नदी में पानी बहने के लिए जो जगह नियत की गयी वह सर्वाधिक प्रवाह की क्षमता से आधी रखी गयी थी और इंजीनियरों को यह आशा थी कि उनका पुराना और घिसा-पिटा तर्क कि पानी को प्रवाह के लिए कम जगह मिलने पर उसका वेग बढ़ जायेगा और वह नदी की तलहटी खंगाल कर तथा किनारे काट कर उसके प्रवाह क्षेत्र को बढ़ा देगा और इस तरह बाढ़ नियंत्रण कर लिया जायेगा, एक बार फिर गलत साबित हुआ और समस्या जैसी थी वैसी ही बनी रह गयी और नदी की 80 किलोमीटर लम्बाई में किया गया यह काम प्रायः व्यर्थ हो गया।
जहाँ तक बागमती नदी का प्रश्न है, उस पर 1950 के दशक में दाहिने किनारे पर सोरमार हाट से बदलाघाट तक 145.24 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध का निर्माण हुआ। नदी के बायें किनारे पर हायाघाट से फुहिया के बीच 72 किलोमीटर लम्बे तटबन्धों का निर्माण हुआ। सरकार का दावा है कि इन तटबन्धों के निर्माण से 1140 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को बाढ़ से बचाया जा सका है। इसके बाद 1971 और 1978 के बीच बागमती नदी के ऊपरी हिस्सों में नदी के दायें किनारे पर 56.95 किलोमीटर तथा बायें किनारे पर 71.41 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध बनाये गए। इसके साथ ही लालबकेया तथा बागमती नदी के बीच स्थित बैरगनियाँ प्रखंड (जिला सीतामढ़ी) को बाढ़ से सुरक्षा देने के लिए 21 किलोमीटर लम्बाई का एक रिंग बांध भी निर्मित किया गया। सरकार का अनुमान था कि इन तटबन्धों/रिंग बांधों का निर्माण करके उसने 1849 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षित कर लिया है जिसमें बैरगनियाँ रिंग बांध के अन्दर के गाँव पूरी तरह से सुरक्षित हो गए हैं। इस तरह से बागमती का बायाँ किनारा रुन्नी सैदपुर से हायाघाट तक तथा दाहिना किनारा रुन्नी सैदपुर से सोरमार हाट तक अभी भी खुला रह गया था। इन तटबन्धों का निर्माण करके सरकार को विश्वास हो चला था कि बीच के खुले हिस्से (रुन्नी सैदपुर से सोरमार हाट के बीच) में बाढ़ या तो नदी के पानी के फैलने से आती है या फिर पानी की निकासी होने वाली कठिनाइयों के कारण ऐसा होता है।इसके बाद लगभग तीस वर्षों तक बागमती परियोजना में सब कुछ शान्त रहा। तटबन्ध निर्माण का तीसरा दौर 2006 में शुरू हुआ जब रुन्नी सैदपुर से लेकर हायाघाट तक नदी के बाकी बचे लगभग 90 किलोमीटर लम्बे तटबन्धों के निर्माण को पूरा करने की कोशिश शुरू हुई है। 792 करोड़ रुपयों की अनुमानित लागत से बनने वाले इन तटबन्धों की मदद से रुन्नी सैदपुर से लेकर हायाघाट तक के क्षेत्रों की बाढ़ से रक्षा का प्रावधान है। इस प्रयास की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट हिन्दुस्तान स्टीलवर्क्स कन्सट्रक्शन लिमिटेड नाम की एक सरकारी संस्था ने बनायी है और उसी को इस परियोजना के क्रियान्वयन का जिम्मा दिया गया है। यह विस्तृत परियोजना रिपोर्ट एक निहायत ही घटिया किस्म का दस्तावेज है। इसमें कोई तीन चैथाई हिस्से में 1983 में बनायी गयी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट से उद्धरण मात्र दिये गए हैं और योजना के औचित्य पर न तो कोई आलेख है और न ही जनता और कृषि को होने वाले किसी संभावित लाभ की चर्चा है। इस रिपोर्ट में न तो बाढ़ से होने वाली क्षति और उसके कारणों का विश्लेषण है और न उसे समाप्त करने या कम करने की कोई दृष्टि नजर आती है। इस रिपोर्ट में जब योजना के क्रियान्वयन के बाद होने वाले लाभ की कोई चर्चा नहीं है तो योजना से होने