हमारे देश में आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की मुहीम के चलते हमने उनका जीना दूभर कर दिया है। कोई भी समाज या समुदाय अपनी आंतरिक चेतना से ही बदलाव को अपना पाता है। हमारे नीति नियंताओं ने भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने के निमित्त आदिवासियों को जंगल से बाहर खदेड़ने के लिए एक काल्पनिक मुख्यधारा प्रवाहित कर ली है और यह बहाकर कहां ले जाएगी इसका भान किसी को भी नहीं है। प्रमुख चिंतक डॉ. कपिल तिवारी से किए गए संवाद पर आधारित महत्वपूर्ण आलेख।
जिस आदिवासी समाज का अपने जल, जंगल और जमीन पर स्वामित्व का भाव ही नहीं था उस पर हमने वह भाव विकसित करने का प्रयास किया। स्वामित्व की अवधारणा के संघर्ष में सभ्य कहे जाने वाला समाज उसका शोषक बन गया। आदिवासी से उसका जंगल, नदी, पहाड़ सब कुछ तो छीन लिया गया। स्वामित्व के बोध का तत्व कुछ इस तरह शामिल किया गया कि अब वह अपनी प्राकृतिक परिवेश में रह ही नहीं पा रहा है। उसके खेत, घर सब कुछ को बहुत सीमित दायरे में कर दिया। आदिवासियों का जीवन नैसर्गिक है। वह प्रकृति से भिन्न नहीं है। जल, जंगल, जमीन सब कुछ उसका अपना घर है। उनमें स्वामित्व का बोध भी नहीं है। आदिवासी जंगल या खेत में अपनी झोपड़ी बनाकर जरूर रहता है, लेकिन वह अपनी प्रकृति से किसी भी तरह अलग नहीं होता बल्कि यूं कहना चाहिए कि वह प्रकृति में ही समाहित है। उसकी स्वतंत्रता भी नैसर्गिक है। उसका जीवन सत्य पर आधारित है। वह राज्य की अवधारणा की छाया में दी जाने वाली स्वतंत्रता में कभी नहीं जिया। उसकी अपनी ही स्वतंत्रता है। ये बातें जाने-माने चिंतक और आदिवासियों के बीच में लंबा समय व्यतीत करने वाले कपिल तिवारी ने कहीं।
उनका मानना है कि दुनिया में एक मात्र यही ऐसा समाज है जो वर्तमान में जीता है। अपने अतीत या भविष्य में नहीं। इसलिए उनमें संग्रह की प्रवृत्ति नहीं है। गौरतलब है कि यह समाज कभी बीमार समाज नहीं रहा और यदि रहा होता तो कब का खत्म हो गया होता। आज उसकी खाद्यसुरक्षा और पोषण का मामला गड़बड़ा गया है और उसकी संतानें कुपोषण की शिकार हैं तो उसके गहरे और मूल कारण हैं, जिन्हें हमें बहुत गहराई से समझना होगा।
याद रखिए यह सारा मामला पिछली डेढ़-दो सदियों में ही गड़बड़ाया है। इसके मूल कारणों में आदिवासी के नैसर्गिक जीवन का प्रभावित होना, उनकी नैसर्गिक स्वतंत्रता पर हमला, उनके मनोविज्ञान का बदलना और उन्हें हीनता का बोध कराना, विकास में उनकी भागीदारी सुनिश्चित नहीं करना, सब कुछ लिखे-पढ़े अपढ़ों के द्वारा तय करना और उनसे पूछना तक नहीं, आदि शामिल हैं।
श्री तिवारी ने आदिवासियों की खाद्यसुरक्षा और पोषण का मामला गड़बड़ाने और कुपोषण के कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा, ‘‘दरअसल, तथाकथित बुद्धिजीवियों की दृष्टि में आदिवासी को प्रकृति से अलग देखा जाता है। यह एक बड़ी भूल है। सभ्य कहे जाने वाले समाजों ने उसकी नैसर्गिक स्वतंत्रता पर हमला किया। उनके मनोविज्ञान को हीनता का बोध कराया और उसे समझाया कि तुम असभ्य हो, पिछड़े हो, जंगली हो, गंवार हो, बेचारे हो आदि आदि।” इसने उसका मन ग्लानि से भर दिया। वह स्वयं को हीन समझने लगा। इसलिए वह हमारे आपके द्वारा तय कथित मुख्यधारा (जिसके बारे में किसी को पता नहीं है कि यह धारा तय करने वाला कौन है) में शामिल होने की जद्दोजहद में लग गया। इससे उसका जीवनचक्र बदला है।
