अम्लीय वर्षा पर्यावरण के लिए चुनौती

अम्लीय वर्षा का प्रभाव,फोटो क्रेडिट- IWP Flicker
अम्लीय वर्षा का प्रभाव,फोटो क्रेडिट- IWP Flicker

जब वर्षा जल में कार्बन डाइऑक्साइड के साथ वायुमंडल में प्रदूषित हवा में मौजूद सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा मिश्रित होती है, तो यह वर्षा जल से क्रिया करके सल्फ्यूरिक एसिड और नाइट्रिक एसिड में बदल जाती है और यही जल जब पृथ्वी पर गिरता है, तो इसे एसिड रेन अथवा अम्लीय वर्षा कहते है । वर्षा जल में अमूलों की बड़ी मात्रा को या उपस्थिति को अम्लीय वर्षा कहा जाता है। प्राकृतिक कारणों से भी शुद्ध वर्षा का जल अम्लीय होता है। इसका प्रमुख कारण वायुमंडल में मानवीय क्रियाकलापों के कारण सल्फर ऑक्साइड व नाइट्रोजन ऑक्साइड के अत्यधिक उत्सर्जन के द्वारा बनती हैं। यही गैसें वायुमंडल में पहुँचकर जल से रासायनिक क्रिया करके सल्फेट तथा सल्फ्यूरिक अम्ल का निर्माण करती है। जब यह अम्ल वर्षा के साथ धरातल पर पहुँचता है तो इसे अम्ल वर्षा कहते हैं। शुद्ध जल का PH स्तर 5.5 से 5.7  के बीच होता है। अम्लीय वर्षा जिसकी पी. एच. स्तर 5.5 से कम होती है। यदि जल का पी एच मान 4 से कम होता है तो यह जल जैविक समुदाय के लिए हानिकारक होता है।

सामान्य तौर पर वर्षा जल का स्वाद तथा उसका रासायनिक संघटन परेशान करने वाला नहीं होता परन्तु यदि कहीं पर वर्षा जल का स्वाद तथा संघटन अम्लीय हो तो यह पर्यावरण के लिए चिन्ता का कारण बन जाता है। भारतीय मौसम विभाग के कुछ वैज्ञानिकों ने विश्व मौसम संस्थान के सहयोग से भारत के दस नगरों के वर्षा जल के नमूनों का विश्लेषण कर यह बताया है कि पूना, नागपुर, विशाखापट्टनम श्रीनगर, इलाहाबाद, जोधपुर, कोटईकनाल, मिनिकोय (लक्षद्वीप) मोहनबारी तथा पोर्टब्लेयर के वर्षा जल में सल्फर डाई आक्साइड तथा नाइट्रोजन आक्साइड उच्च मात्रा में विद्यमान हैं, जिसके कारण इन शहरों की पहली बरसात को अम्लीय वर्षा के रूप में परिभाषित किया गया है। आखिर यह अम्लीय  वर्षा है क्याघ्‌ अम्लीय वर्षा शब्द का प्रयोग सामान्यतः सल्फेट तथा नाइट्रेट के नमए शुष्क अथवा कोहरे के रूप में निक्षेपण की व्याख्या करने के लिए किया जाता है। जब जीवाश्म ईंधन के जलाये जाने से उत्पन्न होने वाली सल्फर डाई आक्साइड तथा नाइट्रोजन आक्साइड वायुमंडल में विद्यमान जल के संपर्क में आते हैं तो वे सल्फर तथा नाइट्रोजन आधारित अम्लों में परिवर्तित हो जाते हैं तथा पृथ्वी पर वर्षा कोहरा या हिम के रूप में गिरते हैं। इस अम्लीय वर्षा का प्रभाव पर्यावरण के लिए खतरनाक हो सकता है। अम्लीय वर्षा से पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, पत्थर से निर्मित इमारतों, जलीय जीव-जंतुओं तथा मनुष्यों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

