जो सरकार विश्व बैंक से कर्ज लेकर गांव को स्वावलंबी बनाना चाहती हैं उसमें इतना साहस भी नहीं कि अपने दस्तावेज़ों में बता सके कि ग्रामीणों को सूचना दिए बगैर जिस तरह भारी कर्ज के बोझ से लादा जा रहा है, उसकी भरपाई कौन और किस तरह करेगा। ‘स्वजल’ परियोजना के एक आला अफ़सर के अनुसार यह कर्ज आगामी 38 वर्षों के अवधि में 21 प्रतिशत ब्याज दर से चुकाना होगा। यदि देश और राज्य की राजनीति प्राकृतिक संसाधनों पर ग्रामीणों को परंपरागत अधिकारों से वंचित कर रही हो, देश की अर्थनीति गाँवों को और अधिक गरीब बनाने पर आमादा हो और गाँवों का राजनैतिक वातावरण दिन-प्रति-दिन प्रदूषित किया जा रहा हो, तो एक पेयजल योजना किस प्रकार उन्हें जागरूक कर सकेगी?
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 25 दिसंबर को उन्नीसवीं जन्मदिन पर आठ राज्यों के 883 जिलों में ग्रामीण पेयजल प्रबंध के लिए ‘स्वजल धारा’ कार्यक्रम की घोषणा की। विश्व बैंक की सहायता से अविभाजित उत्तर प्रदेश में 1996 में शुरू की गई ‘स्वजल’ परियोजना की कथित ‘अभूतपूर्व’ सफलता को देखते हुए अब इसे पूरे देश में विस्तार दिया जा रहा है। अब ग्रामीण अपनी पेयजल ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वयं योजनाएं बनाएंगे, उन्हें कार्यान्वित करेंगे और उनका रखरखाव और प्रबंधन करेंगे। वे परियोजना की लागत 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी करेंगे और इसके संचालन व रखरखाव का खर्च भी उठाएंगे। केंद्र सरकार परियोजना लागत में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी होगी। ‘स्वजल धारा’ की घोषणा में यह नहीं बताया गया कि कार्यक्रम के लिए केंद्र पैसा कहां से जुटाएगा, लेकिन ‘स्वजल’ के दस्तावेज़ बताते हैं कि इसके लिए पहले ही विश्व बैंक से आवेदन किया जा चुका है।स्वजल की परिकल्पना में एक मार्के की बात यह भी है कि इसकी दृष्टि में ग्रामीण समाज निहायत पिछड़ी और गंदी रहने वाली ऐसी असंगठित इकाइयां हैं जिन्हें स्वयंसेवी संस्थाओं के विशेषज्ञों के जरिए साफ-सफाई से लेकर संगठित होने तक का प्रशिक्षण देने की जरूरत है। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि सिर्फ आधी सदी पहले तक हिमालय के निवासी बेहद कठिन भूगोल में भी अपने पानी का इंतज़ाम खुद करते आए हैं। यहीं नहीं, उनकी परंपराओं में स्रोत की प्रकृति के मुताबिक कलात्मक जल-संग्रह ढाँचे बनाने और उन्हें साफ-सुथरा रखने की तमीज मौजूद है। यह तो आज़ाद भारत की सरकारें थीं, जिन्होंने उनकी स्वायत्तता लील कर उन्हें भ्रष्ट सरकारी तंत्र का ग़ुलाम बनने का संस्कार दिया। यह भी स्मरणीय है कि स्वच्छता संबंधी व्यवहार काफी हद तक समुदाय की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है। आजीविका के एक निश्चित स्तर से उसके अनुरूप साफ रहने का समय और सुविधा मिलती है। इसलिए किसी समुदाय के स्वच्छता संबंधी व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए उसकी आर्थिक स्थिति में परिवर्तन करना पहली शर्त है।
स्वजल की प्रस्तावना में कहा गया है कि मूलतः आपूर्ति आधारित व्यवस्था के तहत जल निगम की योजनाओं के प्रबंधन में लाभार्थियों की भागीदारी और ज़िम्मेदारी सुनिश्चित नहीं की जाती है। यह अत्यंत केंद्रीकृत संगठन है और इसमें जरूरत से ज्यादा कर्मचारी रखे गए हैं। जल निगम में अपनी योजनाओं के निर्माण और रखरखाव में खर्च की जाने वाली धनराशि को वसूलने की उचित व्यवस्था नहीं है। घटिया रखरखाव के कारण इसकी एक तिहाई योजनाएं हमेशा निष्क्रिय रहती हैं। अतः जल निगम की इस बदहाली को देखते हुए सरकार ने ग्रामीण पेयजल के लिए नीतिगत और संस्थागत बदलाव का फैसला लिया। इसके लिए सरकार विश्व बैंक की मदद से स्वजल परियोजना लेकर आई है। सरकार के पास अब दो समांतर पेयजल व्यवस्थाएं हैं।
