कनार्टक के बीजापुर जिले की कोई बीस लाख आबादी को पानी की त्राहि-त्राहि के लिए गर्मी का इंतजार नहीं करना पड़ता है। कहने को इलाके चप्पे-चप्पे पर जल भंडारण के अनगिनत संसाधन मौजूद है, लेकिन हकीकत में बारिश का पानी यहां टिकता ही नहीं हैं।
लोग रीते नलों को कोसते हैं, जबकि उनकी किस्मत को आदिलशाही जल प्रबंधन के बेमिसाल उपकरणों की उपेक्षा का दंश लगा हुआ है। समाज और सरकार पारंपरिक जल-स्रोतों कुओं, बावड़ियों और तालाबों में गाद होने की बात करता है, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है। सदानीरा रहने वाली बावड़ी-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया।
भगवान रामलिंगा के नाम पर दक्षिण के महान आदिलशाहों ने जल संरक्षण की अनूठी ‘रामलिंगा व्यवस्था’ को शुरू किया था। समाज और सरकार की उपेक्षा के चलते आज यह समृद्ध परंपरा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। चार सदी पहले कर्नाटक के बीजापुर इलाके के दूरस्थ अंचलों तक इन अनूठे जल-कुंडों का निर्माण कर तत्कालीन राजशाही ने इलाके को जल-संरक्षण का रोल-मॉडल बनाया था। यहां बारिश के जल को एकत्र करने, जल-प्रबंधन और वितरण की तूती दूर-दूर तक बोलती थी। आधुनिकता की आंधी में परंपराएं कहीं गुम हो गईं, लेकिन आज जब सदानीरा कहलाने वाले इलाके भी पानी की बूंद-बूंद को तरस रहे हैं, कुछ लोगों को आदिलशाही कुंडों की याद आई है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि चार सदी पहले बीजापुर की आबादी 20 लाख से अधिक हुआ करती थी, और यहां भरपूर पानी था। आज शहर में लगभग तीन लाख लोग रहते हैं और पानी की मारा-मारी है।
आदिलशाही जल व्यवस्था में कई कुंए खोदे गए थे, दर्जनों तालाब और बांध बनाए गए थे। पानी को घर-खेतों तक पहुंचाने के लिए पाईपों की व्यवस्था थी। आज कुंओं और तालाबों को या तो मिट्टी-कचरे से भर दिया गया है या फिर वे दूषित हो गए हैं। कई आलीशान जल-निधियों को अतिक्रमण निगल गया है।
शहर का बेगम तालाब बेतरतीब अतिक्रमणों के बावजूद आज भी कोई 300 एकड़ में फैला हुआ है। यदि यह पूरी तरह भर जाए तो पूरे शहर को सालभर पानी दे सकता है। इस तालाब का निर्माण सन 1651 में मुहम्मद आदिलशाह ने करवाया था। इस तालाब के दाएं हाथ के किनारे पर पत्थर की एक छोटी-सी खिड़की है जो एक भूमिगत कमरे में खुलती है। इस समय यहां पूरी तरह कीचड़ भरा हुआ है। यही नहीं पहले राजमहल के फव्वारे और बगीचों की सिंचाई भी इससे हो जाती थी। इस समय इस तालाब में कई फीट गहरी गाद जमा हो गई है।
सन् 2009 में प्रशासन ने इस तालाब की सफाई व इससे शहर की पेयजल व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए साढ़े चार करोड़ की एक योजना स्वीकृत की थी। अभी उसके परिणाम आने की कोई संभावना नहीं दिख रही है। तालाब के चारों आरे कोई 30 फीट गहरे 20 जलकुंड भी हैं, जो तालाब के पूरा भरने पर अपने आप भर जाते हैं। शहर के एक अनय समृद्ध तालाब ‘‘रामलिंगा झील’’ को तो मरा हुआ सरोवर मान लिया गया है और यह पूरी तरह भूमाफिया के कब्जे में है। इस तालाब का क्षेत्रफल कुछ दशक पहले तक 500 एकड़ हुआ करता था।
