मध्य प्रदेश के पारंपरिक तालाबों पर हाल ही में एक छोटी, किंतु विश्वसनीय पुस्तक प्रकाशित हुई है। पुस्तक का नाम है : ‘भारत का परंपरागत जल विज्ञान’ पुस्तक की सारी सामग्री.. सारा शोध मध्य प्रदेश के तालाबों को आधार बना कर किया गया है; अतः अच्छा होता कि इस पुस्तक का नाम रखा जाता- मध्य प्रदेश का परंपरागत जल विज्ञान। खैर! इसके लेखक हैं: श्रीकृष्ण गोपाल व्यास, कीमत : दो सौ रुपए और प्रकाशक: साउथ एशियन एसोसिएशन आॅफ इकोनामिक जिऑलाजिस्ट, नईदिल्ली। प्रकाशक के अंग्रेजी नाम को देवनागरी लिपि में लिखते वक्त जिन अक्षरों का प्रयोग कर लिखा गया है, हो सकता है कि वह किसी को अटपटा लगे, लेकिन मैं इसे लेखक के देसीपन की सुगंध कहकर सराहना ही करता हूं। सामान्यतया पूफ्र की ग़लतियाँ न के बराबर हैं और प्रिटिंग एकदम सादी। बधाई!
यूं श्री व्यास से मेरा परिचय राष्ट्रीय जलबिरादरी के एक वरिष्ठ साथी, शुभेच्छु व मार्गदर्शक के रूप में रहा है; किंतु लोग जबलपुर विश्वविद्यालय से भूविज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि धारक श्री व्यास को राजीव गांधी वाटरशेड मिशन के तत्कालीन सलाहकार तथा जल एवं भूमि प्रबंध संस्थान के संचालक के रूप ज्यादा जानते हैं। मध्य प्रदेश सरकार की ‘पानी रोको अभियान’ की मूल अवधारणा को विकसित करने का श्रेय भी श्री व्यास को है।
‘भारत की जल संचय परंपरा’ और ‘पानी, समाज और सरकार’: पानी पर इन दो पूर्व पुस्तकों की कड़ी में आई ‘भारत का परंपरागत जल विज्ञान’ उनकी तीसरी पानी पुस्तक है।
उम्र के 74वें पड़ाव में इस पुस्तक का लेखन श्री व्यास की रचनाधर्मिता व ऊर्जापक्ष का प्रमाण तो है ही; मात्र 92 पृष्ठ की इस छोटी सी पुस्तक की खासियत है कि यह कोई किस्सागोई न होकर, मध्य प्रदेश के जलविज्ञान पर सिखाने योग्य एक शिक्षण पुस्तिका है। फोटो, नक्शे, रेखाचित्र व आंकड़ों ने मिलकर इसे एक तार्किक दस्तावेज बना दिया है। आप इसे मध्य प्रदेश के पांरपरिक तालाबों पर एक संक्षिप्त शोधपत्र भी कह सकते हैं।
पुस्तक में पांच अध्याय हैं। प्रथम चार अध्याय जल विज्ञान के क्रमशः परमार, चन्देल, बुंदेल और मुगलकालीन साक्ष्य व विरासत पर आधारित है। पांचवा व अंतिम आधार तालाबों की लंबी आयु के रहस्य का खुलासा करता है। इस पांचवें अध्याय से यह सिखना महत्वपूर्ण है कि सही आकृति, ढाल, स्थान व निर्माण की सर्वश्रेष्ठ सामग्री, रखरखाव के अलावा सीमेंटिंग सामग्री का न्यूनतम होना भी तालाबों के स्थायित्व का एक जरूरी आधार होता है। सबसे बड़ी बात यह कि तालाबों की पांरपरिक निर्माण शैली भूकम्प, तूफान व तेज हवाओं के प्रभाव के आकलन के साथ ही किए जाते थे।
