आएगा बर्फीला युग

हिमयुग को लेकर कई सिद्धांत और परिकल्पनाएं हैं। लेकिन नासा की हाल की रिपोर्ट ने इसे लेकर एक नई बहस शुरू कर दी है। दरअसल ग्लोबल वार्मिंग के चलते ध्रुवीय क्षेत्रों की बर्फ तेजी से पिघल रही है जिससे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा अब ग्लोबल कूलिंग की ओर बढ़ रहा है।

वैज्ञानिकों के मौसम में जो बदलाव हो रहे हैं वे ग्लोबल कूलिंग की तरफ ही इशारा कर रहे हैं। दुनिया भर के तीस इलाकों से इकट्ठा किए आंकड़ों के अनुसार 1997 से धरती के तापमान में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। इसकी वजह यह है कि 20वीं सदी में लगातार उच्च स्तर पर ऊर्जा छोड़ने के बाद सूर्य अपने न्यूनतम स्तर की ओर बढ़ रहा है। इसे साइकिल – 25 का नाम दिया गया है। सूर्य की गतिविधि में ऐसा बदलाव 1645 से 1715 के बीच भी देखा गया था जिसके चलते लंदन की टेम्स नदी जम गई थी। हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर/बैठ शिला की शीतल छांह/एक पुरुष भीगे नयनों से/देख रहा था प्रलय प्रवाह/नीचे जल था ऊपर हिम था/एक तरल था एक सघन/एक तत्व की ही प्रधानता/कहो उसे जड़ या चेतन/दूर-दूर तक विस्तृत था हिम/स्तब्ध उसी के हृदय समान/नीरवता सी शिला चरण से/टकराता फिरता पवमान।
महाकवि जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियां महाजलप्रलय का चित्रण करती हैं। लेकिन आज जब ग्लोबल वार्मिंग की आशंकाएं ग्लोबल कूलिंग की तरफ बढ़ रही हैं तो यह सवाल उठता है कि यह प्रलय प्रवाह था क्या और आखिर हुआ कैसे? ध्यान दें कामायनी की इन पंक्तियों को – ‘दूर-दूर तक विस्तृत था हिम’। यानी जब यह महाप्रलय हुआ तो उसके पीछे हिमयुग ही रहा होगा। आज वैज्ञानिक कह रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते आर्कटिक महासागर की बर्फ पिघलेगी और सारी दुनिया में फैल जाएगी यानी एक बार फिर हिमयुग की वापसी होगी। क्या यह संभव है? नासा की रिपोर्ट और कुछ वैज्ञानिक तो ऐसी ही आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं। इस आशंका का आधार है मौसम में पिछले कुछ सालों में होने वाला परिवर्तन। नासा से जुड़े भौतिक विज्ञानी फिल चैपमैन ने अपने एक अध्ययन में बताया है कि दुनिया पिछली जनवरी से इस जनवरी के बीच बड़ी तेजी से ठंडी हुई है और ठंड में यह गिरावट 0.7 सेंटीग्रेट तक रही है जो 1930 के बाद से सबसे बड़ी गिरावट है।

नासा की रिपोर्ट के मुताबिक केवल कुछ दशकों के भीतर ग्लोबल वार्मिंग का असर उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में देखा जा सकता है। इन इलाकों में इतनी भयंकर सर्दी पड़ रही है जैसी पहले कभी नहीं देखी गई। इस तरह का अंदेशा जताया जा रहा है कि ग्लोबल वार्मिंग से आर्कटिक महासागर पर आच्छादित बर्फ पिघल सकती है जिसस आगे चल कर अटलांटिक महासागर में तेज प्रवाह की गुंजाइश बन सकती है। बिना अधिक ऊष्मा उत्पन्न किए इन महासागरों की धारा इतनी ऊष्मा उत्पन्न करेगी जिसकी तुलना हम एक लाख न्यूक्लियर पॉवर प्लांट से निकली ऊर्जा से कर सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो यूरोप का औसत तापमान पांच से दस डिग्री सेल्सियस तक गिर सकता है। ऐसे में पूर्वी और उत्तरी अमेरिकी की ठंड बहुत बढ़ जाएगी। यह ठंड उतनी ही होगी जितनी आज से बीस हजार साल पहले थी जब आखिरी हिमयुग का अंत हुआ था।

