“नदियों को मर जाने दीजिए। एक दिन यह नदी नहीं, हमारे ही पुनर्जीवन का प्रश्न बन जायेगा।’’ – अनुपममिश्र
नदी पुनर्जीवन! इस विषय पर आयोजित एक व्याख्यान मौके पर बोलते हुए नामी पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने यह कठोर सच श्रोताओं के समक्ष उजागर किया।
यह आयोजन केन्द्र निदेशक लक्ष्मीशंकर बाजपेयी की पहल पर आकाशवाणी के नई दिल्ली केन्द्र द्वारा आयोजित किया गया। स्थान था-गुलमोहर हॉल, इंडिया हैबीटेट सेंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली। तारीख - 15 मई, 2012. अच्छा लगा कि आकाशवाणी ने स्टुडियो में ही रहकर अपने तीन मूल उद्देश्यों में से एक “शिक्षित करना’’ की पूर्ति करने के लिए लीक तोड़कर खुली हवा में आना शुरू कर दिया है।
इस मौके पर अन्य दो प्रमुख वक्ता थे: मैगसेसे सम्मानित जलपुरुष राजेन्द्र सिंह और सैंड्रप के निदेशक व पानी के तकनीकी विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर। श्रोताओं में आकाशवाणी के महानिदेशक लीलाधर मंडलोई, वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव, पूर्व राजयनयिक मधु भादुड़ी, गांधीवादी रमेश शर्मा, समेत कई संजीदा लोग व आकाशवाणी स्टाफ मौजूद था। मंच संचालन जैनेन्द्र कुमार सिंह ने किया।
“कभी तहजीब पलती थी नदियों के किनारे,
अब नदियां तहजीब की पहली शिकार हैं।’’
“नदियों की सूखी लकीरें धरती पर डराती हैं।’’
और
“नदी को इन दिनों हमसे थोड़ी शिकायत है।’’
नदी को लेकर कुछ चिंता, कुछ दर्द को जेहन में उतारती ऐसी ही कुछ स्वर लहरियों के साथ इस आयोजन का आगाज हुआ।
पानी को लेकर नित नये मुहावरे गढ़ने में माहिर अनुपम मिश्र ने सच कहा कि शायद हम इंतजार कर रहे हैं आकाश से आने वाली किसी वाणी का, जो हमारी नदियों को बचा सके। हम निकम्मे हो गये हैं। आओ! ‘नदी पुनर्जीवन’ शीर्षक को पलट दें।
नदियों को मरने दें। आखिर इतने सालों में हमने कितनी ही नदियों को मार ही तो दिया है। देश की 14 बड़ी नदियां बड़े संकट का शिकार हैं, तो छोटी नदियों को हम एक-एक कर मार ही रहे हैं। आयोजन स्थल के निकट लोदी गार्डन के पुल के नीचे से होकर कभी एक नदी बहती थी।
खैरपुर से खान मार्केट के बीच। अब खान मार्केट के सामने नदी क्यों बहे? सड़क बहे। हमारी गाड़ियां बहें। हमने उसे मार दिया। हम फांसी देने वाले का नाम भी याद रखते हैं। लेकिन हमने इस नदी का नाम भी याद नहीं रखा।
1900 तक दिल्ली के नक्शे में कई नदियों के नाम मिलते हैं। सच है! उसके बाद नदियां जमीन से भी मिटीं और कागज से भी। नदी बचाने के नाम पर काम भी कागजी ही हुए। किसी सरकार के आने-जाने से इस रवैये में कोई बड़ा फर्क कभी नहीं पड़ा।
दिल्ली कभी अपने पानी की चिंता नहीं करती। उसने अपने 800 तालाब मार दिए। वह पहले यमुना, फिर गंगा और अब हिमाचल की रेणुका झील से पानी लाकर पीने की योजना बना रही है। आगे क्या? आगे शायद इंग्लैंड का पानी ले आये। हम नदियों को कब्जा कर रहे हैं।
