हरित क्रांति के दौर में तो परंपरागत खेती पूरी तौर पर प्रतिबंधित कर दी गई। मजबूरी में उसने धीरे इन नए तरीकों को अपनाना आरंभ कर दिया। आदिम घोषित किए जाने पर भारिया विकास प्राधिकरण जैसी एंजेंसियां भी सामने आईं। कृषि विभाग ने मिलकर इसने जिस तरह से योजनाओं को क्रियान्वित किया उनका लाभ सिर्फ कागजों पर है हकीकत में हालात कुछ और बिगड़ते गए। मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के तामिया विकासखंड के पातालकोट इलाके की रहवासी आदिम जनजाति भारिया की ढाहिया (बेवर) कृषि परंपरा को कृषि नीति निर्धारकों ने कुछ इस तरह बदला कि वे नए और पुराने तौर-तरीकों के बीच अंतरर्द्वंद्व में उलझ गए। इसने काफी गड़बडियां पैदा की हैं और जैसे कि वे अपनी परंपरागत फसलों के उत्पादन लेने में पिछड़े हैं।
कोदों, कुटकी, जगनी आदि पौष्टिक फसलों के स्थान पर सोयाबीन, गेहूं, जैसी नकद फसलों से उनका कोई भला नहीं हुआ। कुटकी तो करीब-करीब गायब हो गई। इसका स्थान बाजार की घटिया किस्म की सफेद कनकी ने ले लिया है। इससे उनकी पारंपरिक खाद्य सुरक्षा का मामला गड़बड़ाया और खानपान बदला और उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं।
केंद्र और राज्य सरकारें यह लगभग मान चुकी हैं कि आधुनिक कृषि विकास की वजह से आदिम जनजातीय समूहों में परंपरागत कृषि पद्धति अब समाप्त हो चुकी है। जबकि वह आज भी अपनी परंपरागत खेती का हिमायती है व करता है। वहीं राज्य का आदिम जाति अनुसंधान की वर्ष 2010-11 की रिपोर्ट बताती है कि ‘यहां आधुनिक खेती का अभाव देखा जाता है। इसकी मुख्य वजह गरीबी है।
निष्कर्ष में कहा गया है कि वे नई कृषि तकनीक का प्रयोग भी करने लगे हैं। इसके पूर्व इसी संस्थान के 2004-05 के एक अन्य अध्ययन क्रमांक 414/268 में कहा गया है कि पातालकोट के भारियाओं की प्रति एकड़ वार्षिक आय 566 रु. है। इस अध्ययन में शामिल गांव सुखभाण्ड, हारमऊ, घटलिंगा, गुढ़छतरी और पलानी गैलडुब्बा में चालीस परिवारों के पास कुल 155.70 एकड़ भूमि है। इसमें से केवल 15 एकड़ सिंचिंत है। ये परिवार आज भी कृषि के मामले में पिछड़े हुए हैं।
मेरे हालिया अध्ययन में सामने आया कि पलानी गैलडुब्बा का भूमिहीन सुकाली (60 साल) और उसका छोटा बेटा बिराज (21 साल) विज्ञान सभा की जमीन पर खेती करते हैं और वह सभा द्वारा दिए गए बीज-खाद का प्रयोग करते हैं। वह आधुनिक कृषि के तौर-तरीकों को ज्यादा नहीं अपनाता। मौसम के कारण इस बार उनकी फसल चौपट हो गई है।
इसी गांव का सुमरसी कहता है कि यहां आज भी उत्पादन कम होता है। उसके पास चार हेक्टेयर जमीन है। उसने भी विज्ञानसभा के द्वारा दिए गए बीजों को बोया, इनसे उत्पादन अधिक नहीं हुआ बल्कि नुकसान हो गया। उसने इस साल दो बार यानी रबी और खरीफ में विज्ञान सभा द्वारा दिए गए मक्का, कोदो-कुटकी, चना, गेहूं आदि फसलें बोई थीं। वह कहते हैं, ‘हमारा पुराना तरीका ज्यादा बेहतर है लेकिन क्या करें अधिक उत्पादन के चक्कर में नई चीजें अपना तो लेते हैं और फिर नुकसान उठाते हैं। सरकारी मदद तो सिर्फ पटवारी की रिपोर्ट पर निर्भर करती है। सुकाली का परिवार शिक्षित है लेकिन वे अपनी पढ़ाई को गैरजरुरी मानते हुए कहते हैं कि इसका कोई मतलब ही नहीं निकला।
सरकारी अध्ययनों का निष्कर्ष कि वे बदलती कृषि को स्वीकारते चले जाएं। उनके बदलाव की प्रक्रिया के तहत जो तथाकथित लाभकारी योजनाएं संचालित की जा रही हैं, उनका लाभ उन तक पहुंचे और इसकी निगरानी की जाए। हालांकि यह विरोधाभास है कि कृषि में वे आज भी पिछड़े माने जाते हैं, फलतः उनका आदिम होने का दर्जा बरकार रखा जा सके।
