भारत

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महाकाल
Posted on 13 Jun, 2011 09:38 AM डमरू में नाचता है सुर
और शून्य में सबद भरता है
त्रिशूल बेधे हुए है खल-परिहास
नाग का पहरा है

जलहरी में
जल में बह रहा है जल
दूध अपनी उजास में
डूबा हुआ है किसी सन्त की तरह
महाकाल को अपनी हरियाली से
नहला रही है बेलपत्री

कोई ढार गया है मधुपर्क
मंदार अपनी टहनी के सुख से
अभी भी दिख रहा है तरो-ताज़ा
घट-घाट
Posted on 11 Jun, 2011 09:38 AM प्यास
घाट गढ़ने के काम आती है
और पानी
घट गढ़ने के

पता नहीं पहले-पहल
घट से घाट बना
या घट बनने में
घाट की रही मदद

हम तो घट
और घाट की आपसदारी के कायल हैं
जिनसे ही चलता है
हमारी प्यास और पानी का
जीवन-प्रवाह
अथोर-अथाह!!

बादल
Posted on 10 Jun, 2011 10:52 AM बादल निहारते से ही
आँखों में उमड़ पड़ती है:
बाबा की कविता-‘बादल को घिरते देखा है’
और महाप्राण की ‘बादल राग’
हुलस कर हम से बोल पड़ता है
कालिदास का ‘मेघदूत’

बादल पानी का पुनीत कृतित्व है
इसीलिए उसे देखने में हमारी प्रिय रचनाएँ
होती हैं हमारे साथ

आसमान में बादल आ रहे हैं-
जा रहे हैं
जैसे मन में भाव
बातें जाग रही थीं जे़हन में
Posted on 09 Jun, 2011 09:00 AM नींद की गहरी नदी में
बहते रहे - बहते रहे
कभी किसी स्वप्न पर
जजक कर उठ गए
कभी किसी सपने पर
खिलखिला दिए हम

जुबान मुँह में सो रही थी
पर बातें जाग रही थीं जे़हन में

नभगंगा के तट से
तारामण्डल का एक प्रभाती तारा टूट कर
ले लिया पास में ही जन्म
और उसकी सद्यः जात रुलाई से (भीग)
बड़े भोर में ही जाग गए हम!
मध्यान्तर
Posted on 08 Jun, 2011 09:35 AM ठीक दोपहर बारह बजे
कुएँ में झाँकता है तमतमाया सूरज
और कुएँ में बैठा अँधेरा
भागता है रख कर सिर पर पाँव
दोपहर बारह बजे कुएँ में
सिर्फ़ सूरज की आवाज़ गूँज रही है
और पानी (उजले मन से)
पी रहा है धूप

परम तेजस्वी संज्ञा की
सुन्दर क्रिया से
कुएँ में हौले-हौले हिल रही है
पानी की कायनात

कुएँ की जगत पर
बाल्टी के पानी के साथ
लम्बा घूँट
Posted on 07 Jun, 2011 09:12 AM घूँघट के ओट से ही
उसने लम्बा घूँट भरा

झरने ने सुन लिया
और मारे खुशी के
छल-छला कर,
झर-झरा कर
नहला दिया सारा पहाड़

बिरला ही जानता है
यह संगीत है
जिसमें प्यार बजता है
(अविराम-अभिराम!)

घिनौची
Posted on 06 Jun, 2011 09:06 AM घिनौची पर गगरियाँ
एक-दूसरे से पनघट का
किस्सा चाल रही हैं
और बहुरियों की प्यास कहते-कहते
हँस रही हैं लहालोट

अपने पानी को सहेजे
घिनौची पर सजी-धजी बैठी गगरियाँ
इतनी खुश हैं कि जेठ की दुपहर में भी
पानी पीते हुए जुड़ाकर तिरपित हो रही है आत्मा

आँगन की घिनौची से
कुआँ तक जा रहा है
गगरियों का हँसी-मजाक!

जिसके सहारे कुआँ भी
पानी को दुख है
Posted on 04 Jun, 2011 08:54 AM पानी को दुख हैः
कि दिनोंदिन घट रही है उसकी शीतलता
कि कीचड़-कचरा से फूल रही है उसकी साँस
कि नदियों में भी बहती है पानी से अधिक दुर्गंध

पृथ्वी की नाडि़यों में कितनी पुलक से
दौड़ता था वह। लेकिन अब तो मशीनें
खीचें ले रही हैं उसे दिनरात!

पानी को दुख हैः
कि उसका पानीपन सूख रहा है
कि उसकी तरलता पर नहीं रही अब उसकी पकड़
जंगल में जल
Posted on 03 Jun, 2011 09:42 AM जंगल में जल
कितना घरेलू लग रहा है
कितनी भटकन के बाद
गहरी प्यास में पी रहा हूँ
झरने का जल

झरना छलक रहा है-हुलस रहा है
करता हमारा आतिथ्य

इतना मीठा पानी
छलल-छलल प्रवाह
और इतना उछाह
जैसे झरना कब से रहा है
हमारे ही इंतजार में

पी कर निर्मल-शीतल नीर
हमारे होंठ भी झरने के छन्द में हो गए हैं
काहे नहीं ऐसै
Posted on 02 Jun, 2011 09:29 AM सज-धज के आयी रे बादरी
बरसै झुमकि-झूम

हुलसै आँगन-बीच
पानी में
पूर-पूर गागरी

देखि यह राग
(संग न सुहाग!)
सोच रही सजनी
काहे नहीं ऐसै
मोर भाग जाग!!

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