अगर हम बस चाहते हैं तो वे हमें मिलेंगी नहीं क्योंकि हमारी ऑटोमोबाइल कंपनियां भीड़ भरे शहरों के लिए कारें बनाने में व्यस्त हैं। बस बनाने की क्षमता तो उनके पास है ही नहीं। इस बाजार में सिर्फ दो ही खिलाड़ी हैं- टाटा मोटर्स और अशोक लेलैंड। ये कंपनियां भी बस नहीं बनाती। ये कंपनियां सिर्फ ट्रक की चेसिस बनाती हैं जिस पर बॉडी बिल्डर्स ठोक पीट कर बस की बॉडी फिट कर देते हैं। नतीजा यह है कि दिल्ली और हैदराबाद जैसे शहर जब आधुनिक डिज़ाइन की आरामदेह शहरी बसों के लिए टेंडर निकालते हैं तो इसकी आपूर्ति के लिए ज्यादा लोग आगे आते ही नहीं।
बाराक ओबामा के अमेरिका के राष्ट्रपति चुने जाने का भारत की बसों से क्या लेना-देना? बहुत लेना-देना है। खुद ओबामा के शब्दों में ही वे प्रतीक हैं उस तौर-तरीकों में बदलाव के जिससे हम सोचते और काम करते हैं। लेकिन अगर हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी नहीं बदलती तो इस तरह के बदलाव की बात महज लफ्फाजी ही रहेगी। बदलाव होगा, अपने मॉडल को बदलना होगा और सबसे बड़ी बात यह है कि हमें यह देखना होगा की क्या जरूरी है और किस में निवेश होना चाहिए।अच्छे विचारों को कड़वे यथार्थ में बदल कर हमने क्या सीख ली है? कोई भी जो भारत के शहरों में रहा है, ट्रैफिक और प्रदूषण से परेशान हुआ है, वह इसे स्वीकार करेगा कि सार्वजनिक परिवहन में बदलाव की जरूरत बहुत बड़ी है। लेकिन यह जवाब उतना ही अच्छा और आकर्षक है कि जितना यह कहना कि ‘हम बदलाव में यकीन रखते हैं।’
लेकिन सच यही है कि हमारे शहरों में बसों की संख्या कम हुई है, बढ़ी नहीं है। 1951 में भारत में बिकने वाले हर दस वाहन में से एक बस होती थी। आज सड़क पर आने वाले सौ वाहनों में एक बस होती है। पिछले साल ऑटोमोबाइल उद्योग ने एक और बड़ा रिकॉर्ड बनाया, उसने 15 लाख कारें बेचीं। लेकिन इस दौरान सिर्फ 38,000 बसें ही बिकीं। इसलिए कोई हैरत नहीं है कि सरकार द्वारा हाल ही में कराया गया अध्ययन कहता है कि सड़कों और फ्लाईओवर का जाल बिछाने के बावजूद हर शहर में वाहनों की औसत गति कम हुई है। प्रदूषण से फेफड़ों को होने वाले नुकसान की बात तो खैर यहां छोड़ ही देते हैं।
यह तो समस्या की शुरुआत भी है । अगर हम बस चाहते हैं तो वे हमें मिलेंगी नहीं क्योंकि हमारी ऑटोमोबाइल कंपनियां भीड़ भरे शहरों के लिए कारें बनाने में व्यस्त हैं। बस बनाने की क्षमता तो उनके पास है ही नहीं। इस बाजार में सिर्फ दो ही खिलाड़ी हैं- टाटा मोटर्स और अशोक लेलैंड। ये कंपनियां भी बस नहीं बनाती। ये कंपनियां सिर्फ ट्रक की चेसिस बनाती हैं जिस पर बॉडी बिल्डर्स ठोक पीट कर बस की बॉडी फिट कर देते हैं। नतीजा यह है कि दिल्ली और हैदराबाद जैसे शहर जब आधुनिक डिज़ाइन की आरामदेह शहरी बसों के लिए टेंडर निकालते हैं तो इसकी आपूर्ति के लिए ज्यादा लोग आगे आते ही नहीं। और आखिरी में जब इसका आर्डर दे दिया जाता है तो कंपनियां न तो बसों को पर्याप्त संख्या में दे पाती हैं और न ही समय पर। दिल्ली ने 500 लो-फ्लोर बसों का आर्डर तकरीबन एक साल पहले दिया था। अभी तक टाटा मोटर्स ने उसे सारी बसों की आपूर्ति नहीं की है। कंपनी का कहना है कि वह लखनऊ की अपनी नई इकाई में एक महीने में तकरीबन सौ बसें ही बना सकती है। इस बार दिल्ली ने 2,500 बसों का आर्डर दिया है- आधा टाटा को और आधा लेलैंड को। लेलैंड का कहना है कि वह अगले साल ही बसों की आपूर्ति शुरू कर सकती है लेकिन एक महीने में सौ से ज्यादा बसों की आपूर्ति वह नहीं कर पाएगी। दिल्ली की सड़कों पर हर रोज एक हजार नई कार आ जाती हैं। शहर अपनी उस सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को पूरी तरह बदलने को बेताब है जिसमें अभी तक निजी ऑपरेटर ही छाए हुआ हैं। इन्हें खत्म करने के लिए उसे 6,000 बसों की जरूरत होगी। लेकिन इतनी बसें आएंगी कहां से?
