक या दो तालाब खासतौर पर बनाए जाते हैं। इनमें सफाई बनाए रखने के नियम-कायदे होते हैं। लेकिन जानवरों या सिंचाई के लिए ढलानों पर पानी रोककर बंधिया, बंधा या बंध बनाए जाते हैं। कई जगह पुरानी नदियों के रास्ता बदलने से 'सरार' या गङ्ढों में भी पानी इकट्ठा हो जाता है। मध्य छत्तीसगढ़ में खोचका, खुचका, तरिया, डबरा या डबरी पाए जाते हैं जो आकार में छोटेतालाब ही होते हैं।
बड़े और बारहमासी तालाबों में 'दहरा' या 'दहारा' यानी की धारा पाई जाती है। तल में निकली इस धारा का स्रोत कहीं और होता है तथा यह तालाब को लगातार पानी देती रहती है। इस धारा के लिए तीन से चार हाथ तक के गङ्ढे भी किए जाते हैं। कई जगह तालाबों की तलहटी में कुएं खोद दिए जाते हैं। जगदलपुर, कोंडागांव, रायपुर आदि शहरों में इस तरह के कुएं भीषण अकाल में भी तालाबों को पानी देते रहते हैं। इन कुओं की चिनाई भी की जाती है।
आमतौर पर तो तालाबों में भिन्न-भिन्न जातियों के लिए पत्थर रखे जाते हैं ताकि उन पर बैठकर स्नान या कपड़े धोने जैसे काम किए जा सकें। लेकिन खास तालाबों पर बहुत सुंदर घाट बनाए गए हैं। राजनांदगांव के राजा बलरामदास ने रानी सागार तालाब में ऐसे विशाल घाट और तैरने के लिए बुर्ज बनाने का ठेका दिया था। तब के ठेकेदार शिवरतनलाल ने काम तो कर दिया लेकिन उन्हेँ या उनके परिवार को बकाया दस हजार रुपए आज तक नहीं मिले। राजा बलराम दास ने अपनी वसीयत में इसका जिक्र भी किया है। रायपुर, जशपुर, रायगढ़, सारंगढ़, रतनपुर और जगदलपुर सरीखे कस्बों, शहरों में आज भी ऐसे तालाब देखे जा सकते हैं जिन पर सुंदर घाट और बुर्ज बने हैं। सारंगढ़ के राजा के बारे में कहा जाता है कि उन्होँने अपने तालाब पर आने वाले पक्षियों का शिकार करने के लिए चारों तरफ ऐसे बुर्ज बनवाए थे जहां से छिपकर गोली चलाई जा सके। ऐसे शिकारियों में क्रिप्स कमीशन वाला प्रसिध्द अंग्रेज लार्ड क्रिप्स भी हुआ करता था।
आज की तरह उन दिनों तालाब खोदकर तुरत-फुरत पानी उलीचने की उतावली नहीं रहती थी। आखिर तालाब खोदना इष्टापुर्त धर्म यानी परमार्थ के लिए किया जाने वाला पुण्य का काम माना जाता था। बगीचे लगवाना, तालाब खुदवाना, राजाओं-जमीदारों का कर्तव्य माना जाता था। दानी, समाजसेवी संपन्न लोगों के लिए ऐसे लोकोपकारी कामकरवाना पुण्य माना जाता था। इस काम में समाज को संबोधित किया जाना अभिष्ठ था। तालाब यदि व्यक्तिगत उपयोग के हों तो पूजा करना जरूरी नहीं था लेकिन सार्वजनिक तालाबों की पूजा जरूरी थी। इसमें देवताओं को साक्षी मानकर अपने पर्यावरण के कर्ज को उतारने जैसा लोकार्पण का भाव रहता था। सबसे पहले जलदेवता वरुण का यूप या स्तंभ प्रतिष्ठित किया जाता था। यह यूप सरई या साल की लकड़ी का होता था। यूप प्रतिष्ठा संस्कार के बारे में 'प्रतिष्ठा महोदधि' नामक ग्रंथ में विस्तार से बताया गया है। विशेष और विशाल तालाबों के लोकार्पण के इन विधि-विधानों के अलावा लोकजीवन में आज भी तालाबों के विवाह की परंपरा जारी है। मान्यता है कि विवाहहुए बिना किसी भी तालाब का पानी पीने योग्य नहीं होता।