लेकिन कहीं भी तुलनात्मक रूप से यह नहीं तलाशा जाता है कि भारियाओं के हित में सही कौन सी पद्धति है/थी। बदलाव के दौरों के बीच राज्य सरकार तो आदिवासियों की कोदो कुटकी आदि फसलों पर शोध के लिए केन्द्र खोलने की तैयारी में है। इसका प्रस्ताव तो लोकसभा चुनाव के पहले ही केन्द्र सरकार को भेजा जा चुका है।
भारिया की कृषि परंपरा बहुत बेचारगी से देखा गया। इसे वेरियर एल्विन और हवालिस जैसे शोध अध्ययनकर्ताओं ने और पुष्ट किया। इन्होंने अपने अध्ययन में एक जंगल गीत का उल्लेख किया है, जो पातालकोट के भारिया कृषि हालात को लेकर उनके नजरिए को उजागर करता है।
इस गीत का एक अंश है-वह कठोर भूमि में बोवनी कर रहा है/ जहाँ उसका हल-बक्खर टूट जाता है/वह उसे फिर से बनाता है/वह बोवनी के लिए हल चलाता है/और बीज छितरा देता है। परन्तु यहाँ उसके कड़े परिश्रम के मुताबिक वह फसल नहीं ले पाता है। जबकि यह एक तथ्य है कि साठ के दशक तक तो वह अपनी कृषि परंपरा में हल चलाता ही नहीं था। खेत को खुरपी/फावड़ा से बनाता था और बीज छितरा देता था।
टाटा इंस्टीट्यूट की शोध अधिकारी श्रीमती सरला देवी राय तो इसकी पुष्टि उसी दौर में ही अपने शोध में कर चुकीं थीं। उनका कहना था कि उनके अपने तरीके से जमकर कोदो-कुटकी आदि पैदा होता था।
गौरतलब है अनुसूचित जनजातियों के विकास की नीतियां को तय करने वालों की समितियों में एल्विन साहब हमेशा अहम् भूमिका में रहे हैं। उन्होंने भी भारिया की कृषि परंपरा को पिछड़ा मानकर नए विकास की सिफारिशें कीं थीं।
हरित क्रांति के दौर में तो परंपरागत खेती पूरी तौर पर प्रतिबंधित कर दी गई। मजबूरी में उसने धीरे इन नए तरीकों को अपनाना आरंभ कर दिया। आदिम घोषित किए जाने पर भारिया विकास प्राधिकरण जैसी एंजेंसियां भी सामने आईं। कृषि विभाग ने मिलकर इसने जिस तरह से योजनाओं को क्रियान्वित किया उनका लाभ सिर्फ कागजों पर है हकीकत में हालात कुछ और बिगड़ते गए।
अस्सी के दशक के आते तक तो उनकी भूमि का विधिवत बंदोबस्त नहीं हुआ था और राजस्व रिकार्ड भी नहीं था। यह प्रक्रिया भी लंबी चली। इसी बीच भूमि सुधार, खाद-बीज वितरण, बायोगैस संयंत्र, अनाज कोठियां, कृषि यंत्र, डीजल पंप, लो लिफ्ट पंप, सिंचाई कूपों का विकास, उद्वहन सिंचाई, बैल जोड़ी वितरण आदि जैसे अनेक कार्य किए गए।
अस्सी के दशक तो इन्हें सारी सुविधाएं शत-प्रतिशत अनुदान पर दी गईं। लेकिन 1983 से इस अनुदान में बीस प्रतिशत हिस्से को ऋण मानकर दिया। यहीं से वह कर्जदार बना। तमाम किस्म के कृषि प्रशिक्षणों के जरिए उन्हें आधुनिक कृषि सिखाई गई और दावा किया कि वे उन्नति की ओर हैं।
भारिया विकास प्राधिकरण अपने गठन के बाद से आज तक तो करोड़ो रुपया उनकी कृषि को उन्नत करने के उद्देश्य से खर्च कर चुका हैं। लेकिन इतने विकास के बाद भारिया की खाद्य सुरक्षा खतरे में क्यों है? गैर सरकारी संगठनों की रिपोर्ट के मुताबिक यहां के 56 फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषित पाए गए हैं। जबकि महिला बाल विकास इसे नकारता है।
वैसे यहां सब लोगों तक सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंचा। सरकारी अध्ययनों में यह साफ हुआ कि यहां के तीन सौ से अधिक परिवारों में से केवल दो सौ परिवार लाभान्वित हुए हैं। इसकी वजह सरकारी नुमाइंदों का नीचे तक जाने की कठिनाई है।
