सफलता की कहानियां और केस स्टडी

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जैविक खेती का गुरू बना गोविंदपुर
Posted on 07 Nov, 2013 10:12 AM अन्न संकट दूर करने के लिए 60 के दशक में हरित क्रांति लाई गई। अधिक अन्न का उत्पादन तो जरूर हुआ, पर मिट्टी ऊसर होती गई। मिट्टी, जल व वायु प्रदूषित होती गई और मनुष्य व पशुओं की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। कृषि विज्ञान केंद्र सरैया के मृदा वैज्ञानिक के.के. सिंह रासायनिक खेती के दुष्परिणामों को गिनाते हुए कहते हैं कि पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं। पेस्टीसाइड्स और नाइट्रोजन के अधिक प्रयोग करने से वायुमंडल के साथ-साथ जल प्रदूषण भी हो रहा है। फसल की पैदावार बढ़ाने के चक्कर खेतों में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल भी धड़ल्ले से हो रहा है, जिससे मिट्टी ऊसर होती जा रही है। पहले खेतों में नाइट्रोजन की मात्रा 3-5 किलो प्रति कट्ठा के हिसाब होती थी जो आज रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल से 10-20 लौकी प्रति कट्ठा हो गई है। वजह साफ है किसानों का अत्यधिक मात्रा में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करना। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल से धरती दिनों दिन दूषित होती जा रही है और इससे जलवायु प्रदूषण का खतरा बढ़ रहा है। यह प्रकृति के साथ-साथ फसल चक्र को भी प्रभावित कर रहा है।
पहिया पानी
Posted on 27 Oct, 2013 04:26 PM

भारत के कई ग्रामीण इलाकों में पानी काफी दूर-दूर से लाना पड़ता है। घड़े, मटके और नए आए प्लास्टिक के घड़े भी महिलाओं को सिर पर उठाकर ही चलना पड़ता है। कई जगहों पर तो महिलाओं को 5-10 किलोमीटर दूर से भी जरूरत का पानी लाना पड़ता है। इस काम में उन्हें रोजमर्रा के कई-कई घंटे लगाने पड़ते हैं। घर की औरतों के अलावा बच्चियों को भी इस काम में लगाया जाता है। बच्चियों की शिक्षा-दिक्षा और स्वास्थ्य काफी प्

water wheel
परंपरा का पुनः प्रयोग
Posted on 23 Aug, 2013 10:58 AM सूखे से पस्त बुंदेलखंड जैसे इलाकों को वित्तीय पैकेज की नहीं बल्कि परंपरा से उपजे उस प्रयोग की जरूरत है जो देवास का कायाकल्प करके महोबा पहुंच चुका है..

देवास के हर गांव में आज सफलताओं की ऐसी कई छोटी-बड़ी कहानियां मौजूद हैं। पानी और चारा होने के कारण लोगों ने दोबारा गाय-भैंस पालना शुरू कर दिया है और अकेले धतूरिया गांव से ही एक हजार लीटर दूध प्रतिदिन बेचा जा रहा है। पर्यावरण पर भी इन तालाबों का सकारात्मक असर हुआ है। आज विदेशी पक्षियों और हिरनों के झुंड इन तालाबों के पास आसानी से देखे जा सकते हैं। किसानों ने भी पक्षियों की चिंता करते हुए अपने तालाबों के बीच में टापू बनाए हैं। इन टापुओं पर पक्षी अपने घोंसलें बनाते हैं और चारों तरफ से पानी से घिरे रहने के कारण अन्य जानवर इन घोंसलों को नुकसान भी नहीं पहुंचा पाते।