यानी अगर जल्द यह स्थिति आती है तो इस बार फिर से नए हिमयुग की शुरुआत हो जाएगी। कुछ वैज्ञानिकों के मुताबिक समुद्री ज्वार में यह परिवर्तन और भी जल्द आ सकता है। वूड्स होल ओशनोग्राफिक इंस्टीट्यूशन के निदेशक रॉबर्ट गैगोसियान के मुताबिक, यह परिवर्तन 20 वर्षों के अंदर भी हो सकता है। शायद इसी आशंका को देखते हुए अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन सतर्क है। आर्कटिक के बदलते मौसम पर नजर रखने के लिए कई उपग्रह तैनात हैं। इनमें से एक नासा का एक्वा सैटेलाइट भी है, जिसमें एडवांस माइक्रोवेव स्कैनिंग रेडियोमीटर सेंसर उपकरण लगा हुआ है। इसके जरिये रात में भी लगातार बर्फ व उसके निचले सतह पर पैनी नजर बनाए रखना मुमकिन हुआ है। इसी तरह के और विशिष्ट आइस-वाचिंग सैटेलाइट नासा, नोआ और अमेरिकी रक्षा मंत्रालय द्वारा लगाए गए हैं। हालांकि, कुछ वैज्ञानिक यह मानते हैं कि समुद्री ज्वार में यह परिवर्तन अचानक ही आएगा और हो सकता है कि काफी जल्दी आए। वैसे, नासा के गोड्डार्द स्पेस फ्लाइट सेंटर में कार्यरत वरिष्ठ वैज्ञानिक डोनाल्ड कवालिरी कहते हैं, ‘यह मालूम करना काफी कठिन है कि क्या होगा? आर्कटिक और उत्तरी अटलांटिक प्राकृतिक व भौगोलिक तौर पर काफी जटिल तंत्र हैं। तंत्र के अंदर भी कई उपतंत्र हैं। जमीन, समुद्र व वायुमंडल के बीच अंतःक्रियाएं चलती रहती हैं।’

पृथ्वी की कक्षा से ली गई तस्वीरें साफ तौर पर बताती हैं कि आर्कटिक महासागर, जो बारहों महीने बर्फ से ढका रहता है वहां बर्फ तेजी से पिघल रही हैं। नासा में ही कार्यरत मौसम विज्ञानी जोसेफिनो कॉमिसो की एक रिपोर्ट इस तथ्य को उजागर करती है कि साल 1978 में जब सैटेलाइटों ने आर्कटिक महासागर की तस्वीरें ली थीं, तो यह ज्ञात हुआ था कि एक दशक में नौ फीसदी की दर से बर्फ पिघल रही थी, जबकि साल 2002 में ली गई तस्वीरों के मुताबिक, 14 फीसदी की दर से बर्फ पिघलने लगी। और दूसरे वैज्ञानिक अध्ययन तो इससे भी ज्यादा तेजी से बर्फ के पिघलने के संकेत दे रहे हैं।

वैसे हिमयुग को लेकर कई सिद्धांत और परिकल्पनाएं हैं। जैसे कुछ वैज्ञानिकों को आशंका है कि अगर तीसरा विश्वयुद्ध हुआ और उसमें परमाणु हथियारों का उपयोग हुआ तो आसमान में इतनी कालिख जमा हो जाएगी कि सूरज की रोशनी धरती तक नहीं आ पाएगी और फिर शुरू हो जाएगा हिमयुग। तीसरे विश्वयुद्ध को छोड़ भी दें तो हिमयुग की शुरुआत भारत-पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध होने से भी हो सकती है। यह कल्पना इतनी भयावह है कि सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

हिमयुग की शुरुआत के कई कारण माने जाते हैं जैसे वातावरण में मौजूद गैसों के अनुपात में बदलाव, पृथ्वी की सूर्य की परिक्रमा के रास्ते में बदलाव, या टैक्नॉटिक प्लेट्स के खिसकने से पृथ्वी की सतह में बदलाव जिससे समुद्र की धाराओं पर असर पड़ता है और ला नीना वगैरह आते हैं। कहा जाता है कि मीथेन गैस के प्रभाव की वजह से ही हिमयुग का खात्मा हुआ। डायनासोर इसी करण खत्म हुए क्योंकि उन्होंने उतनी ही मीथेन गैस उत्सर्जित की जितनी आज मानवता कर रही है जिसके परिणामस्वरूप धरती गरम हुई और हिमयुग खत्म हुआ।

