सत्येन्द्र शर्मा

सत्येन्द्र शर्मा
मेरा गांव
Posted on 31 Aug, 2010 01:29 PM
यह कैसी विडम्बना है कि किसी भी राष्ट्र जीवन के स्थूल और नकारात्मक चिह्न दूसरे देश, विशेषकर भारत में जितनी जल्दी दिखाई देने लगते हैं, शायद ही किसी दूसरे देश के जातीय जीवन में उतनी जल्दी दिखाई देते हों? यह बात इसलिए ज्यादा बल देकर रेखांकित करना जरूरी है क्योंकि हमारे राष्ट्रीय जन-जीवन में पर्यावरण के प्रतिगामी और विनाशकारी लक्षण जितनी तेजी से दिखाई पड़ रहे हैं, वैसी प्रवृत्तियां एक समृद्ध पर्यावरणीय चिन्तन वाले देश में पनपना आत्मवंचना का साक्षात प्रमाण है।अपने वर्तमान नगरीय आवास से मात्र 65-70 किलोमीटर दूरी पर स्थित जब-जब अपने गांव सिवान जाता हूं तो पहुंचते ही मुझे वह नाला दिखाई देता है, जिसमें मेरे शैशव और कैशौर्य ने कितने संक्रान्ति कालों में डुबकियां लगाकर देह और मन की तपन शान्त की है। कितनी वर्षा ऋतुओं में तट की वर्जनाओं को तोड़कर मन के उच्छल आवेग को तरंगायित होने का अवसर हाथ लगा है। यह नाला हमारे गांव की जीवन रेखा था।

सुनता रहता था, उस नाले का स्रोत केंद्र कोई अनाम छोटा सा झरना है और देखता रहता था कि उस अनाम झरने से प्रवाहित होने वाली अक्षय और अनन्त जलराशि अपने जनपद के मेरे सबसे बड़े गांव के मनुष्य सहित सभी जीवधारियों और खेतों की प्यास बुझाने वाली संजीवनी धारा है। इस नाले की आद्रता गांव के समूचे कुओं और तालाबों की धमनियों में भी रक्त संचार किए रहती थी। राष्ट्रीय स्वतंत्रता के विकास के पहले चरण अर्थात पांचवें दशक में अचानक गांव में पेयजल टंकी और नलों में उपलब्ध कराया जाने लगा। कुएं अनुपयोगी मानकर कचरों के भण्डार में तब्दील होने लगे और उपेक्षित पड़े तालाब अपना अस्तित्व खोने लगे।

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