अबरी ईब

मैं कलकत्ता से वर्धा जा रहा था। गाड़ी में रात को बिना कुछ ओढ़े सोया था। ओढ़ने की जरूरत नहीं थी; फिर भी यदि ओढ़ लेता तो चल सकता था। सुबह पांच बजे जब जागा तब हवा में कुछ ठंड मालूम हुई; और चद्दर की गर्मी न लेने का पछतावा हुआ। आखिर ‘अब क्या हो सकता है?’ कहकर उठा। कवियों को जितना भविष्यकाल दिखाई देता है, उतना ही बाहर का दृश्य दिखाई देता था। सारा दृश्य प्रसन्न था, मगर पूरा स्पष्ट नहीं था।

इतने में एक नदी आयी। पुल के दो छोरों के बीच उसकी धाराएं अनेक पंक्तियों में बंट गयी थी। हरेक नदी के बारे में ऐसा ही होता है। मगर यहां स्पष्ट मालूम होता था कि इस नदी ने कुछ विशेष सौंदर्य प्राप्त किया है। पतले अंधेरे में प्रभात के समय का आकाश यह तय नहीं कर पाता था कि पानी की चांदी बनाये या पुराने जमाने का चमकते लोहे का आईना बनाएं?

हम पुल के बीच में आये। मैं प्रवाह का सौंदर्य निहारने लगा। इतने में ऐसा लगा मानो किसी ने पानी के ऊपर सफेद रंग छिड़क दिया है और धीरे-धीरे उसकी अबरी बन गई है। यह रूप देखकर मैं खुश हो गया। अभी-अभी दिल्ली में जामिया मिलिया के छोटे बच्चों को कागज पर अबरी की आकृतियां बनाते हुए मैंने देखा था। मुझे ये प्राकृतिक आकृतियां बहुत आकर्षक मालूम होती हैं।

इस नदी का नाम क्या है? कौन बतायेगा? मैंने सोचा, नाम न मिला तो मैं उसे अबरी नदी कहूंगा।

नदी गई और वह कहां की है। जानने की मेरी उत्कंढा बढ़ी। क्योंकि उसके बाद धुवां छोड़नेवाली एक दो चिमनियां दिखाई दी थीं। और निकट के गांव में बिजली के दीये भी दिखाई दिये थे। रेलवे का टाईम टेबल निकालकर मैंने उससे पूछा पांच अभी ही बजे हैं। हम कहां है? उसका जवाब सुनते ही मुंह से परिचय का आनंदोद्गार निकलाः ‘ओहो! यह तो हमारी ईब है!’ रामगढ़ जाते समय उसने कितनी सुन्दर आकृतियां दिखलाई थीं! मैंने उसे कृतज्ञता की अंजलि भी दी थी ईब को मैं पहचान कैसे न सका? अबरी का यह कला-विलास सभी नदियां थोड़े बता सकती हैं।

तो इस ईब नदी ने अबरी की कला कौन-सी वर्धा-शाला में सीखी होगी? या शायद दुनिया ने अबरी-कला प्रथम इसी से सीखी होगी।

मई, 1941

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