उत्तर बिहार को लगातार बाढ़ से बचाने के लिये 1950 के दशक में यहां की नदियों पर तट-बंध बनाने की एक विषद और महत्वाकांक्षी योजना शुरू हुई। यह निश्चय ही एक दुःस्साहसिक कदम था क्योंकि इसके पीछे नेपाल से बिहार के मैदानी इलाकों में अत्यधिक गाद युक्त पानी लाने वाली नदियों से छेड़छाड न करने वाली लगभग सौ साल पुरानी मुहिम को अब धता बता दिया गया था। अंग्रेज इंजीनियरों की बाढ़ नियंत्रण तथा तटबंध विरोधी और बाढ़ समस्या को जल निकासी की समस्या के रूप में देखने वाली लॉबी बड़ी ही समर्थ और सक्रिय थी और उन्होंने ऐसे किसी भी काम का लगभग सफल विरोध किया जिससे बहते पानी के रास्ते में अड़चने पैदा होती हैं।
अंग्रेजों का यह ज्ञान किताबी न होकर अनुभव पर आधारित था। शुरू-शुरू में भारत आने वाले अंग्रेज बुनियादी तौर पर व्यापारी अथवा नाविक थे। सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण से उनका दूर-दूर तक का वास्ता नहीं था। चौदहवीं शताब्दी में फिरोजशाह तुगलक द्वारा बनाई गई यमुना नहर के अवशेष देखकर उन्हें सिंचाई के माध्यम से कुछ अर्थ लाभ की सूझी जिसके चलते उन्हें सिंचाई का तंत्र सीखना और विकसित करना पड़ा। इस नहर का उन्होंने पुनरुद्धार किया जिसका उन्हें फायदा भी हुआ। इससे उत्साहित होकर और गंगा और ब्रह्मपुत्र घाटी में बाढ़ की स्थिति देखकर उनको लगा कि यदि इन नदियों के बाढ़ को नियंत्रित कर दिया जाय तो कुछ आमदनी बाढ़ नियंत्रण के नाम पर कर ली जायेगी और बाढ़ मुक्त क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था करके उनके जखीरे थोड़ा और बड़े हो जायेंगे। केवल सिंचाई के लिये जहाँ उन्होंने यमुना, गंगा और सिंधु घाटियों में पहल की वहीं सन 1855 में बाढ़ नियंत्रण के लिये उन्होंने बंगाल की दामोदर नदी को चुना जिसे वह ‘बंगाल का शोक’ कहते थे। उनको लगा कि दामोदर की चंचलता समाप्त करने के लिये उसके दोनों किनारों पर तटबंध बनाये जा सकते हैं, सो उन्होंने बना दिये।
सन 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद किसी भी विद्रोही को दबाने के लिये उन्हें सड़कों और रेल लाइनों का विस्तार करना पड़ा। तब उन्होंने 'ग्राण्ड ट्रंक रोड' को चौड़ा और मजबूत किया और आसनसोल-हावड़ा रेल लाइन का काम हाथ में लिया। सन 1860 में यह रेल लाइन बनकर तैयार हुई और अगले ही वर्ष सन 1861 में बर्द्धमान जिले में महामारी के तौर पर मलेरिया फैला जिसका उस समय अंग्रेजी इलाज नहीं था। कारण था कि रेल लाइन के कारण वर्षा के पानी की निकासी अवरूद्ध हो गई थी जो कि मच्छरों के विकास के लिये एक माकूल परिस्थिति थी। उधर तटबंधों के अंदर बाढ़ का ‘लेवल’ अप्रत्याशित रूप से बढ़ा जिससे तटबंधों पर खतरा आया और वह टूटे। इसके अलावा जनता ने भी कई जगहों पर तटबंध काटे। कुल मिलाकर एक घोर अराजक स्थिति पैदा हो गई।
वास्तव में दामोदर घाटी के निवासियों की बाढ़ से निपटने की एक अपनी व्यवस्था थी जिसके पीछे उनका सदियों का अनुभव था। उन्होंने दामोदर नदी के दोनों किनारों पर मेंड नुमा छोटी ऊंचाई के तटबंध बना रखे थे। जब बरसात शुरू होती थी, तब खेतों में बारिश का पानी जमा होता था जिसमें धान छींट दिया जाता था। ठहरे पानी में धान की पौध बढ़ती थी और उसी के साथ मच्छरों के अण्डे भी बढ़ते थे। उधर मेंड़नुमा तटबंधों के बीच नदी भी चढ़ती थी। रोपनी होने तक या तो पानी के दबाव के कारण तटबंध खुद टूट जाते थे या किसानों द्वारा बहुत सी जगहों पर एक साथ काट दिये जाते थे। अब नदी का गादयुक्त पानी खेतों की ओर चलता था और उसी के साथ छोटी-छोटी मछलियां भी बह निकलती थीं और एक सिरे से मच्छरों के अंडों को खा जाती थीं। ताजी मिट्टी और पानी पड़ने से खाद की जरूरत अपने आप पूरी हो जाती थी और मच्छरों का आतंक मछलियां खत्म कर देती थीं। अब धान और मछलियां दोनों साथ-साथ बढ़ते थे। नदी का पानी जब-जब छलकता और ऐसा बाढ़ के मौसम में कई बार होता था तो खेतों की तरफ आता था और कभी अधिक दिनों तक बरसात नहीं हुई तो स्थिति से निपटने के लिये इलाके में पोखरों की एक लंबी शृंखला थी- घर-घर