तटबन्धों के अन्दर फंसे लोगों के यह सब मसले किसी भी राजनैतिक पार्टी के एजेन्डा में नहीं है और जो कुछ थोड़ी बहुत स्वयं सेवी संस्थाएं उस इलाके में काम कर रही हैं उनमें से अधिकांश कुछ राहत सामग्री बांट कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती हैं। बाढ़ और जल-जमाव का मसला उनके कार्य क्षेत्र में जरूर आता है मगर तटबन्धों के भीतर रहने वालों की समस्या का स्थायी या किसी भी तरह का समाधान खोजना उनके एजेण्डा में नहीं है। जल संसाधन विभाग का यह भी कहना है तटबन्धों पर लोग बसे हुये हैं और बरसात तथा बाढ़ के मौसम में लोग आस-पास के इलाकों से आकर भी बस जाते हैं। ऐसे समय में तटबन्धों के रख-रखाव के लिए गाड़ियों की आवा-जाही में बाध पड़ती है और रख-रखाव ठीक से नहीं हो पाता है जिसके कारण तटबन्ध टूट जाते हैं। तटबन्ध टूटने के बाद मरम्मत के कामों में भी तटबन्धों पर लोगों के रहने के कारण बाध पहुँचती है। सरकार ने इन लोगों को हटाने के लिये नोटिस दिया हुआ है मगर यह लोग हटते नहीं हैं। इंजीनियरों का यह भी मानना है कि इसके पीछे राजनैतिक इच्छा शक्ति का अभाव है। तटबन्धों पर रहने वाले अधिकांश लोग समाज के कमजोर वर्गों के गरीब लोग हैं और राजनैतिक दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं। सरकार और राजनैतिक पार्टियाँ इनसे झगड़ा मोल नहीं ले सकतीं। तटबन्धों पर रहने वाले लोग केवल विस्थापित ही नहीं हैं, मतदाता भी हैं। यह बात सभी जानते हैं। एक पार्टी की सरकार अगर उन्हें उजाड़ेगी तो दूसरी पार्टी उसका फायदा उठायेगी। ऐसा खतरा ज्ञान प्राप्ति के पहले के कालिदास ही उठा सकते हैं। इसी तरह सिविल एस. डी. ओसे लेकर कमिश्नर तक हर अधिकारी के पास ऐसे लोगों की सूची है जो तटबन्ध पर गैर-कानूनी दखल जमाये हुये हैं मगर कोई भी कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं है। इन लोगों को हटाने के लिये दिसम्बर 2002 तक की समय सीमा थी मगर कुछ नहीं हुआ? इंजीनियर लोग भी नहीं चाहते हैं कि इन लोगों के साथ कोई जोर-जबरर्दस्ती हो या कोई केस-मुकदमा हो क्योंकि तटबन्ध पर जूनियर से लेकर चीफ इंजीनियर तक हरेक को गुजरना पड़ता है और इन सबके लिए कोई सुरक्षा व्यवस्था भी नहीं होती। तटबन्धों से हटाये जाने वाले लोगों का गुस्सा तो इंजीनियरों पर ही निकलना है।
दरअसल 1997-98 में मधुबनी जिले में कमला और कोसी पर बने तटबन्धों पर से तथा-कथित अवैध दखल को हटाने की एक मुहिम जिला प्रशासन की ओर से चलाई गई। डंडे के जोर पर इन लोगों को खदेड़ तो दिया गया मगर यह लोग उजड़ने के बाद कहाँ जायेंगे इसके बारे में न तो उजड़ने वालों को पता था और न उजाड़ने वालों को इसकी परवाह थी। उजाड़ने वालों को तो राज्यादेश मिला हुआ था ऐसा करने के लिए। उजड़ने वाले तो पहले ही से कहीं न कहीं से उजड़ कर ही आये थे। अगर वह तटबन्धों के अन्दर के रहने वाले हों तो बहुत