प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री और नोबल विजेता रिचर्ड फाइनमैन ने कहा था- "जहां तक मैं समझता हूं, भौतिकी के सिद्धांत चीज़ों के साथ परमाणु-दर-परमाणु फेरबदल की संभावना के खिलाफ कुछ नहीं कहते। वास्तव में यह (फेरबदल) किसी नियम का उल्लंघन नहीं है। सिद्धांतन ऐसा किया जा सकता है मगर व्यवहार में ऐसा हो नहीं पाया है क्योंकि हमारा अपना डीलडौल इतना विशाल है।अन्ततः हम रासायनिक संश्लेषण भी कर पाएंगे। कोई रसायनज्ञ आकर हमसे कहता है, "मुझे एक ऐसा अणु चाहिए जिसमें परमाणु इस-इस तरह से जमे हों।" जब किसी रसायनज्ञ को कोई अणु बनाना होता है तो वह कई विचित्र तरीके अपनाता है। वह देख लेता है कि उसके मनचाहे अणु में एक वलय है, तो वह इस रसायन को उस रसायन में मिलाएगा, उसे फेंटेगा, गरम-वरम करेगा और कई मुश्किलों से गुज़रने के बाद अन्ततः अपना मनचाहा अणु बना लेगा। जब तक मेरा परमाणु- दर-परमाणु तरीका काम करे, तब तक तो वह कोई भी चीज़ बना लेता है। तो मेरा तरीका बेकार ही जाता है। "परन्तु रोचक बात यही है कि सिद्धांत रूप में एक भौतिक शास्त्री के लिए यह संभव है कि वह रसायन शास्त्री द्वारा लिखा गया कोई भी अणु बना सकता है। हुक्म करें और भौतिकशास्त्री उसे बना डाले। कैसे? बस इतना ही तो करना है कि रसायनशास्त्री जहां-जहां कहे, वहां-वहां सही परमाणु रख दिए जाएं। यदि हम परमाणु के स्तर पर काम कर पाएं तो रसायन और जीव विज्ञान का काम बहुत आसान हो जाएगा। मुझे लगता है कि ऐसा होकर रहेगा।
एरिक ड्रेक्सलर ने 1981 में कल्पना की थी- "प्रोटीन के अणु को डिज़ाइन करने की क्षमता हासिल हो जाए तो जटिल परमाण्विक संरचनाओं के निर्माण का रास्ता खुल जाएगा और पारम्परिक सूक्ष्म स्तर की टेक्नॉलॉजी की कई समस्याएं टल जाएंगी। इसमें एक- एक परमाणु को सटीकता से जोड़कर अणु बनाए जाएंगे। इससे गणना के यंत्रों में और जैविक सामग्री के फेरबदल के क्षेत्र में बहुत प्रगति होगी।"
नैनो-टेक्नॉलॉजी की शुरुआत प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (यू.एस.ए.) में 1981 में एरिक ड्रेक्सलर द्वारा लिखे गए इसी शोध पत्र से हुई मानी जा सकती है। उस समय ड्रेक्सलर का फोकस प्रोटीन्स पर था। उनके शोध पत्र में एक तालिका थी जिसमें रोज़मर्रा के विभिन्न उपकरणों के जैविक प्रतिरूप बताए गए थे। आम तौर पर ये जैविक प्रतिरूप प्रोटीन थे। जैसे ड्रेक्सलर ने केबल्स की तुलना कोलाजेन तंतुओं से, शाफ्ट की तुलना बैक्टीरिया के फ्लेजिला से, विभिन्न बर्तनों की तुलना वेसिकल्स से, पाइप की तुलना शरीर में पाई जाने वाली नलिकाओं से की थी। इसी प्रकार से गोंद की तुलना अणुओं के बीच लगने वाले आकर्षण बलों से की गई थी। उन्होंने तो सिग्मा बंधन को आम उपकरणों में पाए जाने वाले घूमते बेयरिंग के तुल्य बताने का भी प्रयास किया था। ड्रेक्सलर ने जिस उन्मुक्त ढंग से ऐसी तुलनाएं की थीं उनसे इंजीनियरों और जैव रसायनज्ञों की शब्दावली के बीच एक सेतु बनाने में मदद मिली थी।