के आगे तालाब था जो कि जरूरत के समय सिंचाई के लिये पानी का स्रोत और मछलियों के लिये आश्रय का काम करता था। इस वजह से मलेरिया का नामोनिशान नहीं था और हर साल धान की अच्छी फसल और मछलियों की बहुतायत तयशुदा थी। बाढ़ के मौसम के बाद जमीन की नमी इतनी काफी बची रहती थी कि उस पर बिना सिंचाई किये दलहन और तिलहन की अच्छी फसल उगाई जा सके। बारिश खत्म हो जाने पर नदी पर छोटे तटबंध फिर बना दिये जाते थे। यही कारण है कि दामोदर घाटी का बर्द्धमान जिला देश के सबसे कृषि समृद्ध क्षेत्रों में गिना जाता था। क्योंकि बाढ़ का पानी एक बड़े इलाके पर फैला दिया जाता था इससे बाढ़ पर एक तरह से अपने आप ही नियंत्रण हो जाता था और उसका स्तर कभी भी असहनीय सीमाओं को नहीं छूता था।
अंग्रेज जीवन निर्वाह की इस पूर्णतः वैज्ञानिक और व्यावहारिक विधा को समझ नहीं पाये और उन्हें लगा कि तटबंधों को ‘असामाजिक तत्व’ काट देते हैं। तब बाढ़ की पुख्ता इंतजाम करने के लिये उन्होंने नदी के किनारे ऊंचे और मजबूत तटबंध बनाये और इसके अलावा 'ग्राण्ड ट्रंक रोड' और आसनसोल-हावड़ा रेल लाइन के विकास के साथ इन्हीं के समानान्तर इडेन कैनाल बनाई गई। यह सारी संरचनायें पूरब-पश्चिम दिशा में थी और जमीन का ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर, जिसकी वजह से बरसात के मौसम में बहते पानी के सामने ईडेन कैनाल, आसनसोल-हावड़ा रेल लाइन, जी.टी. रोड तथा दामोदर नदी के दोनों तटबंधों की शक्ल में पांच ‘भुतही दीवारें’ एक के बाद एक करके खड़ी थीं। अब कंपनी बहादुर एक को बचाये तो दूसरी टूटती थी। पैबन्द लगाते-लगाते उनकी नाक में दम हो गया।
दामोदर नदी पर बने तटबंध के कारण बाहर का पानी नदी में नहीं जा सका, जिससे तथाकथित सुरक्षित क्षेत्रों में भयंकर तबाही हुई और तटबंधों के कारण अंदर का बाढ़ का ‘लेवल’ बेकाबू हो गया। आखिरकार अंग्रेजों ने दामोदर का तटबंध तोड़ना शुरू किया और सन 1869 में ही दाहिने किनारे की 32 किलोमीटर लंबाई में उसे ध्वस्त कर दिया। ईडेन कैनाल से होकर जल निकासी की व्यवस्था की, रेलवे लाइन और जीटी. रोड में पुलों और कलवटों का निर्माण किया और भविष्य में बाढ़ नियंत्रण के लिये कभी भी नदी को हाथ न लगाने की कसम खाई जिसका निर्वाह उन्होंने 1947 तक किया।
बाढ़ के पानी से जले अंग्रेज अब यह अच्छी तरह समझ गये थे कि यदि भारी मात्रा में गाद लाने वाली नदी पर तटबंध बनेंगे तो बालू जमाव के कारण नदी का तल धीरे-धीरे ऊपर उठेगा, पानी का फैलाव रूकने के कारण बाढ़ का गाद युक्त उर्वरक पानी खेतों तक नहीं पहुँचेगा, मुक्त रूप से नदी में पहुँचने वाला पानी तटबंध के बाहर अटक जायेगा, नदियों के संगम पर तटबंध के कारण सहायक नदी का पानी मुख्य नदी में नहीं जा पायेगा, ऐसे स्थलों पर निर्मित स्लुइस गेट को बाढ़ के समय खोलना खतरे से खाली नहीं होगा क्योंकि स्लुइस गेट को खोलने पर मुख्य नदी का पानी सहायक धारा में चला जायेगा और ऐसी स्थिति में छोटी नदी का पानी या तो पीछे की ओर हिलोरे मारेगा या तटबंध के बगल में बहता हुआ नये-नये इलाकों में तबाही मचायेगा। तब छोटी नदी पर तटबंध बनाने की मांग उठेगी और यदि ऐसा कर दिया गया तो मुख्य धारा और छोटी नदी के तटबंध के बीच के वर्षा के पानी की निकासी के सारे रास्ते बंद हो जायेंगे। ऐसी परिस्थति में या तो तटबंध काटना पड़ेगा या फिर पम्प करके पानी को वापस नदी में डालना पड़ेगा। तटबंधों से होकर पानी के रिसाव की समस्या अलग से होगी। नदी के उठते तल के अनुरूप हमेशा तटबंध को ऊंचा करना पड़ेगा। और इस बात की गारन्टी कोई भी नहीं दे सकता कि कोई तटबंध कभी टूटेगा नहीं। तटबंध जितना ऊंचा और मजबूत होगा उसके पीछे शरण लेने वाले लोग उतने ही असुरक्षित होंगे जबकि एक मुक्त नदी का पानी बड़े इलाके पर फैलने के कारण कभी भी उतना नुकसान नहीं पहुँचायेगा जितना की तटबंधित नदी पहुँचायेगी। यह सब अंग्रेजों को दामोदर ने सिखा दिया था और इस बीच उन लोगों ने चीन की हांग-हो, अमेरिका की मिसीस्सिप्पी तथा इटली की पो नदी पर बने तटबंधों की कहानियां भी बड़े गौर से सुन ली थीं। हिसाब-किताब उनका इतना पक्का था कि उन्हें यह जानते देर नहीं लगा कि यदि किसी नदी को कई साल तक बांध कर रखने में जो फायदा होता है वह एक साल की एक दरार में एक झटके में समाप्त हो जाता है। यह सारी जानकारियों कोसी नदी पर तटबंध बनने के सौ बरस पहले से इंजीनियरों को थी। राजनीतिज्ञ, जो कि ज्यादा मुखर और सामर्थ्यवान होते हैं, यदि तथ्यों से अनजान बने रहने का बहाना करें तो यह उनका विशेषाधिकार है मगर गोरे आकाओं ने अपने इंजीनियरों की राय का आमतौर पर विरोध नहीं किया।