मुमकिन है उनके गाँव कट गये हों, घर बचे रहने का ऐसी हालत में सवाल ही नहीं उठता, इसलिए चले आये हों तटबन्ध पर रहने के लिए। दूसरा यह कि सरकार और कोसी या कमला प्रोजेक्ट की कृपा से उनके गाँव-घर, खेत-पथार पर पानी लग गया हो और वह हटने पर मजबूर हुये हों। यह भी मुमकिन है कि उनका गाँव-घर किसी टूटते तटबन्ध के मुहाने पर पड़ गया हो, वह इसलिए वहाँ तटबन्ध पर थे। तटबन्ध पर जो भी लोग तब रह रहे थे या आज भी हैं उनमें से एक भी परिवार वहाँ अपने शौक से या पिकनिक मनाने के लिये नहीं है। उनमें शायद ही कोई शख्स ऐसा होगा जिसका उसके चारों तरफ पानी से घिरा होने पर दिल बहलता हो। वहाँ जो भी है वह अपने घर-द्वार से बेदखल होने के दर्द और मजबूरी के साथ रह रहा है। कमला और कोसी नदियों के बीच रहने वालों पर तो यह बात खास तौर पर लागू होती है। इन सारे कारणों को बला-ए-ताक पर रख कर सत्ता के दम्भ पर सरकार ने उन्हें उजाड़ दिया। दबे हुये को और ज्यादा दबाने का काम उसी सरकार ने किया जिसे कभी वोट देकर खुद इन लोगों ने ही सर-आँखों पर बिठाया होगा।
यह सच है कि तटबन्धों की मरम्मत और रख-रखाव के लिए यह जरूरी है कि वहाँ किसी तरह की रुकावट या अड़चन न पड़े मगर इसके साथ यह भी उतना ही जरूरी है कि सरकार उन लोगों को यह बताये कि उन्हें कहाँ रहना चाहिये। इनमें से अधिकांश के तटबन्धों पर रहने की जिम्मेवार सरकार खुद है और वह अपनी इस जिम्मेवारी से आँखें नहीं मूँद सकती। मधुबनी जिले में जब लोग तटबन्धों से उजाड़े गये तब उनके पास रहने सहने के लिये कोई जगह ही नहीं बची। रातों-रात तटबन्धों के आस-पास की ऊँची जमीनों के भाव आसमान चढ़ गये और लम्बे अरसे तक बहुत से परिवारों को खेतों की मेंड़ पर रहना पड़ा क्योंकि पानी के बाहर पास में वही एक सार्वजिनिक जगह उपलबध थी।
तटबन्धों के अन्दर फंसे लोगों के यह सब मसले किसी भी राजनैतिक पार्टी के एजेन्डा में नहीं है और जो कुछ थोड़ी बहुत स्वयं सेवी संस्थाएं उस इलाके में काम कर रही हैं उनमें से अधिकांश कुछ राहत सामग्री बांट कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती हैं। बाढ़ और जल-जमाव का मसला उनके कार्य क्षेत्र में जरूर आता है मगर तटबन्धों के भीतर रहने वालों की समस्या का स्थायी या किसी भी तरह का समाधान खोजना उनके एजेण्डा में नहीं है। उनका स्वार्थ इसी में है कि कहीं से उन्हें पैसा मिलता रहे और वह राहत कार्य चलाते रहें या फिर कभी पर्यावरण के नाम पर, कभी लोकाधिकारों के नाम पर या कभी जीविकोपार्जन के नाम पर सभा-सेमिनार करते रहें। प्रशासनिक, राजनैतिक और तकनीकी तंत्र के छल-कपट, प्रपंच, धोखाधड़ी और वायदा खिलाफी की ओर से जान-बूझ कर आंखें बन्द रखने वाली ज्यादातर यह संस्थाएँ अपनी दाता संस्थाओं के अधिकारियों और पर्यवेक्षकों के सामने बाढ़ पूर्व तैयारी, आपदा प्रबन्धन, राहत कार्य, सशक्तिकरण और बाढ़ सह-जीवन