अस्सी के दशक पूर्व देश के कई राज्यों के हजारों गाँव, ढाणियां व कस्बे ऐसे थे जहाँ के घरों से बारिश के मौसम आने के पूर्व हर उम्र की महिलाओं और पुरुषों की दर्द भरी कर्राहट के स्वर सुनाई दे पड़ते थे। दरअसल ये लोग 50 से 150 से.मी. लम्बा व 1.7 मि.मी. मोटा सफेद धागेनुमा नारू-कृमि (गिनी-वर्म) के संक्रमण से पीड़ित थे जिसके कारण इन्हें बेहद असहनीय पीड़ा भोगनी पड़ती थी। प्राणी शास्त्र में ये कृमि प्राणिजगत के निमैटोडा संघ के फैस्मिडिआ (सिसेर्नेन्टिया) वर्ग से सम्बन्धित ड्रेकनक्यूलोइडिया गण के परोपजीवी हैं जो मनुष्यों की त्वचा के नीचे अधोत्वक ऊतकों (Subcutaneous tissue) में निवास करते हैं। इनका वैज्ञानिक नाम ‘ड्रेकुन्कुलस मेडिनेन्सिस’ है तथा इनके संक्रमण से होने वाली बीमारी को नारू-रोग वहीं चिकित्सा विज्ञान में इसे गिनी-वर्म डिजीज अथवा ड्रेकुन्कुलियेसिस कहते हैं। यह लाइलाज बिमारी सिर्फ मादा नारू-कृमि के संक्रमण से ही होती और पनपती है। नर कृमि इससे छोटे व कम लम्बाई के होते हैं तथा मैथुन के बाद ये प्राय: मर जाते हैं।
नारू-कृमि भारत में कैसे आया इसकी कोई ठोस प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। पर इतना जरूर है कि इसे मदीना में पहले देखा गया था। वहाँ से इससे संक्रमित लोगों द्वारा यह अन्य देशों में पहुँचा। लेकिन भारत में इसका साम्राज्य व आतंक का दायरा ज्यादातर आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक व तमिलनाडु राज्यों में था। लेकिन राजस्थान में इसका जबर्दस्त प्रकोप था, इसके संक्रमण से गाँव के गाँव नारू रोग से भरे पड़े हुए थे। जनजाति क्षेत्रों में हालात और भी गम्भीर थे। इन क्षेत्रों में नारू-कृमि हर उस शख्स को अपना शिकार बनाता गया जो तालाबों, नदियों, कुओं और बावड़ियों का पानी बिना छाने पीते थे। इससे पीड़ित लोग तीन से छ: माह तक अपने घर में या खाट पर असहनीय पीड़ा भोगने को विवश होते थे। लोगों में इसके आतंक का खौफ इतना था कि कोई भी व्यक्ति इन राज्यों में जाने से कतराता था। यहाँ तक कि सरकारी अधिकारी व कर्मचारी नारू प्रभावित क्षेत्रों में नौकरी करने से मुँह मोड़ लेते थे। इन क्षेत्रों से ये जल्द-से-जल्द अपना स्थानान्तरण करवाने को प्रयत्नरत रहते थे। और तो और उच्चाधिकारी अपने मातहतों को काम नहीं करने पर नारू-रोग प्रभावित क्षेत्रों में स्थानान्तरण करने की अक्सर धमकियाँ दिया करते थे। आज भी इसका खौफ बुजुर्गों की स्मृति पटल पर मौजूद है।
सामान्यतौर पर व्यक्ति में एक ही नारू-कृमि का संक्रमण देखा गया, लेकिन एक से अधिक कृमि भी लोगों में देखने को मिले हैं परन्तु ऐसे केसेज प्राय: दुर्लभ थे। गर्भवती मादा नारू-कृमि अपने आस-पास के माहौल के अनुकूल पूरी तरह से ढली हुई होती है। यही वजह है कि मनुष्य की मांसपेशियों व त्वचा के बीच शरीर में एक जगह से दूसरी जगह आसानी से गमन करते हुए कहीं से भी त्वचा को भेद कर धीरे-धीरे बाहर निकल आती है। इस दौरान संक्रमित व्यक्ति को भयंकर असहनीय पीड़ा व जलन होती है। अपनी मर्जी के अनुसार चाहे बच्चे हों या नौजवान व बुजुर्ग बिना लैंगिकी भेदभाव किये यह शरीर के किसी भी हिस्से व अंग (नर व मादा जननांग, हाथ-पैर, मुँह, गर्दन, पेट, कूल्हे, आँख, नाक, कान, जीभ इत्यादि) से बाहर निकल आती है। सच तो यह है कि इसके बाहर निकलने का कोई निश्चित स्थान व समय निर्धारित नहीं होता है अर्थात यह जब चाहे किसी भी हिस्से व अंग से निकल आती है। फिर भी यह उन अंगों या हिस्सों को ज्यादा पसन्द करती है जो पानी के सम्पर्क में बार-बार आते हों जैसे कि हाथ-पैर। खास बात कि यह अपने पश्च सिरे से ही अंगों से बाहर निकलती है वही यह अपना अग्र सिरा अर्थात मुँह व्यक्ति के शरीर के भीतर रखती है। यह प्राणी जगत में जैव-विकास के दौरान वंश वृद्धि का एक नायाब व सफल तरीका विकसित हुआ है। इसका गर्भाशय अग्र से पश्च तक लम्बा व असंख्य भ्रूणों से पूरा भरा हुआ होता है ताकि यह अधिक-से-अधिक लोगों को संक्रमित कर अपना वजूद अथवा वंश सुरक्षित रख सके।