जिस आदिवासी समाज का अपने जल, जंगल और जमीन पर स्वामित्व का भाव ही नहीं था उस पर हमने वह भाव विकसित करने का प्रयास किया। स्वामित्व की अवधारणा के संघर्ष में सभ्य कहे जाने वाला समाज उसका शोषक बन गया। आदिवासी से उसका जंगल, नदी, पहाड़ सब कुछ तो छीन लिया गया। स्वामित्व के बोध का तत्व कुछ इस तरह शामिल किया गया कि अब वह अपनी प्राकृतिक परिवेश में रह ही नहीं पा रहा है। उसके खेत, घर सब कुछ को बहुत सीमित दायरे में कर दिया। उसे यह बताया गया कि यह थोड़ी-सी जमीन और छोटा-सा घर ही उसका है। जंगल केवल उसके नहीं है। यही विस्थापन खतरनाक साबित हुआ है।
श्री तिवारी ने कहा, ‘‘मुगलों ने भी देश के आदिवासियों के जीवन में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। अकबर के जमाने में बीरबल ने भू-राजस्व की अवधारणा प्रस्तुत की। यह लगान वसूलने के लिए थी। अंग्रेजों के आगमन के बाद भूमि कानूनों और मध्य प्रदेश के पचमढ़ी में वन विभाग की स्थापना के साथ जंगलों में इनके जीवन को प्रभावित करना आरंभ किया। वन और भूमि कानूनों ने भी इन पर कुठाराघात किया है। कानूनों के जरिए इनसे यह सब छीना गया है।” अंग्रेजी शासनकाल में पश्चिमी नृतत्वशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों ने आदिवासियों को समझने-बूझने की जो तकरीरें दीं, वे गलत थीं। इन्हीं के काल में विकास की कथित आधुनिक अवधारणा ने जन्म लिया।
हमारे विकास नियंताओं ने कभी आदिवासियों से नहीं पूछा कि वे किस तरह का विकास चाहते हैं? यदि पूछा जाता तो वे बताते कि उन्हें किस तरह का विकास चाहिए। आदिवासियों का हर समुदाय अपने विकास की बात अलग-अलग तरीके से करता। लेकिन हमने ही उनका विकास तय किया। इतना ही नहीं हमने तय कर दिया कि उन्हें किस तरह पढ़ना चाहिए। विद्यालय खोल दिए। अस्पताल खोल दिए। सड़कें बना दीं। घर बना दिए।
जमीन के कुछ टुकड़े आवंटित कर दिए और बदले में उनके जंगलों को अभ्यारण्य में बदल दिया और उन्हें वहां से खदेड़ दिया। उन पर आरोप मढ़ दिए कि वे जंगल नष्ट करते हैं, शिकार करते हैं और इससे वन्य प्राणियों को नुकसान पहुंच रहा है। जबकि ऐसा नहीं था। उनके रहते जंगल कभी भी नष्ट नहीं हुए, बल्कि सुरक्षित रहे। जंगलों और वन्य प्राणियों को नुकसान तो हमारे आगमन के बाद पहुंचा। जंगलों से विस्थापन एक बड़ा कारण है, जिसने उसके जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है। हमारे विकास नियंताओं ने विकास में उनकी सही भागीदारी ही सुनिश्चित नहीं की। ‘‘कलेक्टर और पत्रकार’’ जिन्हें मैं सर्वविषयक विशेषज्ञ कहता हूं ने भी आदिवासियों का कबाड़ा ही किया है।
श्री तिवारी ने जोर देकर कहा, ‘‘आदिवासियों को उनके अपने तई उनके परिवेश के परिपेक्ष्य में गहराई से समझने की जरूरत है। हमें उनके नैसर्गिक जीवन को लौटना होगा। उन्हें उनकी नैसर्गिक स्वतंत्रता भी बख्शनी होगी। उनके अंदर जो हीनता का बोध हमने भर दिया है उससे उन्हेें मुक्त करना होगा। उनके जल, जंगल, जमीन के उस भाव की स्थापना करनी होगी जिसमें उसका स्वामित्व का भाव ही नहीं था, उन्हें वह सबका समझता आया है। विकास में उसकी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। उससे पूछना होगा कि वह किस तरह का विकास चाहता है।’’
श्री तिवारी ने कहा, ‘‘जल, जंगल और जमीन के अधिकारों को लेकर जो तमाम किस्म के आंदोलन चल रहे हैं, लड़ाइयां लड़ी जा रहीं हैं, उन्हें भी आदिवासियों की नैसर्गिकता को गंभीरता से समझना चाहिए। क्योंकि इन लड़ाइयों से उनका कुछ बनने वाला नहीं है। मुझे आशंका है राज्य की ताकत जिस दिन चाहेगी वह इन सब आंदोलनों और लड़ाइयों को समाप्त कर देगी। इसलिए जरूरी है कि आदिवासियों को जिम्मेदारी गंभीरता और समझ-बूझ से अपने अधिकारों की लड़ाइयों के लिए स्व प्रेरित किया जाए। उनके साथ मिलकर चल रहे संघर्षों का तौर तरीका भी बदलना होगा।