तालाब विवाह या विहाव राजस्थान से आई परंपरा मानी जाती है जिसमें स्तंभ पति का प्रतीक माना जाता है। इस तरह से कुओं के भी विवाह होते हैं। छत्तीसगढ़ के गांवों में आमतौर पर तालाब जोड़े से बनाए जाते हैं और इनके बाकायदा विवाह होते हैं। पूरे तालाब को सात बार सूत से बांधा जाता है, गौदान किया जाता है। यह परंपरा दरअसल तालाबों के लोकार्पण की मानी जाती है। तालाब विवाह में प्रतीक स्वरूप स्तंभ गाड़ने की परंपरा तो है ही लेकिन इन स्तंभों से पानी के स्तर का भी पता लगता रहता है। नियम है कि एक खास चिन्ह तक तालाब का जलस्तर उतर जाए तो फिर निस्तार, स्नान आदि की मनाही हो जाती है। मान लिया जाता है कि अब पानी कम बचा है और इसे किफायत से इस्तेमाल करने की जरूरत है। इन स्तंभों पर तालाब बनाने वालों के नामों के नामों के अलावा सुंदर कलाकृतियां उकेरी जाती थी। किरारी गांव में मिले और रायपुर के संग्रहालय में रखे ऐसे ही एक स्तंभ में बारहवीं शताब्दी के राजअधिकारियों के अलावा तालाब बनाने वालों के नाम भी खुदे पाए गए हैं।
करीब सौ-डेढ़ सौ सालों में सरकारी कायदे-कानूनों की आड़ लेकर लगातार जंगलों के छिनते जाने और नए जमाने के साथ एक जगह टिककर बस जाने के उत्साह में खेती पर भी जोर दिया जाने लगा और नतीजे में पानी के बड़े और स्थाई भँडार बनाने की जरूरत भी पैदा हुई। रायपुर-जगदलपुर मार्ग पर स्थित राज्य की पुरानी राजधानी बस्तर गांव में कहा जाता है कि 'सात आगर सात कोरी' यानि 147 तालाब होते थे। कोरी कम मतलब है बीस और इसके सात अतिरिक्त। गौंड सरदार जगतू के इलाके जगतमुडा को जब राजा दलपतदेव ने सन् 1772 के आसपास अपनी राजधानी बनाकर जगदलपुर नाम दिया तो वहां पहले से मौजूद झारतरई, गोंडन तरई और शिवना तरई को मिलाकर दलपतसागर तालाब भी बनाया। यह तालाब चार मील यानि करीब सवा तीन सौ एकड़ में फैला था और इसे समुंद यानि समुद्र कहा जाता था। इसके पहले नागवंशी राजाओं की राजधानी बारसूर में 1070 ई. से 1111 ई. के बीच चंद्रादित्य समुंद्र नामक तालाब बनाया गया था और इसके बीच में चंद्रदित्येश्वर मंदिर का निर्माण भी करवाया गया था। कहा जाता है कि राजा चंद्रादित्य बस्तर के नागवंशी राजा सोमेश्वर देव के ससुर थे और मंदिर तथा तालाब निर्माण करने के लिए उन्होने अपनेदामाद से पूरा गांव ही खरीद लिया था। छतीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो के कई कस्बों, शहरों और राजधानियों में तालाब बनाए जाते रहे हैं। कहते हैं कि आज का तीन चौथाई रायगढ़ शहर तालाबों पर बसा है। शहर की सब्जी मंडी, कॉलेज, बाजार, बस स्टैंड कई तरह के रहवासी और दुकानों के काम्पलेक्स और समाज भवन इन्ही पुराने तालाबों पर बने हैं या बनाए जा रहे हैं। स्टेडियम के लिए तालाब पर निर्माण करने का तो शहर में जमकर विरोध किया गया था। इसी तरह जशपुर, अंबिकापुर, प.थलगांव, कोंडागांव, दंतेवाड़ा, नारायणपुर आदि कस्बों-शहरों में तालाबों का तानाबाना बनाया गया था। ये तालाब मुख्यत: पेयजल, निस्तार और कहीं-कहीं सिंचाई के काम के होते थे।