इस पुस्तक में भोपाल, भोजपुर, सांची, दतिया, छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़, जबलपुर, मंडला नर्मदा घाटी के कई प्रमुख तालाबों का अभियांत्रिकी विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। बुरहानपुर क्षेत्र के जरिए मुगलकालीन कनात प्रणाली पर एक पूरा अध्याय ही है। पुस्तक बताती है कि कनात यानी भूमिगत सुरंग! ईरान में प्रचलित कनात प्रणाली का उपयोग तत्कालीन खानदेश के सूबेदार अब्दुल रहीम खानखाना ने बुरहानपुर व सैनिक छावनी में जल समस्या के स्थानीय समाधान के लिए किया था। ज्यादातर पानी कार्यकर्ता कनात प्रणाली के इस ज्ञान से अभी भी अनभिज्ञ ही हैं। इस दृष्टि से कनात प्रणाली पर विस्तृत, स्पष्ट और सरल शिक्षण सामग्री के अलावा इंडियन हैरिटेज सामग्री, केंद्रीय भूजल परिषद, प्रो. सीहोर वालटी. ए. और एस. एस. रघुवंशी का सुझाव प्रस्तुत कर लेखक ने एक सराहनीय कार्य किया है। इसे पढ़कर जल प्रदूषण की आधुनिक समस्या के स्वावलंबी और पंरपरागत समाधान का भरोसा पैदा होता है।
लेखक द्वारा चौथे अध्याय में आधुनिक विज्ञान के जरिए तालाब निर्माण की गोंड जनजाति की समझ को जांचने की कोशिश मन को गोंडों के प्रति आदर से भर देती है। यह पुस्तक मिट्टी के प्रकार व तालाब के आकार के आपसी रिश्ते को समझने की जिज्ञासा जगाती है।बेतवा, कालियासोत, कोलांश नदी के यात्रा मार्ग तथा नर्मदा नदी घाटी तालाबों के उल्लेख के जरिए यह समझा जा सकता है कि नदी और तालाब के पुनर्जीवन का एक-दूसरे से क्या रिश्ता है। इस रिश्ते की दास्तान ‘नदी जोड़ परियोजना’ के सरकारी व गैरसरकारी पक्षधरों को सिखा सकती है कि बाढ़ और सुखाड़ में भी पानी का इंतजाम कैसे किया जा सकता है? वे सीख सकते हैं कि एक-दूसरे को पानीदार बनाकर रखने में नदी और पानी का क्या योगदान है?
बुंदेल व चंदेलकालीन तालाबों से सीखकर पहले भी तालाबों पर कुछेक पुस्तकें लिखी गईं हैं। किंतु तालाबों के तकनीकी पक्ष व निरापद खेती के जोड़ को संक्षेप में ही सही, इस पुस्तक में एक साथ देखना अच्छा है। यह पुस्तक बुंदेलखंड में भूमिजल की बहाली का मार्ग तो सुझाती है, किंतु उसकी बदहाली के कारणों को ठीक से रेखांकित करने में चूक गई है। उसे रेखांकित न करने का ही नतीजा है कि बुंदेलखंड के लिए घोषित तमाम आर्थिक पैकेज के बावजूद अभी भी यह गारंटी नहीं दी जा सकती कि हर भावी तीन, पांच या सात साला अकाल में बुंदेलखंड आत्महत्या के दंश से मुक्त रहेगा। अच्छा होता कि इस पुस्तक ने पारंपरिक तालाबों के टिकाऊपन तथा स्वच्छता को वनस्पति विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के आईने में भी जांचने की कोशिश की होती। बावजूद इसके बाढ़-सुखाड़ के पारंपरिक जल संकट के साथ-साथ प्रदूषण, शोषण व अतिक्रमण की आधुनिक चुनौतियों से निपटने की धुंध में यह पुस्तक आशा की एक किरण तो जगाती ही है। मध्य प्रदेश के काॅलेजों में पर्यावरण विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने वालों तथा तालाबों के जरिए देश भर में जलसंकट का समाधान ढूंढने वालों को यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए। बधाई !
