बंजर जमीनों पर सरकार तथा बिल्डर्स लॉबी की आंखें लगी हुई हैं कि कहां ऐसी जमीन मिले और हम अपने फायदे के लिए अपार्टमेंट्स बना लें। ऐसा ही एक घटना पुणे के सुस और बनेर गांव की है जहां पहाड़ी के बंजर जमीन पर सरकार तथा बिल्डरों की नजरें लगी हुईं थीं। लेकिन बापू कलमरकर के प्रयास से उस पहाड़ी पर हरे-भरे जंगल तथा डैम बन जाने से पहाड़ी की बंजर जमीन बच गई। कलमरकर के प्रयास से हरी-भरी हुई पहाड़ी के बारे में बता रहे हैं एन रघुरामन।
बापू कलमरकर पुणे की टेल्को फैक्ट्री में काम करने वाले एक आम वर्कर हैं, जो फैक्ट्री में काम के घंटों के दौरान जमकर काम करते हैं और लंच के बाद अपने सहकर्मियों के साथ गेम्स रूम में थोड़ी देर खेलते हैं। अपने घर-परिवार में भी पिछले कई सालों से वह एक अच्छे पति व पालक की भूमिका निभाते आ रहे हैं। जब कलमरकर और उनके गांव के साथियों को यह पता चला कि सरकार इस पहाड़ी का सीमांकन करने पर विचार कर रही है, तो उन्होंने साथ मिलकर इसे बचाने की योजना बनाई। उन्होंने तय किया कि इस पहाड़ी का तेजी-से वनीकरण किया जाए, क्योंकि बंजर जमीन के मुकाबले जंगली जमीन को बचाना ज्यादा आसान होता है। उन्होंने वहां पर वर्षाजल को एकत्रित करने के लिए छोटे-छोटे डैम बनाए, ताकि पौधरोपण में आसानी हो सके।
इन बांधों को स्थानीय तौर पर उपलब्ध पत्थरों से निर्मित करते हुए यह सुनिश्चित किया गया कि बेशकीमती वर्षाजल की बूंद-बूंद को सहेजकर वापस पृथ्वी में पहुंचाया जाए। इसके बाद कुछ लोगों ने अपनी ओर से कुछ धन जुटाकर एक संगठन बनाया और कुछ पौधों के सैंपल खरीदकर उन्हें यहां रोपित कर दिया। वे इस पहाड़ी पर गड्ढे खोदने और पोखरों के निर्माण के लिए वीकेंड में घंटों काम करते हैं। हरेक पोखर के आसपास तेल की खाली कुप्पियों और रंगरोगन की बाल्टियों को रखा गया ताकि आसपास के अपार्टमेंट्स या कालोनियों में रहने वाले लोग वीकेंड्स पर या मॉर्निंग वॉक के लिए वहां आएं, तो इन पौधों को पानी दे सकें।
यह कई लोगों के लिए हरित तीर्थाटन की तरह था, जो पौधों को पानी देना, गाय या कुत्ते को रोटी खिलाने की तरह पुण्य का काम मानते हैं। अपनी आंखों के आगे बंजर, पथरीली जमीन का कायाकल्प होते देख और भी लोग इसके साथ जुडऩे लगे। अब यह अभियान सिर्फ बनेर गांव के रहवासियों तक सीमित नहीं रहा, वरन आस-पास के अपार्टमेंट में रहने वाले लोग भी इसमें शामिल हो गए। इन नए जुडऩे वाले लोगों में ऊंचे-ऊंचे पदों पर काम करने वाले उच्च शिक्षित प्रोफेशनल्स भी शामिल थे। उन्होंने बनेर पहाड़ी को हरी-भरी बनाना अपनी कॉर्पोरेट जिम्मेदारियों का हिस्सा समझा और अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इसमें अहम योगदान दिया। आज यह पहाड़ी काफी खूबसूरत नजर आती है, जो अपने मजबूत कंधों पर खुशी-खुशी नवागत हरियाली को संभाल रही है।
Email : raghu@mp.bhaskarnet.com
जब कलमरकर और उनके गांव के साथियों को यह पता चला कि सरकार इस पहाड़ी का सीमांकन करने पर विचार कर रही है, तो उन्होंने साथ मिलकर इसे बचाने की योजना बनाई। उन्होंने तय किया कि इस पहाड़ी का तेजी-से वनीकरण किया जाए, क्योंकि बंजर जमीन के मुकाबले जंगली जमीन को बचाना ज्यादा आसान होता है। उन्होंने वहां पर वर्षाजल को एकत्रित करने के लिए छोटे-छोटे डैम बनाए, ताकि पौधरोपण में आसानी हो सके।