रायगढ़ के आसपास लोगों ने सिंचाई से ज्यादा अहमियत जमीनों को खेती योग्य बनाने को दी। इसके लिए अपेक्षाकृत नई पद्धति विकसित की गई जिसमें ऊंचाई से आने वाले नालों को बंधान या मूड़ा बांधकर रोका जाता है। इस तरह से मिट्टी का कटाव-बहाव रूकता है और कुछ दिनों में पूरा बंधान भर जाता है। इस नए खेत के बाजू से एक नहर, जिसे पैड़ी या पाइन कहते हैं, के जरिए पानी निकाला जाता है। धीरे-धीरे सीढ़ीनुमा खेत और उन्हे पानी देने के लिए बाजू से निकलने वाली एक छोटी नहर तैयार हो जाती है। इस तरह से बनी जमीनों को 'गड्डी खल' यानि गाद से बनी जमीनें कहा जाता है। गाद भर जाने को उराव भाषा में 'पट्टी केरा' कहते हैं। इस तरह बनी पाइन आगे के खेतों को भी पानी पहुंचाती है। रायगढ़ के ग्रामीण इलाकों में इस तरह से बनाए गए कई खेत दिखाई देते हैं। अभी कुछ साल पहले 'छतीसगढ़ मुक्ति मोर्चा' के कुछ लोग 'नर्मदा बचाओ आँदोलन' के निमाड़-मालवा के संपन्न क्षेत्रो में गये थे और वहां तालाबों की कमी को पानी की गरीबी मानकर भौचक्के थे। वे यह सोच भी नहीं सकते थे कि कोई गांव बिना तालाब के भी रह सकता है। छतीसगढ़ और खासकर वहां के मैदानी क्षेत्रो के लगभग हरेक गांव कभी-कभी एक, दो और अक्सर कई तालाबों से भरे-पूरे रहते हैं। कई गांवों में कहा जाता है कि 'छै आगर, छैर कोरी' यानि की 126 तालाब होते हैं।
भूगोल के हिसाब से देखें तो इसकी वजह यहां की गिट्टी की बनावट दिखाई देती है। मोटे-तौर पर छतीसगढ़ की मिट्टी को चार प्रकारों में बांटा जा सकता है। पहला होता है-भाठा। यह कड़ी और थोड़ी ऊंचाई पर होती है इसलिए इसमें बसाहट तो हो सकती है लेकिन उत्पादन नहीं होता। कई-कई किलोमीटर में फैली ऐसी भाठा के कारण तालाब भी बन जाते हैं। लेकिन इनमें पानी नहीं ठहरता। अलबत्ता ऐसी अनुत्पादक मिट्टी में भी आम और सागौन के विशाल बगीचे मिल जाते हैं। भाठा के बाद की दूसरी मिट्टी को मटासी कहा जाता है। इस मिट्टी में तालाब और कुएं बनाए जाते हैं क्योँकि इसमें जलस्तर करीब 25 फुट पर रहता है। मटासी के बाद तीसरी तरह की मिट्टी दुरसा या ढोर्सा कही जाती है। इसमें भी कुएं और तालाब बनाए जाते हैं, जिनमें बारहों महीने पानी रहता है। चौथी मिट्टी को कन्हार या कछार कहा जाता है। यह सबसे नीचे और नदी, नालों की सतह के बराबर होती है। सबसे बेहतरीन मानी जाने वाली इस मिट्टी में रेत भी रहती है। इसमें छोटे-कुएं या झिरिया तो बनाई जाती है लेकिन तालाब नहीं बनते। इसमें पानी का स्तर आमतौर पर 15 फुट के आसपास रहता है। कहा जाता है कि मानव बसाहट और संस्कृतियां जल-स्रोतों, नदियों, समुद्रों के किनारे बनी फली, फूली है लेकिन छ्त्तीसगढ़ में मानव बसाहट के साथ-साथ जल-स्रोत या तालाबों का निर्माण भी किया जाता रहा है। जमीनों की पहचान करके गांव बसाए जाते रहे हैं और उसी के साथ-साथ तालाबों की