खंडवा (पूर्व निमाड़) जिला

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इंदिरा सागर बांध को 260 मीटर से ज्यादा भरना गैरकानूनी
Posted on 31 May, 2013 09:13 AM अग्रवाल ने चेतावनी दी कि बिना जमीन और पुनर्वास के वे डूब नहीं आने देंगे और सागर परियोजनाकर्ता की ओर से सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ ऐसे कोई गैर कानूनी कदम उठाने का प्रयास किया जाएगा तो हजारों विस्थापित और उनके साथ देश भर के लोग पानी में उतरेंगे।नर्मदा बचाओ आंदोलन ने कहा है कि नर्मदा घाटी के खंडवा जिले के इंदिरा सागर बांध को 260 मीटर से अधिक भरने पर कानूनी रोक है। आंदोलन ने चेतावनी दी है कि यदि विस्थापितों के हितों की अनदेखी की गई तो जल सत्याग्रह शुरू किया जाएगा।

आंदोलन के प्रवक्ता आलोक अग्रवाल ने शुक्रवार को कहा कि गत चार जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने बिना पुनर्वास के इंदिरा सागर बांध में 260 मीटर के ऊपर पानी भरने पर मध्य प्रदेश सरकार से दो हफ्ते में जवाब मांगा था। लेकिन पांच महीने के बाद भी प्रदेश सरकार ने जवाब नहीं दिया है। इससे साफ है कि सरकार सैकड़ों घरों व खेतों को गैर कानूनी डूब की सच्चाई न्यायालय के सामने नहीं रख पा रही है। अग्रवाल ने उन खबरों को आधारहीन बताया कि इंदिरा सागर बांध में 262 मीटर तक पानी भरा जाएगा। उन्होंने कहा कि वासितविकता यह है कि बांध में 260 मीटर के ऊपर पानी भरने पर कानूनी रोक है। गत वर्ष 262 मीटर तक भरा गया पानी पूरी तरह अवैध था। प्रदेश सरकार की यह कार्रवाई हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ थी। इसके खिलाफ नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई है। उस पर न्यायालय की ओर से जवाब मांगने पर भी सरकार ने अभी तक कोई उत्तर नहीं दिया है।

उपभोक्ता फोरम ने पानी के निजीकरण संबंधी अधिसूचना पर रोक लगाई
Posted on 28 Jan, 2013 09:56 AM एक महत्‍वपूर्ण घटनाक्रम में खण्‍डवा के उपभोक्ता फोरम ने दिनांक 31 दिसंबर 2012 में स्‍थानीय नगरनिगम को आदेश दिया है कि वह पानी के निजीकरण संबंधी नोटिफिकेशन पर प्राप्‍त समस्‍त आपत्तियों का निराकरण करें। अगली सुनवाई 22 जनवरी 2013 निर्धारित की गई है।

आपको जानकारी होगी कि खण्‍डवा (मध्‍यप्रदेश) में जलप्रदाय का निजीकरण किया जा रहा है। नगरनिगम ने इस संबंध में 3 दिसंबर 2012 को एक अधिसूचना प्रकाशित कर नागरिकों से आपत्ति / सुझाव माँगें हैं निजीकरण के खिलाफ नागरिकों की प्रतिक्रिया उत्‍साहवर्धक रही। 2 जनवरी 2013 तक 10,334 से अधिक नागरिकों ने पीपीपी, निजीकरण और 24/7 जलप्रदाय के खिलाफ अपनी आपत्तियां दर्ज करवाई है।

आग भेद नहीं करती
Posted on 04 Oct, 2012 04:15 PM विकास परियोजनाओं के क्रियान्वयन में बरती जा रही हृदयहीनता साफ दर्शा रही है कि सरकार एवं आम नागरिकों के मध्य खाई बढ़ती जा रही है। आवश्यकता इस बात की है कि आपसी समझबूझ से योजनाएं लागू की जाएं। प्रस्तुत आलेख विकास योजनाओं में हो रही अनिमितताओं को उजागर करने वाली तीन लेखों की श्रृंखला का अंतिम लेख है।
आखिरी लड़ाई की जद्दोजहद
Posted on 28 Sep, 2012 04:49 PM

बांध और विकास योजनाओं की नींव में पत्थर नहीं डले, बल्कि आदिवासियों और ग्रामीणों की हड्डियां डाली गई। आज तक भारत

मगर सत्ताधीशों को शर्म नहीं आती
Posted on 27 Sep, 2012 04:35 PM

मध्य प्रदेश सरकार कहती है हमने शिकायत निवारण केंद्र बना रखा है। उसमें आइए और अपनी शिकायत करिए। आंदोलन करने की को