अम्लीय वर्षा का प्रभाव उन इलाकों पर अधिक पड़ता है जहां औद्योगिक प्रदूषण, भारी यातायात के कारण वाहनों से निकलने वाले धुओं से वायु प्रदूषण अधिक होता है या फिर बेतरतीब ढंग से शहरीकरण हुआ हो। जिन उद्योगों में कोयला अधिक जलाया जाता है, जैसे कि थर्मल पावर प्लांट इत्यादि वहां अम्लीय वर्षा का प्रभाव व खतरा अधिक बढ़ जाता है। वायुमंडल में विद्यमान सल्फेट तथा नाइट्रेट के सूक्ष्म कण हवा द्वारा दूर-दूर तक ले जाये जा सकते हैं। ऐसी हवा में गहरी सांस लेने वाले व्यक्ति के फेफड़ों तक ये सूक्ष्म कण पहुंचकर कई प्रकार की बीमारियों को जन्म देते हैं। सल्फेट तथा नाइट्रेट के सूक्ष्म कण वायु द्वारा घर के भीतर तक पहुंचा दिए जाते हैं। यही नहीं अम्लीय वर्षा के होने से वन तथा भूमि के साथ-साथ नदियों और तालाबों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ता है। वनों में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां अम्लीय वर्षा से प्रभावित होती हैं तथा नदियों, तालाबों का पानी अम्लीय हो जाने के कारण विशेष रूप से मछलियों पर बहुत बुरा असर पड़ता है। कई जगहों पर यह देखा गया है कि अम्लीय वर्षा के प्रभाव से मछलियां भारी मात्रा में मर भी जाती हैं। अम्लीय वर्षा के प्रभाव से भवन, ऐतिहासिक स्मारक तथा कारें भी क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। अम्लीय वर्षा के जल को यदि पी लिया जाये या फिर ऐसी सब्जियों का प्रयोग किया जाये जो अम्लीय वर्षा से प्रभावित भूमि या जल में उगाई गयी हों तो व्यक्ति को अल्जाईमर नामक बीमारी भी हो सकती है । अम्लीय वर्षा के प्रभाव के कारण जल आपूर्ति की पाइप लाइनें भी क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। 

पूरे विश्व में अम्लीय वर्षा की समस्या गहराती जा रही है। जर्मनी, स्वीडन, स्वीट्जरलैंड, नीदरलैंड तथा ब्रिटेन जैसे राष्ट्रों को अम्लीय वर्षा की समस्या से लगातार जूझना पड़ रहा है । अमेरिका, रूस, कनाडा, नॉर्वे जैसे राष्ट्रों के साथ- साथ अब भारत, चीन, मेक्सिको तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के कई राष्ट्रों को भी इस समस्या से जूझना पड़ रहा है। इन राष्ट्रों में बढ़ते औद्योगीकरण, शहरीकरण तथा वाहनों की अधिक संख्या के कारण वायु प्रदूषण की मात्रा भी मानकों से कहीं अधिक होती जा रही है। ऊर्जा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए थर्मल पावर संयंत्रों में भारी मात्रा में कोयला जलाया जाता है। जिन इलाकों में ऐसे संयंत्रों की संख्या अधिक है वहां वायु में सल्फर डाई आक्साइड । और नाइट्रोजन आक्साइड की मात्रा भी अधिक पायी गई है जो कि अम्लीय वर्षा के मुख्य कारक हैं। अम्लीय वर्षा के प्रभाव के कारण न केवल मौसम चक्र पर कुप्रभाव पड़ता है बल्कि मिट्टी तथा जल के रासायनिक गुणों पर भी कुप्रभाव पड़ता है। सल्फर डाइ आक्साइड तथा नाइट्रोजन | आक्साइड जब जल, आक्सीजन तथा अन्य आक्सीडेन्टों से क्रिया करते हैं तो सल्फ्यूरिक अम्ल तथा नाइट्रिक अम्ल का हल्का विलयन तैयार हो जाता है। सूर्य के प्रकाश के कारण यह अभिक्रिया  और भी तेज हो जाती है। जब यह आकाश से धरती की ओर बरसती है तो इनकी बूंदों के साथ वायु में विद्यमान अन्य हानिकारक रसायनों के कण भी घुल जाते हैं। वायु में विद्यमान कार्बन डाई आक्साइड जैसी गैस से जब अम्लीय वर्षा की बूंदे अभिक्रिया करती हैं तो वर्षा का PH मान 5.6 से भी कम हो जाता है जिसके कारण अम्लीयता और भी बढ़ जाती है।

