सुदीप बनर्जी

सुदीप बनर्जी
नदियाँ मेरे काम आईं
Posted on 18 Oct, 2013 03:38 PM
जहाँ भी गया मैं
नदियाँ मेरे काम आईं

भटका इतने देस-परदेस
देर-सबेर परास्त हुआ पड़ोस से
इसी बीच चमकी कोई आबेहयात
मनहूस मोहल्ला भी दरियागंज हुआ

पैरों के पास से सरकती लकीरें
समेटती रही दीन और दुनिया
काबिज हुई मैदानों, बियाबानों में
जमाने की मददगार
किनारे तोड़कर घर-घर में घुसती रही

सिरहाने को फोड़ती सुर सरिता
वहाँ तो अब भी इंद्रावती
Posted on 18 Oct, 2013 03:36 PM
वहाँ तो अब भी इंद्रावती
शालवनों के लिए
गुनगुनाती हुई

सारी-सारी रात सुलगते पहाड़
पूरा धरती के बचपन को फिर से
सोचते हुए

और तमाम सागरतटों का शोर
इस रात को इस कदर
बेचैन करवटों में फेंकते हुए

यह कैसा शायर होना
चौकन्ना और डरा
अपने कल होने में
सारी रात छिपता हुआ।

1995

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