जल सत्याग्रह: न्याय का आग्रह
Posted on 25 Sep, 2012 03:09 PM देश में चल रही बड़ी परियोजनाओं का दो कारणों से जनविरोध है। पहला ज्यादातर परियोजनाएं गांव, जंगल और नदियों, समुद्र के आसपास हैं और उन पर लोगों की आजीविका ही नहीं बल्कि उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान भी निर्भर करती है इसलिए उन परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लोग प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा चाहते हैं। वे एक एकड़ जमीन के बदले 10 लाख रुपए नहीं, बस उतनी ही जमीन चाहते हैं। वे एक सम्मानजनक पुनर्वास चाहते हैं। दूसरा, लोग यानी समाज जानता है कि यदि जंगल खत्म हो गए, नदियां सूख गईं और हवा जहरीली हो गई तो मानव सभ्यता खत्म हो जाएगी। मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में स्थित घोघलगांव और खरदना गांव में 200 लोग 17 दिनों तक नर्मदा नदी में ठुड्डी तक भरे पानी में खड़े रहे। वे न तो कोई विश्व रिकार्ड बनाना चाहते थे और ना ही उन्हें अखबार में अपना चित्र छपवाना था। बल्कि विकास के नाम पर उनकी जलसमाधि दी जा रही थी, जिसके विरोध में उन्होंने जल सत्याग्रह शुरू किया। उनका कहना था कि यदि यह बांध देश के विकास के लिए बना है तो इससे उनके जीवन के अधिकार को क्यों खत्म किया जा रहा है। वैसे भी जमीन, पानी और प्राकृतिक संसाधन ही उनके जीवन के अधिकार के आधार हैं। मध्यप्रदेश में दो बड़े बांधों - इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर से बिजली बनती है और इनसे थोड़ी बहुत सिंचाई भी होती है। इन बांधों के दायरे के बाहर की दुनिया को इन बांधों से बिजली मिलती है और उनके घर इससे रोशन होते हैं। रेलगाड़ियां भी चलती हैं। नए भारत के शहरों को, उन उद्योगों को, जो रोजगार खाते हैं, मॉल्स और हवाई अड्डों को भी यही की बिजली रोशन करती है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन का जल सत्याग्रह
Posted on 20 Sep, 2012 04:19 PM नर्मदा बचाओ आंदोलन का यह 26वां साल है। मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के घोघलगांव में हुआ जल सत्याग्रह नर्मदा बचाओ आंदोलन को नया खाद-पानी दे गया। मीडिया और आम लोगों के बीच इस बार के जल सत्याग्रह को काफी जगह मिली और लोगों की सहानुभूति जल सत्याग्रह को मिला। पूरी तरह अहिंसक और अपनी जमीन पर चला यह सत्याग्रह हिंसक आंदोलनों के लिए नसीहत बनकर उभरा और अहिंसक संघर्षों को ताकत दे गया। हालांकि म.प्र. सरकार के वादों की असलियत तो बाद में ही पता चलेगी फिर भी इस आंदोलन की सफलता अहिंसक लोकतांत्रिक हथियार को धारदार कर गया, बता रहे हैं शिरीष खरे।

पिछले कुछ महीनों के दौरान देश में अन्ना आंदोलन से लेकर परमाणु संयंत्र विरोध और जमीन अधिग्रहण जैसे मसलों पर तमाम आंदोलन हुए लेकिन जैसी कामयाबी जल सत्याग्रह के हिस्से में आई वैसा उदाहरण कोई दूसरा देखने को नहीं मिला। ऐसे में यह सवाल सहज ही उठ रहा है कि क्या इस जल सत्याग्रह ने कई दिनों से सुसुप्त-से दिख रहे अपने मातृआंदोलन- नर्मदा बचाओ आंदोलन में नई जान डाल दी है। पिछले दिनों जल सत्याग्रह के चलते मध्य प्रदेश के खंडवा जिले का घोघलगांव सुर्खियों में आया और उसी के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन भी। नर्मदा घाटी में जल सत्याग्रह का तरीका नया नहीं है। 1991 में मणिबेली (महाराष्ट्र) का सत्याग्रह जल समाधि की घोषणा के साथ ही चर्चा में आया था। तब से कई जल सत्याग्रह हुए। लेकिन इस बार का जल सत्याग्रह अपनी लंबी समयावधि और मीडिया में मिली चर्चा की वजह से बहुत अलग रहा।
नर्मदा बचाओ आंदोलन की महत्वपूर्ण विजय
Posted on 14 Sep, 2012 04:32 PM इंदौर। नर्मदा बचाओ आंदोलन के जल सत्याग्रह के 17वें दिन अंततः मध्यप्रदेश सरकार को झुकना पड़ा एवं जल सत्याग्रहियों की दो प्रमुख मांगों बांध के जल स्तर को घटाकर 189 मीटर पर लाने एवं जमीन के बदले जमीन देने की पुनर्वास नीति के अंतर्गत समाहित शर्त को पूरा किए जाने पर अपनी सहमति भी जतानी पड़ी। गौरतलब है कि खंडवा जिले के घोघलगांव में आंदोलन की प्रमुख कार्यकर्ता चित्तरूपा पालित एवं 50 अन्य सक्रिय कार्यकर्ता लगातार 17 दिनों तक पानी में जल सत्याग्रह करते रहे। इससे उनके शरीर को काफी नुकसान पहुंचा है।
पानी में गलते विस्थापितों की जीत
Posted on 14 Sep, 2012 04:26 PM सुनो/वर्षों बाद
अनहद नाद/दिशाओं में हो रहा है
शिराओं से बज रही है/एक भूली याद वर्षों बाद ......।