आदि शब्दों का जोर-जोर से मंत्र-जाप ठीक उसी तरह से करती है जैसे कि गाँवों में प्राइमरी स्कूलों के बच्चे छुट्टी के पहले मास्टर साहब के सामने जोर-जोर से ‘दो का दो, दो दुनी चार, दो तियाईं छः’ चिल्लाते हैं। ऐसा होने पर मास्टर साहब भी खुश रहते हैं कि बच्चों को पहाड़े याद हैं और बच्चों का भी मनोबल ऊँचा रहता है। वास्तविक समस्याओं से दूर-दूर भागना इस तरह की बहुत सी संस्थाओं की व्यावहारिक त्रासदी है।
पहले कोसी अपनी दसियों धाराओं में बहती थी और बाढ़ का लेवेल कभी भी इतना नहीं चढ़ता था। धान की हमारी परम्परागत किस्में थीं जो कि इस इलाके में होती थीं। कोसी और कमला का पानी एक दूसरे से मिल कर जमीन को बेहद उपजाऊ बना देता था। वह सब चला गया। हमारी समस्या का अब एक ही समाधान है कि हमारी नदियों को हमें बिना किसी शर्त उनके मूल स्वरूप में हमें वापस कर दिया जाये। हम न तो तटबन्ध तोड़ने की बात करते हैं और न बराहक्षेत्र बांध की बात करते हैं। रामचन्द्र खान (ग्राम मुसहरिया, थाना जमालपुर, जिला दरभंगा) अफसोस करते हैं कि, “...यह कैसा विज्ञान है जो परिणामों के प्रति चिंता नहीं करता है। समस्या का समाधन करने के बजाय वह उसका एक स्थान से दूसरे स्थान तक विस्थापन करता है। विज्ञान किसी भी स्थान विशेष की संस्कृति के बारे में कोई जानकारी क्यों नहीं लेता? अगर मरुभूमि की अपनी जीवन शैली है तो क्या बाढ़ क्षेत्र पर वही मान्यताएं लागू होंगी? हमलोग यहाँ बाढ़ की प्रतीक्षा करते थे। हमारी कृषि उत्पादन की सारी प्रक्रिया नदी और बाढ़ से जुड़ी हुई थी। जितना गहरा पानी होता था उसी के अनुरूप लोग धन की किस्में बोते थे। ताजी मिट्टी और नदी के पानी के संयोग से रबी की जबरदस्त फसल होती थी। मछलियों की कोई कमी नहीं थी। नावों व नदियों के माध्यम से संचार व्यवस्था कायम रहती थी। दुर्गा पूजा के ढोल की आवाज के साथ एक तरह से बाढ़ की समाप्ति की घोषणा होती थी। विज्ञान के दुरुपयोग के कारण हमारी सारी नदियाँ हम से छिन गईं। हमारे खेत, हमारी खेती-बाड़ी, रहन-सहन, फूल-पत्ते, पशु-पक्षी, मंदिर-मस्जि़द और हमारी संस्कृति सब की सब इन तटबन्धों की वजह से हमारे हाथ से निकल गईं। हमारे यहाँ पानी 8 महीनें रहता है और इसके पहले कि पिछली बाढ़ का पानी सूखे, अगले साल का पानी दरवाजे पर दस्तक देने लगता है। पहले कोसी अपनी दसियों धाराओं में बहती थी और बाढ़ का लेवेल कभी भी इतना नहीं चढ़ता था। धान की हमारी परम्परागत किस्में थीं जो कि इस इलाके में होती थीं। कोसी और कमला का पानी एक दूसरे से मिल कर जमीन को बेहद उपजाऊ बना देता था। वह सब चला गया। हमारी समस्या का अब एक ही समाधान है कि हमारी नदियों को हमें बिना किसी शर्त उनके मूल स्वरूप में हमें वापस कर दिया जाये। हम न तो तटबन्ध तोड़ने की बात करते हैं और न बराहक्षेत्र बांध की बात करते हैं। बस हमारी नदी हमें वापस दे दीजिये। बाकी हम समझ लेंगे।’’
