ऐसे साफ होगी यमुना

यमुना प्रदूषण के सवाल पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साधु-संत और मौलवी-उलेमा उसी तरह सजग होते जा रहे हैं, जिस तरह दो साल पहले महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय के संत हुए थे। संत तुकाराम और संत ज्ञानेश्वर के भक्ति आंदोलन से जन्मे वारकरी संप्रदाय का पश्चिमी महाराष्ट्र और विदर्भ के किसानों में व्यापक जनाधार है। नदी जल प्रदूषण के सवाल पर पुणे के किसान आंदोलन को जब राज्य सरकार के दमन और हाई कोर्ट के स्टे ने ठिकाने लगा दिया, तो वारकरी संतों ने इसे अपने हाथों में ले लिया। बीस लाख साधुओं और किसानों की भीड़ ने शिंदे वासली गांव स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी देवू की अंतरराष्ट्रीय लैब को जलाकर खाक कर दिया। उस लैब का कचरा स्थानीय सुधा नदी में प्रवाहित होकर इंद्राणी नदी तक पहुंचने वाला था, जो संत तुकाराम की समाधि स्थल से होकर गुजरती है। आंदोलन इतना व्यापक था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को लंदन से संदेश भेजकर कंपनी के भूमि के पट्टे को रद्द करना पड़ा।

पिछले महीने आनंदी में हुए एक जलसे में कर्नाटक के लिंगायत और आंध्र के महानुभाव संप्रदाय के संतों ने मिलकर दक्षिण के तीन राज्यों में प्रदूषण के खिलाफ बड़ा आंदोलन शुरू करने का फैसला लिया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यद्यपि इस मुद्दे पर कोई बड़ा किसान आंदोलन नहीं हुआ है, लेकिन साधुओं और मौलवियों के अभियान और रैलियों ने न सिर्फ शहरी और ग्रामीण मानस को आंदोलित किया है, बल्कि 18 साल पहले शुरू हुए यमुना ऐक्शन प्लान की भी कलई खोलकर रख दी है। इन लोगों ने यमुना प्रदूषण के उस 22 किलोमीटर लंबे केंद्र पर भी हमला बोला है, जो प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत है और देश की राजधानी में होने के कारण अभी तक जिसे आम आदमी से छिपाकर रखने की राष्ट्रीय कोशिशें होती रही हैं।

वस्तुतः यमुना को वैदिक रंग में रंगने की शुरुआती कोशिशें सरकार की तरफ से हुईं। वर्ष 1993 में यमुना ऐक्शन प्लान की शुरुआत के समय इसके निर्माताओं के सामने गंगा ऐक्शन प्लान की धार्मिक रणनीति थी। यही वजह है कि यमुना ऐक्शन प्लान की शुरुआत के समय इसे सूर्य देवता की पुत्री, यम की बहन और श्रीकृष्ण की बाल गतिविधियों के केंद्र के रूप में प्रचारित-प्रसारित करने वाले इन निर्माताओं में कोई यह सोचने को तैयार नहीं था कि जो रणनीति गंगा ऐक्शन प्लान को सफलता नहीं दिला सकी, वह उन्हें कैसे दिलवा देगी। नदियां जनमानस की सांस्कृतिक धरोहर तो हो सकती हैं, लेकिन भारत जैसे बहुधर्मी देश में नदी को किसी एक धर्म में रंगा नहीं जा सकता।

यमुना प्रदूषण के सवाल पर धर्मगुरुओं का इस प्रकार इकट्ठा होना न सिर्फ एक बड़े सामाजिक और वैज्ञानिक सवाल पर धर्म की दीवारों को तोड़ता दिखता है, बल्कि वे उन जरूरी सवालों को भी बहस के केंद्र में लाने की कोशिश रहे हैं, जिनसे धर्म और जाति के भेद से अलग आम जनमानस जुड़ा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस सुधार आंदोलन की शुरुआत साधुओं ने की थी। जाहिर है, उनके नारों में कालिंदी भी थी और कृष्ण भी थे। इसके ठीक बाद मौलवी और मौलानाओं ने जो पहल की, वह एक कदम आगे बढ़ने की बात थी। आगरा के शहर काजी ने सभी काजियों से अपील की कि निकाह के वक्त वे हर दूल्हा-दुल्हन से बाकी करारों के साथ यमुना को मैली न करने का करार भी करवाएं।

ऑल इंडिया दीनी मदारिस बोर्ड की जिला इकाई ने बोर्ड से लिखित अपील की कि वे अपने पाठ्यक्रमों में यमुना और गंगा सहित बाकी नदियों के प्रदूषणों को भी शामिल करें। इसके बाद मुसलिम समुदायों में काम करने वाले सामाजिक संगठन सक्रिय हो गए। आगरा की देखा-देखी दूसरे शहरों में भी यह सिलसिला शुरू हो गया है। यमुना के किनारे बसे शहरों के मुसलिम महिला संगठनों ने भी नदी के घाटों पर गंदगी और प्रदूषण के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। गंगा हो या यमुना, वह सरकार के ऐक्शन प्लान या धार्मिक नारों से साफ नहीं होगी। वह साफ होगी, तो सामाजिक जागरूकता से। सुखद है कि यमुना के मामले में यह जागरूकता दिखने लगी है।
 

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