मादा कृमि अक्सर अपनी सोची समझी रणनीति के अनुसार ही वर्षा ऋतु के आस-पास लोगों के शरीर से बाहर निकलती है जो इसके जीवन चक्र को पूरा करने की लिये उपयुक्त समय होता है। इसके निकलने के पूर्व व्यक्ति को तेज बुखार, जी मिचलाना, उल्टी इत्यादि की शिकायत रहती है तथा जिस स्थान से वह बाहर निकलती है वहाँ आस-पास की जगह लाल व सूजने (एडिमा) लगती है और तेज मीठी-मीठी खुजली होने के साथ-साथ वहाँ तीव्र जलन भी होती है। इसके साथ ही वहाँ पर छोटे सिक्के के आकार का एक फफोला या छाला (ब्लिस्टर) उभर आता है जिसके फूटने पर बीचों बीच एक सूक्ष्म घाव से अनाज के सफेद अंकुर की भाँति इस मादा कृमि का पिछला सिरा निकलता हुआ दिखाई दे पड़ता है। इसको पूरा बाहर निकलने में लगभग तीन से छ: माह लग जाते हैं। यदि इस दौरान किसी कारणवश यह टूट जाती है तो यह शरीर में पुन: अन्दर घुसकर किसी और स्थान से फिर से निकलना शुरू करती है जिसके कारण पीड़ित व्यक्ति को एक बार और खतरनाक एवं अत्यन्त पीड़ा भुगतनी पड़ती है।
नारू रोगी जब किसी जलाशय के ठंडे पानी में नारूयुक्त हाथ-पैर को डुबो के रखता है तब उसे जलन से बड़ी राहत मिलती है और वो बहुत अच्छा महसूस करता है। मादा नारू-कृमि इसी अवसर का फायदा उठा कर हजारों की संख्या में अपने सूक्ष्म कुंडलित भ्रूणों (लारवा) को पानी में स्वतंत्र कर देती है जिन्हें पानी में मौजूद नन्हें-नन्हें पिस्सु (साईक्लोप्स) निगल लेते हैं। ये भ्रूण बिना कुछ खाए पानी में 5-7 दिनों तक जीवित रह सकते हैं। जब कोई व्यक्ति इन जल-स्रोतों का पानी बगैर छाने पीता है तब ये संक्रमित पिस्सू भी उसके शरीर में प्रवेश (संक्रमण) कर जाते हैं। इस तरह नारू-कृमि बड़ी होशियारी से अपना जीवन चक्र पूर्ण कर लेते हैं।
इसके उन्मूलन हेतु एक वृहद राष्ट्रीय नारू उन्मूलन परियोजना 1984 में प्रारम्भ की गई थी। इसके तहत इस कृमि के जीवन–चक्र को तोड़ना पहला प्रमुख लक्ष्य था। इस हेतु संक्रमित साईक्लोप्स लोगों के शरीर में न जाए इसके लिये लोगों को पानी छानकर पीने के लिये अधिक-से-अधिक जागरूक एवं शिक्षित किया गया और साथ-ही-साथ विशेष कपड़े से निर्मित पानी की छन्नी (फनल) घर-घर मुहैया करा दी गई थी। दूसरी ओर परम्परागत पानी पीने के सभी जल-स्रोतों (कुँए–बावड़ियाँ) को बन्द कर दिया गया, वहीं लोगों को स्वच्छ जल सुलभ कराने हेतु नारू क्षेत्रों में जगह-जगह हैंड-पम्प व बोर-वेल खोद दिए गए। इस तरह साल-दर-साल नारू रोगियों की संख्या घटती गई।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार नारू रोगी को अन्तिम बार 1996 में राजस्थान के जोधपुर जिले में देखा गया, लेकिन प्रकाशित शोध पत्रों के अनुसार इसे अन्तिम बार 2006 में राजस्थान के आदिवासी बाहुल्य डूंगरपुर जिले के छोटे से गाँव कांकरदड़ा के 40 वर्षीय भील आदिवासी युवक में देखा गया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2000 में भारत को इस दुर्दान्त परजीवी कृमि से मुक्त होने की अधिकारिक घोषणा भी कर दी थी। शायद यह अति उत्साह व जल्दी में लिया गया निर्णय हो सकता है। क्योंकि आदिवासी जंगलों के अन्दर छितराए हुए भी रहते हैं। इनमें नारू के केसेज ढूँढ निकालना बड़ी टेड़ी खीर होती है, इसलिये कम से कम पाँच-छ: वर्ष तक आदिवासी क्षेत्रों में बार-बार शोध सर्वेक्षण करके फिर यह निर्णय लिया जाता तो शायद ज्यादा बेहतर होता। जो भी हो देश से नारू-रोग तो चला गया लेकिन बदले में खतरनाक फ्लोरोसिस बीमारी आ गई।
नारू-कृमि अथवा नारू रोग भले ही अब इतिहास के पन्नों में है लेकिन इसके कैल्सिफाईड अवशेष आज भी किसी-न-किसी बुजुर्ग के एक्स-रे फिल्म में देखने को मिल जाते हैं। मेडिकल व प्राणी शास्त्र के छात्र-छात्राएँ शायद ही अब इस दुर्दान्त नारू-कृमि को जीवित अवस्था में देख सकेंगे। वे अब इसके बारे में सिर्फ अपनी पाठ्य पुस्तकों में ही पढ़ और जान सकेगें। यदि अपने कॉलेजों के संग्रहालयों में इसके संरक्षित नमूने हैं तो इसे देख सकेंगे। वहीं बुजुर्ग लोग इस कृमि के आतंक की कहानी अपनी युवा पीढ़ी को जरुर सुनाते होंगे।
(डॉ. शान्तिलाल चौबीसा, प्राणी शास्त्री एवं लेखक, उदयपुर-राजस्थान)
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