अपनी तकलीफ को बड़ी बेबाकी से बताते हैं कबिरा धाप के दीना नाथ पटेल (प्रखण्ड सलखुआ, जिला-सहरसा) कहते हैं, ‘‘आप मुझ से पूछ रहे हैं कि अगर भगवान मेरे सामने आकर खड़े हों तो मैं उनसे क्या मांगूगा? आप को दिखाई नहीं पड़ता है कि मेरा गाँव, मेरा घर मेरी आँख के सामने कट रहा है? और आप क्या सोचते हैं भगवान कभी हमारे पास आया नहीं? यहाँ जो भी आता है भगवान बन कर ही आता है। वह विधिवत हमको धोखा देता है और फिर खिसक लेता है। हो सकता है आप भी वही हों। आप हम को और हमारी तकलीफों को कहाँ-कहाँ ले जा कर बेच देंगे, हमें पता भी नहीं लगेगा। हम तो भगवान से कहेंगे कि पहले आप साबित कीजिये कि आप भगवान है तब उसके बाद आगे की बात होगी।’’
चार बार बिहार विधान सभा के सदस्य रहे परमेश्वर कुअँर (75) बताते हैं कि, ‘‘मुझे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को काला झण्डा दिखाने के इल्जाम में 1955 में उस वक्त गिरफ्तार किया गया था जब वह पूर्वी कोसी तटबन्ध का शिलान्यास करने के लिए सहरसा आये हुये थे। राजेन्द्र बाबू मुझे जानते थे और उनको जब इस बात का पता लगा तो उन्हीं के कहने पर जेल से मेरी रिहाई भी हुई। कुमार कौशलेन्द्र सिंह ने कोसी तटबन्धों के बीच पड़ने वाले सारे लोगों की एक विवरणी तैयार की थी और हम लोगों ने इन कोसी पीड़ितों की ओर से आवाजें उठाईं। यह सारे कागजात मेरे पास एमरजेन्सी तक थे मगर मेरा पूरा संकलन और लाइब्रेरी पुलिस ले गई जो कि मुझे कभी वापस नहीं मिला। हम लोगों ने एक 20 पेज का स्मार-पत्र श्रीकृष्ण सिंह, मुख्यमंत्री, बिहार को दिया था। उसका जवाब टी.पी. सिंह के यहाँ से अंग्रेजी में लिख कर आया। तब हम लोगों ने 15-20 हजार लोगों को लेकर सहरसा में प्रदर्शन किया और कई बार जेल गये। सूरज नारायण सिंह, बसावन सिंह, रामानन्द तिवारी, कर्पूरी ठाकुर और बहादुर खान शर्मा वगैरह कोसी तटबन्धों के द्वारा लोगों पर हुई नाइन्साफी के खिलाफ कितनी बार धरने पर बैठे। ...लेकिन आप ऐसी सरकार से नहीं लड़ सकते जिसने कोई काम किसी भी कीमत पर कर ही डालने की कसम खा रखी हो और जिसके पास किसी भी आन्दोलन को कुचल देने के लिए सारी ताकत है। मैं तो अब बूढ़ा हो गया हूँ और अब पहले जैसा दम-खम मुझ में नहीं है मगर मुझे अभी भी लगता है कि कोसी के तटबन्धों को सूखे के मौसम में पूरा ध्वस्त कर देना चाहिये। ऐसा करने से तटबन्ध के टूटने से होने वाला नुकसान भी नहीं होगा और नदी अगर पूर्णियाँ चली जाती है तो चली जाये। वैसे भी वह एक न एक दिन वहाँ तटबन्ध तोड़ कर पहुँच ही जायेगी।’’
