अब सुहाना लगने लगा है गिद्धों का झुंड

गिद्ध
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नेपाल में चलाए जा रहे गिद्धों के संरक्षण कार्यक्रमों का असर अब भारत के सीमाई इलाकों में भी दृष्टिगोचर होने लगा है। उत्तर प्रदेश के बॉर्डर एरिया व चंपारण से लेकर मधुबनी तक गिद्धों के विभिन्न प्रजातियों की अप्रत्याशित संख्या को देख पर्यावरणविद फुले नहीं समा रहे हैं। नेशनल कल्चर कन्जर्वेशन डिपार्टमेंट की लखनऊ में हुई बैठक में पर्यावरण विज्ञानियों ने उत्तर प्रदेश के बिहार से सटे कुछ इलाके व पश्चिमी चंपारण के वाल्मीकि नगर टाइगर प्रोजेक्ट, जिसके जंगल नेपाल से सीधे जुड़े हुए हैं।

इसके साथ ही मधुबनी तक फैले करीब एक सौ किलोमीटर इलाके को वल्चर सेफ जोन घोषित करने की आवश्यकता पर बल दिया। यही नहीं सीमाई क्षेत्रों में गिद्धों की संख्या में हुई वृद्धि के लिए नेपाल के प्रयासों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई तथा नेपाल में इनके संरक्षण के लिए किए जा रहे तरीके को भी अपनाने को कहा गया। पंडित उगम पांडेय महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. कर्मात्मा पांडेय ने बताया कि रिहाइशी मकानों पर गिद्धों का बैठना कुछ परंपरावादी लोगों को अशुभ लगता रहा है लेकिन किसी चीज की अहमियत उसके नहीं रहने पर ही महसूस होती है।

प्रकृति का सफाईकर्मी, स्केवेन्जर माना जाने वाला गिद्ध का न दिखना पर्यावरण संतुलन के लिए कितना प्रलयंकारी व अशुभ इशारा है, यह कोई पर्यावरणविद ही बता सकता है।

पर्यावरणविद प्रोफेसर रत्नेश आनंद कहते हैं, ‘प्रकृति के जीवन चक्र में सभी प्रजातियों का होना पर्यावरण संतुलन के लिए आवश्यक है। किसी भी प्रजाति के विलुप्त होने पर इसका प्रभाव पर्यावरण संतुलन पर पड़ेगा, जिससे यह संतुलन बिगड़ जाएगा। मोतिहारी के मशहूर चिकित्सक डॉ. अजय वर्मा के अनुसार गिद्धों की महत्ता जानने के बाद उमुक्त गगन में गिद्धों की परवाज अब सभी को निश्चय ही सौंदर्य का बोध कराएगा।

तभी तो पश्चिमी चंपारण के वाल्मीकि नगर में ऊंचे-ऊंचे सूखे दरख्तों पर बैठे गिद्धों के झुंड का दृश्य अब डरावना नहीं सुहाना लगने लगा है। लिहाजा वाल्मीकिनगर में जंगली पेड़ों पर गद्धों की विभिन्न प्रजातियों के अप्रत्याशित संख्या में लगे घोसलों ने वैज्ञानिकों को काफी आशावादी बना दिया है। नेपाल के चितवन में गिद्धों के लिए वल्चर ब्रिडिंग सेंटर ही नहीं बजाता उनके लिए रेस्तरां भी बनाया गया है। चितवन का यह वल्चर रेस्तरां तो पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बना है। इस रेस्तरां में गिद्धों के लिए विषरहित मांस उपलब्ध कराया जाता है।

मोतिहारी के चर्मरोग विशेषज्ञ डॉ. सुबोध कुमार ने बताया कि हमारे यहां किसानों द्वारा मवेशियों की बीमारी में डाइक्लोफेनिक दवा, दर्द निवारक का हाई डोज प्रयोग जाता रहा है जिससे डाइक्लोफेनिक का कंपोनेंट मवेशियों के यूरिक एसिड के रूप में संग्रहित हो जाता है। ऐसे मवेशियों के मरने के बाद इनके मांस खाने पर गिद्धों की किडनी संक्रमित हो फेल हो जाती है। इसी कारण गिद्धों के वंशज लुप्त हो गए हैं। जिसका कुप्रभाव यह है कि अब मवेशियों की डेड बॉडी जो पहले गिद्धों का प्रमुख भोजन था, अब हफ्तों यूं ही पड़ी रहती है। जिसकी सड़ांध से लोगों का जीना मुहाल हो जाता है।

बताया जा रहा है कि नेपाल ने भारत से सटे अपने 30,247 किलोमीटर वर्ग एरिया को डाइक्लोफेनिक जोन घोषित कर दिया है। जहां किसानों को अपने मवेशी डाइक्लोफेनिक दवाओं के प्रयोग से गुरेज करने का प्रशिक्षण दिया गया है। लगता है वह दिन दूर नहीं जब मनुष्यों का हमकदम यह परिंदा काल कलवित होने से बचेगा जिससे इकोसिस्टम की कड़ी अब टूटने से बचेगी।

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Post By: Shivendra
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