ओंकारेश्वर और इंदिरा सागर बांध के संबंध में वर्ष 1989 में नर्मदा पंचाट के फैसले में यह स्पष्ट कर गया था कि हर भू-धारक विस्थापित परिवार को जमीन के बदले जमीन एवं न्यूनतम 5 एकड़ कृषि योग्य सिंचित भूमि का अधिकार दिया जायेगा। इसके बावजूद पिछले 25 सालों में मध्यप्रदेश सरकार ने एक भी विस्थापित को आज तक जमीन नहीं दी है। लेकिन 17 दिन के जल सत्याग्रह से सत्याग्रहियों ने सरकार को नाकों चने तो चबवा दिए हैं।

दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां 10 सितम्बर 2012 को तब चरितार्थ हो गई जबकि मध्य प्रदेश सरकार ने खंडवा जिले के घोघलगांव में पिछले 17 दिनों से जारी जल सत्याग्रह के परिणामस्वरूप सत्याग्रहियों की मांगे मान लीं तथा विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन देने का भी एलान किया। सरकार ने ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर घंटों में कम भी कर दिया। यह एक ऐतिहासिक जीत थी। सवाल यह है कि आखिर ऐसी कौन सी मजबूरियां गांव वालों के सामने रहीं कि वे उसी मोटली माई (नर्मदा), जिसे वे पूजते हैं, में स्वयं को गला देने के लिए मजबूर हो गए।
बाजू भी बहुत हैं सिर भी बहुत
Posted on 01 Sep, 2012 12:29 PM मेरी हड्डियां
मेरी देह में छिपी बिजलियां हैं,
मेरी देह
मेरे रक्त में खिला हुआ कमल।

- केदारनाथ सिंह

नर्मदा घाटी के निवासियों के धैर्य की दाद देना पड़ेगी। इतने अत्याचार व बेइंसाफी सहने के बावजूद वे आज भी अहिंसात्मक संघर्ष के अपने वादे पर कायम हैं। सरकार और कंपनियों को इस मुगालते में भी नहीं रहना चाहिए कि अमानवीय व्यवहार से आंदोलनकारियों का मनोबल टूटेगा। वास्तविकता तो यह है कि इस जल सत्याग्रह या जल समाधि की गूंज पूरे विश्व में सुनाई देने लगी है और यह देश व प्रदेश की सरकारों को आज नहीं तो कल कटघरे में अवश्य ही खड़ी करेंगी।

नर्मदा घाटी में स्थित ओंकारेश्वर बांध में पानी के स्तर को अवैध रूप से 189 मीटर से 193 मीटर बढ़ाए जाने के विरोध में पिछले करीब एक हफ्ते से 34 बांध प्रभावित घोघलगांव में जल सत्याग्रह कर रहे हैं। उनकी कमर से ऊपर तक पानी चढ़ चुका है और लगातार पानी में डूबे रहने से शरीर गलना प्रारंभ हो गया हैं। फिर भी वे कमल की मानिंद पानी की सतह पर टिके हुए हैं। लेकिन सरकार व एनएचडीसी जो कि बिजली उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनी है और पुनर्वास उसकी ही मूलभूत जिम्मेदारी है, टस से मस नहीं हो रहे हैं। गौरतलब है सर्वोच्च न्यायालय ने मई 2011 में दिए अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा था कि जमीन के बदले जमीन ही दी जानी चाहिए और इसके पीछे न्यायालय की सोच भी स्पष्ट है कि पुनर्वास, पुनर्वास नीति के अनुरूप ही हो।
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