सफलता की कहानियां और केस स्टडी

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एक छोटे से देश में पेड़ों की बड़ी दीवार
Posted on 31 Dec, 2012 03:41 PM जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये अफ्रीका ने सेनेगल से लेकर जिबॉटी तक पेड़ों की 14 किलोमीटर चौड़ी और 6400 किलोमीटर लम्बी हरित दीवार बनाना तय किया है। बढ़ते हुए रेगिस्तानीकरण को रोकने के लिये बनी इस विवादास्पद परियोजना को अब सेनेगल में आकार मिलना शुरू हो गया है। यहां पहले ही 50,000 एकड़ जमीन पर पेड़ लगा दिये गये हैं। अटलांटिक महासागर की गोद में बसा एक छोटा सा प्रायद्वीप है-सेनेगल। राजधानी है डकार। जो विशाल देश चीन की तरह एक दीवार बना रहा है। पर यह दीवार पत्थरों की नहीं, पेड़ों की हैं जो हजारों मील दूर दुनिया के सबसे बड़े रेगिस्तान सहारा से उठने वाली रेतीली आंधियों के आक्रमण से मुकाबला करने के लिए है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि कम वर्षा इस इलाके में पेड़ों की यह दीवार रेत की आंधी को रोक सकेगी। और इलाके में समृद्धि भी ला सकेगी। इस पुनीत काम के लिए विश्व बैंक सहित अनेक दानदाता संस्थाएं भी आगे आई हैं। डकार ने इस साल कई रेतीले तूफान झेले हैं। यहां रेतीली धूल इस कदर आती है कि उसके गुबार से ऊची इमारतें तक ढंक जाती है, इस तूफान ने यहां के निवासियों को झकझोर दिया है। उष्ण कटिबंधीय सेनेगल में मानसून का मौसम जुलाई-अगस्त में शुरू होता था पर मौसम के बदलाव के चलते यह मानसून अब सितम्बर में खिसक चला है।
दुर्लभ बीजों का रखवाला
Posted on 24 Dec, 2012 02:12 PM देश में खेती छोटे किसानों के हाथों से छूटकर बड़े निजी कारर्पोरेट घरानों के कब्जे में जा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों से पीढ़ियों से खेती में लगे हमारे किसानों के हजारों वर्षो के ज्ञान, उनके द्वारा अपनाए जा रहे खेती के नए-नए तरीकों और जैव विविधता को ही धीरे-धीरे नष्ट कर दिया है। ऐसे में देबल देब जैस लोगों के प्रयास भले ही छोटे नजर आए पर देश के खाद्य उत्पादन प्रक्रिया के पर्यावरणीय व सामाजिक रूप से ठप्प हो जाने पर देश में भोजन की पूर्ति के लिए ये कदम काफी महत्वपूर्ण होंगे। ओडिशा के रायगड़ा जिले में एक बसाहट के बाहर केरोसीन लैंप से रोशन, दो कमरों वाली झोपड़ी, इस आदिवासी इलाके में किसी दूसरे किसान की झोपड़ी की ही तरह है। पर इस झोपड़ी के अंदर घुसते ही, एक कोने में, खाट के नीचे रखे, परची लगे हजारों मिट्टी के बरतन देखकर आप हैरान हो जायेंगे। इन बरतनों में चावल की 750 से ज्यादा दुर्लभ प्रजातियों का खजाना है। इस बीज बैंक के रखवाले हैं- देबल देब। जो पिछले 16 सालों से इन दुर्लभ प्राकृतिक बीजों का संग्रहण एवं संरक्षण कर रहे हैं। उनका एकमात्र सहारा वे किसान हैं जो आज भी इन्हीं विरासती बीजों पर निर्भर हैं। झोपड़ी से ही लगा हुआ उनका एक छोटा- सा खेत है, जहां देब अपने बीजों को संरक्षित करने के लिये इन प्रजातियों को उगाते हैं। यह जमीन बमुश्किल आधा एकड़ है। मतलब साफ है देब को हर प्रजाति के लिये कोई चार वर्ग मीटर की जमीन मिल पाती है जिसमें वे धान की सिर्फ 64 बालियां उगा सकते हैं।
तालाब हैं तो गांव हैं
Posted on 21 Nov, 2012 09:45 AM झारखंड की कुल आबादी का 80 प्रतिशत कृषि एवं इससे संबंधित कार्यों पर निर्भर है। जबकि कृषि योग्य भूमि कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 48 प्रतिशत ही है। इसमें भी सिंचाई सुविधा महज 10 प्रतिशत पर ही उपलब्ध है। जबकि राष्ट्रीय औसत 40 प्रतिशत है। रबी में तो यह और घट जाता है। यानी 90 प्रतिशत से अधिक कृषि वर्षा पर आधारित है। जिस साल बारिश अच्छी हुई उस साल ठीक-ठाक उत्पादन होता है और जिस साल बारिश नहीं हुई, उस साल स्थिति चिंताजनक हो जाती है। पलायन एवं बेरोजगारी बढ़ जाती है।
लहना गांव का मुख्य तालाब
लापोड़िया गांव : खबरों में नहीं बहा
Posted on 09 Nov, 2012 10:27 AM हम छोटे-छोटे लोगों ने जैसी छोटी-छोटी योजनाएं बनाईं, हमारे बड़े देवता इंद्र ने उनको अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया। और हमें जो प्रसाद बांटा है उसका हम ठीक-ठीक वर्णन भी आपके सामने नहीं कर पाएंगे। अब हमारे गांव में खूब अच्छी बरसात आए, तो आनंद आता है, बाढ़ नहीं आती। पानी तालाबों में भरता है, विशाल गोचर में थोड़ी देर विश्राम करता है, धरती के नीचे उतरता है। नीचे से धीरे-धीरे झिरते हुए गांव के कुंओं में उतरता है। हमारे यहां तब तक पानी गिरा नहीं था। अगस्त का पहला हफ्ता बीत गया था। आसपास, दूर-दूर सूखा ही सूखा था। सूखा राहत का काम भी शुरू हो रहा था कि अगले दिन बरसात आ गई। सात अगस्त 2012 तक सूखा। और ये लो भई आठ अगस्त से राजस्थान में राजधानी जयपुर समेत दूर-दूर बाढ़ आ गई। बाढ़ राहत की मांग उठने लगी और वह काम भी शुरू हो गया!
प्लास्टिक से हरी-भरी सड़क
Posted on 20 Sep, 2012 05:02 PM आज के समय में प्लास्टिक कचरा एक गहरी चिंता का विषय बना हुआ है। बढ़ते प्लास्टिक कचरे की वजह से पर्यावरण को काफी नुकसान हुआ है। प्लास्टिक कचरे में मौजूद रासायनिक अवयव धरती की उर्वरा शक्ति को खत्म कर देता है। ऐसे में प्लास्टिक कचरे से निपटने के लिए त्यागराज अभियांत्रिकी महाविद्यालय मदुरै के रसायनशास्त्र के प्रोफेसर आर माधवन ने लगभग एक दशक पूर्व बेकार प्लास्टिक से डेढ़ किलोमीटर सड़क बनवाकर भविष्य में बड़े खतरे के खिलाफ लोगों को आश्वस्त किया। केके प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट नामक कंपनी ने अपने नेटवर्क के जरिये देश भर में लगभग आठ हजार किलोमीटर प्लास्टिक की सड़कें बनवायी हैं, बता रहे हैं घनश्याम श्रीवास्तव।

