प्रसिद्ध पर्यावरणविद् ‘अनुपम मिश्र’ राय दे चुके हैं कि राज्यों के बीच पानी को लेकर कितना झंझट है। नदी जोड़ने का काम प्रकृति का है। जहाँ दो नदियाँ जुड़ती हैं, वह तीर्थस्थल बन जाता है। अब दो नदियों को नहर से जोड़ने की कोशिश की जाएगी। मिश्र का मानना है कि इससे किसानों को कोई लाभ नहीं होगा पर नेताओं और बाबूओं को जरूर लाभ होगा। इससे अनेक गाँव डूबेंगे, वनों को नुकसान पहुँचेगा और दलदल उत्पन्न होगा। अनुपम मिश्र का कहना है कि जल्द ही उत्तर प्रदेश के किसान इसके खिलाफ आवाज उठाते नजर आएँगे।
सुप्रीम कोर्ट में आजकल क्या-क्या काम नहीं निपटाए जाते। घोटाला हो तो जांच कराने का निर्देश देता है सुप्रीम कोर्ट .. ठेके में घपले की बू आए तो ठेका रद्द करा देता है.. और देखा जाए तो लगभग देश के सारे काम तो सुप्रीम कोर्ट के अहाते से निकलने वाले आदेश की प्रतीक्षा में लगे रहते हैं। अब ताजा मामला नदी जोड़ परियोजना का है। इसकी फाईलों की धूल झाड़ने का काम सुप्रीम कोर्ट ने किया है। नदियों को आपस में जोड़ने की परिकल्पना एनडीए सरकार के कार्यकाल में की गई थी। साल 2002 के अक्तूबर महीने में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भीषण सूखे के बाद नदियों को जोड़ने का सुझाव अमल किया था जिसके तहत कार्यबल गठित किया गया था मगर यह बहुप्रतीक्षेत परियोजना राजनीति की भेंट चढ़ गई। अब जा कर ठंडे बस्ते में पड़ी नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना को समयबद्ध तरीके से लागू करने का सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को निर्देश दे दिया। न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वह लंबे समय से लटकी पड़ी नदी जोड़ परियोजना को समयबद्ध रवैये के साथ लागू करें। शीर्ष अदालत ने परियोजना क्रियान्वयन के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया है। कोर्ट का मानना था कि प्रोजेक्ट में देरी के कारण इसकी लागत में बढ़ोतरी हो गई।चीफ जस्टिस एस.एच. कपाड़िया की नेतृत्व वाली 3 सदस्यों वाली बेंच ने कहा कि केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों को इसमें शामिल होना चाहिए। बेंच के जस्टिस स्वतंत्र कुमार ने कहा कि परियोजना राष्ट्रीय हित में है... और हमें ऐसा कोई कारण नहीं दिखता जिससे कोई राज्य या केन्द्र इसका विरोध करे। कोर्ट ने इसकी योजना और उस पर काम करने के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया। चीफ जस्टिस एस.एच.कपाड़िया की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच ने कहा कि प्रॉजेक्ट में पहले ही देरी से इसकी लागत बढ़ गई है।
परियोजना की निगरानी के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का भी गठन किया जिसमें सरकारी विभागों के अधिकारी, मंत्रालयों के प्रतिनिधियों के अलावा विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं। समिति में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री, इस विभाग के सचिव, पर्यावरण मंत्रालय के सचिव और जल संसाधन मंत्रालय, वित्त मंत्रालय, योजना आयोग और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ओर से नियुक्त चार सदस्य शामिल हैं। राज्य सरकारों के प्रतिनिधि, दो सामाजिक कार्यकर्ता और वरिष्ठ अधिवक्ता रंजीत कुमार भी इस समिति के सदस्य हैं। 2002 में देश भर की नदियों को दो जोड़ने के लिए परियोजना को दो भागों में विभाजित करने की सिफारिश की गई।