दामोदर का सीखा सबक अंग्रेजों के दो जगह काम आया। एक तो पूर्णिया के कलक्टर ने सन 1871 में कोसी पर प्रस्तावित तटबंधों और नहर प्रणाली को यह कह कर खाजिर कर दिया कि जिस साल बाढ़ से फसल बरबाद हो जाती है उस साल बिना मेहतन के रबी की जबर्दस्त फसल होती है और उससे दोनों फसलों की भरपायी हो जाती है और दूसरा सन 1872 में तत्कालीन लेफ्टिनेन्ट गवर्नर ने गंडक नहर के प्रस्ताव को यह कह कर ठण्डे बस्ते में डाल दिया कि उत्तर-पश्चिम बिहार में भूमिगत जल की सतह काफी ऊपर है और नहरों के निर्माण से जल जमाव बढ़ेगा और दामोदर वाली भूल की पुनरावृति हो जायेगी। यह एक अलग बात है कि पिछली शताब्दी के अंत में राहत कार्यों के अधीन उन्हें चम्पारण में त्रिवेणी नहर का काम हाथ में लेना पड़ गया था। उसके बाद चार्ल्स इलियट (1895), कैप्टन एफ.सी. हर्स्ट (1907), डब्ल्यू.ए. इंगलिस (1893 तथा 1910), विलियम एडम्स (1928) कैप्टेन जीएफ हॉल (1937) डब्ल्यू बी. मेरल (1942) तथा रायबहादुर पीसी. घोष (1948), जैसे प्रशासकों तथा इंजीनियरों ने नदियों के किनारे तटबंध बना कर बाढ़ रोकने के तरीके के खिलाफ सरकार पर सफलतापूर्वक दबाव बनाये रखा।
मगर कोसी को नियंत्रित करने की मुहिम आजादी के बाद नेपाल में बराह क्षेत्र में कोसी पर हाई डैम (1950 में अनुमानित लागत 177 करोड़ रुपये) से बेलका बांध (1952 में अनमानित लागत 55.5 करोड रुपये) की यात्रा तय करती हुई अन्ततः 1953 में तटबंधों तथा नहरों पर आकर रूकी, जिसकी तत्कालीन अनुमानित लागत 37.13 करोड़ रुपये थी। बाढ़ नियंत्रण की इस योजना को आकर्षक बनाने के लिये उसमें सिंचाई और बिजली उत्पादन भी जोड़ दिया गया था। अब बाढ़ नियंत्रण परिदृश्य से इंजीनियरों को पीछे धकेल दिया गया और कमान सम्भाली राजनेताओं ने। कितना संगठित तरीके से झूठ बोला गया था तब- यह कि हांग-हो को चीनियों ने बांधकर काबू कर लिया हुआ है तो मिस्सिसिप्पी नदी को अमरीकियों ने अपनी चेरि बना लिया हुआ है। इटलीवासी पो नदी को बहकने नहीं देते हैं। यह सब फरेब रचा गया था कोसी को बांधने के लिये। हमारे देश में कभी सती प्रथा थी, कोई भी महिला जब सती होती थी तब उस समय एक विचित्र जयघोष होता था। घड़ी-घण्ट, नगाड़े, तुरही, नफीरी, झांझ, शंख आदि सबकुछ एक साथ बजता था जिसका उद्देश्य एक ही था कि जलने वाले की चीख-पुकार किसी को सुनाई न पड़े। सन 1955 में जब कोसी को बांधने का काम शुरू हुआ तब यहां भी माहौल कुछ ऐसा ही था। कोसी तटबंधों के बीच फंसे 300 गाँवों में लगभग दो लाख लोग चिल्लाते रह गये लेकिन सुनने वालों को लगा कि जिसकी बलि होती है उसका तो मोक्ष होना तय है और यह तो उसके लिये सौभाग्य की बात है। बहरहाल, कोसी बंधी और इसके साथ ही गांठ लगी उन लोगों की किस्मत में जो कि तटबंधों के बीच फंस गये थे। अठाहरवीं शताब्दी में बने गण्डक तटबंधों का उदाहरण मौजूद था उस समय जिनके टूटते रहने और जल जमाव के कारण अंग्रेज सरकार की दुआ कबूल नहीं होती थी, पर गण्डक तटबंधों के बीच फंसे लोगों की हालत से शिक्षा लेने का समय किसके पास था। यह ऐसी जगह है जहाँ अगर भगवान बुद्ध के काल के पहले की किसी फिल्म की शूटिंग करनी हो तो वह काम किना किसी तैयारी के वहाँ किया जा सकता है। यहां आधुनिक विकास को कोई चिन्ह नहीं है। उसी दुःष्चक्र में कोसी क्षेत्र के लोगों को भी धकेल दिया गया। एक नाटक अवश्य ही पुनर्वास के नाम पर हुआ।