खुदाई भी होती रही है। आज के समाज में तो तालाब या कुंआ खोदना सभी को आता है लेकिन शुरूआत में संभवत: आंध्रप्रदेश और उड़ीसा से आने वाले मिट्टी खोदने के विशेषज्ञ यह किया करते होंगे। छ्त्तीसगढ़ में सबरिया जाति इसीलिए सब्बलिया या सबरिया कहलाने लगी है क्योँकि वे सब्बल से मिट्टी खोदने का काम कहते थे। उड़ीसा की प्रसिध्द जसमत ओढ़िन का किस्सा छ्त्तीसगढ़ ही नहीं पूर्वी भारत के उड़ीसा से लेकर मालवा-निमाड़ होता हुआ पश्चिम के गुजरात, राजस्थान तक फैला है। दुर्ग में एक लोकगीत है-
“ पहिले के रहिगे धार नगर , अबके दुरूग कहाय
धार नगर के च्म्पक भाँठा, डेरा बने नौ लाख”
आज के दुर्ग शहर में इंदिरा मार्केट से स्टेशन के रास्ते पर बना हरिनाबांधा चम्पक भाठा में नौलाख डेरे बनाकर रहने वाले इन्ही उड़िया लोगों ने राजा महानदेव के कहने पर खोदा था
“ नौ लाख ओढ़्निन , नौ लाख ओढ़िया,
नौ लाख परत हे कुदाल “
कहा जाता है कि तालाब खोदने का काम पुरूष करते थे और मिट्टी फेंकने का काम औरतें। इन औरतों के टोकनी झाड़ने से शिवनाथ नदी के पास 'टोकनी झिरनी' नाम की पहाड़िया बन गई थी।
छत्तीसगढ़ के कई तालाबों को बंजारों ने भी बनाया था। ये बंजारे पालतू जानवर, नमक, रन, कपड़ा और मसाले का व्यापार करने के लिए गुजरात, राजस्थान से उड़ीसा तक आते थे और छत्तीसगढ़ उनके रास्ते में पड़ता था। बार-बार आने-जाने के कारण उन्होँने कई जगहों पर अपने अड्डे ही बना लिए थे और अपने जानवरों और खुद की जरूरत के पानी का स्थायी प्रबंध यानी तालाब, कुएं खोद लिए थे। छत्तीसगढ़ में ही एक ही जाति है-रमरमिहा। कहा जाता है कि मिट्टी के काम में ये लोग भी विशेष हुआ करते थे। हालांकि आज वे इसे नहीं मानते। उनका कहना है कि वे उसी तरह तालाब या कुआं खोदते हैं जैसे समाज के बाकी लोग। रमरमिहा दरअसल सतनामी जाति का ही एक अंग है। कहते हैं कि सन् 1776 में चारपारा गांव के एक मालगुजार परशुराम जी की नींद में किसी ने हाथ और माथे पर राम नाम गोद दिया और तबसे शुरू हुआ रमरमिहा संप्रदाय। परशुराम जी पहले गुरु हुए और महानदी के किनारे के पीरदा गांव में सन् 1911 में रमरमिहा संप्रदाय का पहला सम्मेलन या समुंद हुआ। चारपार गांव में पांच-छह एकड़ का मूड़ाबांधा तालाब, रामडबरी आदि इन्हीँ लोगों ने बनाए थे।
छत्तीसगढ़ के कई तालाबों को बंजारों ने भी बनाया था। ये बंजारे पालतू जानवर, नमक, रन, कपड़ा और मसाले का व्यापार करने के लिए गुजरात, राजस्थान से उड़ीसा तक आते थे और छत्तीसगढ़ उनके रास्ते में पड़ता था। बार-बार आने-जाने के कारण उन्होँने कई जगहों पर अपने अड्डे ही बना लिए थे और अपने जानवरों और खुद की जरूरत के पानी का स्थायी प्रबंध यानी तालाब, कुएं खोद लिए थे। आज के बालौद, बलौदा, बलौदा बाजार, बलदाकछार आदि जगहों पर एक जमाने में बैलों- का बाजार भरता था। तुलसी-बाराडेरा भी जानवरों का बाजार हुआ करता था। यहां आज भी एक बंजारा आम के पेड़ों की नीलामी के लिए आता है। मोतीपुर गांव में हीरा-मोती का व्यापार