पश्चिमी उत्तर प्रदेश आज जल संकट की जबरदस्त मार झेल रहा है। यहां आज पीने और कृषि दोनों के लिए पानी की कमी है। जब पीने को पानी नहीं रहेगा और न ही कृषि के लिए, तो जनजीवन का क्या होगा? आज इसी सवाल से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता दो-दो हाथ कर रही है। लेकिन ये स्थितियाँ अचानक नहीं खड़ी हो गई हैं। इसके अनेक कारण रहे हैं। जनता भी उतनी ही दोषी है, जितनी आज और कल की सरकारें। पानी का अंधाधुंध दोहन होता रहा है। किसानों ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि ऐसे उन्मुक्त दोहन से क्या हो सकता है? वैसे इसमें किसानों का भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि उन्हें बताने वाला कोई नहीं था। सरकार ने सिर्फ इस बात पर ध्यान दिया कि किसानों का मुंह कैसे बंद रखा जाए। कभी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर तो कभी उर्वरकों पर सब्सिडी बढ़ाकर। कभी यह नहीं सोचा गया कि आखिर जब पानी रहेगा, तभी तो इन सब चीजों की जरूरत पड़ेगी। आज जो पानी की कमी की बात की जा रही है, वह कोई नई नहीं है। पहले भी सरकारी और गैर सरकारी संगठन इस समस्या की तरफ उंगलियां उठाते रहे हैं, लेकिन हुआ कुछ नहीं। लघु सिंचाई एवं सिंचाई विभाग सिर्फ गड्ढे खोदने में लगे रहे और गलत पंप और हैंडपंप बनाते रहे। आगरा मंडल के तहत जो जिले आते हैं, वे हैं आगरा, मथुरा, हाथरस एवं फिरोजाबाद। पहले अलीगढ़ भी इसी मंडल के अंतर्गत था। अलीगढ़ की बात यहां इसलिए जरूरी है, क्योंकि वहां भी यही समस्या है। याद रखने की बात है कि यह पूरा इलाका गहन कृषि क्षेत्र है। यहां पानी का अधिकाधिक प्रयोग बहुत पहले से होता आ रहा है। पूरे क्षेत्र की संपन्नता और रोजगार कृषि पर ही आधारित है। इस कारण यहां पर पानी की कमी किसी भी शहरीकृत क्षेत्र से अधिक चिंतित करने वाली है।
आज दुनिया इस बात पर लड़ रही है कि पर्यावरण को किसने ज्यादा नुकसान पहुंचाया और किसने प्रकृति का अधिक दोहन किया है। बड़ी-बड़ी कांफ्रेंस होती हैं, बड़े-बड़े देशों के पर्यावरणविद् एवं मंत्री भाषण देते हैं, पर्यावरण और धरती की अमूल्य धरोहरों को बचाने की कसमें खाते हैं, लेकिन नतीजा ढाक के वही तीन पात। उसी पुराने ढर्रे पर ही जीवन चलता रहता है, दोहन होता रहता है, चाहे पानी का हो या तेल का। पानी कितना अमूल्य है, यह कोई बताने की बात नहीं है। बिन पानी न तो मानव रह सकता है और न ही पशु और वनस्पति जगत, लेकिन सरकार ने इस बहुत बड़ी सच्चाई से मानो मुंह मोड़ रखा है। आज स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि इस पूरे क्षेत्र में पानी साठ से सत्तर मीटर गहराई में पाया जाता है। यह पानी भी कोई बहुत मीठा या पीने के लिए पूरी तरह उपयुक्त नहीं है। सिर्फ यह है कि इस पानी से किसी तरह काम चल सकता है। मतलब यह है कि पानी खारा तो है, लेकिन बाकी जगहों से कम। बात यह है कि पीने