विषय - मीडिया, बच्चे और असहिष्णुता
दिनांक - 18-19-20 अगस्त, 2017
स्थान - ओरछा, मध्य प्रदेश
मीडिया के साथियों के साथ बैठकर कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर नया जानने, आपसी समझ बनाने, एक-दूसरे के विचारों को समझने, अपने रोजाना के काम-काज से हटकर मैदानी इलाकों के आम लोगों की जिन्दगी में झाँकने और विकास के तमाम आयामों पर एक बेहतर संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से पिछले दस सालों से यह कोशिश जारी है। हर बार समाज को मथने वाला कोई विषय होता है, जिस पर हम गहराई से संवाद करने का प्रयास करते हैं।आपको विकास संवाद राष्ट्रीय मीडिया संवाद के ग्यारहवें साल का आमंत्रण सौंपते हुए बेहद खुशी हो रही है। आपके संग-साथ से ही यह सफर निरन्तर जारी है और हम सब मिलकर इसे और बेहतर बनाकर इसकी सार्थकता को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।
मीडिया के साथियों के साथ बैठकर कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर नया जानने, आपसी समझ बनाने, एक-दूसरे के विचारों को समझने, अपने रोजाना के काम-काज से हटकर मैदानी इलाकों के आम लोगों की जिन्दगी में झाँकने और विकास के तमाम आयामों पर एक बेहतर संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से पिछले दस सालों से यह कोशिश जारी है। हर बार समाज को मथने वाला कोई विषय होता है, जिस पर हम गहराई से संवाद करने का प्रयास करते हैं।
मध्य प्रदेश में पहाड़ों की रानी पचमढ़ी से होता हुआ यह सफर चित्रकूट, बांधवगढ़, महेश्वर, छतरपुर, पचमढ़ी, छतरपुर, केसला, चंदेरी, झाबुआ और कान्हा में हो चुका है। इस कॉन्क्लेव में अब तक पी साईनाथ, अनुपम मिश्र, देविंदर शर्मा, आनंद प्रधान, डॉ अमितसेन गुप्ता, डॉ कपिल तिवारी, राजेश बादल, रजनी बख्शी, अरविंद मोहन, अरुण त्रिपाठी, अन्नू आनंद, चंद्रभूषण, प्रशांत भूषण, उर्मिलेश, विनोद रायना, डॉक्टर रितुप्रिया, मेधा पाटकर सहित कई वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता सम्बोधित कर चुके हैं। हर वर्ष इसमें देश भर के लगभग सौ-सवा सौ पत्रकार इकट्ठा होते हैं।
विषय के बारे में?
हम पिछले ढाई दशकों से खासतौर पर बहुत तेज और असरकारी बदलावों के दौर से गुजर रहे हैं। लगता तो ऐसा ही है कि आर्थिक नीतियों ने समाज और सामाजिक ताने-बाने पर बहुत गहरा असर डाला है। ऐसे में उम्मीद थी कि मीडिया इन बदलावों पर नजर रखेगा, उनकी आलोचनात्मक समीक्षा करेगा और बुरे असर डालने वाली नीतियों-व्यवस्थाओं पर लगाम लगाएगा; पर ऐसा हुआ नहीं। वह खुद भी नए ताने-बाने का हिस्सा बन गया और अपने हित साधने में जुट गया। नब्बे के दशक से जारी इन नीतियों को लागू करने से समाज के बड़े हिस्से को चोट ही पहुँची है। जो किसान आर्थिक रूप से कमजोर रहने के बाद भी आत्महत्या करने को कभी मजबूर नहीं हुआ था, अब अपनी जान दे रहा है। विकास के नाम पर सबसे ज्यादा दलित और आदिवासी विस्थापित किये गए और उन्हें हर बिन्दु, हर कोने से बाहर धकेला जाने लगा। एक प्रतिशत लोग देश की कुल 58 प्रतिशत सम्पत्ति के मालिक हो गए।
बच्चों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा-शोषण के मामले तेजी से बढ़ते गए। एक तरफ शिक्षा के अधिकार और शिक्षा के महत्त्व पर प्रवचन होते हैं, वहीं दूसरी और ऐसी नीतियाँ बनती हैं, जो पढ़ने वाले बच्चों को आत्महत्या की तरफ धकेलती हैं। यह उल्लेख करना जरूरी है कि भारत में आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण 'बीमारियाँ और अवसाद' हैं। ये बीमारियाँ और अवसाद कहीं 'विकास' का सह-उत्पाद तो नहीं है? विकास के नाम पर हम 'निर्भरता और परतंत्रता' के भँवरजाल में तो नही फँस गए?
