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मीडिया और नदी : एक नाव के दो खेवैए
Posted on 14 Oct, 2014 11:14 AM भारतीय जनसंचार संस्थान के परिसर में आने का पहला मौका मुझे तब मिला था, जब मुझे हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम में अस्थायी प्रवेश का पत्र मिला था। हालांकि उस वक्त संपादकीय विभागों में नौकरी के लिए पत्रकारिता की डिग्री/डिप्लोमा कोई मांग नहीं थी, सिर्फ सरकारी नौकरियों में इसका महत्व था, बावजूद इसके यहां प्रवेश पा जाना बड़ी गर्व की बात मानी जाती थी। यह बात मध्य जुलाई, 1988 की है।

कोई डाक्टर शंकरनारायणन साहब यहां के रजिस्ट्रार थे। स्थाई प्रवेश की अंतिम तिथि तक मेरे विश्वविद्यालय द्वारा डिग्री/अंकपत्र जारी न किए जाने के कारण संस्थान ने मेरे लिए अपने दरवाजे बंद कर लिए थे। इस पूरी प्रक्रिया में मेरी और संस्थान की कोई गलती नहीं थी। यह एक व्यवस्था का प्रश्न था। किंतु तब तक मैं न व्यवस्था को समझता था, न मीडिया को और न नदी को।
<i>प्रदूषित नदी</i>
मौत को दावत दे रहा शौचालय!
Posted on 14 Oct, 2014 10:16 AM

मुंबई लगभग 20 एकड़ में फैले पहाड़ पर बसे करीब 50 हजार लोग अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं। एक शौचालय की जजर्र स्थिति के कारण लोग परेशानी में हैं। पिछले 15 सालों से जान जोखिम में डालकर लोग इस शौचालय का इस्तेमाल कर रहे हैं। सिंगल सीट वाले इस टॉयलेट को शहर के सबसे खतरनाक टॉयलेट का नाम दिया जा रहा है।

Toilet
बाढ़ के बाद
Posted on 10 Oct, 2014 01:13 PM आधी रात को
जबकि पूरा गांव
नींद की बाढ़ में डूब जाता है
कुएं से निकलती हैं कुछ स्त्रियां
और करने लगती हैं विलाप

डबरे से निकलते हैं थोड़े बच्चे
और भगदड़ मचाने लगते हैं

पेड़ों से कुछ पुरुष नीचे उतर आते हैं
और उपछने लगते हैं पानी

कहते हैं कि हर रात को बीचे हुओं की दुनिया
जीवन के लिए छटपटाने लगती है

नदी
Posted on 10 Oct, 2014 01:10 PM नदी की तरह सोचो
तो सुंदर लगती है नदी
पास जाओ तो तुम्हारा नाम लेकर
पुकारती है नदी

जल का स्पर्श करो
तो तुरंत बजे मृदंग-सी कांपती है नदी-
सपने में आए तो
थरथराती लहरों-सी अद्विग्न-
महसूस करो तो आत्मा में
निरंतर बहती-सी लगती है नदी

कितने तो रूप हैं उसके
कितने तो नाम
पहाड़ को छूकर आए तो
पहाड़ी धुन और ऊपर झुके हों
नदी मां
Posted on 10 Oct, 2014 01:06 PM पहाड़ पर आकर
कवि को ताप हो गया है
किंतु हर्षित नदी
कोई लोकगीत गा रही है, जैसे पर्व मना रही है
कवि गीत को समझ नहीं पा रहा है
केवल ताप में बुड़ाबुड़ा रहा है-
मां, ओ नदी मां, मुझे थोड़ा-सा बल दो
मेरी सूख रही जिजीविषा को जल दो

मां, तुमने अपने रास्ते
कई बार बदले हैं
एक बार और बदल लो
आज की रात तुम मेरे कक्ष में बहो
मेरे अंग-संग रहो
अभिलाषा
Posted on 10 Oct, 2014 12:59 PM मैं नहीं चाहती बनना
नदी का एक द्वीप
या रेत का टीला
नदी से कटा हुआ

मैं चाहती हूं नदी में डूबना
और उतराना
गहराई में जाना
छूना तल को
अंगुलियों से
महसूसना
हर अनगढ़ पत्थर को
हरी-हरी काई पर
फिसलना चाहती हूं

मैं लहरों की धड़कन बनना चाहती हूं
मैं चाहती हूं सांझ के संगीत को गुनगुनाना
तीन नदियां
Posted on 09 Oct, 2014 09:48 AM तीन नदियां
बड़ी दूर से बहती हुई
आकर मिलती हैं इस जगह
जैसे तीन बहनें हों
अपने-अपने दुखों की गठरी उठाए

एक का जल मिलता है दूसरी में
दूसरी की लहरें दौड़ती हैं तीसरी में
एक की धुन में गुनगुनाती हैं तीनों नदियां
एक की ठिठोली में खिलखिलाती हैं तीनों-नदियां
एक के दर्द से सिहरती हैं तीनों नदियां

थोड़ा आगे आम के बगीचे के करीब
शहर के आसमान में
Posted on 09 Oct, 2014 09:35 AM शहर को नदी नहीं
नदी का जल चाहिए

उन्हें जल भी चाहिए, नदी भी
अपनी हवा, धरती और आकाश भी
और आग भी

फरियाद के लिए वे शहर आए हैं
और आधी रात इस खास सड़क पर
बैठे हुए फुटपाथ पर गा रहे हैं

पकती हुई रोटी की गंध
ताजे धान की गमक
उठ रही है इस गीत से

इस गीत के आकाश में
उड़ रहे हैं सुग्गे
दोस्तों को हम दूर कर रहे हैं
Posted on 08 Oct, 2014 04:40 PM

विश्व वन्यजीव सप्ताह पर विशेष


विश्व वन्यजीव संगठन के ताजा आंकड़े कह रहे हैं कि हमने पिछले 40 सालों में प्रकृति के 52 फीसदी दोस्त खो दिए हैं। बीते सदी में बाघों की संख्या एक लाख से घट कर तीन हजार रह गई है। स्थल चरों की संख्या में 39 फीसदी और मीठे पानी पर रहने वाले पशु व पक्षी भी 76 फीसदी तक घटे हैं। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में कई प्रजातियों की संख्या 60 फीसदी तक घट गई है।

यह आंकड़ों की दुनिया है। हकीकत इससे भी ज्यादा बुरी हो सकती है। इंसान यह सोचकर बच नहीं सकता है कि वन्यजीव घट रहे हैं तो इससे उसकी तरक्की का कोई लेना-देना नहीं है। हकीकत यही है कि प्रकृति की कोई रचना निष्प्रयोजन नहीं है, अगर कोई चीज बिना प्रयोजन के होती है तो प्रकृति उसे समय के अंतराल के साथ खुद ही खत्म भी कर देती है।
<i>डॉल्फिन</i>
पानी
Posted on 08 Oct, 2014 04:34 PM आदमी तो आदमी
मैं तो पानी के बारे में भी सोचता था
कि पानी को भारत में बसना सिखाऊंगा

सोचता था
पानी होगा आसान
पूरब जैसा
पुआल के टोप जैसा
मोम की रौशनी जैसा

गोधूलि में उस पार तक
मुश्किल से दिखाई देगा
और एक ऐसे देश में भटकाएगा
जिसे अभी नक्शे में आना है

ऊंचाई पर जाकर फूल रही लतर
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