वाले अवांछित प्रभावों और उनके निदान के लिए किये जाने वाले प्रयासों का जिक्र कैसे होगा? इस रिपोर्ट में बाढ़ से सुरक्षा दिये जाने वाले क्षेत्र और उसके परिमाण तक का भी जिक्र नहीं है। अपना नाम जाहिर न किये जाने की शर्त पर बिहार के जल-संसाधन विभाग में काम कर चुके बहुत से वरिष्ठ इंजीनियरों का कहना है कि अव्वल तो हिन्दुस्तान स्टीलवर्क्स कन्स्ट्रक्शन लिमिटेड को इस तरह के काम का कोई अनुभव ही नहीं है और दूसरे यह सारा काम टुकड़े-टुकड़े कर के उनके हवाले किया गया है जिसकी कोई समेकित परियोजना रिपोर्ट बन भी नहीं सकती। वो यह भी मानते हैं कि जितने पैसे इस तथाकथित परियोजना रिपोर्ट के बनाने में खर्च किये गए उसके मुकाबले बहुत कम खर्च में जल-संसाधन विभाग यह काम खुद कर सकता था पर राजनीति ने यह होने नहीं दिया।
इस पूरे प्रकरण पर राजनैतिक हलकों में अगस्त 2009 में जबर्दस्त कीचड़ उछला था जब तिलक ताजपुर बागमती नदी का दाहिना तटबन्ध 1 अगस्त को टूट गया। कहा जाता है कि हिन्दुस्तान स्टीलवर्क्स कन्स्ट्रक्शन लिमिटेड को यह काम 2005 में तब दिया गया था जब बूटा सिंह बिहार के राज्यपाल थे और यहाँ राष्ट्रपति शासन था। पूर्व राज्यपाल ने इस आरोपको सिरे से खारिज कर दिया और वर्तमान सरकार को इसका दोषी बताया। इस पूरे मसले पर मीडिया तथा लोकसभा में गरमा गरम मगर अनिर्णित बहस हुई। विषयान्तर के कारण हम इसके विस्तार में नहीं जायेंगे।
यहाँ हम इतना जरूर कहना चाहेंगे कि जब योजना का आधार पत्र ही इतना दरका हुआ हो तो योजना के भविष्य का सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह बात अलग है कि सरकार का खुद का यह भी मानना है कि इस लम्बाई में नदी प्रायः समतल जमीन पर बहती है जिससे इसकी बाढ़ के पानी का कोसी या गंगा में निकासी होने में बहुत समय लगता है। अगर इन दोनों नदियों में से किसी में बाढ़ हो या पानी का ठहराव लम्बे समय के लिए हो जाए तो बागमती के पानी को भी ठहर जाना पड़ता है। यह ठहराव नदी से होने वाले कटाव को बढ़ाता है, तटबन्धों के ऊपर से नदी के पानी के बहने के रास्ते तैयार करता है और जल-जमाव को स्थाई बनाता है। अगर कभी दैव योग से बागमती और कोसी के साथ-साथ गंगा में भी बाढ़ आ जाए तब गंगा के पानी को वापस इन नदियों में घुसने की परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं और ऐसी परिस्थिति से निबटना आसान नहीं होता। जब सरकार ही खुद इस बात को बिना कोई लाग-लपेट या बहाना बनाये या विकल्प सुझाये इतनी सादगी और साफगोई से कबूल करती है तो फिर किसी को कोई शिकवा-शिकायत की गुंजाइश नहीं बचती। यह भविष्य में होने वाली घटनाओं और उनकी जिम्मेवारी से बच निकलने के तरीकों की ओर इशारा भी है।
यहाँ एक बात और भी ध्यान देने लायक है। इंजीनियरों के अनुसार हायाघाट से लेकर बदलाघाट तक नदी की धारा स्थिर थी, उसके कगार स्पष्ट और ऊँचे थे और उस पर तटबन्ध बना देने से कुछ लोगों का भला हो जाने की उम्मीद थी। उसी तरह ढेंग से खोरीपाकर तक छिछला होने के बावजूद नदी की धारा में कोई खास परिवर्तन नहीं होता। जो भी परिवर्तन नदी की धारा में देखे गए हैं वे आम तौर पर खोरीपाकर के नीचे और कनौजर घाट के बीच में हुए है। अस्थिर प्रवाह वाली नदियों पर तटबन्ध बनाने पर सिद्धान्ततः इन्जीनियर परहेज करते हैं। शायद इसीलिए बागमती पर तटबन्धों के निर्माण की प्रक्रिया वहाँ से शुरू हुई जहाँ उसकी धारा स्थिर थी। योजना के दूसरे फेज में ढेंग से रुन्नी-सैदपुर तक जो तटबन्ध बने उसमें भी