मानव जैव विकास के दौरान प्राकृतिक अथवा जैविक दबावों में गुणसूत्रों पर स्थित विभिन्न जिंसों (डी.एन.ए) की संरचनाओं में उलट-फेर अथवा उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) होते रहते है। जिसके कारण शारीरिक संरचनाओं एवं जैविक क्रियाओं में कई तरह के बदलाव आते हैं। लेकिन कभी-कभी इन उत्परिवर्तनों के कारण मनुष्यों में कई बार ठीक न होने वाली ऐसी संरचनाएँ एवं जटिल विकृतियाँ शरीर में विकसित हो जाती हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती ही रहती हैं। खून से जुड़ी ऐसे ही आनुवांशिकीय विकृति सिकल-सेल-एनीमिया जिसको सबसे पहले अफ्रीकी मूल के आदिवासियों में देखी गई है जो इनके ११वें गुणसूत्रों पर स्थित हीमोग्लोबिन-बीटा जिंसों में हुए उत्परिवर्तनों के कारण विकसित हुई है।
यह बीमारी उम्र बढ़ने के साथ और खतरनाक एवं जानलेवा साबित होती है। इन जिंसों को वैज्ञानिक भाषा में सिकल-सेल जींस कहते हैं जिनके कारण इन आदिवासियों के खून की लाल रक्त कोशिकाएं (आर.बी.सी.) का निर्माण गोलाकार न हो कर हंसियानुमा (सिकल-फॉर्म) होता है। इन विकृत कोशिकाओं को सिकल-सेल्स (कोशिकाएँ) कहतें है जिनकी उम्र १०-२० दिन की ही होती है जबकि सामान्य लाल रक्त कोशिकाओं की १२० दिन तक की होती है। ये सिकल-सेल्स रक्त वाहिनियों में आड़ी-तिरछी इकट्ठी अथवा जमा होकर कई जगहों पर छोटे-बड़े अवरोधक (ब्लॉकेज) बना देती हैं जिससे खून के प्रवाह में रुकावट आने से ऑक्सीजन की कमी के कारण अंग कमजोर व क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। दूसरी ओर इन कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन वर्णक-एस (Hb-S) की मात्रा भी कम होने से ये शरीर में आक्सीजन की आपूर्ति पर्याप्त मात्रा में नहीं कर पाती हैं। उक्त कारणों से सिकल-सेल बीमारी से ग्रसित व्यक्ति अक्सर युवावस्था में ही मर जाता है।
आदिवासियों में इन सिकल-सेल जिंसों की उत्पति महान वैज्ञानिक डार्विन की अवधारणा की तर्ज पर तथा मलेरिया दबाव के कारण हुई है। ये जींस उन्हीं क्षेत्रों में ही मिलते हैं जहाँ मलेरिया का प्रकोप अधिक हो या रहा है। इन सिकल-सेल जींस की संरचना जटिल तो है ही, लेकिन अद्भुत है। आदिवासियों में ये प्रकृति प्रदत्त वरदान भी है तो दूसरी ओर ये अभिशाप भी। ये जींस इन्हें खतरनाक व जानलेवा मलेरिया बीमारी के संक्रमण से बचाते हैं वहीं दूसरी ओर ये इनके लिये जानलेवा साबित होते हैं। परन्तु यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि ये जींस इनमें किन प्रारूपों अथवा अवस्थाओं में मोजूद होते हैं। ये प्रमुख रूप से समयुग्मी (Hb-SS) व विषमयुग्मी (Hb-AS) अवस्थाओं में ही मिलते हैं। जो लोग इनके समयुग्मी होतें हैं उनमें ही सिकल-सेल-एनीमिया बीमारी विकसित होती है। डार्विन की अवधारणा, ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ (सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट) के अनुसार ये समयुग्मी प्रकृति में जीने योग्य नहीं होते हैं। इसीलिये प्रकृति इन्हें जीने का कोई अवसर भी नहीं देती है।
आनुवांशिकीय दृष्टि से प्रकृति में इनका समाप्त या नहीं होना सर्वथा उपयुक्त एवं उचित भी है। लेकिन जो लोग इन जिंसों के विषमयुग्मी अथवा संवाहक (ट्रेट या कैरियर) होतें हैं उन्हें दोहरा लाभ होता है। एक तो उन्हें मलेरिया कभी नहीं होता है अर्थात इनमें मलेरिया से लड़ने की जबर्दस्त आनुवांशिकीय प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है। दूसरी ओर ये संवाहक प्रकृति में सामान्य जीवन जीने के लिये सक्षम होते हैं यानी इन्हें सिकल-सेल-एनीमिया बीमारी नहीं होती है। यही वजह है कि आदिकाल से वनों में रह रही अथवा रहती आ रही आदिवासी प्रजातियाँ आज भी मलेरिया के संक्रमण से सुरक्षित हैं।
जानकारी अनुसार, विश्व में 4.5 मिलियन से अधिक लोग सिकल-सेल-एनीमिया से ग्रसित हैं वहीं 43 मिलियन से अधिक लोग इस बीमारी के संवाहक (कैरियर) हैं। इनमे ८० प्रतिशत सिकल-सेल-एनीमिया से पीड़ित लोग अकेले अफ्रीका मे हैं। भारत में सिकल-सेल जींस कैसे आए अथवा विकसित हो गए, इसकी न तो सही-सही जानकारी उपलब्ध है और न ही अभी तक इसकी कोई वैज्ञानिकीय पुष्टि हुई है। लेकिन इनको सबसे पहले 1952 में दक्षिण भारत के नीलगिरी पहाड़ियों में बसे आदिवासियों में खोजा गया है। यहाँ के आदिवासियों में ये जींस बहुतायत में पाए जाते है तथा इनकी प्रचलित दर 1 से 40 प्रतिशत तक आंकी गई है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 45 हजार बच्चे सिकल-सेल-एनीमिया बीमारी लिये जन्म लेते हैं। वर्तमान में लगभग डेढ़ लाख से अधिक लोग इस बीमारी से ग्रसित हैं जो ज्यादातर मध्य प्रदेश राज्य के हैं।