डॉक्टर अरुण कुमार सिंह कहते हैं, 'इससे देश में पानी की समस्या बिल्कुल भी हल होने वाली नहीं है। पानी की समस्या का हल वास्तव में समुचित जल प्रबंधन है।' उनका मत है कि जितनी राशि नदियों को जोड़ने में खर्च की जानी है उतने में बारिश का पानी रोकने और नदियों और तालाबों को बचाने में खर्च की जाए तो पानी की समस्या हल हो जाएगी। आशा की जानी चाहिए कि इस परियोजना में जो जनहित की भावना है उसे ध्यान में रख के उसके तहत कोई न कोई रास्ता निकल आएगा ताकि जल संकट से निजात मिले।
पहले भाग में दक्षिण भारतीय नदियां शामिल थीं जिन्हें जोड़कर 16 कड़ियों का एक ‘ दक्षिणी वाटर ग्रिड ’ बनाया जाना था। इसके तहत महानदी और गोदावरी नदियों के अतिरिक्त पानी को पेन्नार, कृष्णा, वैगाई और कावेरी नदियों में पहुंचाया जाना था। हिमालयन भाग के अंतर्गत गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों और उनकी सहायक नदियों के पानी को इकट्ठा करने की योजना बनाई गई। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाली पीठ ने परियोजना की रूपरेखा तैयार करने के लिए केंद्रीय जल संसाधन मंत्री की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति भी गठित करने के निर्देश दिए। न्यायालय ने कहा कि समिति की बैठक दो माह में कम से कम एक बार अवश्य होगी। माना जाए कि देश में जो पानी फालतू बह जाता है वह संयोजित हो कर काम आएगा और आने वाली पीढी जल संकट से नहीं जूझेगी। मगर कुछ पेचीदगियों का भी ध्यान रखा जाए। कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू ने भी नदियों के जोड़ने की योजना पर कुछ दिनों तक काम किया है। साहू का मानना है कि पूर्व में नदियों को जोड़ने के लिए नेशनल ग्रिड से छत्तीसगढ़ को अलग रखा गया है। फिर स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए यहां नदियों के संबंध में निर्णय लिया जाना चाहिए। राज्य को तीन हिस्सों में बांटकर काम किया जा सकता है। उत्तर छत्तीसगढ़, मध्य छत्तीसगढ़ और दक्षिण छत्तीसगढ़ के लिए अलग-अलग कार्ययोजना बनाई जा सकती है।पानी आन्दोलन से जुड़े सुरेश मिश्र के मुताबिक उत्तर की नदियों को दक्षिण की नदियों से जोड़ने का पहला प्रस्ताव 1970 में पेश किया गया था। तब देश की नदियों को जोड़ने के बारे में नेहरु मंत्रिमण्डल के सिंचाई मंत्री केएल राव के गंगा कावेरी नहर योजना की सबसे ज्यादा चर्चा हुई थी। ढाई हजार किलोमीटर से ज्यादा लम्बी इस प्रस्तावित नहर में गंगा के करीब 50 हजार क्यूसेक पानी को करीब साढ़े पांच सौ मीटर ऊंचा उठाकर दक्षिण भारत को ले जाना था। केन्द्रीय जल आयोग ने इसे रद्द कर दिया था क्योंकि एक तो यह आर्थिक रूप से यह अव्यवहारिक है, दूसरे, इसमें बहुत बिजली खर्च होगी, तीसरे इससे बाढ़ नियंत्रण के फायदे नहीं मिलेंगे और चौथे, जलाशयों की व्यवस्था न होने के कारण इससे सिंचाई के फायदे भी नहीं मिलेंगे।