 गौरतलब है कि जितने प्रदूषक वायुमण्डल में विद्यमान हैं उनमें से सभी अम्लीय वर्षा के साथ घुलकर पृथ्वी की सतह तक नहीं पहुंचते। आधे से अधिक अम्लीयता वायुमंडल से पृथ्वी की सतह तक वर्षा के रूप में ना होकर शुल्क निक्षेपों जैसे गैस या शुष्क कणों के रूप में पहुंचती है। हवा इन अम्लीय कणों तथा गैसों को भवनों, कारों, घरों तथा वृक्षों पर जमा कर देती है। कभी कभी ये अम्लीय कण तथा गैसें जिस वस्तु पर जमा होती हैं उसे बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर देती हैं। शुष्क रूप में निक्षेपित गैसें तथा अम्लीय कण कभी-कभी बरसात के दिनों में उन स्थानों से धो दिए जाते हैं जहां ये जमे हुए रहते हैं। ऐसी स्थिति में बहने वाला जल और भी अधिक अम्लीय हो जाता है। अम्लीय वर्षा तथा शुष्क निक्षेपित अम्लीय कणों के सम्मिश्रण को अम्लीय निक्षेप का नाम दिया गया है।
अम्लीय वर्षा के प्रभाव के रूप में वायु प्रदूषण को परिवर्तित करने वाली रासायनिक क्रियाएं कई घंटों से लेकर कई दिनों का समय ले सकती है।  जब चिमनियों की ऊंचाई बहुत कम होती थी तो वायु प्रदूषकों को आसपास की जमीन पर पहुंचने में अधिक समय नहीं लगता था। ऐसे में कम ऊंचाई वाली इन चिमनियों के धुएं से आसपास की वनस्पतियां तथा प्राणी तत्काल प्रभावित हो जाते थे । परन्तु इस स्थिति से बचने के लिए चिमनियों की ऊंचाई बढ़ाई गयी। इसके लिए सरकार की ओर से कानून 'भी बनाए गये। लोगों ने सोचा कि कारखानों से निकलने वाले धुएं को ऊँचाई पर छोड़ने से वायु प्रदूषण से कुछ हद तक मुक्ति मिल जाएगी। परन्तु वैज्ञानिकों ने इस अवधारणा को सही नहीं पाया है। प्रदूषकों को ऊंचाई पर ले जाकर छोड़ने के कारण उन्हें वायु में बने रहने का अधिक समय मिल जाता है। जितने अधिक समय तक प्रदूषक वायु में मौजूद रहेंगे उतने ही अधिक इसके अम्लीय वर्षा के रूप में परिवर्तित होने के अवसर बढ़ते जाएंगे । औद्योगिक इलाकों से दूर बसे क्षेत्र भी अम्लीय वर्षा के प्रभाव से प्रभावित होते हैं। शुष्क निक्षेपों की मात्रा सामान्यतः उन शहरों तथा औद्योगिक क्षेत्रों के समीप अधिक होती है जहां से प्रदूषक वायु में छोड़े जाते हैं

मानव जनित औद्योगिक तथा वाहन प्रदूषण के कारण उत्पन्न अम्लीय वर्षा के प्रभाव के अतिरिक्त, अम्लीय वर्षा के प्राकृतिक स्रोतों के रूप में ज्वालामुखियों, प्राकृतिक गीजरों तथा गर्म पानी के झरनों के उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। इन प्राकृतिक स्रोतों से उत्पन्न अम्ल को पुनः चक्रित करने की विधियां प्रकृति में स्वयं ही विद्यमान हैं। इन अम्लों का विघटन तथा इनका अवशोषण प्रकृति में होता रहता है। प्राकृतिक स्रोतों से उत्पन्न होने वाले अम्ल की यह अल्प मात्रा, खनिजों तथा अन्य पोषक तत्वों को मिट्टी में घोलने में सहायक होती है जिससे कि वृक्ष तथा अन्य वनस्पतियां पोषक तत्व प्राप्त करती हैं। 

अम्लीय वर्षा के प्रभाव के विषय में सन् 1800 में यूरोप वासियों को पता चला। यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका में अम्लीय वर्षा के प्रभाव सबसे अधिक दिखाई दिये हैं। यहां के कुछ विशेष पारितंत्र विशेष रूप से अम्लीय वर्षा से कुप्रभावित हुए हैं।