वे सीधे पहुंच वाले गांवों तक तो पहुंचते हैं लेकिन जड़मादल जैसे दुर्गम स्थानों तक नहीं। इसका एक उदाहरण बायो गैस संयंत्रों की स्थापना का है। कारेआम में तो चार संयंत्र लगा दिए गए लेकिन शेष गांवों के लिए टंकियां जंगलों में पड़ी मिलीं। आधुनिक विकास के नतीजे में कुपोषण भोग रहे भारिया आज भी अपने जीवन को बचाने के लिए संघर्ष उनके अपने तौर-तरीके से ही हैं।
कोदों, कुटकी, जगनी आदि पौष्टिक फसलों के स्थान पर सोयाबीन, गेहूं, जैसी नकद फसलों से उनका कोई भला नहीं हुआ। कुटकी तो करीब-करीब गायब हो गई। इसका स्थान बाजार की घटिया किस्म की सफेद कनकी ने ले लिया है। इससे उनकी पारंपरिक खाद्य सुरक्षा का मामला गड़बड़ाया और खानपान बदला और उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं।
केंद्र और राज्य सरकारें यह लगभग मान चुकी हैं कि आधुनिक कृषि विकास की वजह से आदिम जनजातीय समूहों में परंपरागत कृषि पद्धति अब समाप्त हो चुकी है। जबकि वह आज भी अपनी परंपरागत खेती का हिमायती है व करता है। वहीं राज्य का आदिम जाति अनुसंधान की वर्ष 2010-11 की रिपोर्ट बताती है कि ‘यहां आधुनिक खेती का अभाव देखा जाता है। इसकी मुख्य वजह गरीबी है।
निष्कर्ष में कहा गया है कि वे नई कृषि तकनीक का प्रयोग भी करने लगे हैं। इसके पूर्व इसी संस्थान के 2004-05 के एक अन्य अध्ययन क्रमांक 414/268 में कहा गया है कि पातालकोट के भारियाओं की प्रति एकड़ वार्षिक आय 566 रु. है। इस अध्ययन में शामिल गांव सुखभाण्ड, हारमऊ, घटलिंगा, गुढ़छतरी और पलानी गैलडुब्बा में चालीस परिवारों के पास कुल 155.70 एकड़ भूमि है। इसमें से केवल 15 एकड़ सिंचिंत है। ये परिवार आज भी कृषि के मामले में पिछड़े हुए हैं।
मेरे हालिया अध्ययन में सामने आया कि पलानी गैलडुब्बा का भूमिहीन सुकाली (60 साल) और उसका छोटा बेटा बिराज (21 साल) विज्ञान सभा की जमीन पर खेती करते हैं और वह सभा द्वारा दिए गए बीज-खाद का प्रयोग करते हैं। वह आधुनिक कृषि के तौर-तरीकों को ज्यादा नहीं अपनाता। मौसम के कारण इस बार उनकी फसल चौपट हो गई है।
इसी गांव का सुमरसी कहता है कि यहां आज भी उत्पादन कम होता है। उसके पास चार हेक्टेयर जमीन है। उसने भी विज्ञानसभा के द्वारा दिए गए बीजों को बोया, इनसे उत्पादन अधिक नहीं हुआ बल्कि नुकसान हो गया। उसने इस साल दो बार यानी रबी और खरीफ में विज्ञान सभा द्वारा दिए गए मक्का, कोदो-कुटकी, चना, गेहूं आदि फसलें बोई थीं। वह कहते हैं, ‘हमारा पुराना तरीका ज्यादा बेहतर है लेकिन क्या करें अधिक उत्पादन के चक्कर में नई चीजें अपना तो लेते हैं और फिर नुकसान उठाते हैं। सरकारी मदद तो सिर्फ पटवारी की रिपोर्ट पर निर्भर करती है। सुकाली का परिवार शिक्षित है लेकिन वे अपनी पढ़ाई को गैरजरुरी मानते हुए कहते हैं कि इसका कोई मतलब ही नहीं निकला।
सरकारी अध्ययनों का निष्कर्ष कि वे बदलती कृषि को स्वीकारते चले जाएं। उनके बदलाव की प्रक्रिया के तहत जो तथाकथित लाभकारी योजनाएं संचालित की जा रही हैं, उनका लाभ उन तक पहुंचे और इसकी निगरानी की जाए। हालांकि यह विरोधाभास है कि कृषि में वे आज भी पिछड़े माने जाते हैं, फलतः उनका आदिम होने का दर्जा बरकार रखा जा सके।
लेकिन कहीं भी तुलनात्मक रूप से यह नहीं तलाशा जाता है कि भारियाओं के हित में सही कौन सी पद्धति है/थी। बदलाव के दौरों के बीच राज्य सरकार तो आदिवासियों की कोदो कुटकी आदि फसलों पर शोध के लिए केन्द्र खोलने की तैयारी में है। इसका प्रस्ताव तो लोकसभा चुनाव के पहले ही केन्द्र सरकार को भेजा जा चुका है।