किसी भी फैलते शहर में जमीन एक बहुमूल्य संसाधन है। बिल्डर्स हमेशा पहाड़ी इलाकों के आसपास प्रॉपर्टी की तलाश में रहते हैं ताकि वे वहां पर छोटी-सी खूबसूरत 'टाउनशिप' विकसित कर सकें, जिसमें 'हिल व्यू' जैसे आकर्षक नाम वाले बड़े-बड़े बंगले हों। पुणे शहर भी इसका अपवाद नहीं है। वहां पर सुस और बनेर गांव के बीच में सदियों पुरानी एक पहाड़ी स्थित है। इसकी हल्की ढलान लगभग बंजर है और कहीं-कहीं छोटे-छोटे हिस्सों में ही घास नजर आती है। अब इस पहाड़ी का कायाकल्प हो रहा है। इसकी ढलानों पर हजारों पौधे रोपे जा रहे हैं, जो हवा के झोंकों के साथ झूमते रहते हैं। ये खालिस भारतीय पौधे हैं, जिनमें बरगद, पीपल, नीम, इमली, सीताफल, आंवला, अमरूद, आम, कटहल, जामुन, खैर, बबूल जैसे कई नाम शामिल हैं। यह कायाकल्प की प्रक्रिया पिछले कुछ सालों से चल रही है। इसके पीछे एक ही व्यक्ति का हाथ है, जिसका नाम है बापू कलमरकर।बापू कलमरकर पुणे की टेल्को फैक्ट्री में काम करने वाले एक आम वर्कर हैं, जो फैक्ट्री में काम के घंटों के दौरान जमकर काम करते हैं और लंच के बाद अपने सहकर्मियों के साथ गेम्स रूम में थोड़ी देर खेलते हैं। अपने घर-परिवार में भी पिछले कई सालों से वह एक अच्छे पति व पालक की भूमिका निभाते आ रहे हैं। जब कलमरकर और उनके गांव के साथियों को यह पता चला कि सरकार इस पहाड़ी का सीमांकन करने पर विचार कर रही है, तो उन्होंने साथ मिलकर इसे बचाने की योजना बनाई। उन्होंने तय किया कि इस पहाड़ी का तेजी-से वनीकरण किया जाए, क्योंकि बंजर जमीन के मुकाबले जंगली जमीन को बचाना ज्यादा आसान होता है। उन्होंने वहां पर वर्षाजल को एकत्रित करने के लिए छोटे-छोटे डैम बनाए, ताकि पौधरोपण में आसानी हो सके।
इन बांधों को स्थानीय तौर पर उपलब्ध पत्थरों से निर्मित करते हुए यह सुनिश्चित किया गया कि बेशकीमती वर्षाजल की बूंद-बूंद को सहेजकर वापस पृथ्वी में पहुंचाया जाए। इसके बाद कुछ लोगों ने अपनी ओर से कुछ धन जुटाकर एक संगठन बनाया और कुछ पौधों के सैंपल खरीदकर उन्हें यहां रोपित कर दिया। वे इस पहाड़ी पर गड्ढे खोदने और पोखरों के निर्माण के लिए वीकेंड में घंटों काम करते हैं। हरेक पोखर के आसपास तेल की खाली कुप्पियों और रंगरोगन की बाल्टियों को रखा गया ताकि आसपास के अपार्टमेंट्स या कालोनियों में रहने वाले लोग वीकेंड्स पर या मॉर्निंग वॉक के लिए वहां आएं, तो इन पौधों को पानी दे सकें।
यह कई लोगों के लिए हरित तीर्थाटन की तरह था, जो पौधों को पानी देना, गाय या कुत्ते को रोटी खिलाने की तरह पुण्य का काम मानते हैं। अपनी आंखों के आगे बंजर, पथरीली जमीन का कायाकल्प होते देख और भी लोग इसके साथ जुडऩे लगे। अब यह अभियान सिर्फ बनेर गांव के रहवासियों तक सीमित नहीं रहा, वरन आस-पास के अपार्टमेंट में रहने वाले लोग भी इसमें शामिल हो गए। इन नए जुडऩे वाले लोगों में ऊंचे-ऊंचे पदों पर काम करने वाले उच्च शिक्षित प्रोफेशनल्स भी शामिल थे। उन्होंने बनेर पहाड़ी को हरी-भरी बनाना अपनी कॉर्पोरेट जिम्मेदारियों का हिस्सा समझा और अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इसमें अहम योगदान दिया। आज यह पहाड़ी काफी खूबसूरत नजर आती है, जो अपने मजबूत कंधों पर खुशी-खुशी नवागत हरियाली को संभाल रही है।
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