जहाँ तक बराह क्षेत्र बांध का प्रश्न है, सन 1954 में बिहार विधान सभा में तकनीकी रिपोर्टों का हवाला देते हुए तत्कालीन मंत्री अनुग्रह नारायण सिंह ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि बराह क्षेत्र बांध से नेपाल के निचले इलाकों और भारत में बिहार और बंगाल में रहने वाले लोगों की सुरक्षा का प्रश्न सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है और सरकार यह खतरा लेने को तैयार नहीं है। अब क्योंकि पिछले सौ सालों से यह कहा जाता रहा था कि नदियों के किनारे तटबंध बना कर बाढ़ सुरक्षा खोजना भ्रामक है तथा ऐसा करने से बाढ़ प्रलय में बदलेगी और यह कि तटबंधों का निर्माण करके हम आने वाली पीढ़ियों पर एक ऐसा कर्ज लाद रहे हैं जिसका भुगतान सिर्फ तबाही और बरबादी की शक्ल में होगा तब आम आदमी किस तरह से तटबंधों को स्वीकार कर ले। इसके जबाव में पंडित जवाहरलाल नेहरू श्री गुलजारी लाल नंदा, डॉ. श्रीकृष्ण सिंह, पंडित ललित नारायण मिश्र आदि से अपने व्यक्तित्व का फायदा उठाकर तटबंधों के पक्ष में बयान दिये। यह इसलिये किया गया कि आजाद देश के नागरिक यह समझें कि सरकार उनके योग-क्षेम के लिये चिन्तित है और कुछ काम कर रही है। कोसी तटबंध बनने के ठीक पहले और बनते समय भी मधुबनी जिले का घोघरडीहा गाँव तो जैसे तत्कालीन योजना मंत्री श्री नंदा का दूसरा घर बन गया था। कोसी तटबंध इस गाँव के पास से गुजरना था। यहीं से लोगों को कोसी तटबंधों के प्रति पूर्णतः आष्वस्त करने का काम किया गया कि किस तरह अब अंधेरा छंटने ही वाला है। सरकार ने संदेह की धुंध छाटने के लिये इंजीनियरों का भी इस्तेमाल किया। सरकार की तरफ से दो स्वनाम-धन्य इंजीनियर डॉ. केएल. राव जो कि बाद में केन्द्रीय सिंचाई मंत्री बने, तथा श्री कंवर सेन, चीन की नदी घाटी योजनाओं के अध्ययन के लिये चीन भेजे गये और सितंबर 1954 में लगभग चार महीने के प्रवास के बाद लौटे इन इंजीनियरों ने हांग-हो नदी पर बने तटबंधों की तथा वहाँ चल रहे जन सहयोग के प्रयोगों की भूरी-भूरी प्रशंसा की और कोसी पर तटबंधों के निर्माण का जायजा ठहराया और इतने बड़े इंजीनियरों का प्रमाण पत्र पाकर योजना का तकनीकी औचित्य स्थापित हो गया।
मगर यह दोनों तो देशी इंजीनियर थे इसलिये तर्क को मजबूत करने के लिये दो अमेरिकी इंजीनियरों, मैडॉक और टॉरपेन, का तटबंधों के पक्ष में दिया गया बयान नेताओं द्वारा खूब उछाला गया। और क्योंकि अराध्य तटबंध हांगहों नदी पर बने थे इसलिये चीन की वाटर कंजरवेन्सी के मुख्य अभियंता वांग-हू-चेंग से भी ‘अश्वत्थामा हतः नरो वा कुञ्जरो’ की तर्ज पर बयान लेकर उसे भी खूब प्रचारित किया गया। जब कि सत्य यह था कि अमेरिका जैसे समर्थ और धनवान देश में मिस्सिसिप्पी नदी के तटबंध जब से बने (उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध) तब से उनके लिये सिर दर्द थे। सन 1882, 1886, 1905, 1910, 1927 में तटबंधों के बावजूद इस नदी द्वारा बरबादी की कहानियां फिजां में तैर रही थीं और सातवीं ईसा पूर्व में बने हांग-हों तटबंध 1933 में पचास जगह टूट कर लगभग अठारह हजार लोगों की मौत का सामान बन गये। सन 1939 में चीन पर जापानी हमले को नाकाम करने के लिये च्यांग-काई शेक ने हांगहो तटबंधों पर बम गिरा कर जापानी सेना को तो जरूर बहा दिया पर बदले में अपने ही देश के आठ लाख नब्बे हजार लोगों को जल समाधि दे दी थी। सन 1855 से 1954 ई. के बीच में यह तटबंध दौ सौ बार टूटे थे तथा पिछले नौ सौ वर्षों में तटबंधों के बावजूद नदी की धारा 26 बार बदली और इसमें से नौ बार नदी को वापस तटबंधों के बीच लाया नहीं जा सका और नदी की नई धारा पर नये तटबंध बना कर काम चला लिया गया था। इटली की पो नदी की दास्तान भी कुछ अलग नहीं थी। तटबंधों के प्रति जनता के मन में कोई संदेह नहीं रह जाय इसके लिये तटबंध के समर्थकों ने आखिर में एक तुरुप चली। अक्टूबर 1954 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से उत्तर बिहार का दौरा करवाया गया जिसमें उन्होंने जन साधारण से देश के इस महान कार्य में सहयोग की अपील की। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की प्रसिद्धि अब तक तटबंध के प्रखर आलोचक के रूप में थी।
