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एक तिहाई मछलियों के पेट में प्लास्टिक
Posted on 07 Jul, 2013 03:10 PM पानी में रहने वाले जीवों के लिए हम कैसी दुनिया बना रहे हैं। अपना कचरा उनको भोजन के रूप में परोश रहे हैं। हमारे फेंके गए प्लास्टिक मछलियों का भोजन बन रहा है। बिस्फेनोल-ए, पीसीबी जैसे केमिकल और सिंथेटिक रंगों से बनी प्लास्टिक का सेवन करके मछली ज़हरीली हो जाती है। ऐसी मछली के सेवन से कैंसर या शरीर के मुख्य अंगों का रास्ता बाधित हो जाने खतरा रहता है। देश की जानी-मानी राजनीतिज्ञ और पर्यावरणविद् मेनका गाँधी बता रही हैं कि मछलियों के शरीर में गया प्लास्टिक अंत में मानव शरीर का ही हिस्सा बनता जाता है।मछली खाने पर आपको क्या मिलता है? केमिकल! इंसानी मल! प्लास्टिक! सबसे पहले बात करते हैं प्लास्टिक की। ब्रिटेन के प्लाइमाउथ विश्वविद्यालय के मरीन पॉल्यूशन बोर्ड ने हाल ही में एक अध्ययन में पाया कि इंग्लैंड के तट पर पाई जाने वाली एक तिहाई मछलियों के पेट में प्लास्टिक है। उत्तर सागर, अटलांटिक महासागर और ब्रिटेन के आसपास के पानी में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक मछलियों के पेट में जा रहा है।

नारीत्व की प्रतिष्ठा: माहवारी स्वच्छता प्रबंधन
Posted on 12 Apr, 2013 04:33 PM माहवारी स्वच्छता का निम्न स्तर मतलब कई अधिकारों को एक साथ नकारना; ग
MHM
अब स्वजल में डूबेंगे गांव
Posted on 30 Mar, 2013 03:23 PM

जो सरकार विश्व बैंक से कर्ज लेकर गांव को स्वावलंबी बनाना चाहती हैं उसमें इतना साहस भी नहीं कि अपने दस्तावेज़ों म

धरती चुकाती है बोतलबंद पानी की कीमत
Posted on 26 Jan, 2013 10:27 AM

पानी के क्षेत्र में और आर्थिक रूप से संपन्न इलाकों में बोतलबंद पानी की शुरूआत विलासिता के रूप में हुई थी जो कि स

यमुना का संकट, जल का संकट
Posted on 26 Jan, 2013 10:07 AM

यमुना सात राज्यों से होकर बहती है। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में इसका हिस्सा 21 फीसदी है, इसके अलावा हिमाचल प्रद

कोरी नहीं शीतयुग की बात
Posted on 08 Dec, 2012 03:03 PM

हिमालय सदियों से देश व समाज की सभी प्राकृतिक उत्पादों से सेवा करता रहा है। सही मायनों में सर्वव्यापी हिमालय को दे