होता था। इसी तरह बंजारिन माता और बंजारी घाट भी कई जगह मिलते हैं। इन बंजारों ने मराठा और मुसलमान आक्रामकों को रसद पहुंचाने का काम भी किया था और इसीलिए मराठों ने उन्हे 'नायक' की पदवी दी थी। इन जगहों पर और बंजारों के नाम से दर्जनों तालाब, उनके किनारे छायादार पेड़ या अमराई और मंदिर मिलते हैं। इनके अलावा छत्तीसगढ़ की ही एक देवार जाति भी तालाबों को खोदने की विशेषज्ञ मानी जाती है। अघरिया जाति के लोग खेतीके लिए प्रसिध्द है और बहुत मेहनती होते हैं। किसी अघारिया की 20-25 एकड़ जमीन भी हो तो एक एकड़ में तालाब जरूर बनवाते हैं। ये तालाब जिन्हे डबरी कहा जाता है नहाने-धोने और जानवरों को पानी पिलाने के अलावा खेत में नमी बनाए रखने का काम करते हैं।
छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों में खासकर बिलासपुर जिले के डभरा, मालखरौदा, किरारी जैसे गांव में ऐसी कई डबरियां देखी जा सकती हैं। शुरुआत में तालाबों के ये विशेषज्ञ यहीं बसते गए और धीरे-धीरे पूरे समाज ने इनके कौशल से सीखा। इस तरह आज भी भाषा में कहें तो 'ट्रांसफर ऑफ टेक्नालाँजी' यानी 'तकनीक का हस्तांतरण होता गया। जो काम एक जमाने में विशेषज्ञाता के दर्जे का था वह आजकल 'फुड फॉर वर्क' या 'काम के बदले अनाज' सरीखी सरकारी योजनाओं के चलते मामूली मजदूरी का काम हो गया है।
तालाबों को बांधने में सबसे पहले 'ओगरा', 'आगोर' या जिसे आजकल 'जलग्रहण क्षेत्र कहा जाता है देखा जाता है। आगोर अगोरना से बना है जिसका मतलब होता है समेटना। पानी की इस आमद को जानने के लिए किसी महंगे इंजीनियर या यंत्र की बजाए बरसों का अभ्यास और अनुभव ही काम आता है। आगोर से सिमटकर पानी तालाब की मुंही यानी मुंह के रास्ते पैठू में जाता है। पैठू एक तरह का छोटा तालाब या कुंड होता है जिसमें रुकने से पानी का कूड़ा-करकट, रेत और मिट्टी तलहटी में बैठ जाती है। अब यह साफ और निथरा पानी मुख्य तालाब में जाता है। लबालब भर जाने के बाद पानी तालाब के 'छलका' से पुलिया या पुल के रास्ते निकलकर अगले तालाब के पैठू या खेत में या फिर किसी नदी, नाले से मिलकर आगे बढ़ जाता है। 'छलका' तालाब के छलकने पर पानी की निकासी के लिए बनाया गया अंग होता है।
तालाबों का आकार चम्मच की तरह पैठू की तरफ उथला और छलका की तरफ गहरा होता है। बरसात में लबालब भर जाने के बाद उपयोग करने और भाप बनकर उड़ जाने के कारण पानी धीरे-धीरे कम होता जाता है। यह प्रक्रिया खुली और चौड़ी सतह से ज्यादा तेजी से होती है क्योँकि सूर्य की किरणेँ ज्यादा हिस्से पर अपना प्रभाव जमा पाती हैं। लेकिन कम होते जाने के कारण पानी छलका की तरफ के गहरे हिस्से में ही बचता है और वहां सूर्य की किरणेँ को ज्यादा सतह नहीं मिलती। नतीजे में भाप बनने की प्रक्रिया भी धीमी हो जाती है। चम्मच के आकार की बनावट तालाब के पानी को वाष्पीकरण से बचाने के लिए की जाती है।