कुछ लोगों के बहुत बोलने और अधिकांश के न बोलने के कारण उत्तर बिहार की नदियां तटबंधों की गिरफ्त में आ गई और अब वह सब कुछ हो रहा है जिसकी जानकारी डेढ़ सौ साल पहले से थी। आज इंजीनियरों से बात कीजिये तो वह कहते हैं कि यदि तटबंध इतने बुरे थे तो लोगों ने बनने ही क्यों दिया? उनका कहना है कि कोसी पर बन रहे तटबंधों का लोगों ने स्वागत किया तथा और खुशी-खुशी अपनी जमीन दी थी। इस कथन में कुछ सच्चाई जरूर है क्योंकि लोगों ने शुरू-शुरू में अपने नेताओं पर बिना कुछ संदेह किये विश्वास किया था मगर जब 1955 और 1956 की बाढ़ के बाद तट-बंध के अंदर वालों को अपने भविष्य का भान हुआ और तटबंध के बाहर वालों को कोसी की सहायक घाराओं के अटके पानी ने तबाह किया तो उसी समय लोगों का तटबंधों के प्रति मोह भंग हुआ और तटबंधों के विरोध में आंदोलन शुरू हुआ। क्या यह सच नहीं है कि जब कोसी का पश्चिमी तटबंध मधुबनी जिले में चुन्नी, टेकुना टोल, मटरस, तरडीहा और महिसाम आदि गाँवों से होकर गुजर रहा था तो तनी हई संगीने आगे-आगे थीं? क्या मधेपुर प्रखण्ड में अगरगढ़ा-धार का मुंह बंद करने का काम 1956 के अंत में इसलिये नहीं रोक दिया गया था कि 1957 के आम चुनाव के बाद बड़ी संख्या में सशस्त्र पुलिस उपलब्ध होगी और तभी यह काम पूरा किया जायेगा? क्या दरभंगा जिले के जमालपुर अंचल में भारत सेवक समाज और सिंचाई विभाग के कर्मचारियों की आरती उतारी गई थी? यहां महिलायें और बच्चे निर्माण कार्य रोकने के लिये तटबंधों पर सो जाया करते थे और कितनी ही घटनायें हुई जब कोसी परियोजना, भारत सेवक समाज और मजदूरों के शिविरों में स्थानीय लोगों ने आग लगा दी थी। उधर पूर्वी तटबंध पर भी सुपौल और बनगाँव आदि में निर्माण कार्यों का प्रबल विरोध हुआ था।
कोसी के बंधने तक गनीमत थी क्योंकि यह काम थोड़ी बहुत तैयारी के साथ किया गया था पर इसके साथ ही बिना किसी बहस-मुबाहसे, तैयारी और यहां तक कि किसी उचित डिजाइन के बिना ही कमला, बागमती, बूढ़ी गण्डक, अधवारा तथा महानन्दा को बांध दिया गया। बागमती का धर्मपुर से बदला घाट तक का तटबंध इसका उदाहरण है। बागमती परियोजना की 1981-82 वाली प्रोजेक्ट रिपोर्ट में इस बात का स्पष्ट वर्णन है कि तटबंधों के बीच की दूरी तथा उनकी ऊंचाई निर्धारित करने में सावधानी नहीं बरती गई थी। और इसी नदी का ढंग से रून्नी सैदपुर तक का तटबंध जब बना तो देश में इमरजेंसी लगी हुई थी जबकि कोई सरकार का विरोध कर ही नहीं सकता था। दबी जवान से और अनाम रहने की शर्त पर बिहार के जल संसाधन विभाग के इंजीनियर यह स्वीकार करते हैं कि बागमती को बांध कर उन्होंने निश्चित रूप से गलती की है। महानन्दा तटबंधों के संदर्भ में बाढ़ और तटबंधों के मुद्दे पर आम जनता, नेताओं और इंजीनियरों की समझदारी में जमीन-आसमान का अंतर था। कमला के तटबंधों को मधुबनी जिले के बाबू-बरही प्रखण्ड में लगभग 13 किमी. की लम्बाई में संगठित होकर लोगों ने बनने ही नहीं दिया था और आज यही क्षेत्र कमला की बाढ़ से बचा हुआ है। बूढ़ी गण्डक और अधवरा के किस्से किसी भी वर्ष के जुलाई से सितंबर तक के समाचार पत्रों में पढ़ने को मिल जायेंगे। गण्डक तो बिहार में पहले से ही कैद थी।
इस पूरे अनुष्ठान का फलितार्थ क्या हुआ। सन 1954 में बिहार की नदियों के किनारे 160 किलोमीटर लंबे तटबंध थे और राज्य का बाढ़ प्रवण क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था और 2002 में तटबंधों की लम्बाई हो गई 3,430 किलोमीटर और बाढ़ प्रवण क्षेत्र जा पहुँचा 68.8 लाख हेक्टेयर पर। इस पतन की कीमत है करीब 1,327 करोड़ रुपये जिसमें व्यवस्था खर्च शामिल नहीं है। यदि उसको भी जोड़ दिया जाय तो बाढ़ नियंत्रण में निवेश लगभग दुगुना हो जायेगा। वह भी बात कम दिलचस्प नहीं है कि राज्य में तटबंधों की लंबाई 1992 में 3,465 किलोमीटर तक हो गई थी लेकिन 2000-2002 के बीच में 35 किलोमीटर लंबाई में यह तटबंध बाढ़ में बह गये। अब इसकी चिन्ता किसी को नहीं है कि बाढ़ नियंत्रण पर किया गया खर्च फायदे की जगह