किस्सा 17वीं शताब्दी का है बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल के बेटे जगतराज को एक गड़े हुए खज़ाने की खबर मिली जगतराज ने यह ख़ज़ाना खुदवा कर निकाल लिया। छत्रसाल इस पर बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने इस खज़ाने को जन हित में खर्च करने के आदेश दिए, जगतराज को आदेश मिला कि इस खज़ाने से पुराने तालाबों की मरम्मत की जाए और नए तालाब बनवाए जाएं, उस दौर में बनाए गए कई विशालकाय तालाब आज भी बुंदेलखंड में मौजूद हैं, सदियों तक ये तालाब किसानों के साथी रहे। कहा जाता है कि बुंदेलखंड में जातीय पंचायतें भी अपने किसी सदस्य को गलती करने पर दंड के रूप में तालाब बनाने को ही कहती थीं। सिंचाई से लेकर पानी की हर आवश्यकता को पूरा करने की ज़िम्मेदारी तालाबों की होती थी।
‘राज और समाज’ का साझा प्रयास: बकुलाही पुनरोद्धार
Posted on 03 Aug, 2013 10:58 AM

बकुलाही का मुद्दा सिर्फ प्यासे समाज अथवा बकुलाही के भगीरथ समाज शेखर का अकेला नहीं रहा बल्कि अब यह मुद्दा अर्थात बकुलाही का पुनरोद्धार राज और समाज की साझा ज़िम्मेदारी बन गया है। जिसे युद्ध स्तर पर पूरा करने का प्रयास ‘राज और समाज’ दोनों कर रहे है। ‘राज और समाज’ के साझा प्रयास एवं साझी संस्कृति का यह उदाहरण प्रदेश का एक नायाब उदाहरण बन चुका है। बकुलाही नदी की धारा को 25 वर्ष पहले कुछ निहित स्वार्थों की खातिर बीच से ‘लूप कटिंग’ कर तकरीबन 18 किमी. छोटा कर दिया गया था। इस कृत्य के बाद 18 किमी. के इर्द-गिर्द बसे करीब 25 खुशहाल गाँवों से उनकी हरियाली रूठती चली गई। जल स्तर नीचे गिरता चला गया।

प्रतापगढ़ के दक्षिणांचल में ज्वालामुखी की तरह सुलग रहे बकुलाही के मुद्दे को लगता है एक राह मिल गई है। पानी के प्यासे समाज के एक लंबे संघर्ष के बाद प्यास बुझाने की उम्मीद जाग गई है। बकुलाही पुनरोद्धार अभियान के बैनर तले जो जनांदोलन चल रहा था, उसे उसका अभीष्ट नजर आने लगा है। समाज शेखर की अगुवाई में अपनी नदी, अपने पानी के लिए ‘प्यासा समाज’ ने जागृति का जो शंखनाद किया उससे ‘राज’ की तन्द्रा टूट गई और समाज के इस महायज्ञ में आहुति डालने के लिए ‘राज’ आगे बढ़कर ‘समाज’ के बगल खड़ा हो गया।
मछली पालन कला है और खेल भी