नदियां उफनकर शहरों को बाढ़ से डुबो रही हैं। पहले उड़ीसा, बिहार और बंगाल ही बाढ़ में डुबते- उतराते थे, अब मुंबई और बंगलूरु भी डूब रहे हैं। रूस जैसे जिन देशों ने नदियों का पानी रोकने की कोशिश की, उनके समुद्र सूख गये। जहाज रेत में ऐसे धंसे कि आज तक नहीं निकल पाये।
उल्लेखनीय है कि विश्व वन्यजीव संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले मात्र 40 वर्षों में पशु पक्षियों की आबादी घटकर दो-तिहाई रह गई है। इस अवधि के दौरान मीठे जल पर आश्रित पक्षी, जानवरों और मछलियों की संख्या में 70 और उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की प्रजातियों में 60 फीसदी गिरावट हतप्रभ करने वाली है। लेकिन सच यह भी है कि नदियों का कैलेंडर 12 महीने का नहीं होता।
अनुपम मिश्र ने कहा कि नदियां लाखों सालों का कैलेंडर बनाकर चलती हैं। वे लाखों साल में बनती हैं। अतः वे यूं मर भी नहीं सकती। न मालूम कौन सी नदी कितने बरस बाद फिर कब जिंदा हो जाये? कुछ पता नहीं। लेकिन नदियां बचेंगी, तो किसी कानून या नीति से नहीं। समाज कभी जलनीति नहीं बनाता; वह जलदर्शन बनाता है। लाखों साल का संस्कार आधारित जलदर्शन! हम कानून तोड़ सकते हैं, लेकिन संस्कार का अभी भी इस देश में मान है। उसी से उम्मीद।
नदी क्याहै? –हिमांशु ठक्कर ने नदी को परिभाषित करते हुए उन्होंने नदी पर आसन्न खतरों का परिदृश्य तो श्रोताओं के समक्ष रखा ही, उन्होंने चिंता भी जताई कि इस देश में किसी नदी पुनर्जीवन की कोई आधिकारिक योजना नहीं है। 30 साल पहले ही कहा गया था कि भारत के मैदानी इलाकों की नदियों का पानी नहाने लायक नहीं है। अब तो हालात पहाड़ी नदियों के भी खराब हैं।
राजेन्द्र सिंह ने अलवर की नदियों के पुनर्जीवन के अनुभव व कारण को रखते हुए सरकार और समाज के काम के मूल फर्क को बखूबी रखा। उन्होंने साफ कहा कि यदि नदियों को पुनर्जीवित करना है, चार काम आवश्यक हैं: पानी से ठेकेदारी को बाहर निकालना।
पानी का प्रबंधन व हकदारी समाज के हाथों में सौंपना। भारत की भूसांस्कृतिक विविधता का सम्मान करने वाले जलदर्शन पर पड़ी धूल को साफकर समाज के सामने लाना। शोषण करने वालों का नहीं, पोषण करने वालों का सम्मान करना।
राजेंद्र सिंह ने नीर से नारी के रिश्ते, नारी के हाथ में पानी के प्रबंधन की वकालत करते हुए यह भी स्पष्ट किया कि भूजल का नियमन नियामक आयोग या नियंत्रण कानून बनाने से नहीं, कंपनी और गरीब सबके लिए एक गहराई तक भूजल निकासी की सीमा बनाने व उतना ही पानी धरती में वापस लौटाने से होगी।
सचमुच! यह मौका सराहनीय था और प्रेरक भी। आकाशवाणी के नई दिल्ली केंद्र द्वारा की गई इस पहल को नीतिगत तौर पर लागू कर हर स्टेशन द्वारा अपनाने की जरूरत है। जाहिर है कि इसके लिए वित्तीय व्यवस्था चाहिए होगी। मौके पर मौजूद महानिदेशक शायद प्रेरित हो और पहल करें। दुआ कीजिए।
नदी पुनर्जीवन! इस विषय पर आयोजित एक व्याख्यान मौके पर बोलते हुए नामी पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने यह कठोर सच श्रोताओं के समक्ष उजागर किया।