नुकसान पहुँचा रहा है। आज जब तटबंध टूटता है तो सारे संबंध पक्ष यह कह कर दामन झाड़ लेते हैं कि यह ‘असामाजिक तत्वों’ का काम है। कुछ साल पहले तक तटबंध टूटने की जिम्मेवारी को चूहों और लोमड़ियों पर डालने का रिवाज था क्योंकि वह तटबंधों में बिल बनाकर छेद कर देते थे। आज वह चूहे और लोमड़ियां कहीं चली गईं? शायद उन्होंने अपने बिल पटना और दिल्ली में बना लिये। पिछले कुछ वर्षों से एक नया सिलसिला शुरू हुआ कि उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जब भी बाढ़ आये तो यह कहा जाय कि नेपाल द्वारा पानी छोड़ने की वजह से यह बाढ़ आ रही है। यहां भी सरकार आम जनता को जानकारी के अभाव का फायदा उठाती है क्योंकि नेपाल में बागमती घाटी के एक छोटे से बांध के अलावा ऐसी कोई संरचना नहीं है जिससे वह पानी छोड़ सके और निचले इलाकों में बाढ़ आ जाये। गंडक और कोसी नदी पर बराज जरूर बने हुये हैं पर इनका संचालन पूरी तरह से बिहार के जल संसाधन विभाग के हाथ में है और अगर इनसे कोई पानी छोड़ा जाता है तो इसकी पूरी जिम्मेवारी बिहार सरकार और उसके इंजीनियरों की है। यहां नेपाल की कोई भूमिका ही नहीं है।और उन लोगों का क्या हुआ जिनके भले के लिये वह योजनाएं बनी थीं। कोसी तटबंध के बाहर लोग या तो जल जमाव या फिर कोसी नहरों के बावजूद सिंचाई की सुविधा न होने से परेशान हैं। तटबंध के अन्दर की जो स्थिति है उस पर कोई भी बाहरी आदमी विश्वास करने के लिये तैयार नहीं होता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि चालीस वर्षों से 338 गाँवों के लोग हर साल बाढ़ बाढ़/कटाव/बालू-जमाव से बरबाद होते रहें और उनके लिये कुछ भी हुआ न हो। हुआ है-वायदों की सौगात दिल खोल कर बंटी है। घर के बदले घर, जमीन के बदले जमीन, दरवाजे पर सारी नागरिक सुविधाओं का प्रबंध, प्रत्येक परिवार के एक सदस्य को कोसी परियोजना में नौकरी जैसे कितने ही सब्जबाग दिखाये गये हैं। जब भी कहीं से कोई आवाज उठी तो कुछ आश्वासन और दे दिये गये। जब यह तय हो गया कि इस तरह का पुनर्वास नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो इतनी जमीन उपलब्ध हो सकेगी और न ही इतनी नौकरियों या ठेकेदारी, तब योजना पीड़ितों के लिये आर्थिक पुनर्वास की बात उठी। आर्थिक पुनर्वास के लिये 1982 में चन्द्रकिशोर पाठक कमेटी की रिपोर्ट तैयार की गई। परियोजना पर काम शुरू होने के 32 साल बाद 1987 में जाकर पाठक कमेटी की सिफारिशों के आधार पर ‘कोसी पीड़ित विकास प्राधिकरण’ बनाया गया है जिसकी संस्थापना के परचे पूरे इलाके पर हेलिकाप्टरों से गिराये गये जिसमें कितने ही दुःख हरण नुस्खे लिखे गये थे। यह अब एक चुनावी मुद्दा बन गया है जिसमें राजनेता इस आश्वासन के बदले वोट मांगते हैं कि यदि वह चुन कर आ गये तो ‘कोसी पीड़ित विकास प्राधिकरण’ को कार्यकारी बनायेंगे। इस तरह का आश्वासन देने में वह लोग भी शामिल है जिन्होंने कोसी तटबंधों के निर्माण में अहम भूमिका निभाई थी।
कमला और कोसी के तटबंधों के बीच जो बाढ़ नियंत्रण के नाम पर प्रहसन हुआ है उसी का परिणाम है कि 1994 में दरभंगा जिले के कुशेश्वर स्थान को पक्षी अभ्यारण्य घोषित करना पड़ गया। इस प्रखण्ड में कमला कोसी तथा करेह नदी का पानी आकर इकट्ठा हो जाता है जिसकी निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है क्योंकि नदियों के तल तटबंधों के कारण ऊपर उठ गये हैं। यहां साल में लगभग बारहों महीने नाव चलती है। जमींदार अब पानीदार हो गये हैं। धान की जगह जलकुम्भी की फसल होती है। ऐसे में पर्यटन के विकास के लिये इस प्रखण्ड को पक्षी अभयारण्य बना दिया गया। इटली के पीसा नगर में एक मीनार है जो कि नींव बनाते समय हुई गड़बड़ियों के कारण एक ओर को झुक गई। सीधी मीनारें तो सारी दुनियां में हैं पर तिरछी मीनार तो पीसा की ही है जिसे देखने के लिये सारी दुनियां से पर्यटक आते हैं। ऐसी ही एक लापरवाही और तकनीकी भूल की पैदाइश है आज का कुशेश्वर स्थान जिसे भविष्य में देखने के लिये पर्यटक आयेंगे। तकरीबन 1,24,000 हेक्टेयर जमीन इस इलाके में पानी