आमतौर पर तालाबों के किनारे अमराई और मंदिर रहते हैं जिनसे इस पूरे क्षेत्र में छाया और पवित्रता बनी रहती है। कहावत भी है कि 'कहां देखओ अइसन तरिया जहां आमा के छांव'। छत्तीसगढ़ में कई प्रसिध्द और ऐतिहासिक मंदिर तालाबों के किनारे ही पाए जाते हैं। पाली, जांजगीर, शिवरीनारायण मंदिर हसौद, रायपुर, रतनपुर, सिरपुर आदि के ऐतिहासिक तालाबों और मंदिरों का निर्माण साथ-साथ ही हुआ था।
आज की तरह उन दिनों तालाब खोदकर तुरत-फुरत पानी उलीचने की उतावली नहीं रहती थी। आखिर तालाब खोदना इष्टापुर्त धर्म यानी परमार्थ के लिए किया जाने वाला पुण्य का काम माना जाता था। बगीचे लगवाना, तालाब खुदवाना, राजाओं-जमीदारों का कर्तव्य माना जाता था। बड़े-बड़े तालाबों में उठने वाली विशाल लहरों को तोड़ने में इन मंदिरों की खास भूमिका होती है। बड़े जल भंडारों में हवा के कारण उठने वाली पल्लरें धीरे-धीरे तालाबों की पाल को तोड़ती है। इससे बचने के लिए बीच तालाब में मंदिर निर्माण किया जाता है। इसके अलावा बड़े तालाबों को खोदने से निकली मिट्टी को फेंकने के लिए दूर तक जाना पड़ता है। इससे बचने के लिए भी एक समय के बाद तालाब के बीच में ही मिट्टी फेंकी जाने लगती है। इस तरह से बीच तालाब में बने टीले पर मंदिरों का निर्माण किया जाता है। कभी-कभी इस जगह पर छोटा-मोटा बगीचा भी लगा दिया जाता है। जगदलपुर के जगतदेव तालाब या रायपुर के बूढ़ातालाब के बीच में बने शिव मंदिर इसी वजह से बनाए गए हैं। आखिर शिवजी पर्यावरण के रक्षक देवता ही तो होते हैं।
मोटे-तौर पर देखें तो आबादी की पेयजल व निस्तार की जरूरतों के लिए तालाबों की शृंखला बनाई जाती है और सिंचाई तथा जानवरों के लिए कई बार अकेले तालाब। सारंगढ़, रतनपुर, रायपुर, जांजगीर, आरंग सरीखे कस्बों, शहरों में तालाबों की इस शृंखला में पीने और भोजन पकाने के पानी के लिए एक या दो तालाब खासतौर पर बनाए जाते हैं। इनमें सफाई बनाए रखने के नियम-कायदे होते हैं। लेकिन जानवरों या सिंचाई के लिए ढलानों पर पानी रोककर बंधिया, बंधा या बंध बनाए जाते हैं। कई जगह पुरानी नदियों के रास्ता बदलने से 'सरार' या गङ्ढों में भी पानी इकट्ठा हो जाता है। मध्य छत्तीसगढ़ में खोचका, खुचका, तरिया, डबरा या डबरी पाए जाते हैं जो आकार में छोटेतालाब ही होते हैं।
बड़े और बारहमासी तालाबों में 'दहरा' या 'दहारा' यानी की धारा पाई जाती है। तल में निकली इस धारा का स्रोत कहीं और होता है तथा यह तालाब को लगातार पानी देती रहती है। इस धारा के लिए तीन से चार हाथ तक के गङ्ढे भी किए जाते हैं। कई जगह तालाबों की तलहटी में कुएं खोद दिए जाते हैं। जगदलपुर, कोंडागांव, रायपुर आदि शहरों में इस तरह के कुएं भीषण अकाल में भी तालाबों को पानी देते रहते हैं। इन कुओं की चिनाई भी की जाती है।