Posted on 02 Jul, 2013 12:45 PM डोकाद गांव में अब खेती और जंगल के अलावा मछली पालन भी अहम रोजगार का रूप धारण कर चुका है। जिसके कारण गांव में लोगों की न सिर्फ आमदनी बढ़ी है बल्कि रोजगार के नाम पर होने वाला पलायन भी रुक गया है। अब नौजवान परदेस जाकर कमाने की बजाय विजय ठाकुर की तरह गांव में ही मछली पालन में रोजगार ढ़ूढ़ंने लगे हैं। यहां किसान कर्ज लेने के एक साल में ब्याज समेत चुका देता है। किसी भी इलाके के विकास के लिए केवल सरकार की योजनाएं ही काफी नहीं है। यदि समुदाय चाहे तो सरकारी योजनाओं का इंतजार किए बगैर मिसाल कायम कर सकता है। रांची से 35 किलोमीटर दूर जोन्हा पंचायत इसका उदाहरण है। जिसने विगत 6 सालों से मछली पालन से समृद्धि तो की है साथ ही गांव के विकास और पानी के श्रोत तथा मलेरिया जैसे बीमारियों पर भी काबू पा लिया। अनगड़ा प्रखंड का डोकाद गांव के विजय ठाकुर कभी अखबार से जुड़े हुए थे। लेकिन गांव के विकास और सामाजिक काम करने के प्रति उनकी इच्छाशक्ति के आगे उन्होंने इस काम को छोड़ दिया और गांव में ही रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए प्रयास करने लगे।
तालाब से खुशहाल हुआ किसान
Posted on 20 May, 2013 02:54 PM सन् 2005 में महोबा में आया सूखा बृजपाल सिंह के लिए एक नया संकट का दौर लेकर आया। उनके कुओं में पानी सूख गया। पीने के पानी की किल्लत इतनी भयावह हो गई कि उन्हें अपनी 6-9 लीटर दूध देने वाली भैसें भी औने-पौने दाम पर बेचनी पड़ी और वे उस साल कोई फसल भी ले नहीं सके। उनके खेतों के बीच से मिट्टी कटाव की वजह से बरसाती नाली बनने लगी थी। भूजल की अनुपलब्धता, बरसाती नाली से मिट्टी का कटाव एवं ज्यादा पानी आना; ये कुछ ऐसे कारण थे, जिससे दोनों फसल ले पाना संभव नहीं था। बृजपाल सिंह पुत्र श्री रामसनेही सिंह ग्राम बरबई,कबरई महोबा के एक किसान हैं। लगभग पचास की उम्र पार कर चुके बृजपाल सिंह और उनके परिवार के पास 34.6 एकड़ की खेती है। बृजपाल सिंह के गांव बरबई में कोई कैनाल (नहर) नहीं है। भूजल की उपलब्धता काफी नीचे है। बृजपाल सिंह ने अपने खेत को सिंचित करने के लिए डीप बोरवेल और बोरवेल का सहारा लेने की कोशिश की। अपने खेत के अलग-अलग हिस्सों में तीन बोरवेल लगभग 200 फिट के करवाए लेकिन तीनों असफल रहे। उनमें पानी नहीं उपलब्ध हो सका चौथा बोरवेल उन्होंने 680 फिट गहराई तक करवाया,उन्हें उम्मीद थी कि इतनी गहराई तक तो पानी मिल ही जायेगा पर उनकी उम्मीद पर पानी फिर गया और उन्हें पानी नहीं मिला।
पांडरपुरी के ग्रामीण बना रहे खंडी नदी में बाँध
Posted on 11 Jan, 2013 11:31 AM