दरअसल 1997-98 में मधुबनी जिले में कमला और कोसी पर बने तटबन्धों पर से तथा-कथित अवैध दखल को हटाने की एक मुहिम जिला प्रशासन की ओर से चलाई गई। डंडे के जोर पर इन लोगों को खदेड़ तो दिया गया मगर यह लोग उजड़ने के बाद कहाँ जायेंगे इसके बारे में न तो उजड़ने वालों को पता था और न उजाड़ने वालों को इसकी परवाह थी। उजाड़ने वालों को तो राज्यादेश मिला हुआ था ऐसा करने के लिए। उजड़ने वाले तो पहले ही से कहीं न कहीं से उजड़ कर ही आये थे। अगर वह तटबन्धों के अन्दर के रहने वाले हों तो बहुत मुमकिन है उनके गाँव कट गये हों, घर बचे रहने का ऐसी हालत में सवाल ही नहीं उठता, इसलिए चले आये हों तटबन्ध पर रहने के लिए। दूसरा यह कि सरकार और कोसी या कमला प्रोजेक्ट की कृपा से उनके गाँव-घर, खेत-पथार पर पानी लग गया हो और वह हटने पर मजबूर हुये हों। यह भी मुमकिन है कि उनका गाँव-घर किसी टूटते तटबन्ध के मुहाने पर पड़ गया हो, वह इसलिए वहाँ तटबन्ध पर थे। तटबन्ध पर जो भी लोग तब रह रहे थे या आज भी हैं उनमें से एक भी परिवार वहाँ अपने शौक से या पिकनिक मनाने के लिये नहीं है। उनमें शायद ही कोई शख्स ऐसा होगा जिसका उसके चारों तरफ पानी से घिरा होने पर दिल बहलता हो। वहाँ जो भी है वह अपने घर-द्वार से बेदखल होने के दर्द और मजबूरी के साथ रह रहा है। कमला और कोसी नदियों के बीच रहने वालों पर तो यह बात खास तौर पर लागू होती है। इन सारे कारणों को बला-ए-ताक पर रख कर सत्ता के दम्भ पर सरकार ने उन्हें उजाड़ दिया। दबे हुये को और ज्यादा दबाने का काम उसी सरकार ने किया जिसे कभी वोट देकर खुद इन लोगों ने ही सर-आँखों पर बिठाया होगा।
यह सच है कि तटबन्धों की मरम्मत और रख-रखाव के लिए यह जरूरी है कि वहाँ किसी तरह की रुकावट या अड़चन न पड़े मगर इसके साथ यह भी उतना ही जरूरी है कि सरकार उन लोगों को यह बताये कि उन्हें कहाँ रहना चाहिये। इनमें से अधिकांश के तटबन्धों पर रहने की जिम्मेवार सरकार खुद है और वह अपनी इस जिम्मेवारी से आँखें नहीं मूँद सकती। मधुबनी जिले में जब लोग तटबन्धों से उजाड़े गये तब उनके पास रहने सहने के लिये कोई जगह ही नहीं बची। रातों-रात तटबन्धों के आस-पास की ऊँची जमीनों के भाव आसमान चढ़ गये और लम्बे अरसे तक बहुत से परिवारों को खेतों की मेंड़ पर रहना पड़ा क्योंकि पानी के बाहर पास में वही एक सार्वजिनिक जगह उपलबध थी।
तटबन्धों के अन्दर फंसे लोगों के यह सब मसले किसी भी राजनैतिक पार्टी के एजेन्डा में नहीं है और जो कुछ थोड़ी बहुत स्वयं सेवी संस्थाएं उस इलाके में काम कर रही हैं उनमें से अधिकांश कुछ राहत सामग्री बांट कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती हैं। बाढ़ और जल-जमाव का मसला उनके कार्य क्षेत्र में जरूर आता है मगर तटबन्धों के भीतर रहने वालों की समस्या का स्थायी या किसी भी तरह का समाधान खोजना उनके एजेण्डा में नहीं है। उनका स्वार्थ इसी में है कि कहीं से उन्हें पैसा मिलता रहे और वह राहत कार्य चलाते रहें या फिर कभी पर्यावरण के नाम पर, कभी लोकाधिकारों के नाम पर या कभी जीविकोपार्जन के नाम पर सभा-सेमिनार करते रहें। प्रशासनिक, राजनैतिक और तकनीकी तंत्र के छल-कपट, प्रपंच, धोखाधड़ी और