दरअसल ड्रेक्सलर को इस सबकी प्रेरणा उनसे भी पहले रिचर्ड फाइनमैन द्वारा दिए गए उपरोक्त प्रसिद्ध व्याख्यान से मिली थी। मिनिएचराइज़ेशन यानी सुक्ष्मीकरण सम्बंधी यह व्याख्यान फाइनमैन ने 1959 में दिया था। आज लगभग 4 दशकों बाद भी हम रसायनशास्त्रियों के बताए अनुसार परमाणुओं को जमाने से कोसों दूर हैं। मगर फाइनमैन के ज़माने से आज तक अणुओं-परमाणुओं के साथ छेड़छाड़ करने की हमारी क्षमता बहुत बढ़ गई है। नैनो-मशीनें, नैनो-रोबट्स और नैनो-टेक्नॉलॉजी विज्ञान कथाओं में बहुत लोकप्रिय हो चले हैं। मसलन माइकेल क्रिश्टन की एक कथा में बताया गया है कि नेवाडा के रेगिस्तान में बुद्धिमान नैनो-कणों का सैलाब इंसानों के शिकार पर निकल पड़ता है।
आजकल नैनो-टेक्नॉलॉजी हरेक की ज़बान पर है। किसी भी विषय पर आयोजित होने वाले सम्मेलनों की संख्या से इस बात का संकेत मिल जाता है कि विज्ञान का कोई नया क्षेत्र सामने आ रहा है या फलने-फूलने लगा है। इसी प्रकार से सरकारी एजेंसियां भी इन नए विषयों/क्षेत्रों के लिए फण्ड देना शुरू कर देती हैं। बताया जाता है कि यू.एस. संसद ने नैनो-टेक अनुसंधान व विकास के लिए 2.36 अरब डॉलर का प्रावधान रखा है। भारत में विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग ने नैनो-टेक्नॉलॉजी को एक विशेष मोर्चा मान लिया है और उम्मीद है कि अन्य सरकारी संस्थाएं भी जल्दी ही अनुकरण करेंगी। बायोटेक्नॉलॉजी विभाग ने 'नैनो-बायोटेक्नॉलॉजी' के क्षेत्र में प्रोजेक्ट्स आमंत्रित किए हैं। नैनो और बायो, ये टेक्नॉलॉजी के दो सबसे ज़्यादा लोकप्रिय उपसर्ग बन गए लगते हैं।
यह भी महत्वपूर्ण बात है कि नए नैनो-युग में नैनो- विज्ञान की अपेक्षा नैनो-टेक्नॉलॉजी को ही ज़्यादा सामने रखा जा रहा है। इसके दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह हो सकता है कि नैनो-विज्ञान पहले से ही सुस्थापित है। दूसरा कारण यह हो सकता है कि हम विज्ञान वगैरह को समझने में वक्त ज़ाया न करके सीधे इस नई टेक्नॉलॉजी से भरपूर लाभ उठाना चाहते हैं। ड्रेक्सलर के 1981 के पर्चे में इस बारे में कुछ समझ प्रस्तुत हुई थीः
"(वैज्ञानिकों के विपरीत) इंजीनियर्स के लिए यह जरूरी नहीं है कि वे सारे प्रोटीन्स को समझें, उनके लिए तो बस इतना समझना पर्याप्त है कि वे थोड़ी कोशिशों के बादउपयोगी उपकरण बना सकें। लिहाजा, प्रोटीन्स के अणुओं की जमावट का पूर्वानुमान करने में जो अड़चनें हैं उनसे प्रोटीन इंजीनियरिंग में कोई दिक्कत नहीं आती।"