यही नहीं यह तालाब भूतनाल तालाब से इस तरह जुड़ा हुआ था कि रामलिंगा के लबालब भरते ही इसका अतिरिक्त जल भूतनाल में चला जाता था। सनद रहे कि भूतनाल का इस्तेमाल आज भी शहर को पेयजल सप्लाई में हो रहा हैं। रामलिंगा तालाब को भारतीय पुरातत्व सर्वे महकमे की संपत्ति माना जाता है, लेकिन उनके रिकार्ड में इसके आकार-प्रकार को कोई रिकार्ड नहीं है। फलस्वरूप असरदार लोग मनमर्जी इस पर प्लाट काट कर बेच रहे हैं।
बीजापुर शहर की स्थापना 10-11 सदी में कल्याणी चालुक्य द्वारा की गई थी । तब इसका नाम विजयपुर हुआ करता था। 13वीं सदी के मध्य में इस पर दिल्ली के खिलजी शासकों का प्रभाव पड़ा। सन् 1347 में इस शहर पर गुलबर्ग के बहमानी सुल्तान ने कब्जा कर लिया और तभी से विजयपुर बीजापुर बन गया। सन् 1518 में बहमानी सल्तनत का पांच हिस्सों में बंटवारा हो गया और बीजापुर वाला हिस्सा आदिलशाही सल्तनत के कब्जे में आया।
युसुफ आदिलशाह ने स्वतंत्र बीजापुर राज्य की स्थापना की। आदिलशाही सल्तनत पर मुगल शासक औरंगजेब ने सन् 1686 में कब्जा कर लिया। 1724 में हैदराबाद के निजाम के डेक्कन राज्य में बीजापुर भी शामिल था। सन् 1760 में निजाम को पेशवा के हाथों हार झेलनी पड़ी और इस तरह यहां मराठों का आगमन हुआ। सन् 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठों के बीच हुए तीसरे मराठा-अंग्रेज युद्ध में अंग्रेज जीते और इसे सतारा के शासन के अधीन कर दिया गया। आगे चल कर सतारा बंबई प्रेसीडेंसी में चला गया। फिर अंग्रेजों ने कालाडागी नामक नया जिला बनाया, जिसमें मौजूदा बीजापुर और बागलकोट इलाके शामिल थे।
जिले के इन स्थानों पर मामूली-सी रकम खर्च कर इन्हें जीवंत बनाना कोई कठिन कार्य नहीं है। लेकिन इनकी प्रासंगिकता और मूल स्वरूप को बनाए रखना एक उच्च-इच्छाशक्ति का काम होगा। बीजापुर तो एक झांकी मात्र है। पूरे कर्नाटक और उससे आगे चलें तो देश के 600 से अधिक जिलों में ठीक इसी तरह के पारंपरिक जल संरक्षण प्रक्रम देश में मची पानी की हाय-तौबा को दुरूस्त करने के लिए मौजूद हैं। पूरे देश का सर्वे हो, तालाब, बावड़ियों की जल क्षमता का आकलन हो और एकबार फिर समाज जल-प्रबंधन की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले। फिर ना तो अल्प वर्षा को कोसने की जरूरत होगी और ना ही बड़े बांध या नहरों की।
बीजापुर को गोलकुंडा को विश्व के सबसे बड़े गुंबद का खिताब मिला है। यह शहर पुरातन किलों, महलों के भग्नावशेषों से आच्छादित है। लेकिन यहां की सबसे अद्भुत, अनूठी और अनुकरणीय संरचनाएं यहां के जल-संरक्षण साधन हैं जोकि अब उपेक्षित और धूल-धूसरित हैं। कभी ये तालाब, बावड़ी, कुएं और टंकियां जीवन बांटते थे, आज इन्हें बीमारियों का कारक माना जा रहा है। यह बात दीगर है कि इन्हें बदरूप करने वाले वही लोग हैं जो आज स्थापत्य कला के इन बेजोड़ नमूनों का स्वरूप बिगाड़ने के जिम्मेदार हैं।
अपने बेहतरीन प्रशासन, संगीत के प्रति प्रेम और हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के लिए मशहूर आदिलशाही राजा जल-प्रबंधन के लिए भी प्रसिद्ध थे। आदिलशाह सुल्तानों ने बरसात की हर बूंद को बचाने के लिए जगह-जगह बावड़िया और तालाब, पानी की ऊंची-ऊंची टंकियां और दूरस्थ मुहल्लों तक पानी पहुंचाने के लिए नहर/पाईप के निर्माण किए। कुंए, बावड़ियों और तालाब के घाटों पर सुंदर कलाकृतियां बनवाईं। इतिहासविद बताते हैं कि इब्राहिम आदिलशाह और मुहम्मद आदिलशाह के शासन के दौरान वहां की आबादी बहुत अधिक थी, लेकिन पानी की उपलब्धता जरूरत से दुगुनी हुआ करती थी।