प्लास्टिक कचरे की समस्या से जूझते देश में सड़क निर्माण की इस तकनीक से कई राज्यों को एक नयी राह दिखी है। नगालैंड जैसे छोटे राज्य में लगभग 150 किलोमीटर लंबी सड़क इसी तकनीक से बनायी जा चुकी है। अब ओडिशा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश और पांडिचेरी में भी बेकार प्लास्टिक और बिटुमेन मिश्रित सड़कें जल्द ही बननी शुरू हो जायेंगी। विशेषज्ञों के अनुसार, तकनीकी भाषा में कहें तो इस तकनीक से बनी सड़कों की 'मार्शल स्टैबिलिटी वैल्यू' (सड़क की गुणवत्ता का मानक) बढ़ जाती है। हाल के वर्षों में विश्व बिरादरी के लिए प्लास्टिक कचरा गहरी चिंता का सबब बना है। बेकार का प्लास्टिक काफी समय तक नष्ट नहीं होता। इसमें मौजूद रासायनिक अवयव धरती की उर्वरा शक्ति नष्ट कर देते हैं और कई सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व ही इसके कारण खत्म हो चुका है। बेकार प्लास्टिक से बने पॉलिथिन के पैकेट खाकर मर रही गायें और कई शहरों में जल निकास प्रणाली का संकट इसी की देन हैं। लेकिन अब बेकार प्लास्टिक का उपयोग एक उपयोगी काम में हो रहा है।
इजराइली सहयोग की फसल
Posted on 24 Aug, 2012 03:06 PM इजराइल के सहयोग से भारत के कई सूखे इलाकों में इजराइली जल तकनीकों का इस्तेमाल कर फसल उगाने की कोशिश हो रही है और कोशिश कामयाबी की मिसाल भी बनती जा रही है। बीकानेर , महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों, हरियाणा के राजस्थान से जुड़े इलाकों में इजराइली जल तकनीकों से भरपूर फसल ली जा रही है। कामयाबी की नई इबारत के बारे में बता रहे हैं कुणाल मजूमदार।