बाजार से तय होने वाली अर्थव्यवस्था में यकीन रखने वालों को यह सवाल परेशान नहीं करेगा। वे कहेंगे कि अगर बसों की मांग है तो कंपनियां इसे बनाएंगी ही। लेकिन यही वह बिंदु है जहां हमें उस बदलाव की जरूरत है, जिसकी ओबामा बात करते हैं। हमें उस बाजार को भी देखना होगा जहां मांग तो है लेकिन वह उपभोक्ताओं की पहुंच से बाहर है। इस समय जो बसें चल रही हैं, आधुनिक बसें उनसे महंगी होगी। क्योंकि उसमें सुविधा और आराम के लिए अतिरिक्त चीजें लगानी होंगी। इसलिए चुनौती नैनो की तरह का समाधान निकालने की है- ऐसी बस बनाना जो आरामदेह तो पूरी तरह हो लेकिन किफायती भी हो। अहमदाबाद ने जब दिल्ली की तरह की बसें खरीदनी चाही तो उसे हैरत हुई कि कंपनियों ने उनके लिए आसमान छूती कीमतें मांगी। आखिर में उसे आमतौर पर चलने वाले डीजल वाहन ही लेने पड़े, जिन्हें बॉडी बिल्डिंग से ही सुविधाजनक और आकर्षक बनाने की कोशिश हुई।
बस का बाजार कार का बाजार नहीं है और समस्या यही है। कार के बाजार को इसके उत्पादकों और क्रेडिट एजेंसियों ने बड़े ध्यान से विकसित किया है। अब उत्पादकों के इसी बाजार में वारे-न्यारे हो रहे हैं, इसलिए उनकी दिलचस्पी उन वाहनों में नहीं है जो करोड़ों लोगों को उनके ठिकानों तक पहुँचाते हैं। बस ग़रीबों का वाहन है और इसका कारोबार कोई नहीं करना चाहता। बसों को वे कंपनियां चलाती हैं जिन्होंने लोगों को लाने ले जाने का कारोबार अपनाया है। फिलहाल देश की ज्यादातर बस चलाने वाली कंपनियां घाटे में हैं। इसका आरोप सार्वजनिक क्षेत्र के निकम्मेपन पर आसानी से मढ़ा जा सकता है, लेकिन इससे असल मुद्दे से ध्यान हट जाता है।
सच यह है कि अगर हम अत्यधिक कुशल बस सेवा चला भी लेते हैं तो भी उसकी लागत इतनी ज्यादा होगी कि हमारे गरीब शहरों के बस से बाहर होगी। खासतौर पर अगर हम सड़कों पर बेहतर बसें चाहते हैं तो हमें और ज्यादा पूंजी निवेश करना होगा और जहां तक लोगों की जब व यात्रा की लागत के अंतर को भरने का सवाल है हम हवाई यात्रा पर तो सब्सिडी दे देते हैं लेकिन बसों के मामलों में इससे इंकार कर देते हैं। हम रोड टैक्स कम करके कारों पर सब्सिडी दे देते हैं लेकिन बसों पर नहीं देते। हम कारों से उनकी परिचालन लागत नहीं वसूल करते लेकिन ऐसी रियायत बसों को नहीं मिलती।
केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्रालय ने राज्यों द्वारा चलाई जा रही सार्वजनिक परिवहन सेवाओं के घाटे का जो आंकलन किया है उसके हिसाब से 2004-05 में यह घाटा कुल जमा 2,000 करोड़ रुपये था। यह घटकर 900 करोड़ रूपये हो सकता है अगर बस कंपनियों के केंद्र और राज्य के करों में रियायत दे दी जाए। अभी तक जो नीति चल रही है वह इस विचार से निकली है कि बाजार सब कुछ ठीक कर देगा। इस सोच में उस बाजार का ध्यान बिल्कुल नहीं रखा जाता कि जहां मांग तो होती है लेकिन क्रय क्षमता नहीं होती।
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