या खेती करने के लिए पानी एक स्तर तक ही खारा हो सकता है। अगर बहुत खारा पानी है तो वह न पीने के काम आ सकता है और न खेती के लिए, क्योंकि अगर ज्यादा खारा पानी सिंचाई के काम में ले लिया जाए तो जमीन यानी खेत के ऊसर हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है। इस स्तर का पानी पशुओं को भी पिलाने के काम नहीं आ सकता। ऐसा नहीं है कि इस पानी को खेती के लिए उपयोग करने के बारे में सोचा नहीं गया। लेकिन एक और समस्या है कि यह पानी तैलीय है। मतलब इसमें तेल है। तेल होने की वजह से यह पानी खेत की मिट्टी में समाता ही नहीं, ऊपर ही रह जाता है। जिस स्तर तक पानी है, मतलब साठ से सत्तर मीटर तक, जाहिर है कि इसी स्तर तक के पानी का दोहन किया जा सकता है। यही किया भी गया है, लेकिन इसका दुष्प्रभाव यह रहा कि पानी का स्तर और नीचे गिर गया है। मतलब यह कि अब लोग उस स्तर की अंतिम सीमा पर पहुंच गए हैं, जहां से खारा पानी शुरू होता है और यह पानी किसी काम का नहीं है। दरअसल आगरा जनपद और आसपास के इलाकों की स्थिति इतनी खराब नहीं थी। 1980 में यहां का जलस्तर सामान्य था। 1996 में जलस्तर घटकर 34 मीटर चला गया। अगले दस सालों में यह जलस्तर भयावह रूप से 42 मीटर चला गया और 2010 आते-आते 45 मीटर तक। पूरे क्षेत्र में 1280 सरकारी और 68000 गैर सरकारी ट्यूबवेलों से अंधाधुंध पानी की निकासी की जा रही है। फिरोजाबाद में भी यही स्थिति है। मथुरा और अलीगढ़ क्षेत्रों में भी 2-4 मीटर का ही अंतर है।
समस्या यहीं खत्म नहीं हो जाती। जैसा कहा गया है कि पानी का स्ट्राटा (वह आखिरी सीमा, जहां तक ठीक पानी मिलता है) 60-70 मीटर है और स्तर 40-45 मीटर है। यह जलस्तर लगातार दोहन की वजह से गिरता जा रहा है। हर साल एक से डेढ़ मीटर की गिरावट दर्ज की जा रही है। ऐसा अनुमान है कि अगर जलस्तर इसी मानक से गिरता रहा तो दस-पंद्रह साल में सारा मीठा पानी खत्म हो जाएगा। यदि यह पानी खत्म हो गया तो फिर क्या होगा? क्योंकि आगे का पानी तो बस नाम का पानी है, जिसका प्रयोग मुमकिन नहीं है। मतलब यह है कि सारी खेती खत्म हो जाएगी, सारे पशु या तो मर जाएंगे या भाग जाएंगे। जहां तक लोगों की बात है, उन्हें भी पलायन के लिए मजबूर होना पड़ेगा। आज का आगरा, जो ताजमहल के लिए विश्व प्रसिद्ध है, रेगिस्तान बनकर रह जाएगा और पर्यटक ऊंची कीमतों पर पानी खरीद कर पिएंगे। जैसा कि चिली के कई शहरों के साथ हुआ, इस क्षेत्र के भी कई शहर सुनसान हो जाएंगे।
इन सारी समस्याओं का एक और पहलू है। बात करनी होगी मथुरा और आगरा की दक्षिणी सीमा के पास के स्थानों की, जो चंबल से लगे हुए हैं और राजस्थान की ओर पड़ते हैं। समूचे चंबल घाटी क्षेत्र में गड्ढों की भरमार है। आखिर ये गड्ढे कैसे बन गए? हुआ यह कि यहां भी जलस्तर बहुत तेजी से गिरता चला गया। इस कारण जमीन से पानी बहुत नीचे चला गया। मतलब यह कि मिट्टी ऊसर हो गई और फिर यह बंजर मिट्टी