राजस्थान में हुए इस प्रयोग से उत्साहित इजराइल अब पूरे देश में खेती और बागवानी के अलग-अलग क्षेत्रों में यही सफलता दोहराने की तैयारी में है। इस दिशा में पहला कदम बढ़ाया भी जा चुका है जब 2008 में दोनों देशों के लिए बीच एक कृषि सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर हुए। दिसंबर, 2011 में भारत और इजराइल के कृषि मंत्रालयों ने तीन साल की एक योजना को आखिरी स्वरूप दिया। इसमें कृषि विशेषज्ञों के संयुक्त दौरे, परिचर्चाएं और किसानों के लिए कोर्स जैसी चीजें शामिल हैं।

राजस्थान के बीकानेर से दक्षिण-पूर्व की तरफ बढ़ने पर हर तरफ या तो रेत पसरी नजर आती है या फिर छोटी-मोटी झाड़ियां।
सामुदायिक वन प्रबंधन से जंगलों का लौटाया जीवन
Posted on 01 Aug, 2012 05:48 PM डम-डमा-डम-डम-डम, वन की रक्षा अपनी सुरक्षा
वनों का न करो नाश, जीवन हो जाएगा सत्यानाश
डम-डमा-डम-डम-डम, वन की रक्षा अपनी सुरक्षा


रऊफ अंसारी ने वनों की सुरक्षा व संवर्धन के लिए गांव वालों को संगठित करने की मुहीम शुरू की। पंचायत मुख्यालय डमडोईया गांव के चौपाल पर ग्रामीणों की बैठक बुलाई। बैठक में जंगल की सुरक्षा व संवर्धन की बात उठाई, तो सबने उनका समर्थन किया। राजेश्वर मोची और बलि महतो उनकी मुहीम के अहम कड़ी बने। राजेश्वर ने बैठक में ही जंगलों की सुरक्षा को लेकर प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया। बलि महतो ने जंगल बचाने के लिए आजीवन जंगल की सुरक्षा में लगे रहने का वचन दिया। गांव के अन्य लोगों ने भी उन्हें साथ देने का वादा किया।