पुस्तक प्राप्त करने का पता:
साउथ एशियन एसोसिएशन आॅफ इकोनाॅमिक जिओलाॅजिस्ट,
4805/24, भरत राम रोड, दरियागंज, नई दिल्ली।
लेखक संपर्कः
श्रीकृष्णगोपालव्यास-
73, चाणक्यपुरी, चूनामंडी,
भोपाल, मध्य प्रदेश- 462016,
फोन: 0755 - 2460438, मो. 09425693922,
ईमेल: kgvyas_jbp@rediffmail.com
यूं श्री व्यास से मेरा परिचय राष्ट्रीय जलबिरादरी के एक वरिष्ठ साथी, शुभेच्छु व मार्गदर्शक के रूप में रहा है; किंतु लोग जबलपुर विश्वविद्यालय से भूविज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि धारक श्री व्यास को राजीव गांधी वाटरशेड मिशन के तत्कालीन सलाहकार तथा जल एवं भूमि प्रबंध संस्थान के संचालक के रूप ज्यादा जानते हैं। मध्य प्रदेश सरकार की ‘पानी रोको अभियान’ की मूल अवधारणा को विकसित करने का श्रेय भी श्री व्यास को है।
‘भारत की जल संचय परंपरा’ और ‘पानी, समाज और सरकार’: पानी पर इन दो पूर्व पुस्तकों की कड़ी में आई ‘भारत का परंपरागत जल विज्ञान’ उनकी तीसरी पानी पुस्तक है।
उम्र के 74वें पड़ाव में इस पुस्तक का लेखन श्री व्यास की रचनाधर्मिता व ऊर्जापक्ष का प्रमाण तो है ही; मात्र 92 पृष्ठ की इस छोटी सी पुस्तक की खासियत है कि यह कोई किस्सागोई न होकर, मध्य प्रदेश के जलविज्ञान पर सिखाने योग्य एक शिक्षण पुस्तिका है। फोटो, नक्शे, रेखाचित्र व आंकड़ों ने मिलकर इसे एक तार्किक दस्तावेज बना दिया है। आप इसे मध्य प्रदेश के पांरपरिक तालाबों पर एक संक्षिप्त शोधपत्र भी कह सकते हैं।
पुस्तक में पांच अध्याय हैं। प्रथम चार अध्याय जल विज्ञान के क्रमशः परमार, चन्देल, बुंदेल और मुगलकालीन साक्ष्य व विरासत पर आधारित है। पांचवा व अंतिम आधार तालाबों की लंबी आयु के रहस्य का खुलासा करता है। इस पांचवें अध्याय से यह सिखना महत्वपूर्ण है कि सही आकृति, ढाल, स्थान व निर्माण की सर्वश्रेष्ठ सामग्री, रखरखाव के अलावा सीमेंटिंग सामग्री का न्यूनतम होना भी तालाबों के स्थायित्व का एक जरूरी आधार होता है। सबसे बड़ी बात यह कि तालाबों की पांरपरिक निर्माण शैली भूकम्प, तूफान व तेज हवाओं के प्रभाव के आकलन के साथ ही किए जाते थे।
आधुनिक विज्ञान के आईने में लिखी यह पुस्तक यह समझाने में सफल मानी जा सकती है कि पांरपरिक तालाबों के कारण न तो पर्यावरण को कोई हानि थी और न ही खेती को। भौगोलिक विविधता, वर्षाजल व नमी के आधुनिक विज्ञान के आधार पर पांरपरिक तालाबों को खरा बताते हुए लेखक ने यह पक्ष भी रखने की कोशिश की है कि समाज द्वारा तद्नुसार अपनी कृषि व्यवस्था निर्धारित करने के कारण जलोपयोग में अनुशासन के कारण भी तालाबों टिकाऊ बने रह सकें।
आधुनिक विज्ञान के आईने में लिखी यह पुस्तक यह समझाने में सफल मानी जा सकती है कि पांरपरिक तालाबों के कारण न तो पर्यावरण को कोई हानि थी और न ही खेती को। भौगोलिक विविधता, वर्षाजल व नमी के आधुनिक विज्ञान के आधार पर पांरपरिक तालाबों को खरा बताते हुए लेखक ने यह पक्ष भी रखने की कोशिश की है कि समाज द्वारा तद्नुसार अपनी कृषि व्यवस्था निर्धारित करने के कारण जलोपयोग में अनुशासन के कारण भी तालाबों टिकाऊ बने रह सकें।