जिन स्थानों पर मिट्टी की परत बहुत पतली है, कैल्शियम की मात्रा बहुत कम है और वे ठोस चट्टानों के मध्य स्थित हैं वहां के सभी प्राणी. वनस्पतियां तथा बैक्टीरिया तक अम्लीय वर्षा से प्रभावित हुए हैं। वैसे विश्व भर में अम्लीय वर्षा के प्रभाव सबसे अधिक मीठे जल वाले तालाबों, सरिताओं तथा नदियों वाले पारितंत्र पर पड़े हैं और वहां के प्राणियों तथा वनस्पतियों पर इसका कुप्रभाव अधिक देखा गया है। जल आधारित पारितंत्र की तुलना में भूमि आधारित पारितंत्र अम्लीय वर्षा के प्रभाव से उतना अधिक प्रभावित नहीं हुआ है

अम्लीय वर्षा के प्रभाव के कारण जलीय जीवन के लिए जान बचाना मुश्किल हो जाता है। वहीं पर मिट्टी के रासायनिक गुणों में परिवर्तन आ जाने के कारण वनस्पतियों के विकास पर भी कुप्रभाव पड़ता है। अम्लीय वर्षा सागर के तटीय क्षेत्रों में स्थित एस्चुएरी के जल की गुणवत्ता पर भी प्रभाव डालती है। नाइट्रिक अम्ल के कारण जल में घुलित आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है । इस प्रक्रिया को हाइपोक्सिया के नाम से जाना जाता है। अम्लीय वर्षा के प्रभाव से कृषि उत्पादों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा इसके कारण वनों में वनस्पतियों के विकास पर भी कुप्रभाव पड़ते हुए देखा गया है।

अम्लीय वर्षा के कारण मनुष्यों में अनेक प्रकार के रोग जैसे कैंसर रोग का होना फेफड़ों पर बुरे असर के कारण श्वसन प्रक्रिया में कठिनाई आना, हृदय से सम्बंधित रोग आदि हो सकते हैं।

अम्लीय वर्षा का जल नदियों तथा अन्य महत्वपूर्ण जल स्रोतों में मिलकर जल को खराब कर देता है और जब हम इन्ही जल स्रोतों से प्राप्तः पानी का प्रयोग करते है तो यह हमारी पाचन क्रिया के साथ-साथ अन्य महत्वपूर्ण अंगो पर बुरा प्रभाव डालता है। अम्लीय वर्षा का जल मिट्टी में अम्लीयता को बढ़ा देता है जिसका असर पेड़- पौधों के साथ-साथ उसमें लगाने वाले फलों में भी पहुंच जाता है, जिसका प्रयोग करने पर हमारे शरीर को नुक्सान होता है।

संपूर्ण विश्व अभी ओजोन क्षरण और ग्रीन हाउस प्रभाव के दुष्परिणाम से उबर भी नहीं पाया कि अम्लीय वर्षा ने पर्यावरण को संकट में डाल दिया है। यह समस्या अभी विकसित देशों में तबाही मचा रही है, लेकिन वह दिन दूर नहीं, जब यह समस्या विकासशील देशों के आगे बड़ी हो जाएगी।

अम्लीय वर्षा पर्यावरण के सभी घटकों (भौतिक एवं जैविक) को खतरे में डाल देती है। जब मानव जनित स्रोतों से उत्सर्जित सल्फर डाई ऑक्साइड (एस ओ 2 ) एवं नाइट्रोजन ऑक्साइड (एन ओ 2 ) गैस वायुमंडल की जल वाष्प के साथ मिलकर सल्फ्यूरिक एसिड व नाइट्रिक एसिड का निर्माण करती हैं तथा यह अम्लश जल के साथ पृथ्वी के धरातल पर पहुंचता है, तो इस प्रकार की वर्षा को अम्लीय वर्षा कहते हैं।

 प्राकृतिक पर्यावरण को नष्ट करने में अम्लीय वर्षा की प्रमुख भूमिका होती है। यह वर्षा मुख्यतया कनाडा, स्वीडन, नॉर्वे, फिनलैंड, इंग्लैंड, नीदरलैण्ड, जर्मनी, इटली, फ्रांस, तथा यूनान जैसे विकसित देशों में विगत चार-पांच दशक से एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या बनी हुई है। इसने धारातल पर मौजूद संपूर्ण भौतिक एवं जैविक । जगत को खतरे में डाल दिया है।