भारिया की कृषि परंपरा बहुत बेचारगी से देखा गया। इसे वेरियर एल्विन और हवालिस जैसे शोध अध्ययनकर्ताओं ने और पुष्ट किया। इन्होंने अपने अध्ययन में एक जंगल गीत का उल्लेख किया है, जो पातालकोट के भारिया कृषि हालात को लेकर उनके नजरिए को उजागर करता है।
इस गीत का एक अंश है-वह कठोर भूमि में बोवनी कर रहा है/ जहाँ उसका हल-बक्खर टूट जाता है/वह उसे फिर से बनाता है/वह बोवनी के लिए हल चलाता है/और बीज छितरा देता है। परन्तु यहाँ उसके कड़े परिश्रम के मुताबिक वह फसल नहीं ले पाता है। जबकि यह एक तथ्य है कि साठ के दशक तक तो वह अपनी कृषि परंपरा में हल चलाता ही नहीं था। खेत को खुरपी/फावड़ा से बनाता था और बीज छितरा देता था।
टाटा इंस्टीट्यूट की शोध अधिकारी श्रीमती सरला देवी राय तो इसकी पुष्टि उसी दौर में ही अपने शोध में कर चुकीं थीं। उनका कहना था कि उनके अपने तरीके से जमकर कोदो-कुटकी आदि पैदा होता था।
गौरतलब है अनुसूचित जनजातियों के विकास की नीतियां को तय करने वालों की समितियों में एल्विन साहब हमेशा अहम् भूमिका में रहे हैं। उन्होंने भी भारिया की कृषि परंपरा को पिछड़ा मानकर नए विकास की सिफारिशें कीं थीं।
हरित क्रांति के दौर में तो परंपरागत खेती पूरी तौर पर प्रतिबंधित कर दी गई। मजबूरी में उसने धीरे इन नए तरीकों को अपनाना आरंभ कर दिया। आदिम घोषित किए जाने पर भारिया विकास प्राधिकरण जैसी एंजेंसियां भी सामने आईं। कृषि विभाग ने मिलकर इसने जिस तरह से योजनाओं को क्रियान्वित किया उनका लाभ सिर्फ कागजों पर है हकीकत में हालात कुछ और बिगड़ते गए।
अस्सी के दशक के आते तक तो उनकी भूमि का विधिवत बंदोबस्त नहीं हुआ था और राजस्व रिकार्ड भी नहीं था। यह प्रक्रिया भी लंबी चली। इसी बीच भूमि सुधार, खाद-बीज वितरण, बायोगैस संयंत्र, अनाज कोठियां, कृषि यंत्र, डीजल पंप, लो लिफ्ट पंप, सिंचाई कूपों का विकास, उद्वहन सिंचाई, बैल जोड़ी वितरण आदि जैसे अनेक कार्य किए गए।
अस्सी के दशक तो इन्हें सारी सुविधाएं शत-प्रतिशत अनुदान पर दी गईं। लेकिन 1983 से इस अनुदान में बीस प्रतिशत हिस्से को ऋण मानकर दिया। यहीं से वह कर्जदार बना। तमाम किस्म के कृषि प्रशिक्षणों के जरिए उन्हें आधुनिक कृषि सिखाई गई और दावा किया कि वे उन्नति की ओर हैं।
भारिया विकास प्राधिकरण अपने गठन के बाद से आज तक तो करोड़ो रुपया उनकी कृषि को उन्नत करने के उद्देश्य से खर्च कर चुका हैं। लेकिन इतने विकास के बाद भारिया की खाद्य सुरक्षा खतरे में क्यों है? गैर सरकारी संगठनों की रिपोर्ट के मुताबिक यहां के 56 फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषित पाए गए हैं। जबकि महिला बाल विकास इसे नकारता है।
वैसे यहां सब लोगों तक सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंचा। सरकारी अध्ययनों में यह साफ हुआ कि यहां के तीन सौ से अधिक परिवारों में से केवल दो सौ परिवार लाभान्वित हुए हैं। इसकी वजह सरकारी नुमाइंदों का नीचे तक जाने की कठिनाई है।
वे सीधे पहुंच वाले गांवों तक तो पहुंचते हैं लेकिन जड़मादल जैसे दुर्गम स्थानों तक नहीं। इसका एक उदाहरण बायो गैस संयंत्रों की स्थापना का है। कारेआम में तो चार संयंत्र लगा दिए गए लेकिन शेष गांवों के लिए टंकियां जंगलों में पड़ी मिलीं। आधुनिक विकास के नतीजे में कुपोषण भोग रहे भारिया आज भी अपने जीवन को बचाने के लिए संघर्ष उनके अपने तौर-तरीके से ही हैं।
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