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Since ancient times, communities in Rajasthan have preserved these orans, and their lives have been inextricably entwined with them. (Image: Ranjita Mohanty)
सरकारी वन भूमि
Posted on 12 Feb, 2010 06:38 PM कहावत है-आंख से दूर, मन से दूर। पिछले चार-पांच सालों में सारा ध्यान आंखों के सामने चले समाजिक वानिकी कार्यक्रमों पर केंद्रित रहा है। इसमें भी खेतों और पंचायती जमीनों में पेड़ लगाने के काम पर ज्यादा बस चली है। लेकिन जो 7.5 करोड़ हेक्टेयर जंगल आंखों से दूर वन विभाग के नियंत्रण में है, उसकी हालत पर लोगों का ध्यान बिलकुल नहीं गया। बुरा हो उस उपग्रह का, जिसकी पैनी निगाह ने इन वनों की खस्ता हालत उघाड़कर
फिर भी दबदबा जारी है
Posted on 12 Feb, 2010 04:45 PM नई दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के श्री दिनेश कुमार का कहना है कि देश की कृषि-वन संवर्धन योजना में सफेदे के पेड़ों की प्रमुख भूमिका है। खेतों के बीच सफेदा लगाइए, वह तेज हवा को रोक लेता है, मिट्टी में नमी बढ़ाता है और तपन कम करके आसपास की फसलों को बल देता है। इन्हीं कारणों से गुजरात में गेहूं की पैदावार में 23 प्रतिशत और सरसों की पैदावार में 24 प्रतिशत वृद्धि हुई है। आंध्रप्रदेश में मूंगफ
मिट्टी का सत्व
Posted on 12 Feb, 2010 02:46 PM यह लुटेरा पानी के साथ-साथ मिट्टी को भी लूट रहा है पर मामले में भी बहस जारी है। कर्नाटक सरकार की सलाहकार समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि संकर सफेदे के कारण मिट्टी का सत्व बढ़ता है या नहीं, इस बात पर निर्भर है कि संकर सफेदा कैसी मिट्टी में बोया जाता है और कितना घना बोया जाता है। उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों को हटाकर लगाया गया सफेदा वर्षावनों की तुलना में कम पोषक तत्व लौटाता है। लेकिन अगर वह कमजोर खेतो
सफेदे का जलस्रोतों पर प्रभाव
Posted on 12 Feb, 2010 02:39 PM उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ वन अधिकारी श्री एएन चतुर्वेदी, सफेदे द्वारा ज्यादा पानी खींच लिए जाने के बारे में कहते हैं कि “किसी भी जगह दूसरे पेड़ जितना पानी खींचते हैं, उतने ही सफेदे उतनी ही जगह पर और उतने ही क्षेत्र में उससे ज्यादा पानी खींच लेते हैं। देहरादून के केंद्रीय मृदा व जल संरक्षण शोध केंद्र के श्री आरके गुप्ता बताते हैं कि कम बारिश वाली जगहों पर सफेदे की जड़े ऊपरी सतह से बिलकुल भीतर इस कद
सफेदा : कई रंग
Posted on 12 Feb, 2010 12:06 PM कहा जाता है कि सफेदा हमारे देश में लगभग दो सौ साल पहले दिखाई दिया था। 1790 में टीपू सुल्तान ने कोलार जिले के नंदी पर्वत पर 16 किस्म के सफेदे लगवाए थे। उसकी कुल 500 किस्मों में से 170 को भारत में आजमाया गया और पांच किस्में बड़े पैमाने पर लगाई गईं। सबसे पहले बड़े पैमाने पर 1856 में नीलगिरि पहाड़ पर यूकेलिप्टस ग्लोबुलुस नामक किस्म लगाई गई। शंकर सफेदा या युकेलिप्टस भूटिकोर्निस, जिसे ‘मैसूर गम’ कहते है
सफेदे पर बहस
Posted on 12 Feb, 2010 11:55 AM सफेदा एकदम सीधे तने वाले पेड़ों में से एक है। लेकिन उसके बारे में जो बहस उठी है, वह सीधी नहीं है।
बदली प्राथमिकता
Posted on 12 Feb, 2010 11:46 AM विश्व बैंक के अधिकारी वाशिंगटन के अपने अनजान प्रशंसकों के लिए अपने बारे में चाहे जो प्रचार करते रहें, लेकिन यहां कम से कम इस मामले में उनकी साख गिरी है। ये अधिकारी निजी बातचीत में स्वीकार करते हैं कि उन्हें काफी सबक मिल गया है, इसलिए सामाजिक वानिकी के एक प्रमुख अंग के रूप में वे उजड़ चुके वन लगाने पर जोर देने लगे हैं ताकि ईंधन की पूर्ति हो सके। वे जोर देकर बताते हैं कि विश्व बैंक आजकल बंजर वन भूमि
हार मान ली गई
Posted on 12 Feb, 2010 11:10 AM अगर सचमुच ईंधन और चारे की चिंता है और सरकार सबसे ज्यादा गरजमंदों को कुछ फायदा पहुंचाना चाहती है तो फिर ये सारे कार्यक्रम भूमिहीन, छोटे और सीमांत किसानों के लिए चलाने होंगे। विश्व बैंक की मदद से दुनिया भर में चल रहे वन संवर्धन कार्यक्रम के एक सर्वेक्षण में बैंक ने स्वीकार किया है कि इस मामले में वह असफल रहा है। “भूमिहीन लोगों के लिए पर्याप्त ईंधन, छवाई की लकड़ी और चारा उपलब्ध कराना शायद सभी सरकारों
आंखें खोल देने वाला सर्वेक्षण
Posted on 12 Feb, 2010 10:57 AM इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एनवायर्नमेंट एंड डेवलपमेंट ने विश्व बैंक के लिए गुजरात के लकड़ी बाजार का एक अध्ययन किया था। वर्तमान बाजार की मांग अगर निकट भविष्य में पूरी हो जाती है तो इस स्थिति का असर किसानों की वन-खेती पर उलटा पड़ सकता है। इस आशंका से परेशान विश्व बैंक ने अपना सारा ध्यान व्यापारिक लकड़ी की मांग बनाए रखने के लिए नए बाजार ढूंढने पर लगाया है। जैसे शहरी ईंधन की मांग, निर्माण कार्य में लगन
वन-खेती
Posted on 12 Feb, 2010 10:52 AM सामाजिक वानिकी का स्वरूप बिगाड़ने का मुख्य कारण है इमारत निर्माण और रेयान और कागज उद्योग के लिए जरूरी लुगदी वाली लकड़ी का शहरी बाजारों में मिलना मुश्किल हो जाना। सरकार ने वन-खेती को जो बढ़ावा दिया और आर्थिक सुविधाओं का जो आश्वासन दिया, उससे बड़े किसानों की पौ बारह हो गई। छोटी अवधि की खेती के बजाय लंबे समय के पेड़ों के खेती करने पर कम मजदूरों से भी काम चल जा
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