आईआईएम कोझिकोड और जल स्वावलम्बन

iim kozhikode
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आईआईएम कोझिकोड केरल का कोझिकोड सघन वर्षा का क्षेत्र है। साल में 300 मिलीमीटर से ज्यादा वर्षा होती है। लेकिन, कोझिकोड में नए जमाने की पढ़ाई करने के लिये बनाए गए व्यावसायिक संस्थान को फिर भी पानी की समस्या रहती थी। कोझिकोड आईआईएम को जब अपने कैम्पस में पानी की किल्लत दूर करने की जरूरत महसूस हुई तब उन्हें नए जमाने की कोई तकनीकी समझ नहीं आई। उन्होंने पानी बचाने के परम्परागत तरीकों को अपनाना ही बेहतर समझा।

आईआईएम कोझिकोड कैम्पस में जल संरक्षण का पहला प्रयास साल 2000 में शुरू हुआ। उन्हें मालूम हो गया था कि किसी बाहरी स्रोत से उनकी पानी की जरूरतें पूरी नहीं होंगी इसीलिये इसे संस्थान के कैम्पस से ही पूरा करने का प्रयास शुरू किया गया। कैम्पस 96 एकड़ में फैला है।

कैम्पस, कोझिकोड के ऐसे इलाके में बसा है जहाँ भूमि समतल नहीं है। यह एक पहाड़ी इलाका है। यहाँ चार सौ लोग स्थायी तौर पर रहते हैं और नियमित आने जाने वाले लोग अलग हैं। आदमी के अलावा यहाँ पेड़-पौधों और घास के मैदान को भी नियमित तौर पर पानी की जरूरत रहती थी ताकि कैम्पस की सुन्दरता में कोई कमी न रहे। कुल मिलाकर रोजाना करीब एक लाख लीटर पानी की जरूरत थी।

पानी की कमी को पूरा करने के लिये जो योजना बनाई गई उसके तहत तय किया गया कि कैम्पस के पानी को ही रेनवाटर हार्वेस्टिंग तकनीक के जरिए रोका जाएगा। इसके साथ ही यह भी तय किया गया कि कैम्पस से निकलने वाले गन्दे पानी का शोधन करके उसे दोबारा इस्तेमाल करने लायक बनाया जाये। अब करीब डेढ़ दशक बाद आज आप आईआईएम कोझिकोड को देखेंगे तो महसूस करेंगे कि नए जमाने के व्यावसायिक भवनों को इसी तरह अपना पानी बचाना चाहिए।

सम्भवत: आईआईएम कोझिकोड, केरल का पहला और इकलौता ऐसा संस्थान है जिसने इतने बड़े स्तर पर अपना पानी बचाने का काम किया है। बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता कि आईआईएम अपना सारा पानी बचा लेता है। लेकिन यह जरूर है कि यहाँ दो तिहाई वर्षाजल संचयन आसानी से कर लिया जाता है। जहाँ यह कैम्पस बना है वहाँ का सारा पानी रोक पाना सम्भव भी नहीं है क्योंकि पहाड़ी से नीचे आने वाला कुछ पानी बहकर बाहर चला ही जाता है।

केरल में बहुत से ऐसे शिक्षण संस्थान हैं जिनके पास बड़े कैम्पस हैं लेकिन वो अपना पानी पैदा नहीं करते हैं। आईआईएम कोझिकोड इस मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो चुका है। उसने इसके उपाय किये। सबसे पहले वर्षाजल संचयन के लिये एक 1.5 एकड़ का तालाब बनाया। यह तालाब दोहरा फायदा देता है। इससे भूजल रिचार्ज होने के साथ-साथ फरवरी तक कैम्पस की पानी की जरूरतों को पूरा किया जाता है। जहाँ तक पहाड़ी से आने वाले पानी का सवाल है उसे सीधे कैम्पस तक नहीं लाया जा सकता था इसीलिये उस पानी को रोकने के उद्देश्य से आस-पास के इलाकों में वर्षाजल संचय करने की योजना बनाई गई। आसपास के कुछ एकड़ जमीन में यह पानी इकट्ठा होता है जो कैचमेंट एरिया की तरह काम करता है।