पूरा इलाका बावड़ियों से पटा हुआ था - ताज बावड़ी, चांद बावड़ी, अजगर बावड़ी, दौलत कोठी बावड़ी, बसी बावड़ी, संडल बावड़ी, बुखारी बावड़ी, थाल बावड़ी, सोनार बावड़ी, आदि। यह सूची बहुत लंबी है, लेकिन चांद और ताज बावड़ी, अपने विशाल स्वरूप और स्थापत्य के कारण पर्यटकों के लिए दर्शनीय स्थल हुआ करती थीं। आज बमुश्किल 30 बावड़ियां बची हुई हैं।
अभी ज्यादा पुरानी बात नहीं है 80 के दशक तक बीजापुर शहर के लोग ताज बावड़ी और चांद बावड़ी का इस्तेमाल पीने के पानी के लिए करते थे। आज ताज बावड़ी पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी है और यहां शहर का धोबी घाट बन गया है। सन् 1982 में जिला प्रशासन ने इन बावड़ियों को खाली कर इनकी पुनर्स्थापना करने की योजना बनाई थी, लेकिन बात कागजों की दौड़ से आगे नहीं बढ़ पाई। अब तो जिले के लगभग सभी तालाबों पर या तो खेती हो रही है या वहां कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि सभी कुछ नाजायज कब्जे का परिणाम है।
इब्राहिम रोजा के करीब स्थित अलीखान बावड़ी का इस्तेमाल अब कचरा डालने में होता है। यहीं पास में एक बोरवेल खोद दिया गया है। लोगों का कहना है कि इस बावड़ी को निर्जल बनाने में इसी बोरवेल का हाथ है। जुम्मा मस्जिद इलाके में कोई आठ बवड़ियां हुआ करती थीं। मस्जिद के करीब वाली बगदादी बावड़ी का पानी तो बास मारने लगा है, लेकिन डा. मुनीर कंपाउंड वाली झांसा बावड़ी का पानी अभी भी काम का है। नालबंध और दौलत कोठी बावड़ी पूरी तरह सूख चुकी हैं ।
बीजापुर के बीच बाजार में भी कई बावड़ियां हैं। संदल, मंत्री और मुखरी बावड़ी में अभी भी खूब पानी है, लेकिन इसके दुर्दिन शुरू हो गए है। मुखरी मस्जिद के सामने एक हनुमान मंदिर है, जहां मंगलवार और शनिवार को भक्तों की भारी भीड़ होती है। ये लोग नारियल की खोल, फूल व अन्य पूजन सामग्री इसमें फेंकते रहते हैं। एसएस रोड पर स्थित बरीडा बावड़ी खाली हो चुकी है। कारण, यहां कई बोरवेल रोपे गए हैं, जिनसे बावड़ी का पूरा पानी पाताल में चला गया है। मशहूर गोल गुंबद के पीछे मास बावड़ी है। यह चौकोर और अथाह जल-निधि वाली है। इसका इस्तेमाल गोल गुंबद के बगीचों को सींचने में किया जाता है। स्टेशन रोड पर हासिमपुर बावड़ी, रेमंड हाउस के भीतर वाली दो बावड़ी, मुबारक खान बावड़ी, के हालात दिनों-दिन खराब होते जा रहे हैं।
यह तो कुछ बानगी मात्र हैं, लापरवाही और उपेक्षा की। जिले के इन स्थानों पर मामूली-सी रकम खर्च कर इन्हें जीवंत बनाना कोई कठिन कार्य नहीं है। लेकिन इनकी प्रासंगिकता और मूल स्वरूप को बनाए रखना एक उच्च-इच्छाशक्ति का काम होगा। बीजापुर तो एक झांकी मात्र है। पूरे कर्नाटक और उससे आगे चलें तो देश के 600 से अधिक जिलों में ठीक इसी तरह के पारंपरिक जल संरक्षण प्रक्रम देश में मची पानी की हाय-तौबा को दुरूस्त करने के लिए मौजूद हैं। पूरे देश का सर्वे हो, तालाब, बावड़ियों की जल क्षमता का आकलन हो और एकबार फिर समाज जल-प्रबंधन की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले। फिर ना तो अल्प वर्षा को कोसने की जरूरत होगी और ना ही बड़े बांध या नहरों की।
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