Ice age
रहिमन पानी राखिए...
Posted on 05 Dec, 2012 05:21 PM आज हम पानी की समस्या से जुझ रहे हैं। पूरी तरह सूखे से हम छुटकारा नहीं पा सके हैं। सूखा कहीं भी और कभी भी पड़ सकता है। सूखा या अकाल पहली बार नहीं आएगा। लेकिन उस अकाल में कुछ ऐसा होने वाला है जो पहले कभी नहीं हुआ। इस दौर में सबसे सस्ती कारों के साथ सबसे महंगी दालें मिलने वाली हैं – यही इस अकाल की सबसे भयावह तस्वीर होगी।
शहरों को पानी चाहिए, पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं। तब पानी ट्यूबवेल से ही मिल सकता है। पर इसके लिए बिजली,डीजल के साथ-साथ उसी शहर के नीचे पानी चाहिए। एक बात साफ है कि लगातार गिरता जल स्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर थामा नहीं जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठा कर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाए हैं। महाभारत युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र से अर्जुन को साथ लेकर द्वारिका जा रहे थे। उनका रथ मरुप्रदेश पार कर रहा था। आज के जैसलमेर के पास त्रिकुट पर्वत पर उन्हें उत्तुंग ऋषि तपस्या करते हुए मिले। श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया और फिर वे मांगने को कहा। उत्तुंग का अर्थ है ऊंचा। सचमुच ऋषि ऊंचे थे। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा। प्रभु से प्रार्थना की कि यदि मेरे कुछ पुण्य हैं तो भगवान वर दें कि इस क्षेत्र में कभी जल का अभाव न रहे। एक दौर था जब मरुभूमि को इस तरह के आशीर्वाद की जरूरत थी। मरुभूमि के अलावा पानी की कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन हमने पानी की अहमियत नहीं समझी। आज पानी हमें परेशान कर रहा है। आज हमारे समाज के बड़े हिस्से को इस आशीर्वाद की जरूरत पड़ती है।
water
महान वाश यात्रा
Posted on 03 Dec, 2012 10:59 AM निर्मल भारत यात्रा। यह लगभग 500 लोगों द्वारा पूरी की गई 2000 किलोमीटर की एक रोमांचक यात्रा थी। यह यात्रा. पाँच राज्यों- वर्धा (महाराष्ट्र), इंदौर (मध्य प्रदेश), कोटा (राजस्थान), ग्वालियर (मध्य प्रदेश), गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) और बेतिया (बिहार) के छह बड़े कस्बों से होकर गुजरी। प्रत्येक कस्बे में यात्रा के पड़ाव के दौरान एक काफी बड़े मैदान में
निर्मल भारत यात्रा के उद्घाटन पर प्रेस को सम्बोधित करते हुए
यमुना की दिल्ली
Posted on 30 Oct, 2012 04:10 PM

पहले हमारा समाज अक्सर ऐसी नदियों के दोनों किनारे एक खास तरह का तालाब भी बनाता था। इनमें वर्षा के पानी से ज्यादा नदी की बाढ़ का पानी जमा किया जाता था। नद्या ताल यानि नदी से भरने वाला तालाब। अब नदी के किनारे ऐसे तालाब कहां बचे हैं। इनके किनारों पर हैं स्टेडियम, सचिवालय और बड़े-बड़े मंदिर। कभी यह दिल्ली यमुना के कारण बसी थी। आज यमुना का भविष्य दिल्ली के हाथ उजड़ रहा है।

सबसे पहले तो एक छोटा-सा डिस्क्लेमर! मैं वास्तुकारों की बिरादरी से नहीं हूं। मेरी पढ़ाई-लिखाई बिलकुल साधारण-सी हुई और उसमें आर्किटेक्चर दूर-दूर तक कहीं नहीं था। जिन शहरों में पला-बढ़ा और जिन शहरों में आना-जाना हुआ करता तो वहां की गलियों में, बाजारों में घूमते फिरते दुकानों के अलावा कुछ भी बोर्ड पढ़ने को मिलते। इन बोर्डों में अक्सर वकील और डॉक्टरों के नाम लिखे दिखते। हमारे बचपन में ये बोर्ड भी थोड़े छोटे ही थे। फिर समय के साथ विज्ञापनों की आंधी में ये बोर्ड उखड़े नहीं बल्कि और मजबूत बन कर ज्यादा बड़े होते चले गए।

फिर हमारे बड़े संयुक्त परिवार में एकाध भाई डॉक्टर बना, एक वकील बना और बाद में एक भाई आर्किटेक्ट भी। दो के बोर्ड लग गए लेकिन आर्किटेक्ट भाई का बोर्ड नहीं बना। बाद में उन्हीं से पता चला कि उनके प्रोफेशन में कोई एक अच्छी एसोसिएशन है जो बड़ी सख्ती से इस बात पर जोर देती है कि उसका कोई भी मेम्बर अपने नाम और काम का विज्ञापन नहीं कर सकता।
yamuna river in 1856
पोस्टर : कम पानी की फसलें उगाएं
Posted on 23 Oct, 2012 08:40 PM

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पोस्टर : कम पानी की फसलें उगाएं
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