में डूबी है और यह वह जमीन है जिसे पश्चिमी कोसी नहर से सींचने का कार्यक्रम था और खुशनसीबी से इस नहर का काम पूरा नहीं हुआ है। इस जमीन की एक और खासियत है। इस पर कोसी तथा कमला तटबंधों के अंदर के बहुत से गाँवों को पुनर्वास मिला हुआ था मगर बदनसीबी ने उनका पीछा यहां भी नहीं छोड़ा। पुनर्वास की जमीन डूबने पर वह वापस अपने गाँव चले गये जहाँ वह हर साल कोसी या कमला की बाढ़ के थपेड़े झेलते हैं। वास्तव में कोसी तटबंध के अंदर के 338 गाँवों के लगभग आठ लाख लोग जो यंत्रणा भुगत रहे हैं उससे कहीं ज्यादा यातना तटबंध के बाहर तथाकथित सुरक्षित क्षेत्र वाले लोग भोग रहे हैं। कोसी कमला तटबंधों के बीच बसे गाँवों की बाढ़ समस्या का अध्ययन करने के लिये पहली समिति 1959 में केन्द्रीय जल आयोग ने गठित की थी और प्राप्त जानकारी के अनुसार अंतिम प्रस्ताव 1988 का है जिसमें 52 करोड़ रुपयों की एक जल निकासी की योजना का प्रावधान है। इधर हाल में कुछ कार्यक्रम गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग ने भी जल निकासी के लिये बनाये हैं। इसका आज तक प्रभाव कार्यान्वयन नहीं हुआ है। केवल संख्या का अंतर है गण्डक, बूढ़ी गण्डक, कमला, बागमती तथा महानन्दा नदी के संदर्भ में, पर बाकी परिस्थितियां लगभग एक जैसी हैं।
आज हालात यह है कि इन योजनाओं के कारण कितने ही घर और बस्तियां उजड़ीं और कितने ही लोग प्रान्त से बाहर जाकर रोजी-रोटी कमाने को मजबूर हुये। पति के रहते हुए कितनी ही औरतें वैधव्य काटने को अभिशप्त हैं तो बिहार के बच्चों का बचपन उजाड़ कर ही वाराणसी, भदोही, मिर्जापुर तथा इलाहाबाद का कालीन उद्योग पनप रहा है। आखिर सहरसा, मुजफ्फरपुर, कुनौली जैसी जगहों से दिल्ली या जलंधर के लिये सीधी बसों की व्यवस्था अकारण नहीं है। पटना से भदोही के लिये सरकारी बस की सुविधा का निहितार्थ समझना भी कठिन नहीं है। श्रमजीवी एक्सप्रेस का नाम अजातशत्रु एक्सप्रेस या श्रमशक्ति एक्सप्रेस का नाम तीरमुक्ति एक्सप्रेस से भी हो सकता था मगर ऐसा नहीं है, रखे गये नाम सच्चाई के ज्यादा नजदीक हैं। आज बिहार अपनी उपजाऊ जमीन, तथा प्रचुर जल संसाधन के बावजूद सस्ता श्रम उपलब्ध करने का एक केन्द्र बन कर रहा गया है।
आज बिहार के जल संसाधन मंत्री मानते हैं कि कोसी को छोड़कर बिहार की अन्य नदियों पर तटबंध बनाकर बड़ी भूल हुई और यह तटबंध राजनैतिक है। वह ऐसा शायद इसलिये कहते हैं कि क्योंकि जब तटबंध बने तब राज्य में दूसरी पार्टी का शासन था और जाहिर है कि दूसरों की गलती का जिम्मेदार तो किसी और को भी ठहराना गलत है। मगर पिछले कई वर्षों से बिहार के जल संसाधन विभाग की वार्षिक रिपोर्ट लगातार यह कह रही है कि उनके द्वारा 872 किलोमीटर लम्बे तटबंध बनाये जाने हैं और संसाधनों की कमी से यह काम नहीं हो पा रहा है। अब किस पर विश्वास किया जाय, मंत्री महोदय पर या उनके विभाग पर। सच शायद यह है कि लोगों को गुमराह करने का जो सिलसिला पचास के दशक में शुरू हुआ था वह अभी रूका नहीं है। अब यह कहा जाता है कि जब तक नेपाल में बराह क्षेत्र में कोसी पर 280 मीटर ऊंचा बांध नहीं बनेगा तब तक बाढ़ समस्या का समाधान नहीं होगा। वैसे यह बात बड़ी गंभीरता के साथ पिछले पचपन वर्षों से कही जा रही है। नेपाल में कोसी पर बन रहे अरूण-3 बांध के निर्माण में जनता के तीव्र विरोध और विश्व बैंक द्वारा पैसा बन्द कर देने और वहाँ निर्माण कार्य ठप्प होने के बावजूद बड़े बांध बनाने वालों के हौसले बुलन्द हैं क्योंकि यह मानकर चला जाता है कि नेपाल में होने वाली घटनाओं की जानकारी आम भारतीय को नहीं है। इन बांधों के निर्माण के लिये पैसा कहाँ से आये और हमारा देश इस खर्च को उठा पाने में सक्षम है या नहीं यह बात अभी कही नहीं की जा रही है। मौजूदा बाजारी अर्थव्यवस्था में नेपाल में प्रस्तावित इन बांधों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां रूचि दिखा रही हैं। वह इन बांधों से बिजली पैदा कर के भारत को बेचेंगी और नेपाल को इसकी रॉयल्टी देंगी। जाहिर है बाढ़ नियंत्रण इन बहु-राष्ट्रीय कंपनियों की भूमिका को लेकर भारत की राजनैतिक पार्टियां में बड़ी उहा-पोह की स्थिति है। वह हर वर्ष फरवरी-मार्च के महीने में इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ रैलियां निकालती हैं और अगस्त महीने में कहती है कि नेपाल में शीघ्र बांध बनना चाहिए जो कि अब यही कंपनियां बनायेगीं इसलिये यह मसला पेचदार हो जाता है। इसके अलावा महाराष्ट्र में एनरान के साथ हमारे अनुभव कुछ सुखद नहीं रहे हैं।