भारत में इस राज्य के अलावा, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु व केरल ऐसे राज्य है जहाँ के आदिवासियों में सिकल-सेल जींस की भरमार है। ताजा प्रकाशित शोध सर्वेक्षण आंकड़ों के अनुसार ये सिकल-सेल जींस अन्य जाति-समूहों में भी मौजूद हैं परन्तु इनकी प्रतिशत दर न्यून स्तर तक ही सीमित है। भारत में भयावह स्थिति यह है कि लगभग इतने के इतने ही लोगों में सिकल-सेल जींस के साथ-साथ एक और खतरनाक, घातक व वंशागत थैलेसीमिया बीमारी के जींस भी मौजूद हैं। बावजूद देश में इस बीमारी के नियंत्रण एवं रोकथाम हेतु कोई कारगर योजना अभी तक नहीं बनाई गई है और यदि है भी तो महज यह एक खाना पूर्ति लगती है। सच तो यह है कि राज्यवार इस बीमारी अथवा सिकल-सेल जींस होने के सही-सही आंकड़े भी आज तक उपलब्ध नहीं हैं। जबकि अन्य देशों में इनके नियंत्रण एवं इलाज हेतु सरकारी एवं गैर-सरकारी स्तर पर अनेक परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं।
वैज्ञानिक व आनुवांशिकीय के अनुसार सिकल-सेल बीमारी केवल उन्हीं में होने की सम्भावना रहती है जिनके माता-पिता अथवा अभिभावक दोनों ही इस बीमारी के संवाहक होते हैं। ऐसे माता-पिता से पैदा होने वाली 50 प्रतिशत सन्तानें सामान्य (नॉर्मल) होने की सम्भावना रखती हैं, परन्तु 25 प्रतिशत सन्तानें इस बीमारी के संवाहक (विषमयुग्मी) होने की तथा 25 प्रतिशत सन्तानों में इस बीमारी (समयुग्मी) के होने की सम्भावना रहती है। संवाहक अमूमन सामान्य व्यक्ति की तरह ही स्वस्थ्य जीवन जीते हैं।
यद्यपि यह बीमारी जानलेवा, लाइलाज व वंशागत है परन्तु इसके इलाज हेतु विश्व में अभी तक कोई औषधि विकसित नहीं हुई है। रोगी व्यक्ति को जीवित रखने के लिये बार-बार खून चढ़ाने की जरूरत होती है। स्टेम सेल-थेरेपी, जीन-थेरेपी एवं बोनमैरो ट्रांसप्लान्टेशन द्वारा इस बीमारी का इलाज किया तो जा सकता है लेकिन रोगी के ज्यादा समय जीवित रहने की गारंटी नहीं होती, वहीं दूसरी ओर ये तकनीकें इतनी महंगी हैं की ये सभी के लिये सुलभ नहीं हो सकतीं। कारगर राष्ट्रीय योजना बगैर इस बीमारी व इसके जिंसों पर अंकुश लगाना फिलहाल भले ही मुश्किल सा लगता है लेकिन असम्भव बिल्कुल नहीं है।
इसके नियंत्रण के लिये विवाह पूर्व युवक-युवतियों की रक्त परीक्षण कुण्डली का मिलान जरूरी है तथा कई मायनों में यह लाभदायक साबित होती है। इससे इस बीमारी के संवाहक की पहचान में मदद तो मिलती ही है वहीं कई प्रकार के एड्स जैसे खतरनाक संक्रामक रोगों के संक्रमण होने से बचा जा सकता है। सिकल-सेल बीमारी लिये बच्चे पैदा न हों इसके लिये जरुरी है कि संवाहकों के बीच न तो विवाह होना चाहिए और न ही इनके बीच शारीरिक सम्बन्ध। सन्तान पैदा करने के पूर्व संवाहकों को आनुवांशिक सलाहकार से परामर्श लेना ज्यादा उचित एवं हितकर होता है।
आदिवासियों में इस बीमारी के प्रति जागरूकता एवं वैज्ञानिक सोच विकसित करने की भी आवश्यकता है। अन्धविश्वासों के चलते ये लोग इसके इलाज हेतु अक्सर भोपों, बाबाओं, फकीरों, तांत्रिकों, टोना- टोटके करने वाले व झोलाछाप डॉक्टरों के पास चले जातें हैं जो न केवल इनका आर्थिक शोषण करतें है बल्कि रोगी के साथ अमानवीय व्यवहार भी करतें पाए गए हैं। ये लोग सिकल-सेल एनीमिया के रोगी के हाथ, पैर, पेट व ललाट पर तेज गर्म लोहे की छड़ दागते देखे गए हैं जिससे रोगी संक्रमण से और जल्द मर जाता है। इस बीमारी के संवाहकों की पहचान हेतु स्वास्थ्य केन्द्रों पर निशुल्क रक्त परिक्षण सुविधा तथा इनके पंजीकरण की व्यवस्था से गरीब आदिवासियों को न केवल दूर-दराज भटकने से निजात मिलेगी बल्कि इन्हें भारी खर्च से राहत भी होगी, वहीं सिकल-सेल बीमारी व इसके जिंसों के नियंत्रण की सम्भावना और ज्यादा हो जाएगी।
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