हिमयुग की वापसी को लेकर एक परिकल्पना प्रसिद्ध वैज्ञानिक और लेखक जयंत विष्णु नार्लीकर की है। उनके अनुसार हमारी पृथ्वी के कुल क्षेत्रफल का एक तिहाई भाग ही ठोस जमीन का है। बाकी पानी है समुद्रों और महासागरों की शक्ल में। यही पानी हमारी जलवायु को नियंत्रित करता है। उनके ऊपर की गर्म हवा ऊपर उठती है और वायुमंडल में घुल-मिल जाती है। फिर दोबारा नीचे आने से पहले चारों ओर फैल जाती है। अक्सर यह भ्रम रहता है कि महासागर हमेशा गर्म रहते हैं लेकिन यह सच नहीं है। दरअसल, समुद्री पानी की ऊपरी परतें ही गर्म रहती हैं और निचली परतें ठंडी। इतनी ठंडी कि बर्फ जम जाए। लेकिन पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि समुद्र की ये ऊपरी गर्म परतें लगातार पतली होती जा रही हैं। इस तरह महासागर लगातार ठंडे हो रहे हैं और अन्य हिस्सों को पर्याप्त गर्मी नहीं पहुंचा पा रहे हैं। इससे हर जगह का तापमान कम होता जा रहा है। संभव है एक दिन ध्रुवीय क्षेत्रों की तरह हर जगह बर्फ ही बर्फ फैल जाए और सूर्य की गर्मी कुछ न कर पाए क्योंकि सूर्य की गर्मी को बर्फ परावर्तित करके वापस फेंक देगी जैसा कि ध्रुवीय क्षेत्रों में होता है। ऐसा ही अगर ज्वालामुखी गतिविधियां जरूरत से ज्यादा बढ़ जाएं तो वायुमंडल में धूल का पर्दा बनने का खतरा बढ़ जाता है जो धूप को गर्म करने के अपने काम को रोकता है। इससे भी धरती के ठंडा होने का खतरा बढ़ता है।

फिलहाल वैज्ञानिकों के मुताबिक मौसम में जो बदलाव हो रहे हैं वे ग्लोबल कूलिंग की तरफ ही इशारा कर रहे हैं। दुनिया भर के तीस इलाकों से इकट्ठा किए आंकड़ों के अनुसार 1997 से धरती के तापमान में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। इसकी वजह यह है कि 20वीं सदी में लगातार उच्च स्तर पर ऊर्जा छोड़ने के बाद सूर्य अपने न्यूनतम स्तर की ओर बढ़ रहा है। इसे साइकिल – 25 का नाम दिया गया है। सूर्य की गतिविधि में ऐसा बदलाव 1645 से 1715 के बीच भी देखा गया था जिसके चलते लंदन की टेम्स नदी जम गई थी। इधर पिछले कुछ सालों में अमेरिका हो, यूरोप हो, भारत हो या चीन पिछले सालों में ठंड और बर्फबारी ने रिकार्ड तोड़ा है। हाल यह रहा कि दुबई के रिगिस्तानी इलाकों में भी बर्फ पड़ी और चीन के उत्तरी इलाकों में बर्फबारी ने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए। मौसम में बदलाव का हाल यह है कि राजस्थान में बाढ़ आ रही है तो जहां पहले ठंड पड़ती थी वहां गर्मी पड़ रही है और जहां गर्मी वहां भयंकर ठंड पड़ रही है। साल 2012 में भारत में पंजाब तक में बर्फबारी हुई और पठानकोट में चार इंच तक बर्फ पड़ी। हिमाचल के निचले इलाकों चिंतपूर्णी, चामुंडा और हमीरपुर में सत्तर साल बाद बर्फ देखने को मिली। मसूरी में तो बर्फबारी आम है लेकिन इस बार देहरादून तक में बर्फ पड़ी। नासा की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2022 इस सदी का सबसे ठंडा साल होगा और हो सकता है तभी से हिमयुग की शुरुआत हो जाए।

हिमयुग की वापसी की स्थिति में कहा जा रहा है कि बड़े जानवर ही बचेंगे और छोटे जानवर नष्ट हो जाएंगे। याद करेंगे डायनासोरों के युग में भी ऐसा ही हुआ था। इसी तरह कहा जा रहा है कि बड़ी मछलियों का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा और छोटी मछलियाँ ही अपने आपको बचा पाएंगी। कामायनी में भी जलप्रलय में मछलियों के भी बचने का जिक्र है। हालांकि कह सकते हैं कि वह कवि की कल्पना है लेकिन परिकल्पनाएं ही बाद में यथार्थ बनती हैं। ऐसा तो विज्ञान भी मानता है।

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