जिस आदिवासी समाज का अपने जल, जंगल और जमीन पर स्वामित्व का भाव ही नहीं था उस पर हमने वह भाव विकसित करने का प्रयास किया। स्वामित्व की अवधारणा के संघर्ष में सभ्य कहे जाने वाला समाज उसका शोषक बन गया। आदिवासी से उसका जंगल, नदी, पहाड़ सब कुछ तो छीन लिया गया। स्वामित्व के बोध का तत्व कुछ इस तरह शामिल किया गया कि अब वह अपनी प्राकृतिक परिवेश में रह ही नहीं पा रहा है। उसके खेत, घर सब कुछ को बहुत सीमित दायरे में कर दिया। आदिवासियों का जीवन नैसर्गिक है। वह प्रकृति से भिन्न नहीं है। जल, जंगल, जमीन सब कुछ उसका अपना घर है। उनमें स्वामित्व का बोध भी नहीं है। आदिवासी जंगल या खेत में अपनी झोपड़ी बनाकर जरूर रहता है, लेकिन वह अपनी प्रकृति से किसी भी तरह अलग नहीं होता बल्कि यूं कहना चाहिए कि वह प्रकृति में ही समाहित है। उसकी स्वतंत्रता भी नैसर्गिक है। उसका जीवन सत्य पर आधारित है। वह राज्य की अवधारणा की छाया में दी जाने वाली स्वतंत्रता में कभी नहीं जिया। उसकी अपनी ही स्वतंत्रता है। ये बातें जाने-माने चिंतक और आदिवासियों के बीच में लंबा समय व्यतीत करने वाले कपिल तिवारी ने कहीं।
उनका मानना है कि दुनिया में एक मात्र यही ऐसा समाज है जो वर्तमान में जीता है। अपने अतीत या भविष्य में नहीं। इसलिए उनमें संग्रह की प्रवृत्ति नहीं है। गौरतलब है कि यह समाज कभी बीमार समाज नहीं रहा और यदि रहा होता तो कब का खत्म हो गया होता। आज उसकी खाद्यसुरक्षा और पोषण का मामला गड़बड़ा गया है और उसकी संतानें कुपोषण की शिकार हैं तो उसके गहरे और मूल कारण हैं, जिन्हें हमें बहुत गहराई से समझना होगा।
याद रखिए यह सारा मामला पिछली डेढ़-दो सदियों में ही गड़बड़ाया है। इसके मूल कारणों में आदिवासी के नैसर्गिक जीवन का प्रभावित होना, उनकी नैसर्गिक स्वतंत्रता पर हमला, उनके मनोविज्ञान का बदलना और उन्हें हीनता का बोध कराना, विकास में उनकी भागीदारी सुनिश्चित नहीं करना, सब कुछ लिखे-पढ़े अपढ़ों के द्वारा तय करना और उनसे पूछना तक नहीं, आदि शामिल हैं।
श्री तिवारी ने आदिवासियों की खाद्यसुरक्षा और पोषण का मामला गड़बड़ाने और कुपोषण के कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा, ‘‘दरअसल, तथाकथित बुद्धिजीवियों की दृष्टि में आदिवासी को प्रकृति से अलग देखा जाता है। यह एक बड़ी भूल है। सभ्य कहे जाने वाले समाजों ने उसकी नैसर्गिक स्वतंत्रता पर हमला किया। उनके मनोविज्ञान को हीनता का बोध कराया और उसे समझाया कि तुम असभ्य हो, पिछड़े हो, जंगली हो, गंवार हो, बेचारे हो आदि आदि।” इसने उसका मन ग्लानि से भर दिया। वह स्वयं को हीन समझने लगा। इसलिए वह हमारे आपके द्वारा तय कथित मुख्यधारा (जिसके बारे में किसी को पता नहीं है कि यह धारा तय करने वाला कौन है) में शामिल होने की जद्दोजहद में लग गया। इससे उसका जीवनचक्र बदला है।
जिस आदिवासी समाज का अपने जल, जंगल और जमीन पर स्वामित्व का भाव ही नहीं था उस पर हमने वह भाव विकसित करने का प्रयास किया। स्वामित्व की अवधारणा के संघर्ष में सभ्य कहे जाने वाला समाज उसका शोषक बन गया। आदिवासी से उसका जंगल, नदी, पहाड़ सब कुछ तो छीन लिया गया। स्वामित्व के बोध का तत्व कुछ इस तरह शामिल किया गया कि अब वह अपनी प्राकृतिक परिवेश में रह ही नहीं पा रहा है। उसके खेत, घर सब कुछ को बहुत सीमित दायरे में कर दिया। उसे यह बताया गया कि यह थोड़ी-सी जमीन और छोटा-सा घर ही उसका है। जंगल केवल उसके नहीं है। यही विस्थापन खतरनाक साबित हुआ है।