यह आयोजन केन्द्र निदेशक लक्ष्मीशंकर बाजपेयी की पहल पर आकाशवाणी के नई दिल्ली केन्द्र द्वारा आयोजित किया गया। स्थान था-गुलमोहर हॉल, इंडिया हैबीटेट सेंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली। तारीख - 15 मई, 2012. अच्छा लगा कि आकाशवाणी ने स्टुडियो में ही रहकर अपने तीन मूल उद्देश्यों में से एक “शिक्षित करना’’ की पूर्ति करने के लिए लीक तोड़कर खुली हवा में आना शुरू कर दिया है।
इस मौके पर अन्य दो प्रमुख वक्ता थे: मैगसेसे सम्मानित जलपुरुष राजेन्द्र सिंह और सैंड्रप के निदेशक व पानी के तकनीकी विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर। श्रोताओं में आकाशवाणी के महानिदेशक लीलाधर मंडलोई, वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव, पूर्व राजयनयिक मधु भादुड़ी, गांधीवादी रमेश शर्मा, समेत कई संजीदा लोग व आकाशवाणी स्टाफ मौजूद था। मंच संचालन जैनेन्द्र कुमार सिंह ने किया।
“कभी तहजीब पलती थी नदियों के किनारे,
अब नदियां तहजीब की पहली शिकार हैं।’’
“नदियों की सूखी लकीरें धरती पर डराती हैं।’’
और
“नदी को इन दिनों हमसे थोड़ी शिकायत है।’’
नदी को लेकर कुछ चिंता, कुछ दर्द को जेहन में उतारती ऐसी ही कुछ स्वर लहरियों के साथ इस आयोजन का आगाज हुआ।
पानी को लेकर नित नये मुहावरे गढ़ने में माहिर अनुपम मिश्र ने सच कहा कि शायद हम इंतजार कर रहे हैं आकाश से आने वाली किसी वाणी का, जो हमारी नदियों को बचा सके। हम निकम्मे हो गये हैं। आओ! ‘नदी पुनर्जीवन’ शीर्षक को पलट दें।
नदियों को मरने दें। आखिर इतने सालों में हमने कितनी ही नदियों को मार ही तो दिया है। देश की 14 बड़ी नदियां बड़े संकट का शिकार हैं, तो छोटी नदियों को हम एक-एक कर मार ही रहे हैं। आयोजन स्थल के निकट लोदी गार्डन के पुल के नीचे से होकर कभी एक नदी बहती थी।
खैरपुर से खान मार्केट के बीच। अब खान मार्केट के सामने नदी क्यों बहे? सड़क बहे। हमारी गाड़ियां बहें। हमने उसे मार दिया। हम फांसी देने वाले का नाम भी याद रखते हैं। लेकिन हमने इस नदी का नाम भी याद नहीं रखा।
1900 तक दिल्ली के नक्शे में कई नदियों के नाम मिलते हैं। सच है! उसके बाद नदियां जमीन से भी मिटीं और कागज से भी। नदी बचाने के नाम पर काम भी कागजी ही हुए। किसी सरकार के आने-जाने से इस रवैये में कोई बड़ा फर्क कभी नहीं पड़ा।
दिल्ली कभी अपने पानी की चिंता नहीं करती। उसने अपने 800 तालाब मार दिए। वह पहले यमुना, फिर गंगा और अब हिमाचल की रेणुका झील से पानी लाकर पीने की योजना बना रही है। आगे क्या? आगे शायद इंग्लैंड का पानी ले आये। हम नदियों को कब्जा कर रहे हैं।
नदियां उफनकर शहरों को बाढ़ से डुबो रही हैं। पहले उड़ीसा, बिहार और बंगाल ही बाढ़ में डुबते- उतराते थे, अब मुंबई और बंगलूरु भी डूब रहे हैं। रूस जैसे जिन देशों ने नदियों का पानी रोकने की कोशिश की, उनके समुद्र सूख गये। जहाज रेत में ऐसे धंसे कि आज तक नहीं निकल पाये।