छत्तीसगढ़ के एक गांव में डेढ़ सौ महिला-पुरुषों ने उठाया बीड़ा


श्रमदान कर खंडी नदी में बांध बनाने जुटे पांडरपुरी के ग्रामीणश्रमदान कर खंडी नदी में बांध बनाने जुटे पांडरपुरी के ग्रामीणप्रशासन की लगातार उपेक्षा के बाद गांव की निस्तारी की समस्या को हल करने ग्राम पांडरपुरी के ग्रामीणों ने 150 फीट चौड़ी खंडी नदी में श्रम दान कर अस्थाई बाँध बनाने का बीड़ा उठाया। ग्रामीणों ने 6 जनवरी से बाँध बनाने की शुरुआत भी कर दी है। सीमेंट की खाली बोरियों में रेत भर कर बनाए जा रहे इस अस्थाई बाँध में कोई रकम नहीं लगेगी बल्कि पुरा निर्माण श्रमदान से ही संपन्न होगा। इसके लिए गांव के 150 से अधिक महिला पुरुष जुट कार्य में जुटे हैं।
एक छोटे से देश में पेड़ों की बड़ी दीवार
Posted on 31 Dec, 2012 03:41 PM जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये अफ्रीका ने सेनेगल से लेकर जिबॉटी तक पेड़ों की 14 किलोमीटर चौड़ी और 6400 किलोमीटर लम्बी हरित दीवार बनाना तय किया है। बढ़ते हुए रेगिस्तानीकरण को रोकने के लिये बनी इस विवादास्पद परियोजना को अब सेनेगल में आकार मिलना शुरू हो गया है। यहां पहले ही 50,000 एकड़ जमीन पर पेड़ लगा दिये गये हैं। अटलांटिक महासागर की गोद में बसा एक छोटा सा प्रायद्वीप है-सेनेगल। राजधानी है डकार। जो विशाल देश चीन की तरह एक दीवार बना रहा है। पर यह दीवार पत्थरों की नहीं, पेड़ों की हैं जो हजारों मील दूर दुनिया के सबसे बड़े रेगिस्तान सहारा से उठने वाली रेतीली आंधियों के आक्रमण से मुकाबला करने के लिए है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि कम वर्षा इस इलाके में पेड़ों की यह दीवार रेत की आंधी को रोक सकेगी। और इलाके में समृद्धि भी ला सकेगी। इस पुनीत काम के लिए विश्व बैंक सहित अनेक दानदाता संस्थाएं भी आगे आई हैं। डकार ने इस साल कई रेतीले तूफान झेले हैं। यहां रेतीली धूल इस कदर आती है कि उसके गुबार से ऊची इमारतें तक ढंक जाती है, इस तूफान ने यहां के निवासियों को झकझोर दिया है। उष्ण कटिबंधीय सेनेगल में मानसून का मौसम जुलाई-अगस्त में शुरू होता था पर मौसम के बदलाव के चलते यह मानसून अब सितम्बर में खिसक चला है।
दुर्लभ बीजों का रखवाला
Posted on 24 Dec, 2012 02:12 PM देश में खेती छोटे किसानों के हाथों से छूटकर बड़े निजी कारर्पोरेट घरानों के कब्जे में जा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों से पीढ़ियों से खेती में लगे हमारे किसानों के हजारों वर्षो के ज्ञान, उनके द्वारा अपनाए जा रहे खेती के नए-नए तरीकों और जैव विविधता को ही धीरे-धीरे नष्ट कर दिया है। ऐसे में देबल देब जैस लोगों के प्रयास भले ही छोटे नजर आए पर देश के खाद्य उत्पादन प्रक्रिया के पर्यावरणीय व सामाजिक रूप से ठप्प हो जाने पर देश में भोजन की पूर्ति के लिए ये कदम काफी महत्वपूर्ण होंगे। ओडिशा के रायगड़ा जिले में एक बसाहट के बाहर केरोसीन लैंप से रोशन, दो कमरों वाली झोपड़ी, इस आदिवासी इलाके में किसी दूसरे किसान की झोपड़ी की ही तरह है। पर इस झोपड़ी के अंदर घुसते ही, एक कोने में, खाट के नीचे रखे, परची लगे हजारों मिट्टी के बरतन देखकर आप हैरान हो जायेंगे। इन बरतनों में चावल की 750 से ज्यादा दुर्लभ प्रजातियों का खजाना है। इस बीज बैंक के रखवाले हैं- देबल देब। जो पिछले 16 सालों से इन दुर्लभ प्राकृतिक बीजों का संग्रहण एवं संरक्षण कर रहे हैं। उनका एकमात्र सहारा वे किसान हैं जो आज भी इन्हीं विरासती बीजों पर निर्भर हैं। झोपड़ी से ही लगा हुआ उनका एक छोटा- सा खेत है, जहां देब अपने बीजों को संरक्षित करने के लिये इन प्रजातियों को उगाते हैं। यह जमीन बमुश्किल आधा एकड़ है। मतलब साफ है देब को हर प्रजाति के लिये कोई चार वर्ग मीटर की जमीन मिल पाती है जिसमें वे धान की सिर्फ 64 बालियां उगा सकते हैं।
तालाब हैं तो गांव हैं
Posted on 21 Nov, 2012 09:45 AM झारखंड की कुल आबादी का 80 प्रतिशत कृषि एवं इससे संबंधित कार्यों पर निर्भर है। जबकि कृषि योग्य भूमि कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 48 प्रतिशत ही है। इसमें भी सिंचाई सुविधा महज 10 प्रतिशत पर ही उपलब्ध है। जबकि राष्ट्रीय औसत 40 प्रतिशत है। रबी में तो यह और घट जाता है। यानी 90 प्रतिशत से अधिक कृषि वर्षा पर आधारित है। जिस साल बारिश अच्छी हुई उस साल ठीक-ठाक उत्पादन होता है और जिस साल बारिश नहीं हुई, उस साल स्थिति चिंताजनक हो जाती है। पलायन एवं बेरोजगारी बढ़ जाती है।
लहना गांव का मुख्य तालाब
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