वही सावधानी बरती जानी चाहिये थी मगर ऐसा हुआ नहीं। पता नहीं किस तकनीकी तर्क के आधार पर ढेंग से रुन्नी-सैदपुर तक तटबन्ध बनाये गए और क्यों बीच वाला हिस्सा, रुन्नी-सैदपुर से हायाघाट तक, खुला छोड़ दिया गया। हम चित्र-1.6 में देख आये हैं कि किस तरह इस दूरी के बीच नदी की धारा बदलती रही है। तटबन्ध निर्माण से बाढ़ नियंत्रण की कोशिश हमेशा से विवादास्पद रही है और अस्थिर धारा वाली नदियों पर तो यह विवाद और भी गंभीर हो जाता है। नदियों की धारा के स्थिर होने में हजारों वर्षों का समय लगता है न कि तीस वर्ष का जैसा कि बागमती परियोजना में मान लिया गया हुआ है।
अधवारा समूह की नदियों के नियंत्रण पर एक नजर
जहां तक अधवारा समूह की नदियों का प्रश्न है तो 1960 के पूर्वार्द्ध में अधवारा नदी की तलहटी की सफाई जमुरा नदी और अधवारा के संगम स्थल से लेकर ऐग्रोपट्टी तक की गई थी। इस सफाई से जो मिट्टी निकली उसी का इस्तेमाल नदी के किनारे तटबंधों की शक्ल में कर लिया गया। इस योजना की अनुमानित लागत 50 लाख रुपए थी। इन तथाकाथित तटबन्धों के बीच का फासला 400 से 800 मीटर के बीच रखा गया और ऐसी उम्मीद की गयी थी कि 1954 की बाढ़ के समय नदी का जो प्रवाह 610 से 630 क्यूमेक (21,500 क्यूसेक से 22,000 क्यूसेक) के बीच था उसे सुरक्षित रूप से बहा ले जाने की समुचित व्यवस्था हो जायेगी। नदी में पानी बहने के लिए जो जगह नियत की गयी वह सर्वाधिक प्रवाह की क्षमता से आधी रखी गयी थी और इंजीनियरों को यह आशा थी कि उनका पुराना और घिसा-पिटा तर्क कि पानी को प्रवाह के लिए कम जगह मिलने पर उसका वेग बढ़ जायेगा और वह नदी की तलहटी खंगाल कर तथा किनारे काट कर उसके प्रवाह क्षेत्र को बढ़ा देगा और इस तरह बाढ़ नियंत्रण कर लिया जायेगा, एक बार फिर गलत साबित हुआ और समस्या जैसी थी वैसी ही बनी रह गयी और नदी की 80 किलोमीटर लम्बाई में किया गया यह काम प्रायः व्यर्थ हो गया। समय-समय पर तटबन्ध टूटने की घटना ने बाढ़ की स्थिति को पहले से भी बदतर बना दिया। इससे कोई सबक न लेते हुए 1963-64 में नदी की सफाई और उसके फलस्वरूप तटबन्धों के निर्माण का एक दूसरा दौर खिरोई नदी पर ऐग्रोपट्टी से लेकर दरभंगा-बागमती से नदी के संगम एकमीघाट तक चलाया गया। तटबन्धों के विस्तार किये जाने की इस योजना पर 71.97 लाख रुपये खर्च किये जाने का अनुमान किया गया था। जाहिर है इस काम में भी सफलता न तो मिलनी थी और न मिली।
इसके अलावा लहेरियासराय और दरभंगा शहर की दरभंगा-बागमती की बाढ़ से रक्षा के लिए 1970 के दशक के पूर्वार्द्ध में मब्बी से लेकर एकमीघाट तक शहर को घेरते हुए एक सुरक्षा बांध बनाया गया जिसे बाद में सिरनियाँ तक बढ़ाया गया। यह वही स्थान है जहां दरभंगा-बागमती हायाघाट के पुल संख्या 17 से पहले बागमती नदी से मिल जाती है और सम्मिलित धारा करेह नाम से आगे बढ़ती है। दरभंगा-लहेरियासराय शहर के रिंग बांद में चार स्थान ऐसे पाए गए जहां स्थानाभाव के कारण मिट्टी का बांध आगे ले जाना संभव नहीं था। ऐसी जगहों पर ईंट या कंक्रीट का पक्का काम करके जगह की कमी को पूरा किया गया।
अध्याय-2 और 3 में हम बागमती नदी घाटी में सिंचाई तथा बाढ़ों को उनके ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखने का प्रयास करेंगे और उनसे निपटने के लिए व्यक्ति, समाज या व्यवस्था ने क्या-क्या कोशिशें कीं, उनके क्या परिणाम निकले और अब हम किस मुकाम पर खड़े हैं, इस विषय पर चर्चा करेंगे।
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