रेत में बदल गई। जब यहां बारिश होती है तो यह सारी रेतीली मिट्टी तेजी से बहकर चंबल में चली जाती है। जाहिर है कि राजस्थान का मरुस्थल इस ओर बढ़ रहा है। गर्मियों में राजस्थान की रेत तेज हवाओं के साथ उड़कर आने से दिल्ली तक मरुस्थलीकरण का खतरा पैदा हो गया है। ऐसे में इस क्षेत्र के लिए मरुस्थलीकरण का पैमाना क्या होगा, यही सोचने वाली बात है. अगर आगरा और आसपास की जगहों पर पानी का स्तर इसी तरह तेजी से गिरता गया तो इनका भी मरुस्थलीकरण होने से रोकना असंभव होगा।
इस विषय में सरकारी महकमों और सरकारों ने भी कोई ध्यान नहीं दिया। जब बात आती है सरकारी भूमिका की, तो पानी मुहैया कराना अफसरों और मंत्रियों के लिए पैसा बनाने का साधन बन जाता है। पानी एक बड़ा गोरखधंधा बन गया है। ऐसा ही यहां भी हुआ है। सरकार नलकूप और हैंडपंप लगाने की बहुत सारी योजनाएं लाती रहीं, लेकिन वे अपनी अनुमानित अवधि से पहले ही बेकार हो जाते हैं या सूख जाते हैं। मतलब पानी नहीं देते। अब ऐसा होता क्यों है? क्या सरकार की ओर से पर्याप्त पैसा नहीं आता ऐसी योजनाओं के लिए? ऐसा नहीं है। क्या अफसर सारा पैसा खा जाते हैं? क्या हैंडपंप बनाते समय नियमावली का ध्यान नहीं रखा जाता? सच बात तो यह है कि नलकूप और हैंडपंप बनाने का ठेका सरकार स्थानीय ठेकेदारों को दे देती है। ठेकेदार सारे नियम-कानून ताक पर रखकर कम पैसा लगाते हैं, रद्दी सामान का प्रयोग करते हैं और जिस गहराई तक बोरिंग होनी चाहिए, उतनी नहीं करते। सरकारी अफसर उनसे मिले हुए हैं। ऐसे ठेकेदारों से सामान का लेनदेन होता है, जो रिश्वत देते हों। सरकारी अफसर ऐसा सिर्फ अपने लिए नहीं करते, उन्हें आगे भी पैसा पहुंचाना पड़ता है। 2009-10 में आगरा जनपद में लगाए गए हैंडपंप बेकार हो गए, सूख गए। जांच बैठी तो पाया गया कि हैंडपंप लगाते समय नियमों का पालन नहीं किया गया था। जितनी बोरिंग होनी चाहिए, उतनी नहीं हुई और भुगतान पूरा ले लिया गया। दरअसल हैंडपंप लगाना बच्चों का खेल नहीं है। पहले तो अगर 2.5 इंच का डिस्चार्ज चाहिए तो 4-6 इंच का बोर होना चाहिए। फिर उसे मोटी रोड़ी से भरा जाता है, ताकि नीचे बोरे में पाइप पर मिट्टी न गिर पड़े। ऐसा इसलिए, क्योंकि पानी के स्रोत पर पाइप छेद वाला होता है और रोड़ी न भरी जाए तो छेद मिट्टी से भर जाते हैं और पानी आना बंद हो जाता है। ठेकेदार और सरकारी अफसर इन सारे चरणों पर पैसा बचाने की जुगत में रहते हैं, इसलिए हैंडपंप सूख जाते हैं। आगरा जनपद में भी सब कुछ ऐसा ही हुआ था। बोरिंग होनी थी 60 मीटर, लेकिन हुई 40 मीटर। गर्मी आते ही पानी का स्तर नीचे चला गया और हैंडपंप सूख गए। ठेकेदारों ने हर पंप पर मीटर पाइप और बोरिंग आदि का पैसा बचाकर अपनी जेब में डाल लिया। जांच अधिकारियों ने भी अपनी रिपोर्ट में यही लिखा है कि नियमावली का पालन न करने और तकनीकी कमी के कारण पंप सूख गए थे। कई जगह ऐसा भी देखा गया कि जहां सरकारी महकमों यानी जल निगम, यूपी एग्रो और नलकूप निगम को बोरिंग करनी चाहिए थी, वहां किसानों को खुद ही बोरिंग करानी पड़ी अपना पैसा लगाकर।
