दिल्ली

Term Path Alias

/regions/delhi

गंगा जैसी मां और कहां
Posted on 04 Oct, 2013 10:27 AM गंगा के किनारे में तुलसी का रामचरित, आदिगुरु शंकराचार्य का गंगाष्टक
Ganga
नदी के कुछ अदृश्य खँडहर हैं जलवाष्प
Posted on 02 Oct, 2013 04:26 PM नदी के कुछ अदृश्य खँडहर हैं जलवाष्प
इतिहास की नदी हैं, गंगा, ब्रह्मपुत्र, जमुना, व्यास
एक मनुष्य नदी में स्नान करता है
यह सभ्यता है
नदी के किनारे एक स्त्री कपड़े धोती है
यह सभ्यता है
एक मृत लड़का नदी में
संस्कार की तरह
प्रवाहित होता है
बरसात नदी के खँडहर का दृश्य है
जहाँ नदी नहीं है
बरसात में भीगना पर्यटन है।
एक सूखी नदी
Posted on 02 Oct, 2013 04:23 PM एक सूखी नदी
दूसरे वर्ष भी सूखी रही
तो रेत के बहुत नीचे
वह और सूक जाएगी,
सूखी नदी के नीचे
सूखी नदी की परतें हैं।

कई वर्षोंसे ऐसी सूखी नदी के
किनारे के गाँव में
जैसे अंततः रहता हुआ
गाँव का सबसे बूढ़ा आदमी
नदी की रेत की तह से
आखिरी में ढूँढ़ लेगा
एक पारदर्शी फॉसिल शिला
जिसमें चिन्हित होगी
नदी की वनस्पति
नदी इस किनारे केवल
Posted on 02 Oct, 2013 04:19 PM नदी इस किनारे केवल
या केवल उस किनारे
या मँझधार ही पूरी वह
प्यार में नदी समझ में नहीं आती
नदी में भीगने से
लगता है
बरसात में भीगा
बिना छाता लिए
जब कभी टहलने निकला।
बाढ़ में डूबी उलटी नाव की
छत के नीचे
हमारा घर बसा है।

तरल पहेली
Posted on 01 Oct, 2013 04:12 PM मेरे जन्म लेने के पहले से
जो बह रही है बिना रुके-
मेरे भीतर के भीतर और भीतर
वह नदी दुनिया में सबसे निराली है।
उसके बहाव को देखा नहीं मैंने एक बार भी
मेरे रुकने, सो जाने से
कोई वास्ता नहीं, उस बहने वाली का
है बंद भीतर मेरे ही
फिर भी नहीं जानती
किसका इलाका है नाम क्या?
चुपचाप बहने में लीन है,
बीसवीं सदी के विलयन के बावजूद।
पाप और परंपरा
Posted on 01 Oct, 2013 04:10 PM ऐसा है एक नदी बह रही है
कोलतार की
चिता और गर्भ के बीच के धुँधलके में
और मेरे सर पर गट्ठर है कपास का।
‘बचाओ’ चिल्लाने से पहले
मैंने ऊँगलियाँ भर देखी थीं
डूबते पिता की
घाटी के पास उस चीख का
कोई लेखा नहीं!
ऐसा है जिस जगह मेरे पैर हैं
वहाँ दीमक घर हैं ताजे बने हुए
लगातार हवा घूँसे मार रही है
मेरी पीठ पर।
सँभलने के लिए जब मैं
विपाशा
Posted on 01 Oct, 2013 04:08 PM विपाशा किसी नदी या नारी का नाम नहीं
बल्कि किसी पुराने स्मृति-कोष्ठ से निकलकर आए
एक सूख गए जल-संसार का धुँधला-सा बिंब है
जिसे...
मैं सोचता हूँ,
शायद ही मेरी कोई कविता सहेज पाए।

यह बिंब मैंने पहली बार
बचपन में कहीं बरीमाम के मेले में
पीर के मजार पर नाचतीं
तवायफों के पवित्र चेहरों पर
धुँधले चिरागों की रोशनी में देखा था
समुद्र और चंद्रभागा
Posted on 01 Oct, 2013 04:07 PM जैसे सारे संसार के टेलीफोन
घनघना उठे एक साथ
इस समुद्र के रोम-रोम से
लेकिन तुम कैसी हो चंद्रभागा
कि इतनी मौन हो
समुद्र इतना आविष्ट है
कि तुमसे संवाद नहीं कर पाता
क्या संवाद अब असंभव है?
लहरें अथाह से अनंत से सघन उल्लास में
हहराती ईरानी घोड़ों की रेस-सी
दौड़ती हैं झाग फेंकती लगातार
कगार पर टापों की आवाजें टकराकर
गर्मियों में छत पर या नदी किनारे
Posted on 01 Oct, 2013 04:06 PM नदी
हिरनी की तरह मेरे पास आई।

हवा
कस्तूरी-सी चारों तरफ फैल गई।

मैं जैसे कि हर वस्तु से अमरता की तरह गुजरा
और सात्विक कटाक्ष की तरह सँवर गया।

‘बूँद की यात्रा’ संग्रह से

नदी पर चाँद
Posted on 01 Oct, 2013 04:05 PM तना हुआ एकांत है
गहरे रात दूर तक
चेतना चमकती है
निराकार

कटार और फीते में फर्क है
लहर-भर
हवा ने चुपके से चमकती नदी से कहा।

और धारियाँ संगमरमर की
तैरने लगीं बेखबर
बनकर बिजली
मछलियाँ-
चमकता हुआ जाल धुलने लगा
चारों ओर-

अकेला बतख तैरता है
डुबकियाँ लेता
किनारे तक
चमक जाते
लहरों के भीतर तक
×