वायदा खिलाफी की ओर से जान-बूझ कर आंखें बन्द रखने वाली ज्यादातर यह संस्थाएँ अपनी दाता संस्थाओं के अधिकारियों और पर्यवेक्षकों के सामने बाढ़ पूर्व तैयारी, आपदा प्रबन्धन, राहत कार्य, सशक्तिकरण और बाढ़ सह-जीवन आदि शब्दों का जोर-जोर से मंत्र-जाप ठीक उसी तरह से करती है जैसे कि गाँवों में प्राइमरी स्कूलों के बच्चे छुट्टी के पहले मास्टर साहब के सामने जोर-जोर से ‘दो का दो, दो दुनी चार, दो तियाईं छः’ चिल्लाते हैं। ऐसा होने पर मास्टर साहब भी खुश रहते हैं कि बच्चों को पहाड़े याद हैं और बच्चों का भी मनोबल ऊँचा रहता है। वास्तविक समस्याओं से दूर-दूर भागना इस तरह की बहुत सी संस्थाओं की व्यावहारिक त्रासदी है।
पहले कोसी अपनी दसियों धाराओं में बहती थी और बाढ़ का लेवेल कभी भी इतना नहीं चढ़ता था। धान की हमारी परम्परागत किस्में थीं जो कि इस इलाके में होती थीं। कोसी और कमला का पानी एक दूसरे से मिल कर जमीन को बेहद उपजाऊ बना देता था। वह सब चला गया। हमारी समस्या का अब एक ही समाधान है कि हमारी नदियों को हमें बिना किसी शर्त उनके मूल स्वरूप में हमें वापस कर दिया जाये। हम न तो तटबन्ध तोड़ने की बात करते हैं और न बराहक्षेत्र बांध की बात करते हैं। रामचन्द्र खान (ग्राम मुसहरिया, थाना जमालपुर, जिला दरभंगा) अफसोस करते हैं कि, “...यह कैसा विज्ञान है जो परिणामों के प्रति चिंता नहीं करता है। समस्या का समाधन करने के बजाय वह उसका एक स्थान से दूसरे स्थान तक विस्थापन करता है। विज्ञान किसी भी स्थान विशेष की संस्कृति के बारे में कोई जानकारी क्यों नहीं लेता? अगर मरुभूमि की अपनी जीवन शैली है तो क्या बाढ़ क्षेत्र पर वही मान्यताएं लागू होंगी? हमलोग यहाँ बाढ़ की प्रतीक्षा करते थे। हमारी कृषि उत्पादन की सारी प्रक्रिया नदी और बाढ़ से जुड़ी हुई थी। जितना गहरा पानी होता था उसी के अनुरूप लोग धन की किस्में बोते थे। ताजी मिट्टी और नदी के पानी के संयोग से रबी की जबरदस्त फसल होती थी। मछलियों की कोई कमी नहीं थी। नावों व नदियों के माध्यम से संचार व्यवस्था कायम रहती थी। दुर्गा पूजा के ढोल की आवाज के साथ एक तरह से बाढ़ की समाप्ति की घोषणा होती थी। विज्ञान के दुरुपयोग के कारण हमारी सारी नदियाँ हम से छिन गईं। हमारे खेत, हमारी खेती-बाड़ी, रहन-सहन, फूल-पत्ते, पशु-पक्षी, मंदिर-मस्जि़द और हमारी संस्कृति सब की सब इन तटबन्धों की वजह से हमारे हाथ से निकल गईं। हमारे यहाँ पानी 8 महीनें रहता है और इसके पहले कि पिछली बाढ़ का पानी सूखे, अगले साल का पानी दरवाजे पर दस्तक देने लगता है। पहले कोसी अपनी दसियों धाराओं में बहती थी और बाढ़ का लेवेल कभी भी इतना नहीं चढ़ता था। धान की हमारी परम्परागत किस्में थीं जो कि इस इलाके में होती थीं। कोसी और कमला का पानी एक दूसरे से मिल कर जमीन को बेहद उपजाऊ बना देता था। वह सब चला गया। हमारी समस्या का अब एक ही समाधान है कि हमारी नदियों को हमें बिना किसी शर्त उनके मूल स्वरूप में हमें वापस कर दिया जाये। हम न तो तटबन्ध तोड़ने की बात करते हैं और न बराहक्षेत्र बांध की बात करते हैं। बस हमारी नदी हमें वापस दे दीजिये। बाकी हम समझ लेंगे।’’