आज दो दशक बाद भी टेक्नॉलॉजी के उपयोगी उपकरण बनाने के लिए 'प्रोटीन इंजीनियरिंग' के मार्ग की अड़चनें दूर नहीं हुई हैं। गूगल की मदद से इंटरनेट की तलाश करने पर नैनो-टेक्नॉलॉजी से सम्बंधित 5,36,000 प्रविष्टियां मिलीं जबकि नैनोविज्ञान की मात्र 58,000। इससे पता चलता है कि नैनो-टेक्नॉलॉजी एक लोकप्रिय शब्द है। वर्ल्ड वाइड वेब पर इसकी कुछ उल्लेखनीय परिभाषाएं निम्नानुसार हैं। मसलन, 'कारखाने में निर्मित चीजें परमाणुओं से बनती हैं। इन चीज़ों के गुण इस बात पर निर्भर हैं कि उनमें परमाणु किस तरह जमे हैं। यदि हम कोयले के परमाणुओं को नए ढंग से जमा दें तो हीरा बनता है। यदि हम रेत के परमाणुओं को फिर से जमाएं (और कुछ नए परमाणु जोड़ दें) तो कम्प्यूटर चिप बना सकते हैं। यदि हम धूल, पानी और हवा के परमाणुओं को नए ढंग से जमाएं तो आलू बना सकते हैं।'
ड्रेक्सलर के पर्चे के लगभग दो दशक बाद नैनो- टेक्नॉलॉजी में दिलचस्पी का जो उफान आया है वह विज्ञान में किसी बड़ी प्रगति के बल पर नहीं आया है। परमाणु शक्तियुक्त सूक्ष्मदर्शी और प्रकाशीय चिमटे आज भी वैज्ञानिक शोध के ही उपकरण हैं, अभी ये टेक्नॉलॉजी नहीं बने हैं। तो अचानक नैनो-टेक्नॉलॉजी मंच के केंद्र में कैसे आ धमकी? इस सवाल का जवाब खोजते हुए मुझे इस विषय की परिभाषाएं हासिल करने में तो दिक्कत हुई मगर कुछ रोचक वक्तव्य ज़रूर सामने आए। जैसे, "शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता या इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे अन्य विषयों की तरह नैनो-टेक्नॉलॉजी किसी एक विशिष्ट विषय से सम्बंधित नहीं है; इसका तो बस एक पैमाना निश्चित है: 0.1 से 100 नैनोमीटर।" (1 नैनोमीटर = 10–9 मीटर)। इसी में यू.एस. नेशनल नैनो-टेक्नॉलॉजी इनिशिएटिव के हवाले से कहा गया है: "नैनो-टेक्नॉलॉजी का सम्बंध ऐसे पदार्थों व तंत्रों से है जो अपनी अत्यंत सूक्ष्म (नैनो) साइज़ की बदौलत काफी नए व बेहतर भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणधर्म व प्रक्रियाएं प्रदर्शित करते हैं।" इंटरनेट पर नैनो-टेक्नॉलॉजी की एक अधिक ठोस परिभाषा भी मिली "हम इसे जो भी नाम दें मगर इससे हमें मदद मिलनी चाहिए कि हमः
- हर परमाणु को सही जगह जमा सकें,
- भौतिकी के नियमों के अनुरूप कोई भी रचना बना सकें,
- उत्पादन की लागत कच्चे माल व ऊर्जा की कुल लागत से बहुत अधिक न हो।"
मुझे तो ये तीनों बातें रसायन शास्त्र और रासायनिक टेक्नॉलॉजी के समान ही लगती हैं। तो क्या नैनो-टेक्नॉलाजी नए भेष में रसायनशास्त्र ही है? या क्या यह जीव विज्ञान, रसायन शास्त्र, भौतिकी और इंजीनियरिंग की सरहदों पर एक नया विषय है जो धीरे-धीरे अपनी एक पहचान अख्तियार कर लेगा? क्या यह पारम्परिक विज्ञान के नए उपयोगों को सामने लाने का प्रयास भर है? जैसा कि फाइनमैन ने 1959 में सोचा था, आज भी नैनो-टेक्नॉलॉजी की मूल आकांक्षा तो परमाणुओं को इधर-उधर करना ही है। यह तो हमेशा से रसायन शास्त्र के दायरे में रहा है रसायन और नैनो- विज्ञान को अलग-अलग करने का आधार सिर्फ साइज़ ही लगता है।
