आहर-पइन एवं गोआम ही क्यों?

आहर-पइन सिंचाई प्रणाली
आहर-पइन सिंचाई प्रणाली

आहर-पइन आधारित खेती पर दक्षिण बिहार के अधिकांश गाँव निर्भर हैं। गैर-नहरी क्षेत्रों में तो आहर-पइन से खेतों की सिंचाई होती ही है, कोयल, सकरी, सोन, दुर्गावती आदि नदियों से निकाली गई नहरों के इलाकों में भी आहर-पइन से सिंचाई हो रही है। आहर-पइन वाले इलाकों के किसान निर्भर तो इसी पर हैं पर सपना अभी भी नहरों का देख रहे हैं।

यह किताब किसानों को सपनों की दुनिया से निकालकर अपनी जोत-जमीन की हकीकतों वाली दुनिया में लाने के लिए लिखी गई है। इसमें नया कुछ भी नहीं हैं, भूली-बिसरी बातों को याद दिलाया गया है, अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों का भी स्मरण कराया गया है। आहर-पइन आधारित खेती हजारों सालों के अनुभव, प्रयोग एवं सुधार पर विकसित पूर्णतः सफल पद्धति है।

पइन एवं आहर की युगलबंदी से मगध का पूरा क्षेत्र खेती में उन्नत था। पालि ग्रंथों के अनुसार यहां के गाँव आरंभिक स्तर पर ही साढ़े तेरह सौ भिक्षुओं वाले संघ को भोजन कराने में सहज सक्षम थे। ये जलस्रोत भी ऐसे कि उनसे हुए अनिष्ट का कोई वर्णन इतिहास में नहीं मिलता। हिमालय की झीलों या बाँधों के टूटने से हुई विनाश लीला की चर्चा तो होती है लेकिन मगध के किसी जलाशय से विनाश की नहीं।

आहर वैसा जल भंडार है, जो खरीफ की फसल के लिए पानी संग्रह करता है। रबी की खेती आहर से पानी निकालकर की जाती है। आहर, पइन आदि संरचनाएँ अनिवार्यतः त्याग एवं सामूहिकता सिखाती हैं। यहाँ नदियों का स्वभाव है कि उनका तट पास की जमीन से ऊँचा हो जाता है। नदी से जहाँ पर पईन या नहर निकाली जाती है, प्रायः उस स्थान के लोग या तो पानी से वंचित रह जाते हैं या बहुत कम लाभ उठा पाते हैं। जिसकी जमीन पानी में डूबती है, वह कम लाभ उठाता है।

इस प्रकार पानी का स्वभाव धार्मिक है। इसका मिजाज संतों की धार्मिकता वाला है। जैसे संत, बोधिसत्व, साधु, फकीर आदि साधना की उच्च भूमि से उतरकर लोक कल्याण के लिए बिना भेद-भाव घूमते रहते हैं, वैसे ही बहता पानी निर्मल होता है। रमता योगी, बहता पानी ही ठीक रहता है। रमने एवं बहने में एक बात छुपी हुई है। पानी को पूर्णतः रोककर रखा नहीं जा सकता है। धान की खेती वाले इलाके में लोकमान्य नियम है कि आप जिसकी ओर अपनी जरूरत से अधिक पानी को छोड़ते हैं या जाने देते हैं उनका हक बनता है कि आपकी जमीन, नदी, नाले, आहर, तालाब आदि संरचनाओं से पानी प्राप्त करें। ऐसे पानी को कहीं-कहीं निगार भी कहते हैं। 

आज व्यक्ति से लेकर राजा तक, अधिकांश लोग पानी की सामुदायिकता को नष्ट करना चाहते हैं फिर भी यह नष्ट होने वाला नहीं है। क्या कोई भी वर्षा जल को पूर्णतः रोक सकता है ? जलस्रोतों का निर्माण सामुदायिक किंतु धार्मिक भाव से किया जाने वाला परोपकारी कार्य है। अंग्रेज़ों को और उनकी विरासत वाले भारतीय शासकों को यह बात पसंद नहीं आती। वे लोक, समूह, गाँव एवं समाज की सामूहिकता तथा स्वायत्तता के विरुद्ध हैं।