हर दिन उजागर होते इन नतीजों के बावजूद हमारी राज्य व्यवस्था उन्हीं नीतियों को लागू करने के लिये उत्सुक रही। इसी दौर में आर्थिक नीतियों से आगे जाकर सामाजिक भेदभाव, साम्प्रदायिकता और राजनीति से प्रेरित हिंसा को समाज में बहुत विस्तार दिया गया। इसके दो कारण नजर आते हैं; एक - जो नीतियाँ लागू की जा रही हैं, उन पर से समाज का ध्यान हट जाये और सम्पदा-सम्पत्ति की लूट जारी रह सके, दो - समाज पर तात्कालिक रूप से किसी एक धार्मिक मतावलंबियों का प्रभुत्व कायम किया जा सके। ये दोनों कारण केवल भारत तक ही सीमित नहीं हैं, इनका दायरा और असर वैश्विक है।
हमें लगता है समाज और देश में व्याप्त माहौल, राज्य की नीतियों और लगातर बदलते अपने चरित्र से जोड़ कर मीडिया की भूमिका और कामकाज की पड़ताल होती रहनी चाहिए। चुप रहना या पीछे हटना कोई विकल्प नहीं है।
विकास संवाद के बारे में
उदारीकरण और बाजारवाद के प्रभावों के चलते जब मीडिया पर इसका असर गम्भीर रूप से दिखाई देने लगा और वंचित और हाशिए के लोगों के सरोकारों का दायरा लगातार सिमटता नजर आया तब मध्य प्रदेश के कुछ पत्रकार साथियों ने एक प्रयोग की शुरुआत की। विकास संवाद का यह प्रयोग मीडिया के माध्यम से जनसरोकार के मुद्दों को उठाने और उन्हें परिणाम तक पहुँचाने की कोशिश के रूप में था। यह कोशिश पिछले 15 सालों से लगातार जारी है। विकास संवाद इस कोशिश के लिये देश में समान सोच वाले पत्रकारों को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहा है। इसके तहत हम मीडिया फेलोशिप प्रोग्राम, मीडिया फोरम्स, शोध एवं जमीनी स्थितियों का विश्लेषण, स्रोत केन्द्र और मैदानी सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ जुड़ाव के लिये काम कर रहे हैं।ओरछा
ओरछा मध्य प्रदेश का एक प्रमुख पर्यटन स्थल है। यह रेलवे के झाँसी जंक्शन से 17 किमी की दूरी पर बसा है। ओरछा पहुँचने के लिये झाँसी तक अनेक रेलगाडियाँ उपलब्ध हैं। झाँसी से ओरछा पहुँचने के लिये आवागमन के खूब सारे विकल्प उपलब्ध हैं। आप अपनी सुविधा से सेकेंड स्लीपर क्लास का रिजर्वेशन करवा सकते हैं। यदि आप अधिक दूरी तय करके आ रहे हैं तब अपनी सुविधा से अधिकतम तृतीय वातानुकूलित दर्जे का टिकट कटा सकते हैं। आपके आने-जाने और रहने का वास्तविक खर्च हम वहन करेंगे, लेकिन इस कार्यक्रम के लिये आप सहयोग स्वरूप एक तरफ का रेल किराया वहन कर सकें तो हम ऐसी कोशिश का स्वागत करेंगे। इस प्रक्रिया का मकसद इस आयोजन को ज्यादा स्थायी बनाना है।
आयोजन सम्बन्धी सूचनाएँ हम जारी करते रहेंगे। आपसे निवेदन है कि आप इस पत्र के साथ दिया गया एक फार्म भरकर हमें ईमेल कर दें।
आपके साथी
राकेश दीवान, 9826066153
सचिन कुमार जैन, 9977707847
राकेश कुमार मालवीय 9977958934
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Post By: Editorial Team