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नदी का पुल – 1
Posted on 26 Aug, 2013 12:39 PM ऐसा क्यों हो कि मेरे नीचे सदा खाई हो
जिसमें मैं जहां भी पैर टेकना चाहूं
भंवरे उठें, क्रुद्ध;
कि मैं किनारों को मिलाऊं
पर जिनके आवागमन के लिए राह बनाऊं
उनके द्वार निरंतर
दोनों ओर से रौंदा जाऊं?
जबकि दोनों को अलगाने वाली नदी निरंतर बहती जाए, अनवरुद्ध?

बर्कले (कैलिफोर्निया), 29, अक्तूवर, 1969

द्वीप, नौका, नदी, सागर
Posted on 26 Aug, 2013 12:37 PM द्वीप, नौका, नदी, सागर और हमारी
रुपकल्पी चेतना-सभी मिलकर वह
समग्र बिंदु बनाते हैं जिसमें हमारी
और एक निरपेक्ष चेतना हमें अपने
सच्चे रूप की पहचान कराती है –
हम जो टिके हैं और बीत रहे हैं जो।

कलकत्ता, वसंत पंचमी, 1987

नदी की बांक पर छाया
Posted on 26 Aug, 2013 12:25 PM नदी की बांक पर
छाया
सरकती है
कहीं भीतर
पुरानी भीत
धीरज की
दरकती है
कहीं फिर वेध्य होता हूं

दर्द से कोई
नहीं है ओट
जीवन को
व्यर्थ है यों
बांधना मन को
पुरानी लेखनी
जो आंकती है
आंक जाने दो
किन्हीं सूने पपोटों को
अंधेरे विवर में
चुप झांक जाने दो
पढ़ी जाती नहीं लिपि
दर्द ही
गंगा कूल 2
Posted on 26 Aug, 2013 12:24 PM गंगा- कूल सिराने ओ लघु दीप-
मूक दूत से जाओ सिंधु समीप!

ढुलक-ढुलक! नयनों से आंसू धार!
कहां भाग्य ले उनके पांव पखार।

लाहौर : 1935

प्रियतम देखो 1
Posted on 26 Aug, 2013 12:21 PM प्रियतम! देखो ! नदी समुद्र से मिलने के लिए किस सुदूर पर्वत के आश्रय से, किन उच्चतम पर्वत-श्रृंगों को ठुकराकर, किस पथ पर भटकती हुई, दौड़ी हुई आई है!

समुद्र से मिल जाने के पहले इसने अपनी चिर-संचित स्मृतियां, अपने अलंकार आभूषण, अपना सर्वस्व, अलग करके एक ओर रख दिया है, जहां वह एक परित्यकत केंचुल-सा मलिन पड़ा हुआ है।
भीम-प्रवाहिनी नदी
Posted on 26 Aug, 2013 11:36 AM भीम-प्रवाहिनी नदी के कूल पर बैठा मैं दीप जला-जलाकर उसमें छोड़ता जा रहा हूं।

प्रत्येक दीप का विसर्जन कर मैं सोचता हूं- ‘यही मेरा अंतिम दीप है।’
अदृश्य नदी
Posted on 26 Aug, 2013 11:32 AM तुम्हारी आंखों में उमड़ आई
इन दो नदियों ने
मुझे ऐसे डुबो लिया है
जैसे गर्मियों की तपती दोपहरी में
मेरे नगर की नदियां
अपने संगम में मुझे डुबो लेती हैं।

गंगा-जमुना ही नहीं, मेरे नगर में-
लोग कहते हैं-तीसरी नदी भी है-सरस्वती
जो कभी दिखाई नहीं देती

जो कभी दिखाई नहीं देती, वह व्यथा है-
जो दिल-ब-दिल बहती है,
ओ नदी!
Posted on 26 Aug, 2013 11:27 AM ओ नदी!
सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू।
किंतु, दाई कौन?
तू होती अगर,
यह रेत, ये पत्थर, सभी रसपूर्ण होते।
कौंधती रशना कमर में मछलियों की।

नागफनियों के न उगते झाड़,
तट पर दूब होती, फूल होते।
देखतीं निज रूप जल में नारियां।
पांव मल-मल घाट पर लक्तक बहाकर
तैरती तुझमें उतर सुकुमारियां।

किलकते फिरते तटों पर फूल-से बच्चे।
रोमांच को करें कैमरे में कैद : वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी
Posted on 25 Aug, 2013 03:09 PM वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी में करियरकहा जाता है कि एक फोटो दस हजार शब्दों के बराबर होती है। फोटोग्राफी एक कला है जिसमें विजुअल कमांड के साथ-साथ टेक्निकल नॉलेज भी
उनकी गंदगी और हमारी ज़मीन...
Posted on 25 Aug, 2013 02:59 PM विकास की राह पर तकनीक और मानव, हाथ में हाथ लिए चल रहे हैं। विकसित देशों में कम्प्यूटर और इलेक्ट्रानिक्स जीवन का अटूट अंग हैं, पर खराब इलेक्ट्रानिक कचरे का रूप ले चुके ये इलेक्ट्रानिक्स गैजेट्स जा कहाँ रहे हैं? कहीं भारत इनका रीसाइकल बिन तो नहीं?
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