अब सवाल था कि स्वजल को चलाने की ज़िम्मेदारी किस संस्था को दी जाए। जल निगम चूंकि पहले ही बीमारियों का भंडार साबित किया जा चुका है, इसलिए उसे चुनने का सवाल ही नहीं था। दूसरे नंबर पर थीं गाँवों में मौजूद पंचायती संस्थाएं, जिन्हें यह ज़िम्मेदारी दी जा सकती थी। विश्व बैंक की सूचना के अनुसार उत्तर प्रदेश में पंचायती संस्थाएं अपने चरित्र में ‘सामंती’ हैं अतः उन्हें स्वजल की ज़िम्मेदारी कैसे दी जा सकती थी? तय किया गया कि यह काम सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत पंजीकृत समितियों के माध्यम से किया जाएगा। चूंकि स्वजल परियोजना मांग-आधारित थी अतः यह उन्हीं गाँवों में लागू की जा सकती थी जहां पेयजल की ‘मांग’ सर्वाधिक हो। ‘मांग’ की पैमाइश के लिए विश्व बैंक का पैमाना बेहद दिलचस्प है। योजना की कीमत चुकाने को जो गांव सबसे अधिक तत्पर हो, उसे ‘मांग’ के पैमाने पर सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। जाहिर है, इस पैमाने के अनुसार कमजोर आर्थिक स्थिति वाले गांव परियोजना की परिभाषा से बाहर हो गए। यह बात दीगर है कि पानी की जरूरत सबसे ज्यादा उन्हें ही थी।
परियोजना के कार्यान्वयन के लिए गांव के स्तर पर ग्राम जल एवं स्वच्छता समितियों का गठन किया गया जिन्हें संवैधानिक मान्यता दी गई। इन्हें ‘सहयोगी संस्था’ के रूप में अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं निर्देशित करती थीं जो स्वयं एक राज्य स्तरीय स्वयंसेवी संस्था परियोजना प्रबंध इकाई (प्रोजेक्ट मैनेजमेंट यूनिट) की अपनी जिला स्तरीय जिला परियोजना प्रबंध इकाइयों (डीपीएमयू) के माध्यम से नियंत्रित होती थीं। बताया जाता है कि यह एक ‘उलटे पिरामिड’ जैसी व्यवस्था थी जिसमें सबसे ऊपर समुदाय हैं और सबसे नीचे राज्य स्तरीय परियोजना प्रबंध इकाई, और बीच में स्वयंसेवी संस्थाएं हैं। लेकिन व्यवहार में परियोजना पर परियोजना प्रबंध इकाई और स्वयंसेवी संस्थाओं का ही वर्चस्व कायम रहा। ‘सहयोगी’ स्वयंसेवी संस्थाओं के ज़िम्मे ‘मांग’ के पैमाने पर खरे उतरने वाले गाँवों की समितियों के गठन, योजना निर्माण और रखरखाव के तकनीकी पक्षों के प्रशिक्षण के जरिए धीरे-धीरे उन्हें इस व्यवस्था में स्वायत्त स्थिति तक पहुंचाना है। लेकिन आम तौर पर सभी स्वजल संस्थाओं के कार्यकर्ता मानते हैं कि यदि उनकी संस्था परियोजना से हट जाए या परियोजना के लिए पैसा मिलना बंद हो जाए तो पूरी ‘स्वजल’ व्यवस्था धराशायी हो जाएगी।
जो सरकार विश्व बैंक से कर्ज लेकर गांव को स्वावलंबी बनाना चाहती हैं उसमें इतना साहस भी नहीं कि अपने दस्तावेज़ों में बता सके कि ग्रामीणों को सूचना दिए बगैर जिस तरह भारी कर्ज के बोझ से लादा जा रहा है, उसकी भरपाई कौन और किस तरह करेगा। ‘स्वजल’ परियोजना के एक आला अफ़सर के अनुसार यह कर्ज आगामी 38 वर्षों के अवधि में 21 प्रतिशत ब्याज दर से चुकाना होगा। यदि देश और राज्य की राजनीति प्राकृतिक संसाधनों पर ग्रामीणों को परंपरागत अधिकारों से वंचित कर रही हो, देश की अर्थनीति गाँवों को और अधिक गरीब बनाने पर आमादा हो और गाँवों का राजनैतिक वातावरण दिन-प्रति-दिन प्रदूषित किया जा रहा हो, तो एक पेयजल योजना किस प्रकार उन्हें जागरूक कर सकेगी?
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