आज आधुनिक साइंस एवं इंजीनियरिंग को देखकर कुछ लोगों को लगता है कि संसार की सारी समस्याओं का समाधान उन्ही कुछ लोगों के पास है और बाकी के लोग मूर्ख हैं। आहर-पइन आधारित खेती भी तो पुरानी बात है। परंतु यह भ्रम अब टूट गया। पानी की व्यवस्था के बारे में अब भेद उजागर हो गया कि नहरें तो पानी की लूट पर निर्भर हैं। जो लुट गया वो रोता है और लुटेरे अपने को साहब बहादुर की तरह महसूस करते हैं, जब तक उनका पानी भी कोई दूसरा लूट न  ले। सोन में पानी की कमी पड़ गई है। उत्तर-प्रदेश एवं मध्यप्रदेश के बाँधों से बचा पानी ही आ सकता है।

इसका बुरा प्रभाव हो रहा है और नहरी क्षेत्रों में भी किसानों को पर्याप्त तथा समय पर ठीक से पानी नहीं मिल रहा है।
तब हम क्या करें? किसी नई नहर के बनने की आशा एवं दुविधा में अनिश्चित काल तक हाथ धरे बैठे रहें या अपने आहर एवं पइन की मरम्मत कर खेती में सफल हो जायें ? मैं आपकी सफलता का हिमायती एवं पैरवीकार हूँ, आशा में बरबाद होने का नहीं।

इन आहर-पइनों की देखरेख, मरम्मत, पानी के बँटवारा आदि की सारी व्यवस्था किसानों की सहभागिता पर आधारित है। इन कामों की पहल एवं संयोजन का काम स्वतंत्रता प्राप्ति एवं जमींदारी उन्मूलन के पहले जमींदार एवं गांव के 'जेठ रैयत' करते थे। आज आजादी के बाद किसान 'गोआम' तो करते हैं किंतु इसकी संगठित एवं कानूनी प्रावधानों के अनुरूप व्यवस्था नहीं है। इस सहभागिता आधारित सिंचाई को कानूनी भाषा में 'प्राइवेट एरिगेशन' कहते हैं।

नए कानून एवं सरकारी नियमावली 2003 में भी इसे 'प्राइवेट एरिगेशन' ही कहा गया है। नहरी क्षेत्र में भी अब पानी की व्यवस्था की जिम्मेवारी से सरकार अपने को पीछे हटाते हुए किसी भी व्यावसायिक / गैर व्यावसायिक संस्था, कंपनी या किसानों के संगठन को भी प्रमुखता के आधार पर पूरी सिंचाई प्रणाली के प्रबंधन, रखरखाव, पानी के बँटवारे एवं सिंचाई शुल्क वसूलने का काम सौंप रही है। किसानों के ऐसे संगठन को 'वाटर यूजर एसोसिएशन' कहा जाता है।

गैर नहरी क्षेत्रों में विभिन्न संस्थाएँ पइन चलाने के काम में आगे आ रही हैं। यहाँ तक तो खैरियत है लेकिन खतरे की बात यह है कि व्यापारिक संस्थाएँ कल किसानों से मनमाना पैसा वसूलेंगी जो अभी तक जन सहभागिता आधारित बिना शुल्क सिंचाई कर रहे हैं। इस कार्य के लिये सरकार से सहायता एवं अनुदान भी मिलता है। इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि किसान स्वयं विधिवत संगठित होकर अपनी गोआम कमिटियों का गठन करें और बाहरी कंपनियों / ठेकेदारों को पानी की व्यवस्था पर बाजारू एकाधिकार करने से रोकें अन्यथा मनमाना वसूली का कष्ट झेलना पड़ेगा। यह काम अपने एवं आनेवाली पीढ़ी के हक में बहुत ही जरूरी है।

अभी भी बहुत सारे किसानों को इस कानूनी बदलाव और बाजारीकरण की जानकारी नहीं है। अतः मगध जल जमात इस जानकारी के साथ आप सभी किसानों से अनुरोध करता है कि समय से सजग होकर विधिवत अपना संगठन स्वयं बनाकर अपने अधिकारों एवं हितों की रक्षा के लिए आगे आएं। आपकी सुविधा के लिये मगध जल जमात की ओर से जिला स्तरीय गया जिला आहर-पइन गोआम समिति संघ का विधिवत् निबंधन कराया गया है। इसमें जिले की सभी गोआम समितयां रहेंगी। हमारे साथी गांव-गांव घूमकर यह काम करा रहे हैं। इसकी सदस्यता के बाद आपको निबंधन की समस्या भी नहीं होगी और बड़े संगठन का लाभ भी मिलेगा। संगठन जरूरी है, निबंधन तो केवल सहायता एवं सुविधा के लिए है।

स्रोत-निवेदक
रवीन्द्र कुमार पाठक संयोजक
मगध जल जमात 

Path Alias

/articles/ahar-pain-evam-goam-hi-kyon

×