इस कैचमेंट में इकट्ठा होने वाला पानी बड़े तालाब को रिचार्ज करने का काम करता है। तालाब ओवरफ्लो न हो जाये इसके लिये तालाब की मेड़बंदी की गई है। इसके बावजूद यह सम्भव नहीं है कि पहाड़ी इलाके से जब पानी नीचे की तरफ आता है तो सारा-का-सारा पानी रोक लिया जाये इसीलिये कैम्पस से बाहर जाने वाले पानी को एक नहर में भेज दिया जाता है। तालाब में जो पानी इकट्ठा होता है उसे एक पम्प के जरिए पहाड़ी पर बनाई गई टंकी में चढ़ाया जाता है। यही पानी घरेलू इस्तेमाल सहित पीने के लिये प्रयोग में लाया जाता है। चूँकि, कैम्पस बनने के साथ ही वर्षाजल संरक्षण की योजना भी बना ली गई थी इसीलिये छतों को इस प्रकार से बनाया गया है कि वर्षा के पानी के साथ पत्ते बहकर न आएँ।

सवाल यह उठता है कि एक सरकारी संस्थान ने इतनी बुद्धिमानी का काम भला कैसे कर लिया? संस्थान के सिविल इंजीनियर राजीव वर्मा कहते हैं कि ये टीम वर्क का प्रभाव है। इसे आप सामूहिक सोच का परिणाम भी कह सकते हैं। उस वक्त हमारे जो डायरेक्टर थे उनका नाम अमरलाल कालरो था। वो एक खुले दिमाग के आदमी थे और नए विचारों का हमेशा स्वागत करते थे। हमें उस वक्त पानी मिलने की कहीं से कोई खास उम्मीद भी नहीं थी। इसलिये हमने वर्षाजल संरक्षण पर विचार किया और नतीजा आपके सामने है।

उस वक्त जब पहाड़ी से नीचे आने वाले पानी के संरक्षण के बारे में विचार किया गया तो भूमि के कटाव का खतरा एक बड़ी समस्या थी क्योंकि वर्षाजल पहाड़ी से सीधे ढलान पर आता था। पहाड़ी की ऊँचाई करीब 80 मीटर है। आईआईएम के सभी भवन यहाँ तक कि स्टाफ क्वार्टर भी पहाड़ी पर ही हैं। कैम्पस में पहुँचने के लिये जो सड़कें बनाई गई थीं उससे भी मिट्टी के कटाव का खतरा पैदा हो गया था। इसीलिये वर्षाजल संरक्षण के काम में लगे लोगों ने पहाड़ी पर कंटूर लाइन बनाना शुरू किया। पहाड़ी पर जो खड्डे पहले से थे उन्हें सुधारा गया और कुछ नए खड्डे भी तैयार किये गए जो पानी को रोकने का काम करते थे।

ऐसे कई अन्य प्रयोग किये गए जिससे बहते पानी को रोका जा सके और उसका साल भर इस्तेमाल किया जा सके। इसके अलावा कैम्पस में स्थित घास का मैदान एक ऐसी विशेषता है जो आज आईआईएम कोझिकोड की पहचान बन गया है। पहाड़ी पर बने इस कैम्पस का घास का मैदान आज लोगों के लिये आकर्षण का केन्द्र है। इस घास के मैदान को बनाने और बचाने की कहानी भी बड़ी सुझबूझ भरी है।

कैम्पस में घास का मैदान बनाने के लिये जमीन पर पहले जूट की चटाई बिछाई गई और फिर घास की एक खास प्रजाति लगाई गई। जूट की चटाई बिछाने का मकसद ये था कि बारिश में मिट्टी के बहाव को रोका जा सके जिससे घास तथा मैदान दोनों सुरक्षित रहें। यह प्रयोग तो सफल रहा लेकिन एक समस्या थी। घास की जिस प्रजाति का चुनाव किया गया था गर्मियों में उसकी नियमित सिंचाई करनी पड़ती थी। महीने में दो बार। यह पानी का अतिरिक्त खर्च था जो कैम्पस की जरूरतों को पूरा करने में मुश्किल पैदा कर रहा था। इसीलिये घास की ऐसी प्रजाति लगाई गई जिसे गर्मियों में भी बहुत कम पानी की जरूरत पड़ती थी। समय के साथ जूट की चटाई जमीन में समा गई और आईआईएम कैम्पस एक हरे-भरे कैम्पस के रूप में जाना जाने लगा।

सिर्फ 80 लाख रुपए की लागत से बनाई गई ये व्यवस्था आज केरल ही नहीं बल्कि पूरे देश के व्यावसायिक संस्थानों के लिये एक मिसाल है।

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IIM-Kozhikode, water scarcity, rainwater harvesting, pond.


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