तटबंध कम लागत की योजना थी, उससे तबाही भी कम ही हुई। हाई डैम बड़ी लागत से बनेंगे, बड़ी संरचना होगी और उनसे तबाही भी बड़ी होगी। यह बांध अगर पचास साल पहले बन गया होता तो एक संभावना थी पर अब जबकि सारी दुनियां में हर स्तर पर इनका विरोध हो रहा है, इनके कार्यान्वयन पर स्वतः ही संदेह होता है। जहाँ तक बराह क्षेत्र बांध का प्रश्न है, सन 1954 में बिहार विधान सभा में तकनीकी रिपोर्टों का हवाला देते हुए तत्कालीन मंत्री अनुग्रह नारायण सिंह ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि बराह क्षेत्र बांध से नेपाल के निचले इलाकों और भारत में बिहार और बंगाल में रहने वाले लोगों की सुरक्षा का प्रश्न सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है और सरकार यह खतरा लेने को तैयार नहीं है। इधर अपने देश में सरदार सरोवर, टिहरी बांध और सुवर्णरेखा का काम गैर-तकनीकी कारणों से अक्सर रुका रहता है और कायेल-कारो परियोजना को तो शिलान्यास करने वाला कोई नहीं मिल रहा है। ऐसी स्थिति में नेपाल के प्रस्तावित बांधों का क्या होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। यूं भी बाढ़ नियंत्रण इन बांधों के परिप्रेक्ष्य में एक बहुत ही कम महत्व का मुद्दा है। यह बांध तो मुख्यतः बिजली उत्पादन के लिये बनेंगे चाहे, वह पंचेश्वर हो या कर्नाली या फिर बराह क्षेत्र। मगर यह तथ्य जनता को बाद में बताया जायेगा।इन सारे प्रश्नों पर एक पुनरावलोकन और खुली बहस की जरूरत है। जिससे आम लोगों के सामने तथ्य आ सकें जिसके आलोक में लोग अपनी राय कायम कर सकें। यह एक अच्छी बात है कि कुछ दिनों से तकनीकी लोग ‘बाढ़ नियंत्रण’ के स्थान पर ‘बाढ़ प्रबंधन’ शब्द का प्रयोग करने लगे हैं। कहीं न कहीं उनको लगने लगा है कि बाढ़ पर नियंत्रण संभव नहीं है इसलिये अपनी औकात का थोड़ा बहुत अंदाजा उन्हें हुआ है और उनका दम्भ टूटा है, मगर प्रकृति के साथ साहचर्य की दिशा में अभी सही शुरुआत भी नहीं हो पाई है। आदिकाल से नदियों के सामने अकड़ कर खड़े हुए बरगद के पेड़ को नदियों ने सीधा समुद्र में लाकर डाल दिया है पर नदियों के सामने विनम्र रूप से खड़े बेंत का समुद्र अभी भी प्रतीक्षा ही कर रहा है। यह बात एक न एक दिन समझनी और माननी पड़ेगी। केवल ‘बाढ़ नियंत्रण’ को ‘बाढ़ प्रबंधन’ कह देने से काम नहीं चलेगा।
बाढ़ पर बहस का मुद्दा उठाने पर एक खतरे की ओर इशारा करना सामयिक होगा। सूखे पर तो बहस पूरे साल चल सकती है क्योंकि उसका विस्तार और अवधि ज्यादा होती है पर बाढ़ एक अल्पायु प्रश्न है, केवल तीन माह बातचीत होती है, इस विषय पर। राजनीति की यह कोशिश रहती है बात कभी भी पॉलीथीन, राशन, नमक, मोमबती या दियासलाई से आगे न बढ़े और तकनीकी समुदाय इस कोशिश में लगा रहता है कि किसी दुर्घटना का तात्कालिक आक्षेप उस पर न आये, और अधिकतर यह लक्ष्य सफलतापूर्वक प्राप्त कर लिया जाता है, क्योंकि समय तो केवल तीन महीने का है। उसके बाद तो बाढ़ पीड़ित भी इस घटना को एक दुःस्वप्न मानकर उसे भूल जाना चाहता है क्योंकि अब तो प्रश्न वैसे भी दो वक्त की रोटी पर अटक जाता है। जब तक बात नमक, दियासलाई या मोमबत्ती और इन्कवायरी कमेटी की रिपोर्ट की हदों से बाहर नहीं आयेगी। तब तक बाढ़ की समस्या पर चर्चा का कोई भी प्रयास सार्थक नहीं होगा। ऐसे में सब कुछ यथावत चलता रहेगा और बाढ़ आती रहेगी।
(लेखक की पुस्तक ‘दो पाटन के बीच में’ से साभार संकलित)
ऐसे आती है बाढ़ (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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