आमतौर पर तो तालाबों में भिन्न-भिन्न जातियों के लिए पत्थर रखे जाते हैं ताकि उन पर बैठकर स्नान या कपड़े धोने जैसे काम किए जा सकें। लेकिन खास तालाबों पर बहुत सुंदर घाट बनाए गए हैं। राजनांदगांव के राजा बलरामदास ने रानी सागार तालाब में ऐसे विशाल घाट और तैरने के लिए बुर्ज बनाने का ठेका दिया था। तब के ठेकेदार शिवरतनलाल ने काम तो कर दिया लेकिन उन्हेँ या उनके परिवार को बकाया दस हजार रुपए आज तक नहीं मिले। राजा बलराम दास ने अपनी वसीयत में इसका जिक्र भी किया है। रायपुर, जशपुर, रायगढ़, सारंगढ़, रतनपुर और जगदलपुर सरीखे कस्बों, शहरों में आज भी ऐसे तालाब देखे जा सकते हैं जिन पर सुंदर घाट और बुर्ज बने हैं। सारंगढ़ के राजा के बारे में कहा जाता है कि उन्होँने अपने तालाब पर आने वाले पक्षियों का शिकार करने के लिए चारों तरफ ऐसे बुर्ज बनवाए थे जहां से छिपकर गोली चलाई जा सके। ऐसे शिकारियों में क्रिप्स कमीशन वाला प्रसिध्द अंग्रेज लार्ड क्रिप्स भी हुआ करता था।
आज की तरह उन दिनों तालाब खोदकर तुरत-फुरत पानी उलीचने की उतावली नहीं रहती थी। आखिर तालाब खोदना इष्टापुर्त धर्म यानी परमार्थ के लिए किया जाने वाला पुण्य का काम माना जाता था। बगीचे लगवाना, तालाब खुदवाना, राजाओं-जमीदारों का कर्तव्य माना जाता था। दानी, समाजसेवी संपन्न लोगों के लिए ऐसे लोकोपकारी कामकरवाना पुण्य माना जाता था। इस काम में समाज को संबोधित किया जाना अभिष्ठ था। तालाब यदि व्यक्तिगत उपयोग के हों तो पूजा करना जरूरी नहीं था लेकिन सार्वजनिक तालाबों की पूजा जरूरी थी। इसमें देवताओं को साक्षी मानकर अपने पर्यावरण के कर्ज को उतारने जैसा लोकार्पण का भाव रहता था। सबसे पहले जलदेवता वरुण का यूप या स्तंभ प्रतिष्ठित किया जाता था। यह यूप सरई या साल की लकड़ी का होता था। यूप प्रतिष्ठा संस्कार के बारे में 'प्रतिष्ठा महोदधि' नामक ग्रंथ में विस्तार से बताया गया है। विशेष और विशाल तालाबों के लोकार्पण के इन विधि-विधानों के अलावा लोकजीवन में आज भी तालाबों के विवाह की परंपरा जारी है। मान्यता है कि विवाहहुए बिना किसी भी तालाब का पानी पीने योग्य नहीं होता।
तालाब विवाह या विहाव राजस्थान से आई परंपरा मानी जाती है जिसमें स्तंभ पति का प्रतीक माना जाता है। इस तरह से कुओं के भी विवाह होते हैं। छत्तीसगढ़ के गांवों में आमतौर पर तालाब जोड़े से बनाए जाते हैं और इनके बाकायदा विवाह होते हैं। पूरे तालाब को सात बार सूत से बांधा जाता है, गौदान किया जाता है। यह परंपरा दरअसल तालाबों के लोकार्पण की मानी जाती है। तालाब विवाह में प्रतीक स्वरूप स्तंभ गाड़ने की परंपरा तो है ही लेकिन इन स्तंभों से पानी के स्तर का भी पता लगता रहता है। नियम है कि एक खास चिन्ह तक तालाब का जलस्तर उतर जाए तो फिर निस्तार, स्नान आदि की मनाही हो जाती है। मान लिया जाता है कि अब पानी कम बचा है और इसे किफायत से इस्तेमाल करने की जरूरत है। इन स्तंभों पर तालाब बनाने वालों के नामों के नामों के अलावा सुंदर कलाकृतियां उकेरी जाती थी। किरारी गांव में मिले और रायपुर के संग्रहालय में रखे ऐसे ही एक स्तंभ में बारहवीं शताब्दी के राजअधिकारियों के अलावा तालाब बनाने वालों के नाम भी खुदे पाए गए हैं।
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