'जीव विज्ञान से प्रेरित भौतिकी' एक और जुम्ला है जो आजकल प्रचलित हो चला है। यह क्षेत्र भी आसानी से नैनो-टेक्नॉलॉजी में समाहित हो जाएगा। आजकल रसायन शास्त्र में भी ऐसे कई शब्द व जुम्ले प्रचलित हुए हैं, खासकर रसायन और भौतिकी व जीव विज्ञान के संगम बिन्दु पर। ये ऐसे शब्द हैं जो किसी पुरानी बात को नई भाषा में व्यक्त करते हैं। ये पुराने विषयों को एक ऐसा नया जामा पहनाते हैं जो संपादकों और समीक्षकों को बहुत भाता है। मसलन मेरी युवावस्था में 'अणुओं के रवे' बनते थे मगर आजकल 'अणु स्वयं को विन्यस्त' कर लेते हैं। इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप इतना परिष्कृत हो गया है कि अब नैनो-विश्व को देखना संभव हो गया है। फाइनमैन होते, तो खुश हो जाते। नतीजतन आज नैनो- टेक्नालॉजिस्ट नैनो-नलिकाओं के अपने अवलोकन अत्यंत जीवन्त ढंग से बयान करते हैं। कार्बन नैनो-नलिकाएं (फुलेरीन) पिछले कई वर्षों से उनकी प्रिय रही हैं। आजकल विज्ञान शोध साहित्य में अलग-अलग परिस्थितियों में नैनो-नलिकाओं के वर्णन मिलते हैं। जीव वैज्ञानिक भी नैनो-टेक्नॉलॉजी की भाषा का खुलकर प्रयोग करने लगे हैं। बासी पड़ गए विषयों में अचानक दिलचस्पी जाग गई है। भौतिक शास्त्रियों ने कोलॉइड्स और रसायन शास्त्रियों ने हायड्रोजन बंधन को एक बार फिर देखना शुरू किया है। संघनित अवस्था के भौतिक शास्त्री, पदार्थ वैज्ञानिक और कई रसायन शास्त्री नैनो- टेक्नॉलॉजी में कदम रख रहे हैं। जल्दी ही जीव वैज्ञानिक भी नैनो-बायोटेक्नॉलॉजी में प्रवेश करने लगेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि थोड़े नसीब और ढेर सी मेहनत के बल पर कई नई-नई टेक्नॉलॉजी उभरेंगी।
एक ओर तो पश्चिमी देशों में नैनो-टेक्नॉलॉजी के निजी उद्यमों की संख्या बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने विरोध भी तेज़ कर दिया है। माइकेल क्रिश्टन का उपन्यास 'प्रे' (शिकार) शायद इस विरोध का प्रतीक बन जाए। आम तौर पर नैनो-टेक्नॉलॉजी के हिमायती इतने बढ़ा-चढ़ाकर दावे करते हैं कि इनसे विरोधियों को ही मदद मिलती है। आने वाला वक्त दिलचस्प होगा। नैनो-टेक के हिमायती और विरोधी, दोनों ही अपनी कल्पनाशक्ति पर लगाम लगाने वाले नहीं है। बहस काफी जोर-शोर से चलेगी मगर वास्तविक सूचनाओं का अभाव होगा।
स्रोत:- स्रोत फीचर्स, नवम्बर 2003
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