श्री तिवारी ने कहा, ‘‘मुगलों ने भी देश के आदिवासियों के जीवन में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। अकबर के जमाने में बीरबल ने भू-राजस्व की अवधारणा प्रस्तुत की। यह लगान वसूलने के लिए थी। अंग्रेजों के आगमन के बाद भूमि कानूनों और मध्य प्रदेश के पचमढ़ी में वन विभाग की स्थापना के साथ जंगलों में इनके जीवन को प्रभावित करना आरंभ किया। वन और भूमि कानूनों ने भी इन पर कुठाराघात किया है। कानूनों के जरिए इनसे यह सब छीना गया है।” अंग्रेजी शासनकाल में पश्चिमी नृतत्वशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों ने आदिवासियों को समझने-बूझने की जो तकरीरें दीं, वे गलत थीं। इन्हीं के काल में विकास की कथित आधुनिक अवधारणा ने जन्म लिया।
हमारे विकास नियंताओं ने कभी आदिवासियों से नहीं पूछा कि वे किस तरह का विकास चाहते हैं? यदि पूछा जाता तो वे बताते कि उन्हें किस तरह का विकास चाहिए। आदिवासियों का हर समुदाय अपने विकास की बात अलग-अलग तरीके से करता। लेकिन हमने ही उनका विकास तय किया। इतना ही नहीं हमने तय कर दिया कि उन्हें किस तरह पढ़ना चाहिए। विद्यालय खोल दिए। अस्पताल खोल दिए। सड़कें बना दीं। घर बना दिए।
जमीन के कुछ टुकड़े आवंटित कर दिए और बदले में उनके जंगलों को अभ्यारण्य में बदल दिया और उन्हें वहां से खदेड़ दिया। उन पर आरोप मढ़ दिए कि वे जंगल नष्ट करते हैं, शिकार करते हैं और इससे वन्य प्राणियों को नुकसान पहुंच रहा है। जबकि ऐसा नहीं था। उनके रहते जंगल कभी भी नष्ट नहीं हुए, बल्कि सुरक्षित रहे। जंगलों और वन्य प्राणियों को नुकसान तो हमारे आगमन के बाद पहुंचा। जंगलों से विस्थापन एक बड़ा कारण है, जिसने उसके जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है। हमारे विकास नियंताओं ने विकास में उनकी सही भागीदारी ही सुनिश्चित नहीं की। ‘‘कलेक्टर और पत्रकार’’ जिन्हें मैं सर्वविषयक विशेषज्ञ कहता हूं ने भी आदिवासियों का कबाड़ा ही किया है।
श्री तिवारी ने जोर देकर कहा, ‘‘आदिवासियों को उनके अपने तई उनके परिवेश के परिपेक्ष्य में गहराई से समझने की जरूरत है। हमें उनके नैसर्गिक जीवन को लौटना होगा। उन्हें उनकी नैसर्गिक स्वतंत्रता भी बख्शनी होगी। उनके अंदर जो हीनता का बोध हमने भर दिया है उससे उन्हेें मुक्त करना होगा। उनके जल, जंगल, जमीन के उस भाव की स्थापना करनी होगी जिसमें उसका स्वामित्व का भाव ही नहीं था, उन्हें वह सबका समझता आया है। विकास में उसकी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। उससे पूछना होगा कि वह किस तरह का विकास चाहता है।’’
श्री तिवारी ने कहा, ‘‘जल, जंगल और जमीन के अधिकारों को लेकर जो तमाम किस्म के आंदोलन चल रहे हैं, लड़ाइयां लड़ी जा रहीं हैं, उन्हें भी आदिवासियों की नैसर्गिकता को गंभीरता से समझना चाहिए। क्योंकि इन लड़ाइयों से उनका कुछ बनने वाला नहीं है। मुझे आशंका है राज्य की ताकत जिस दिन चाहेगी वह इन सब आंदोलनों और लड़ाइयों को समाप्त कर देगी। इसलिए जरूरी है कि आदिवासियों को जिम्मेदारी गंभीरता और समझ-बूझ से अपने अधिकारों की लड़ाइयों के लिए स्व प्रेरित किया जाए। उनके साथ मिलकर चल रहे संघर्षों का तौर तरीका भी बदलना होगा।
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Post By: Shivendra