1900 तक दिल्ली के नक्शे में कई नदियों के नाम मिलते हैं। सच है! उसके बाद नदियां जमीन से भी मिटीं और कागज से भी। नदी बचाने के नाम पर काम भी कागजी ही हुए। किसी सरकार के आने-जाने से इस रवैये में कोई बड़ा फर्क कभी नहीं पड़ा। दिल्ली कभी अपने पानी की चिंता नहीं करती। उसने अपने 800 तालाब मार दिए। वह पहले यमुना, फिर गंगा और अब हिमाचल की रेणुका झील से पानी लाकर पीने की योजना बना रही है। आगे क्या? आगे शायद इंग्लैंड का पानी ले आये।
उन्होंने चेतावनी तो दी कि यदि नदियां इसी तरह मरती रहीं, तो हमारा अस्तित्व ही एक दिन संकट में पड़ जायेगा। तब हमे अपने पुनर्जीवन की चिंता करनी पड़ेगी।उल्लेखनीय है कि विश्व वन्यजीव संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले मात्र 40 वर्षों में पशु पक्षियों की आबादी घटकर दो-तिहाई रह गई है। इस अवधि के दौरान मीठे जल पर आश्रित पक्षी, जानवरों और मछलियों की संख्या में 70 और उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की प्रजातियों में 60 फीसदी गिरावट हतप्रभ करने वाली है। लेकिन सच यह भी है कि नदियों का कैलेंडर 12 महीने का नहीं होता।
अनुपम मिश्र ने कहा कि नदियां लाखों सालों का कैलेंडर बनाकर चलती हैं। वे लाखों साल में बनती हैं। अतः वे यूं मर भी नहीं सकती। न मालूम कौन सी नदी कितने बरस बाद फिर कब जिंदा हो जाये? कुछ पता नहीं। लेकिन नदियां बचेंगी, तो किसी कानून या नीति से नहीं। समाज कभी जलनीति नहीं बनाता; वह जलदर्शन बनाता है। लाखों साल का संस्कार आधारित जलदर्शन! हम कानून तोड़ सकते हैं, लेकिन संस्कार का अभी भी इस देश में मान है। उसी से उम्मीद।
नदी क्याहै? –हिमांशु ठक्कर ने नदी को परिभाषित करते हुए उन्होंने नदी पर आसन्न खतरों का परिदृश्य तो श्रोताओं के समक्ष रखा ही, उन्होंने चिंता भी जताई कि इस देश में किसी नदी पुनर्जीवन की कोई आधिकारिक योजना नहीं है। 30 साल पहले ही कहा गया था कि भारत के मैदानी इलाकों की नदियों का पानी नहाने लायक नहीं है। अब तो हालात पहाड़ी नदियों के भी खराब हैं।
राजेन्द्र सिंह ने अलवर की नदियों के पुनर्जीवन के अनुभव व कारण को रखते हुए सरकार और समाज के काम के मूल फर्क को बखूबी रखा। उन्होंने साफ कहा कि यदि नदियों को पुनर्जीवित करना है, चार काम आवश्यक हैं: पानी से ठेकेदारी को बाहर निकालना।
पानी का प्रबंधन व हकदारी समाज के हाथों में सौंपना। भारत की भूसांस्कृतिक विविधता का सम्मान करने वाले जलदर्शन पर पड़ी धूल को साफकर समाज के सामने लाना। शोषण करने वालों का नहीं, पोषण करने वालों का सम्मान करना।
राजेंद्र सिंह ने नीर से नारी के रिश्ते, नारी के हाथ में पानी के प्रबंधन की वकालत करते हुए यह भी स्पष्ट किया कि भूजल का नियमन नियामक आयोग या नियंत्रण कानून बनाने से नहीं, कंपनी और गरीब सबके लिए एक गहराई तक भूजल निकासी की सीमा बनाने व उतना ही पानी धरती में वापस लौटाने से होगी।
सचमुच! यह मौका सराहनीय था और प्रेरक भी। आकाशवाणी के नई दिल्ली केंद्र द्वारा की गई इस पहल को नीतिगत तौर पर लागू कर हर स्टेशन द्वारा अपनाने की जरूरत है। जाहिर है कि इसके लिए वित्तीय व्यवस्था चाहिए होगी। मौके पर मौजूद महानिदेशक शायद प्रेरित हो और पहल करें। दुआ कीजिए।
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