इस पुस्तक में भोपाल, भोजपुर, सांची, दतिया, छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़, जबलपुर, मंडला नर्मदा घाटी के कई प्रमुख तालाबों का अभियांत्रिकी विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। बुरहानपुर क्षेत्र के जरिए मुगलकालीन कनात प्रणाली पर एक पूरा अध्याय ही है। पुस्तक बताती है कि कनात यानी भूमिगत सुरंग! ईरान में प्रचलित कनात प्रणाली का उपयोग तत्कालीन खानदेश के सूबेदार अब्दुल रहीम खानखाना ने बुरहानपुर व सैनिक छावनी में जल समस्या के स्थानीय समाधान के लिए किया था। ज्यादातर पानी कार्यकर्ता कनात प्रणाली के इस ज्ञान से अभी भी अनभिज्ञ ही हैं। इस दृष्टि से कनात प्रणाली पर विस्तृत, स्पष्ट और सरल शिक्षण सामग्री के अलावा इंडियन हैरिटेज सामग्री, केंद्रीय भूजल परिषद, प्रो. सीहोर वालटी. ए. और एस. एस. रघुवंशी का सुझाव प्रस्तुत कर लेखक ने एक सराहनीय कार्य किया है। इसे पढ़कर जल प्रदूषण की आधुनिक समस्या के स्वावलंबी और पंरपरागत समाधान का भरोसा पैदा होता है।
लेखक द्वारा चौथे अध्याय में आधुनिक विज्ञान के जरिए तालाब निर्माण की गोंड जनजाति की समझ को जांचने की कोशिश मन को गोंडों के प्रति आदर से भर देती है। यह पुस्तक मिट्टी के प्रकार व तालाब के आकार के आपसी रिश्ते को समझने की जिज्ञासा जगाती है।बेतवा, कालियासोत, कोलांश नदी के यात्रा मार्ग तथा नर्मदा नदी घाटी तालाबों के उल्लेख के जरिए यह समझा जा सकता है कि नदी और तालाब के पुनर्जीवन का एक-दूसरे से क्या रिश्ता है। इस रिश्ते की दास्तान ‘नदी जोड़ परियोजना’ के सरकारी व गैरसरकारी पक्षधरों को सिखा सकती है कि बाढ़ और सुखाड़ में भी पानी का इंतजाम कैसे किया जा सकता है? वे सीख सकते हैं कि एक-दूसरे को पानीदार बनाकर रखने में नदी और पानी का क्या योगदान है?
बुंदेल व चंदेलकालीन तालाबों से सीखकर पहले भी तालाबों पर कुछेक पुस्तकें लिखी गईं हैं। किंतु तालाबों के तकनीकी पक्ष व निरापद खेती के जोड़ को संक्षेप में ही सही, इस पुस्तक में एक साथ देखना अच्छा है। यह पुस्तक बुंदेलखंड में भूमिजल की बहाली का मार्ग तो सुझाती है, किंतु उसकी बदहाली के कारणों को ठीक से रेखांकित करने में चूक गई है। उसे रेखांकित न करने का ही नतीजा है कि बुंदेलखंड के लिए घोषित तमाम आर्थिक पैकेज के बावजूद अभी भी यह गारंटी नहीं दी जा सकती कि हर भावी तीन, पांच या सात साला अकाल में बुंदेलखंड आत्महत्या के दंश से मुक्त रहेगा। अच्छा होता कि इस पुस्तक ने पारंपरिक तालाबों के टिकाऊपन तथा स्वच्छता को वनस्पति विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के आईने में भी जांचने की कोशिश की होती। बावजूद इसके बाढ़-सुखाड़ के पारंपरिक जल संकट के साथ-साथ प्रदूषण, शोषण व अतिक्रमण की आधुनिक चुनौतियों से निपटने की धुंध में यह पुस्तक आशा की एक किरण तो जगाती ही है। मध्य प्रदेश के काॅलेजों में पर्यावरण विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने वालों तथा तालाबों के जरिए देश भर में जलसंकट का समाधान ढूंढने वालों को यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए। बधाई !
पुस्तक प्राप्त करने का पता:
साउथ एशियन एसोसिएशन आॅफ इकोनाॅमिक जिओलाॅजिस्ट,
4805/24, भरत राम रोड, दरियागंज, नई दिल्ली।
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