अपनी तकलीफ को बड़ी बेबाकी से बताते हैं कबिरा धाप के दीना नाथ पटेल (प्रखण्ड सलखुआ, जिला-सहरसा) कहते हैं, ‘‘आप मुझ से पूछ रहे हैं कि अगर भगवान मेरे सामने आकर खड़े हों तो मैं उनसे क्या मांगूगा? आप को दिखाई नहीं पड़ता है कि मेरा गाँव, मेरा घर मेरी आँख के सामने कट रहा है? और आप क्या सोचते हैं भगवान कभी हमारे पास आया नहीं? यहाँ जो भी आता है भगवान बन कर ही आता है। वह विधिवत हमको धोखा देता है और फिर खिसक लेता है। हो सकता है आप भी वही हों। आप हम को और हमारी तकलीफों को कहाँ-कहाँ ले जा कर बेच देंगे, हमें पता भी नहीं लगेगा। हम तो भगवान से कहेंगे कि पहले आप साबित कीजिये कि आप भगवान है तब उसके बाद आगे की बात होगी।’’
चार बार बिहार विधान सभा के सदस्य रहे परमेश्वर कुअँर (75) बताते हैं कि, ‘‘मुझे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को काला झण्डा दिखाने के इल्जाम में 1955 में उस वक्त गिरफ्तार किया गया था जब वह पूर्वी कोसी तटबन्ध का शिलान्यास करने के लिए सहरसा आये हुये थे। राजेन्द्र बाबू मुझे जानते थे और उनको जब इस बात का पता लगा तो उन्हीं के कहने पर जेल से मेरी रिहाई भी हुई। कुमार कौशलेन्द्र सिंह ने कोसी तटबन्धों के बीच पड़ने वाले सारे लोगों की एक विवरणी तैयार की थी और हम लोगों ने इन कोसी पीड़ितों की ओर से आवाजें उठाईं। यह सारे कागजात मेरे पास एमरजेन्सी तक थे मगर मेरा पूरा संकलन और लाइब्रेरी पुलिस ले गई जो कि मुझे कभी वापस नहीं मिला। हम लोगों ने एक 20 पेज का स्मार-पत्र श्रीकृष्ण सिंह, मुख्यमंत्री, बिहार को दिया था। उसका जवाब टी.पी. सिंह के यहाँ से अंग्रेजी में लिख कर आया। तब हम लोगों ने 15-20 हजार लोगों को लेकर सहरसा में प्रदर्शन किया और कई बार जेल गये। सूरज नारायण सिंह, बसावन सिंह, रामानन्द तिवारी, कर्पूरी ठाकुर और बहादुर खान शर्मा वगैरह कोसी तटबन्धों के द्वारा लोगों पर हुई नाइन्साफी के खिलाफ कितनी बार धरने पर बैठे। ...लेकिन आप ऐसी सरकार से नहीं लड़ सकते जिसने कोई काम किसी भी कीमत पर कर ही डालने की कसम खा रखी हो और जिसके पास किसी भी आन्दोलन को कुचल देने के लिए सारी ताकत है। मैं तो अब बूढ़ा हो गया हूँ और अब पहले जैसा दम-खम मुझ में नहीं है मगर मुझे अभी भी लगता है कि कोसी के तटबन्धों को सूखे के मौसम में पूरा ध्वस्त कर देना चाहिये। ऐसा करने से तटबन्ध के टूटने से होने वाला नुकसान भी नहीं होगा और नदी अगर पूर्णियाँ चली जाती है तो चली जाये। वैसे भी वह एक न एक दिन वहाँ तटबन्ध तोड़ कर पहुँच ही जायेगी।’’
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