सरकारी रवैया भी बहुत नकारात्मक रहा इस पूरे मामले में सरकार ने आज तक कोई ऐसा नियम-कानून नहीं बनाया, जिसके आधार पर पानी के दोहन की सीमा तय की जा सके। बात बहुत दिनों से चल रही है, लेकिन आज तक इस मामले में सरकार ने कोई विधेयक पेश नहीं किया। ऊपर से यमुना एक्सप्रेस-वे जैसी महत्वाकांक्षी परियोजना बनाते समय भी इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि जल संकट के कारण भविष्य में पूरी परियोजना पर ताला लग सकता है। एक्सप्रेस-वे से लगा हुआ एशिया का सबसे बड़ा शहर बसाने की योजना भी है, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि जब पानी ही नहीं रहेगा तो शहर बसा कर क्या होगा? इसी एक्सप्रेस-वे के मामले में किसानों ने आंदोलन छेड़ा। मीडिया से लेकर सरकार तक ने इसे हर्जाने और किसानों की क्षतिपूर्ति का मामला बताया, लेकिन इस बात पर किसी की नजर नहीं गई कि किसान सिर्फ अपने खेतों की सही कीमत ही नहीं मांग रहे थे, उनकी एक बड़ी मांग यह भी थी कि उन्हें खेती के लिए पानी की किल्लत हो रही है और सरकार उन्हें पानी मुहैया कराए।
हर साल फतेहपुर सीकरी और आसपास के कई इलाकों में पानी के लिए कत्ल-बलवा होता है। जल संकट की वजह से सामाजिक तनाव बढ़ रहा है और जीवनदायक पानी जीवन ले रहा है। सरकार की एक और योजना है गंगा का पानी इस पूरे इलाके में लेकर आना। आज तक उस योजना पर कोई कार्य नहीं हुआ। यह योजना 1200 करोड़ रुपये की है, लेकिन आम जनता का मानना है कि इससे कोई भला नहीं होने वाला यमुना का पानी इतना दूषित है कि वह पीने या खेती करने लायक नहीं बचा है। दिल्ली से आते हुए यमुना में बड़े पैमाने पर गंदगी का डिस्चार्ज हो जाता है, इसीलिए यह स्थिति पैदा हो गई है। यही पानी कुछ तरीकों से फिल्टर करके जनता को पिलाया जाता है, जो कई बीमारियों को जन्म देता है। समाज का अमीर वर्ग तो पानी खरीद कर पी रहा है, लेकिन गरीब आदमी पानी जैसी मूलभूत जरूरत पर कहां से पैसा खर्च करे इसी कारण उसे यही गंदा और खारा पानी पीकर काम चलाना पड़ता है।
सोचने वाली बात है कि जब यह समस्या आज नई नहीं है तो फिर सरकार का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया? अगर बात यह है कि परियोजनाएं बनी और पैसा आवंटित हुआ तो वह पैसा कहां गया? जब यह समस्या बढ़ रही थी, तब कोई सुधार और शोध क्यों नहीं हुआ? बात यह है कि पानी का अन्वेषण और पानी मुहैया कराना मंत्रियों और अफसरों के लिए पैसा बनाने की तकनीक बन गया है। पानी बेचने वालों का धंधा चल निकला है। आज तक या तो अन्वेषण-शोध हुआ ही नहीं, हुआ तो रिपोर्ट को अनदेखा कर दबा दिया गया क्यों? सरकार के एजेंडे पर यह सबसे पहला काम होना चाहिए था।
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