इसके बाद कैप्टेन दिनशा दस्तूर ने 1977 में गार्लेण्ड नहर का प्रस्ताव पेश किया। जिसमें दो नहर प्रणालियों की बात कही गयी थी। एक नहर प्रणाली हिमालय के दक्षिण ढाल में 90 जलाशयों के साथ होना था और दूसरी मध्य और दक्षिणी नहर प्रणाली जिसमें 200 जलाशय होने थे। दो विशेष समितियों ने इसे इस बिना पर खारिज कर दिया कि-यह तकनीकी आधार पर कमजोर है और आर्थिक आधार पर संभव है। सरकार अब एक नयी योजना प्रस्तुत कर रही है जो 1980 में विकसित हुए नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान का सुधरा हुआ रूप है। इसमें हिमालय की नदियों का विकास इस प्रकार किया जायेगा कि भारत में गंगा और ब्रह्मपुत्र की खास सहायक नदियों में पानी एकत्र करने के सरोवर बनाए जायेंगे। इस योजना में हिमालय की नदियों के विकास में भारत, नेपाल और भूटान में गंगा और ब्रहमपुत्र की मुख्य सहायक नदियों में पानी संग्रह करने के जलाशय बनाए जाएंगे।
नदियों को जोड़ने के इस निर्देशक के बारे में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सरकार के जल संसाधन विभाग के पूर्व सचिव रामस्वामी अय्यर तो यही सवाल उठाते हैं कि जिसे जुडीशियल एक्टिविजम कहा जाता है उसके लिए नदियों को जोड़ने का विचार क्या सही मुद्दा है? ...पीने के पानी का अधिकार जीवन के अधिकार का हिस्सा है और उच्चतम न्यायालय को निर्देश दे सकती है कि - इस अधिकार का हनन नहीं होना चाहिए। पर उस अधिकार को कैसे सुनिश्चित किया जाये यह बताना न्यायपालिका के क्षेत्र में नहीं आता। ऐसे कई अलग-अलग तरीके हैं जिनके द्वारा लोगों के पीने के पानी की जरूरतें पूरी की जा सकती हैं और इस संदर्भ में नदियों को जोड़ने का उपाय उनमें से एक है उच्चतम न्यायालय को, सरकार को इस जरूरत को पूरी करने के लिए कदम उठाने का निर्देश देना था पर इसके लिए कौन सा रास्ता अपनाया जाए यह उसे नहीं बताना था।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् ‘अनुपम मिश्र’ राय दे चुके हैं कि राज्यों के बीच पानी को लेकर कितना झंझट है। नदी जोड़ने का काम प्रकृति का है। जहाँ दो नदियाँ जुड़ती हैं, वह तीर्थस्थल बन जाता है। अब दो नदियों को नहर से जोड़ने की कोशिश की जाएगी। मिश्र का मानना है कि इससे किसानों को कोई लाभ नहीं होगा पर नेताओं और बाबूओं को जरूर लाभ होगा। इससे अनेक गाँव डूबेंगे, वनों को नुकसान पहुँचेगा और दलदल उत्पन्न होगा। अनुपम मिश्र का कहना है कि जल्द ही उत्तर प्रदेश के किसान इसके खिलाफ आवाज उठाते नजर आएँगे। नदियों को जोड़ने की परियोजना पर शोध कर चुके पर्यावरणविद डॉ अरुण कुमार सिंह का कहना है, 'नदियों को जोड़ने की परियोजना एकदम अवैज्ञानिक है और इसे देश की नौकरशाही ने तैयार किया है'।
वह पूछते हैं कि नदियाँ प्राकृतिक रुप से अपनी धाराएँ बदलती रहती हैं और ऐसे में किसी एक बिंदु से किसी दूसरे नदी को जोड़ना कितना व्यवहारिक होगा? वह इसके लिए कोसी नदी का उदाहरण देते हैं जो पिछले 100 सालों में कई किलोमीटर मार्ग बदल चुकी है। डॉक्टर अरुण कुमार सिंह कहते हैं, 'इससे देश में पानी की समस्या बिल्कुल भी हल होने वाली नहीं है। पानी की समस्या का हल वास्तव में समुचित जल प्रबंधन है।' उनका मत है कि जितनी राशि नदियों को जोड़ने में खर्च की जानी है उतने में बारिश का पानी रोकने और नदियों और तालाबों को बचाने में खर्च की जाए तो पानी की समस्या हल हो जाएगी। आशा की जानी चाहिए कि इस परियोजना में जो जनहित की भावना है उसे ध्यान में रख के उसके तहत कोई न कोई रास्ता निकल आएगा ताकि जल संकट से निजात मिले।
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