जंगल बचाने के लिए 36 वर्षीय राजेश्वर मोची का प्रचार का तरीका थोड़ा अलग है। वह अपने बाएं कंधे से लटकाए ढाक के ताल से तान मिलाकर लोगों से जंगल बचाने की गुजारिश करते फिरता है। वह ढाक बजाकर लोगों को बड़े ही अनोखे अंदाज में यह बताता है कि जंगल जीवन के लिए जरूरी है। अगर जंगल नहीं बचेंगे तो जीवन भी संकट में पड़ जाएगा।
एक व्यक्ति के प्रयास से हरी-भरी हुई पहाड़ी
Posted on 20 Jul, 2012 10:09 AM बंजर जमीनों पर सरकार तथा बिल्डर्स लॉबी की आंखें लगी हुई हैं कि कहां ऐसी जमीन मिले और हम अपने फायदे के लिए अपार्टमेंट्स बना लें। ऐसा ही एक घटना पुणे के सुस और बनेर गांव की है जहां पहाड़ी के बंजर जमीन पर सरकार तथा बिल्डरों की नजरें लगी हुईं थीं। लेकिन बापू कलमरकर के प्रयास से उस पहाड़ी पर हरे-भरे जंगल तथा डैम बन जाने से पहाड़ी की बंजर जमीन बच गई। कलमरकर के प्रयास से हरी-भरी हुई पहाड़ी के बारे में बता रहे हैं एन रघुरामन।

जब कलमरकर और उनके गांव के साथियों को यह पता चला कि सरकार इस पहाड़ी का सीमांकन करने पर विचार कर रही है, तो उन्होंने साथ मिलकर इसे बचाने की योजना बनाई। उन्होंने तय किया कि इस पहाड़ी का तेजी-से वनीकरण किया जाए, क्योंकि बंजर जमीन के मुकाबले जंगली जमीन को बचाना ज्यादा आसान होता है। उन्होंने वहां पर वर्षाजल को एकत्रित करने के लिए छोटे-छोटे डैम बनाए, ताकि पौधरोपण में आसानी हो सके।

किसी भी फैलते शहर में जमीन एक बहुमूल्य संसाधन है।
पहाड़ के माथे पर हरा तिलक
Posted on 11 Jul, 2012 10:12 AM

गांव वाले तो कहते थे महालिंग व्यर्थ की मेहनत कर रहा है। लेकिन महालिंग को गांव के लोगों की आलोचना सुनाई तक नहीं देती थी। असफल होने का डर भी उन्हें नहीं लगता था। हां वे चार बार असफल भी रहे। सुरंग बनाई। लेकिन पानी नहीं मिला। मेहनत बेकार चली गई। लेकिन महालिंग ने हार नहीं मानी। वे लोगों से कहते रहे कि एक दिन ऐसा आएगा जब मैं यहीं इसी जगह इतना पानी ले आऊंगा कि यहां हरियाली का वास होगा।

दक्षिण कन्नड़ के किसान महालिंग नाईक पोथी वाली इकाई-दहाई तो नहीं जानते लेकिन उन्हें पता है कि बूंदों की इकाई-दहाई, सैकड़ा-हजार और फिर लाख- करोड़ में कैसे बदल जाती है। 58 साल के अमई महालिंग नाईक स्कूल कभी गए ही नहीं। उनकी शिक्षा-दीक्षा और समझ खेतों में रहते हुए ही बनी और संवरी थी।
महालिंग नाइक का प्रयास सफल हुआ
सूखे से निपटती छोटी जल परियोजनाएं
Posted on 30 Jun, 2012 10:31 AM

बेलू वाटर नामक संस्थान ने कोरसीना बांध परियोजना के लिए 18 लाख रुपये का अनुदान देना स्वीकार कर लिया। इस छोटे बांध की योजना में न तो कोई विस्थापन है न पर्यावरण की क्षति। अनुदान की राशि का अधिकांश उपयोग गांववासियों को मजदूरी देने के लिए ही किया गया। मजदूरी समय पर मिली व कानूनी रेट पर मिली। इस तरह गांववासियों की आर्थिक जरूरतें भी पूरी हुईं तथा साथ ही ऊंचे पहाड़ी क्षेत्र में पानी रोकने का कार्य तेजी से आगे बढ़ने लगा।

जहां एक ओर बहुत महंगी व विशालकाय जल-परियोजनाओं के अपेक्षित लाभ नहीं मिल रहे हैं, वहां दूसरी ओर स्थानीय लोगों की भागेदारी से कार्यान्वित अनेक छोटी परियोजनाओं से कम लागत में ही जल संरक्षण व संग्रहण का अधिक लाभ मिल रहा है।
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