अम्लीय वर्षा का दुष्प्रभाव एक स्थान विशेष तक ही सीमित नहीं रहता और न ही यह सल्फर डाइ ऑक्साइड तथा नाइट्रस ऑक्साइड उगलने वाले औद्योगिक एवं परिवहन स्रोतों के क्षेत्रों तक ही सीमित रहता है। यह लोगों से दूर अत्यधिक विस्तृत क्षेत्रों को भी प्रभावित करती है, क्योंकि अम्लीय वर्षा के उत्तरदायी कारक गैसीय रूप में होते हैं, जिन्हें हवा तथा बादल दूर तक फैला देते हैं। जिससे ब्रिटेन एवं जर्मनी में स्थित कारखानों से निकली सल्फर डाइऑक्साइड एवं नाइट्रस ऑक्साइड के कारण नावे, स्वीडन तथा फिनलैण्ड में विस्तृत अम्लीय वर्षा होती है, जिसके फल स्वरूप इन देशों की अधिकांश झीलों के जैवीय समुदाय समाप्त हो चुके है. इसीलिए ऐसी झीलों को अब जैविकीय दृष्टि से मृत झील कहते हैं।

अम्लीय वर्षा नामक यह पर्यावरणीय आपदा भारतवासियों को भी झेलनी पड़ सकती है। नई दिल्ली स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वायुमंडलीय विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार भारत के कुछ हिस्सों में वर्षा जल की रासायनिक प्रकृति धीरे- धीरे अम्लीयता की ओर बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार राजधानी दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र मध्य प्रदेश, तमिलनाडु एवं अंडमान द्वीपों में वर्षा जल की अम्लीयता लगातार बढ़ती जा रही है। भारत के प्रमुख औद्योगिक शहरों मुंबई, कोलकाता, कानपुर, नई दिल्ली, आगरा, नागपुर, अहमदाबाद, हैदराबाद, जयपुर, चेन्नई एवं जमशेदपुर आदि नगरों के वायुमंडल में अम्लीय वर्षा उत्पन्न करने वाली विषाक्त सल्फरडाइ ऑक्साइड गैसों की सांद्रता काफी बढ़ गई है। एक अनुमान के अनुसार सन् 1990 में हमारा देश 4400 किलो टन सल्फर हवा में छोड़ता था. जबकि आज इसकी मात्रा बढ़ कर 7500 किलो टन के आसपास है जो सन् 2015 एवं 2020 में बढ़कर कर क्रमश:10,900 किलो टन एवं 18500 किलो टन हो जाएगी।

भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर व वर्ल्ड मीट्रोलॉजिकल ऑरगनाइजेशन द्वारा किए गए अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि अधिकांश भारतीय नगरों में वर्षा जल में अम्लता का स्तर सुरक्षा सीमा से अभी कम है, लेकिन वह दिन दूरनहीं, जब अम्लीय वर्षा विकसित देशों की तरह भारत मैं भी तबाही मचाना शुरू कर देगी। भारत में भी हानिकारक गैसों की सांद्रता पर रोकथाम पूरी तरह प्रभावी नहीं हो पा रही है। अम्लीय वर्षा का पारिस्थितिक तंत्र पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इससे जल प्रदूषण बढ़ता है, जिससे इसमें रहने वाले जीव-जंतु नष्ट होने लगते हैं।

कनाडा के ओन्टोरियां प्रांत में 2,50,000 झीलों में से 50,000 झीले अम्लीय वर्षा से बुरी तरह प्रभावित हैं जिनमें से 140 झीलों को मृत घोषित कर दिया गया है । अम्लीय वर्षा का बनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, क्योंकि इससे पत्तियों की सतह पर मोम जैसी परत नष्ट हो जाती है, साथ ही पत्तियों के स्टोमेटा बंद हो जाते हैं।

इस समस्या का समाधान एक ही प्रकार से संभव है। इसके लिये घातक वायु और पदार्थ के स्त्रोत जहों से ये प्रदूषक उत्पन्न हो रहे है, उनकों वहीं पर नियंत्रित करना, और वे सभी व्यक्ति और संस्थाएं जो इस विषय पर कार्यरत है उन्हें सारी जानकरी देना।  अम्लीय वर्षा को नियंत्रित करने के लिए हमें अपने वायुमंडल से सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा को नियंत्रित करना होगा। उसके लिए औधोगिक कारखानों से निकलने वाले प्रदूषित धुएं, डीजल तथा पेट्रोल के वाहनों द्वारा एवं कोयले के जलने के कारण उत्सर्जित प्रदूषित धुआं आदि पर नियंत्रण करना होगा।  

 

राजेश कुमार मिश्रा उष्णकटिबंधीय वन अनुसंधान संस्थान

(भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार) जबलपुर
 

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